Tuesday, October 6, 2015

गांधी को जो मैने समझा

गांधी को वास्तविक और वैज्ञानिक रूप से समझने के लिये यह बड़ा जरूरी है कि उन्हें महात्मा गांधी के पहले मोहन दास गांधी नामक व्यक्ति के रूप में परखा जाए। हम आम तौर पर गांधी को महात्मा गांधी के बतौर ज्यादा आकलन करते हैं,विचारते हैं वह उपमा जो उन्हें उनके पचास पार के उम्र में प्राप्त हुई है। वह मोहन दास जो पहले इंगलैंड में अपनी बैरिस्टर की शिक्षा के दौरान समय बिताये, तदंतर दक्षिण अफ्रीका में 22 सालों का एक लंबा पेशेवर व सार्वजनिक जीवन जिया। वहां के जद्दोजहद को झेलते हुए अपने सिद्धांतों, संस्कारों, उसूलों, प्रेरणा प्रकल्पों तथा अपने अनुभवों के जरिये अपने जीवन के कई पड़ावों को पार किया। इस दौरान उनका तीन बार भारत आगमन भी शामिल है। यह वही दौर है जिस दौरान मोहन दास ने महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की आधारशिला निर्मित की। 1914 में जब मोहन दास का भारत भू भाग पर स्थायी तौर पर अपने सामाजिक राजनीतिक एजेंडे के साथ अवतरण हुआ तब गांधी अपने जीवन को एक तरह से सन्यस्त आश्रम की ओर मोड़ चुके थे। उनका खान पान, वेश भूषा, रहन सहन बिल्कुल बदला हुआ था जिस पर पिछले दस सालों में वह द0 अफ्रीका में कई सारे प्रयोग, मंथन और मनन कर रहे थे।
मोहन दास के व्यक्तित्व पर कई लोगोंं का प्रभाव पड़ा, परंतु प्राथमिक तौर पर उनके व्यक्तित्व पर देखा जाए तो उन पर उनके अपने परिवार के संस्कारों की गहरी छाप दिखायी देती है जिसमे उनक। मां बाप व परिवार तथा स्कूली जीवन का अनुभव सभी शामिल हैं। गांधी के जीवन पर हिंदू धर्म की छाप बेहद प्रखरता से दिखायी देती है जिसे उन्होंने अपनी धर्मपरायण माताजी से प्राप्त किया था जो साल में करीब चार महीने उपवास पर ही रहती थी। मोहन दास के व्यक्तित्व में सेवा भाव की प्रबल भावना उसी समय घर कर गयी थी जब वह अपने स्कूली दिनों में ही अपने बीमार पिताजी की घंटों सेवा सश्रुषा में बिताते थे। बचपन के दिनों में मोहनदास के मनमस्तिष्क पर श्रवण कुमार की कथा जिसे उन्होंने एक नाटय़ मंचन के दौरान दिखा का गहरा प्रभाव पड़ा। इससे उन्हे अपने मा पिता की सेवा की प्रेरणा मिली। अपने पिता की मृत्यु के करीब आधे घंटे पूर्व तक वह अपने पिता के पैरो की मालिश कर रहे थे। मोहनदास पर दूसरा प्रभाव उनके स्कूली दिनों में राजा हरिश्चंद्र नाटक का पड़ा जिसके जरिये उन्हें सत्य के लिये किसी भी तरह के समझौते नहीं करने की सीख मिली। ये दो दृष्टांत ऐसे थे जो मोहनदास के जीवन को उम्र पर्यन्त दिगदर्शित व निर्देशित करते रहे। मोहन दास में शाकाहार के प्रति लगाव, मद्यनिषेध की भावना उनके परिवार की बदौलत ही आई थी तथा गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से करूणा और अहिंसा के प्रति गहरी आस्था जगी।
एक समय ऐसा था जब मोहन दास अपनी स्कूली दिनों में अपने मित्रों तथा भाई की शागिर्दी में मांसाहार, मदिरा तथा धूम्रपान का भी अनुभव लिया परंतु बाद में इसपर घोर पाश्चाताप किया तथा आजीवन इससे दूर रहे।
