Thursday, October 8, 2015

कुछ बौद्धिक लोगों व लेखको द्वारा अपने पुरुस्कार लौटाये दिए जाने की खबर आई है। सवाल ये है की ये शख्स बौद्धिक है या बौद्धिकता की राजनीती के खेमेबाज। असली बौद्धकता ना तो अंधी होती है, ना बहरी और ना ही गूंगी , ना ही चीजों को उसकी तीवत्रता के अनुपात से बढ़ा कर दिखाती हैं और न उसे घटाकर दिखाती है। यदि यह राजनीती और धर्म के गलियारों में घुसती भी है तो उसकी दृष्टि विहंगम होती है ना की एक प्रचलित कोने का दीदार करती है। उसे satellite उपग्रह की तरह समूची दुनिया के हर कोने की तस्वीर दिखती है। जब समूचा तस्वीर बौद्धिकता के कैनवास पर नहीं उतरता तब वह राजनीती के एक फैसनपरस्त खेमे का सहारा लेकर बौद्धिकता का प्रभाव नहीं आंतंक प्रस्तुत करती है।
क्या कुछ कुछ खेमेबाज बौद्धिकों का दिमाग इस कदर असंतुलित और नासमझ हो चुका है जिसमे पुरुस्कार लौटने वाले केवल शामिल नहीं हैं, एक धर्म विशेष के कुरीतियों, अंधविस्वासों जो गुजरे ज़माने का सच हो चूका हो , जिसमे सुधार की हवाओं की खिडकिया कभी बंद नहीं हुई हों उस पर आप लगातार आक्षेप लगाते जाएं और जिन धर्म विशेष ने पिछले हज़ार सालों से राजनितिक दलों की तरह अपने को संगठित करने की आड़ में सुधारो की खिड़कियों को हमेशा बंद रखे हों, जिनमे समूची दुनिया में हिंसा के क्रूरतम संगठन बनने की होड़ लगी हो, उन्हें यह सब एक बौद्धिक होकर भी नहीं दिखता। बौद्धिकता केवल सचाई , निष्पक्षता, संवेदनशीलता और वैज्ञानिक अध्ययनों से चलती है जिसमे हर सही को सही और हर गलत को गलत करने का सहस होता है। मुझे ख़ुशी है की तारेक फ़तेह और तस्लीमा नसरीन जैसे बौद्धिक शख्सियत ऐसे पाखंडी और एक आँख से देखने वालों का पर्दाफाश कर रहे हैं।

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