गांधीजी के मूल आदर्शों जिनमे सत्य व अहिंसा, सत्याग्रह, सादा जीवन, आत्मनिर्भरता, सामुदायिक कार्य, शोषण के खिलाफ विनम्रतापूर्ण प्रतिक्रिया, अधिकारियों के प्रति व्यवहारकुशलता, प्राकृतिक जीवन व चिकित्सा के प्रति गहरी आस्था, अपने आहार को लेकर बेहद सजगता व संवेदनशीलता। ये सारी चीजें उन्होंने किसी विचारधारा व बौद्धिक तिलिस्मों के प्रभाव में आकर नहीं बल्कि अपनी अंतरदृष्टि और उसकी उपादेयता के मुताबिक गढ़ा। उन्होंने अपने जीवन के सारे दृष्टांत अपने परिवार, मां बाप, स्कूली शिक्षा, अपने धार्मिक रीति रिवाजों से हीं मुख्य तौर पर प्राप्त किया जिसके जरिये उन्हें शाकाहारी भोजन, मदिरा पान के प्रति अनासक्ति,स्वच्छता के प्रति बेहद लगाव और अपने संवाद में अतिशय विनम्रता तथा ईश्वर के प्रति गहरी आस्था जैसे गुणों को अपनी पहचान बनाया। हालांकि इसका मतलब ये नहीं कि गांधी के जीवन में बौद्धिक संवादों और पुस्तकीय अध्ययनों का प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि इनका भी खूब प्रभाव पड़ा। चूंकि गांधी जी के व्यक्तित्व में धर्म व ईश्वर के प्रति आस्था बेहद अंतरजात थी इसलिये उन्होंने अपने लंदन में बैरिस्टरी की पढ़ाई में बिताये गए वक्त के दौरान विभिन्न धर्मों के कई पवित्र पुस्तकों का अध्ययन किया। बाद में वह थियोसाफी विचारधारा के बेहद करीब आए। इंगलैंड से लेकर दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान मोहन दास ने लियो टाल्सटाय रचित पुस्तक किंगडम आफ गॉड पढ़ी जिसने धार्मिक दर्शन के प्रति उनकी रूचि व ईश्वर की सत्ता जानने की उत्सुकता को भलिभांति पूरित किया। यही वजह है कि गांधी इस पुस्तक को अपने बेहद पसंदीदा पुस्तक मानते है जिसने उनके जीवन की दृष्टि को एक सम्यक दिशा देने में काफी मदद की।
मोहन दास के जीवन के मिशन को एक और बड़ा आयाम रस्किन लिखित पुस्तक अनटू द लास्ट से प्राप्त हुई जिसने उनके जीवन की दशा को निर्णायक मोड़ प्रदान कर दिया। इस पुस्तक का गांधी ने बाद में सर्वोदय नाम से गुजराती में अनुवाद किया। इस पुस्तक को पढऩे के बाद गांधी बंगले में रहने के बजाए आश्रम में रहने लगे। पेशेवर जीवन के साथ साथ श्रममूलक कार्यों में दिलचस्पी लेने लगे। इसके तहत उन्होंने जोहानेसबर्ग के पास फीनिक्स में खुले खेत में आश्रम स्थापित किया। इस आश्रम में बागवानी, दस्तकारी, बढ़इगिरी से लेकर शिक्षण,पत्रकारिता सभी तरह का कार्य होता था। द0अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के तिरस्कार, शोषण और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा को लेकर चल रही मुहिम को लेकर एक आंदोलनकारी गांधी के साथ एक पत्रकार गांधी का भी उदय हुआ। एक श्वेत पत्रकार मित्र के साथ उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपिनियन नाम से एक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। गांधी का यह पत्रकारीय जीवन उनके भारत में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भी अनेक पत्रों जिसमे गुजराती नवजीवन,यंग इंडियन के नाम से जारी रहा।
दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान गांधी को उनके कई ईसाई मित्रों ने उन्हें अपने धर्म की दीक्षा लेने के लिये दबाव डाला,उन्हें कई धार्मिक पुस्तकें भेंट की परंतु मोहन दास ने इन सभी पुस्तकों को विनम्रतापूर्वक पढ़ा पर इससे कभी प्रभावित नहीं हुए और उन्हें कहा कि बुद्ध का दर्शन ईसा मसीह के त्याग से कहीं बड़ा है जिससे मानवता का कहीं ज्यादा व्यापक कल्याण छिपा है। गांधी की अपने हिंदू धर्म और इसके रीति रिवाजों पर गहरी आस्था थी जिसकी वजह उनके परिवार के संस्कारों का भारी असर था। इसका मतलब यह भी नहीं था कि मोहन दास कोई रूढि़वादी हिंदू थे। जब मोहन दास बैरिस्टर की पढ़ाई के लिये लंदन जा रहे थे तो उस समय उनके परिवार बल्कि उनके रिश्तेदारों ने उनके विदेशगमन के खिलाफ यह कहकर विद्रोह कर दिया कि हिंदू धर्म में समुद्र गमन पाप है। उनकी मां ने कहा कि लंदन के गोरे ईसाई मांस व मदिरा का सेवन करते हैं। मोहन दास इसके बावजूद अपने भाई की मदद से लंदन गए पर अपने मां को मांस मदिरा नहीं खाने का वचन दिया जिसे उन्हें जीवन पर्यन्त निभाया। एक दौर ऐसा था जब मोहन दास लंदन में  शाकाहार रेस्तरां की खोज में पांच पांच किलोमीटर पैदल चलते थे। कई बार भूखे रह जाते थे। हिंदू धर्म में बलि प्रथा को लेकर मोहन दास काफी परेशान हुए। अपने कलकते प्रवास के दौरान एक बार वह काली मंदिर का दर्शन करने गए और वहां बली किये जानवरों के  खून की धार देखकर वह हिल से गए। इसी तरह बनारस में विश्वनाथ मंदिर घूमते वक्त मोहन दास जब वहां गंदगी का आलम देखा तो बेहद दुखी हुए। अछूतोद्धार को लेकर गांधी क ी मुहिम एक तरह से हिुदू धर्म की तत्कालीन व समकालीन परंपराओं के खिलाफ उनका एक क्रियात्मक विद्रोह ही तो था। परंतु इसके लिये उन्होंने क्रांति सदृश पाखंड का प्रदर्शन नहीं किया।
मोहन दास कभी भी चाहे उन पर शारीरिक हमला हुआ हो या मानसिक तिरस्कार, उसपर कभी भी प्रतिक्रियावादी नहीं रहे, हमेशा ही उस पर अपनी विनम्र प्रतिक्रिया देते थे। इस वजह से दक्षिणी अफ्रीका में कई गोरे अफसर व पुलिस अधिकारी गांधी के व्यवहार के कायल थे और उनके आग्रह जो दरअसल सत्य का आग्रह था, विनम्रता का आग्रह था, मानवता और करूणा का आग्रह था, उसे ठूकरा नहीं पाते थे। इन्हीें वजहों से मोहन दास ने द0अफ्रीका में भारतीयों के नागरिक अधिकारों के हनन के कई मामलों से लेकर हो या भारत में चंपारण के नीलहे किसानों के अत्याचार की रोकथाम को लेकर हो,खेड़ा किसान विद्रोह को शांत करने को लेकर हो, अहमदाबाद मिल मालिक व श्रमिक गतिरोध समाप्त करने क ो लेकर हो तथा देशव्यापी असहयोग आंदोलन हो इन सबमें गांधी ने अपने विनम्रतापूर्वक आग्रहों से अथोरिटीज को अपनी बात मनवाने के लिये मजबूर किया।
गांधी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू ये है कि कैसे वह व्यक्ति अपने सार्वजनिक जीवन में अपने आइडियोलोजी और आर्गेनाइजेशन का झंडा ढ़ोने के बजाए अपने व्यवहार, कर्म और स्वयं पर प्र्रयोग कर अपने एजेंडे को प्रदर्शित किया तथा लक्ष्य को प्राप्त किया। जब गांधी भारत में अपने सार्वजनिक जीवन में सामाजिक व राजनीतिक दमन के एजेंडे के प्रतिकार के लिये मैदान में उतरते हैं तो वह पूरे देश में एक छोटी धोती और गमछा पहनते है, यह किसी ढ़ोंग व पाखंड के तहत नहीं था बल्कि देश के प्रति व्यक्ति औसत कपड़े की उपलब्धता इतनी ही थी इसलिये गांधी ने इससे ज्यादा मात्रा में कपड़े के उपभोग से मना कर दिया। देश का आम आदमी रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करता है इसलिये गांधी ने रेल के तीसरे दर्जे में बैठ कर दशकों तक समूचे देश की यात्राएं की। वह मानते थे कि आम जन की समस्या को तभी परखा जा सकता है जब उसी के बराबर की जीवन सुविधाएं भोगी जाए।
विडंबना ये है कि भारत के सभी राजनीतिक दलों के नेता तथा सार्वजनिक जीवन में मौजूद लोग गांधी का प्रसंग हर समय दिखाते हैं पर गांधी सदृश जीवन जीने का सामथ्र्य उनमे किसी में नहीं। अनटू दी लास्ट पुस्तक पढऩे से पूर्व मोहन दास दक्षिण अफ्रीका में फर्नीचर युक्त अच्छे बंगले में रहना पसंद करते थे। बाहर जाने पर रेलवे प्लेटफार्म वगैरह पर रुकने के बजाए वह होटल के कमरे में रहना पसंद करते थे। रेलवे व समुद्री यात्राओं में प्रथम श्रेणी में यात्रा करना पसंद करते थे। उनका परिधान फ्राक सूट होता था जिसमे टाई व गलाबंद का पूरा ध्यान रखते थे। परंतु इस पुस्तक के बाद उनका जीवन आश्रमवासी का हो गया। आहार में केवल फल व नट़स पर आश्रित हो गए। ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने लगे। फीनिक्स से मोहन दास का जो आश्रमजीवन शुरू हुआ वह भारत में आकर अहमदाबाद, चंपारण में भितिहरवा तथा महाराष्ट्र के वर्धा आश्रम तक जारी रहा।
गांधी के जीवन का सबसे बड़ा संदेश ये था कि वह पाखंडी या हिपोक्रेट कभी भी नहीं रहे। वह जो भी थे वह अपने अंतरजात अंतरदृष्टि की वजह से थे जो घोर मानवीयता और संवेदनशीलता से ओतप्रेत था। सार्वजनिक जीवन में लबा वक्त गुजारने के दौरान कभी भी शो आफ नहीं किया। उनका जीवन हमें इस बात की शिक्षा देता है कि अगर आप सचमुच एक अच्छे व्यक्ति हैं, एक संवदेनशील प्राणी हैं, एक साफ हृदय व सदाशयी व्यक्ति हैं, एक उसूलपसंद व्यक्ति हैं, एक धैर्यवान व मृदुभाषी व्यक्ति हैं तो अपने घोर दुश्मनों के लिये भी बुरे नहीं हैं। बैरिस्टरी शिक्षा ग्रहण करने के बाद मोहन दास जब राजकोट में अपनी प्रैक्टिस करनी शुरू की तो वह वहां जम नहीं पाए तब किसी ने कहा कि आप मुंबई कोर्ट में प्रैक्टिस करें पर वहां भी पता चला कि वहां तो क्लाइंट कमीशन पर मिलते हैं जिस क्योटरी मे बैरिस्टर मोहन दास ने शामिल होने से मना कर दिया। ऐसा भी हुआ जब कई बार मिले केस को भी मोहनदास सुलझा नहीं पाए। मोहनदास यह बात समझ गए कि उनका पेशा बेहद तिकड़मी तरीके का है पर उन्हें अपनी आजीविका तो चलानी है। इस दौरान परिस्थिति कुछ इस तरह से निर्मित हुई कि उन्हें दं अफ्रीका के नेटाल प्रांत स्थित अपने भाई के परिचित एक मुस्ल्मि व्यवसायी के एक कानूनी विवाद में सहायक की नौकरी के लिये वहां जाना पड़ा।
वहां एक साल का काम पूरा करने के बाद जब मोहन दास वापस भारत लौटने की तैयारी में ही थे तभी वहां के एक स्थानीय अखबार में भारतीयों को प्रांतीय एसंबली में भागीदारी से प्रतिबंधित करने संबंधी एक खबर पढ़ी और यही से उन्होंने वहां के भारतीयों को एकजुट कर इंडियन नेटाल कांग्रेस की स्थापना की और इसके बतौर सचिव अपने सार्वजनिक जीवन की एक तरह से शुरूआत की। परंतु उनकी आजीविका का क्या होगा। लोगों ने उन्हें चंदे की पेशकश की परंतु मोहन दास को यह अच्छा नहीं लगा। अपने जीवन जीविका के लिये उन्होंने अपने साथी भारतीयों से आग्रह किया कि उनके जो भी कानूनी विवाद संबंधी केस हों उन्हें दिये जाए जिससे कि वह आजीविका चला सकें। धीरे धीरे मोहन दास ने वहां अपने पेशेवर जीवन को संस्थापित किया और तदंतर सुप्रीम कोर्ट आफ साउथ अफ्रीका के अटोर्नी बने। अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैं कि उन्होंने अपने पेशे में यह तय कर लिया कि ना तो वह ज्यादा चार्ज लेेंगे ना ही कम और वैसे ही केस अपने हाथ में लेंगे जिसमे उनके क्लायंट ने किसी तरह की धोखाधड़ी ना की हो।
गांधी जी के व्यक्तित्व की एक खासियत ये थी कि वह अपने सार्वजनिक जीवन में एक मीडिया संचारक के रूप में भी काम करते रहे। गांधी ने अपने दक्षिण अफ्रीकी संघर्ष के अनेंनानेक पहलू को भारत यात्रा के दौरान कांग्रेस पार्टी के जरिये और यहां के समाचार पत्रों के जरिये उठाया। कलकते के कुछ अखबारों ने उनके एक एक पृष्ठ का लंबा साक्षात्कार प्रकाशित किया तो इसी दौरान एक समाचार पत्र के संपादक ने अपने दफ्तर में उन्हें दो घंटे इंतजार करवा दिया। गांधी जी को पता था कि मीडिया की किसी सामाजिक मसले और लोक सेवा के मामले में एक बड़ी भूमिका है। इस वजह से वह अपना समाचार पत्र निकालते रहे।
गांधी जी पेशे से बैरिस्टर थे, हृदय से एक आध्यात्मिक व्यक्ति, दिमाग से एक आग्रही व्यक्ति, आत्मा से ईश्वर का अनुशासन मानने वाले, सिद्धांतों से एक नैतिकतावादी व्यक्तित्व,शरीर से श्रम के अराधक, पब्लिक एक्टिीविस्ट के रूप में एक पत्रकार, जीवन यापन से सन्यासी, भोजन के रूप में फलाहारी, चिकित्सक के रूप में हाइड्रोपैथ, संपत्ति संचयक के रूप में ट्रस्टी, धर्म के रूप में हिंदू पर धार्मिक दर्शन सर्वधर्मसमभाव का, व्यवहार में विनम्रता और अंग्रेजों की तरह धन्यवाद शब्द का बारंबर प्रयोगकर्ता और एक समाजिक प्राणी के रूप में हमेशा अपने सहकर्मियों पर विश्वास जताने वाले व्यक्ति थे।
गांधी जी के सार्वजनिक जीवन की एक और बड़ी खासियत थी कि सार्वजनिक गतिविधियों पर होने वाले खर्चे के लिये वह चंदे लेने में विश्वास करते थे और उसे तहे दिल से स्वीकार करते थे। दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक में गांधी ने अपने असंख्य दोस्तों, पेशेवरों और व्यवसायी मित्रों से चंदे व अनुदान प्राप्त की और आश्रम के खर्चे को पूरा किया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हंै कि मदनमोहन मालवीय चंदे के जरिये बड़े बड़े काम किये। उन्हें बड़े बड़े राजा महराजा अनुदान देते थे जिसकी बदौलत उन्होंने बनारस वि0वि0 से लेकर मथुरा के मंदिर तक का निर्माण कार्य किया। गांधीजी ने लिखा है कि इस मामले में मैं भी मालवीय जी से ज्यादा पीछे नहीं था। गांधी जी को दं0अफ्रीका में अपने पेशेवर जीवन के दौरान ढ़ेरो सोने चांदी व सामान मिले। वह समझ नहीं पा रहे थे कि इसका क्या करें। पत्त्नी का दबाव था कि इसे स्वीकार किया जाए क्योंकि बेटों की शादियों में सोने चांदी की जरूरत पड़ेगी पर उनकी अपनी नैतिकता और अंदर की पुकार इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था। तभी गांधी को ट्रस्टीशिप का ख्याल आया और उन्होंने इन सारे उपहारों को एक ट्रस्ट बनाकर सुपूर्द कर दिया।
हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि गांधीजी के एक शख्सियत के रूप में हुए उत् थान में उनका लंबे समय तक अंग्रेजी परिवेश में रहना भी एक कारक था जिससे उन्हें अपने सार्वजनिक जीवन के व्यक्तित्व गढऩे में सहायता मिली। हांलाकि गांधीजी ने इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को समझने के लिये अंग्रेजी का ज्ञान बेहद जरूरी है। गांधी का करीब  पच्चीस साल का शुरूआती शैक्षिक,बौद्धिक और पेशेवर जीवन विदेश में व अंग्रेजी पृष्ठभूमि में व्यतीत हुआ। इस वजह से उन्हें उनसे संवाद व व्यवहार स्थापित करने कभी दिक्कत नहीं हुई। गांधीजी के बारे में कुछ लोगों की ये धारणा होगी कि वे अंग्रेजों क। हर हाल में विरोधी थे तो उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिए। वह अंग्रेजों तथा ब्रिटिश साम्राज्य के एक अरसे तक लॉयल भी रहे जब उन्हें लगा कि जन अधिकारों के लिये उनका विरोध करना है तभी वह उनके विरोध के लिये खड़े हुए। 1899 में जब वह पहली बार साउथ अफ्रीका से भारत आए तो उन्होने तत्कालिन ब्रिटिश साम्राज्य के लिये स्वागत स्मृति तैयार किया। यहां तक कि 1914 में वह अफ्रीका से सीधे इंगलैंड पहुंचकर प्रथम विश्वयुद्ध के लिये ब्रिटिश रायल आर्मी के लिये स्वयंसेवक तैयार करना शुरू किया। 1920 में जब वह असहयोग आंदोलन के सिलसिले में पंजाब जाना था उन्होंने बिना वायसराय की अनुमति के वहां जाना उचित नहीं समझा। उन्हें जब अनुमति मिली तभी वह वहां रवाना हुए।
यह भी बात सही है कि मोहन दास गांधी एक हिंदू होते हुए मुसलमानों के प्रति बेहद समभावी दृष्टि रखते थे। खिलाफत आंदोलन का उनके द्वारा समर्थन की कई लोग आलोचना करते हेैं पर गांधी की एक्टिीविटी हार्डकोर इंटेलेक्चुअल सिद्धांतों पर नहीं चलती थी। उन्हें लगा कि भारत के मुसलमान दिल से तुर्की के खलीफा के प्रति श्रद्धा रखते हेंै तो ऐसे में उन्हें उनकी भावनाओं का समर्थन करना चाहिए और उन्होंने अली बंधुओं को इस मामले में खुल कर मदद की।
एक बार मुंबई में गांधीजी ने हिंदू मस्लिम एकता को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित किया। वह इसमे लोगों की बेहद कम उपस्थिति देखकर बेहद चकित हो गए क्योंकि और कार्यक्रमों में वह इससे कई गुनी ज्यादा भीड़ देखा करते थे। उन्होंने इस प्रसंग पर लिखा कि यह कितनी बड़ी विडंबना है कि पक्षपाती और रोमांचक चीजें उभय पक्षों को आकर्षित करती हैं लेकिन रचनात्मक विचारों और प्रयासों का समाज में कोई भी पक्ष नामलेवा नहीं होता। गांधी का यह कथन आज के दौर में कहीं ज्यादा युक्तिसंगत लगता हेै।
यह भी कहना उचित नहीं होगा कि गांधी केवल एक एक्टिीविस्ट थे, बल्कि वह एक मौलिक बौद्धिक और दार्शनिक थे जिनके विचार विभिन्न धार्मिक व वैचारिक दर्शनों की भ_ी में तपकर तैयार हुआ था और जिनकी जड़े भारतीय दर्शन के इर्द गिर्द ही पैठी हुई थीं। आज की दुनिया जो भयानक राजनीतिक हिंसा और सामूहिक हिंसा की शिकार है उस मर्ज की सबसे बड़ी दवा सत्य व अहिंसा के गांधी के सिद्धांत में छिपी हेै। उनका सत्याग्रह का सिद्धांत लोकतांत्रिक तरीके से विरोध दर्शाने का एक बहुत बड़ा उपकरण साबित हुआ हेै। उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धांत पूंजीवाद के नग्र रूप क ो सार्थक बनाने तथा संपत्ति के लालच की रोकथाम की दवा है। स्वच्छता के प्रति उनकी भावना लोगों को अपने व्यक्तिगत व सार्वजनिक स्थलों की सफाई के लिये समय और श्रमदान करने के लिये प्रेरित करती है।  उनका सादा जीवन का सिद्धांत खर्चीले व विलासी जीवन शैली के प्रति विरक्ति लाता है।
ब्रह्मचर्य में उनका विश्वास आत्मा और मस्तिष्क के शुद्धीकरण का एक बड़ा अस्त्र है। उनके बुनियादी शिक्षा का सिद्धांत छात्रों के उद्देश्यपरक जीवन व उनके नैतिक व पेशेवर स्वास्थ्य वर्धन के लिये लाभदायक है। उनका स्वदेशी का सिद्धांत घरेलू व मैन्युफैक्चरिंग उद्योग को संबल प्रदान करने वाला था। मीडिया के प्रति उनका दृष्टिकोण इसे बदलाव लाने व जनमत निर्माण करने के एक यंत्र बनाने का था। उनके अछूतोद्धार का दृष्टिकोण सामाजिक समानता का मंत्र था। प्रार्थना की अवधारणा अपने को सर्वशक्तिमान के समक्ष आत्मसमर्पण करने का था। सेवा भाव के प्रति उनका समर्पण मानवता के पूजारी का था। सार्वजनिक कार्य में होने वाले व्यय के प्रति उनका दृष्टिकोण चंदे पर आधारित था जिसे वह पारदर्शी रखना चाहते थे। गांधीजी का समूचा सार्वजनिक जीवन हमे यह बताता है कि कैसे कोई सामुदायिक सेवा ईमानदारी, निष्ठा, निस्वार्थ और बिना किसी राजनीतिक न ीयत के की जाती है। गांधी एक धर्मपरायण व्यक्ति थे परंतु उन्होंने पाखंड का इस्तेमाल नहीं किया और धर्म का उपयोग अपने को अनुशासित व नैतिक बनाने के लिये किया। उनके ईश्वर से डरने का आशय अपने को गलत व अनैतिक कार्यों से बचाने के लिये था और अपने कार्य व चिंतन को सही दिशा में ले जाने के लिये था। सबसे विलक्षण पहलू गांधी का यह था कि अपने सार्वजनिक कर्म कें दौरान उन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल का आतंक निर्मित नहीं किया क्योंकि वह राजनीतिक श्रेय कभी लेना ही नहीं चाहते थे।
दूर्भागय यही था कि इस महामना को अपने अंतिम दिनों में देश के विभाजन का स्वरूप देखना पड़ा और कई गलतफहम लोगों का कोपभाजन बनना पड़ा। परंतु जो लोग गांधी को असल में समझते हैं वे हमेशा इस बात को स्वीकार करेंगे कि इस दुनिया में एक ऐसा मसीहा आया जो पूरी दुनिया में फकत मानवता के लिये जिया और किया।

No comments:

Post a Comment