एक व्यक्ति ने लिखा की बीजेपी ने उस अरुण शौरी की बली दे दी जो वामपंथ की बौद्धिक रूप से सबसे ज्यादा बढ़िया विधेरता था। परन्तु मैं यह कहना चाहूंगा की वामपंथियों को एक्सपोस उन्ही के प्रतिमानों से ही ज्यादा किया जा सकता है। इसके लिए हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की तथाकथित विचारधारा और उनके ब्रांडेड तर्कों को दुहराने की जरूरत नहीं है। मिसाल के तौर पर सेकुलरिज्म, लेबर वेलफेयर,असंगठित मजदूर, theocracy और डेमोक्रेसी पर उनके चिंतन और कृत्य उनको एक्सपोस करने लिए काफी है। दिक्क्त ये है की वामपंथ के विरोधियों के पास बौद्धिक निर्बलता प्रचुर है और तर्क कमज़ोर है। मिसाल के तौर पर सेकुलरिज्म जैसे महान शब्द से दक्षिणपंथियों को डर लगता है, क्यों डर लगता है जबकि इसका असली उल्लंघन वामपंथी करते है। क्या आप भी इस्लामिक स्टेट की तरह हिन्दू स्टेट बनाना चाहते है? अगर बनाना चाहते है तो वह हिंदुत्व की मूल सहिस्णु प्रवृति के प्रतिकूल है।
गरीब असंगठित और अप्रशिक्षित मज़दूरों को आगे बढ़ने के बजाए वाइट कालर वाले कर्मचारियों के सवालो को वामपंथी ज्यादा प्रमुखता से उठाते है। ये वो कर्मचारी है जो भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट है जिन्हे मैं पूंजीपतियों से ज्यादा बड़ा जनविरोधी मानता हूँ।
धर्म अफीम का नशा है, परन्तु संगठित धर्म की सबसे ज्यादा विश्वव्यापी मार्केटिंग करने वाले इस्लाम और ईसाई धर्म की करतूतो से वामपंथियों की आंतरिक सहमति है। भारत के मामले में इनके रोल कुछ ज्यादा ही खतरनाक थे। इस्लाम के नाम पर अलग देश पाकिस्तान बनाने का इन्होने खुलेआम समर्थन किया। ये अपने को प्रगतिशील और उदार किस बिना पर कहते है जब दुनिया के सबसे अप्रगतिशील और रूढ़िवादी धर्म इस्लाम को अपना वर्ग शत्रु बनाने के बजाये वर्ग मित्र बनाते है। यह ठीक है की इस्लाम की उत्पत्ति एक भाईचारे पर आधारित पंथ के रूप में हुई। क्या वामपंथी यह समझते है की यह धर्म उनके समतामूलक समाज के ज्यादा करीब है। अगर ऐसा है तो उन्हें खुलकर अपना वैचारिक स्पष्टीकरण दे देना चाहिए। परन्तु आज मैं नहीं बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवी इस बात को कहते है की हम कोई साइंस दान ना पैदा कर दहसतगर्द पैदा कर रहे है। आज किस देश के वामपंथी डल ने isis ,अलक़यदा ,तालिबान की मज़म्मत की। फिर वामपंथ काहे की प्रगतिशील और उदार विचारधारा कही जाएगी। भारत में मुसलमानो पर होने वाली ज्यादितियो को कई गुना अनुपात से बढ़ा चढ़ाकर हाई लाइट करना और इससे हज़ार गुना पाक और बांग्लादेश में अल्पसंख्यको पर होने वाली ज्यादितियों पर मौन रहना, ये कौन सा वैचारिक न्याय है।
भारत की जातीय व्यस्था भारत के सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी कोढ़ रही है, जिस पर भारत के हिंदुत्व के ठेकेदार समानता की कोई बड़ी पहल नहीं करते। पर जो सबसे बड़ा समाजविज्ञानी सच है की आर्थिक परिवर्तन सभी परिवर्तनों के मार्ग खोलती है आज उस मार्ग से देश का वही वामपंथ भटक गया है जिससे सबसे ज्यादा उम्मीद थी ,पर इन्हे भी भारत के समाजवादिओं की बीमारी लग गयी है। वामपंथी भी गरीब जातियों के सशक्तिकरण अजेंडे को लाने के बजाये उनकी जातीय राजनीती के समीकरण गढ़ने को ही सामाजिक न्याय का मुख्य एजेंडा बना लिया है।
अरुण शौरी एक पावरफुल राइटर थे, पर उनके राष्ट्रवाद के तर्क भारत की जमीनी सच्चाईयों और सामाजिक आर्थिक तथ्यों के बजाये युरोपीय फासीवाद के प्रतिमानों से ज्यादा सुसज्जित थे। विचारधारों की आपसी लड़ाई जब व्यक्ति , समाज के धरातल से ऊपर जाकर आसमानी धरातल पर होने लगे तो फिर उससे जनता जनार्दन का फायदा नहीं होता और जब जनता जनार्दन का फायदा नहीं होगा तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मायने?
गरीब असंगठित और अप्रशिक्षित मज़दूरों को आगे बढ़ने के बजाए वाइट कालर वाले कर्मचारियों के सवालो को वामपंथी ज्यादा प्रमुखता से उठाते है। ये वो कर्मचारी है जो भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट है जिन्हे मैं पूंजीपतियों से ज्यादा बड़ा जनविरोधी मानता हूँ।
धर्म अफीम का नशा है, परन्तु संगठित धर्म की सबसे ज्यादा विश्वव्यापी मार्केटिंग करने वाले इस्लाम और ईसाई धर्म की करतूतो से वामपंथियों की आंतरिक सहमति है। भारत के मामले में इनके रोल कुछ ज्यादा ही खतरनाक थे। इस्लाम के नाम पर अलग देश पाकिस्तान बनाने का इन्होने खुलेआम समर्थन किया। ये अपने को प्रगतिशील और उदार किस बिना पर कहते है जब दुनिया के सबसे अप्रगतिशील और रूढ़िवादी धर्म इस्लाम को अपना वर्ग शत्रु बनाने के बजाये वर्ग मित्र बनाते है। यह ठीक है की इस्लाम की उत्पत्ति एक भाईचारे पर आधारित पंथ के रूप में हुई। क्या वामपंथी यह समझते है की यह धर्म उनके समतामूलक समाज के ज्यादा करीब है। अगर ऐसा है तो उन्हें खुलकर अपना वैचारिक स्पष्टीकरण दे देना चाहिए। परन्तु आज मैं नहीं बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवी इस बात को कहते है की हम कोई साइंस दान ना पैदा कर दहसतगर्द पैदा कर रहे है। आज किस देश के वामपंथी डल ने isis ,अलक़यदा ,तालिबान की मज़म्मत की। फिर वामपंथ काहे की प्रगतिशील और उदार विचारधारा कही जाएगी। भारत में मुसलमानो पर होने वाली ज्यादितियो को कई गुना अनुपात से बढ़ा चढ़ाकर हाई लाइट करना और इससे हज़ार गुना पाक और बांग्लादेश में अल्पसंख्यको पर होने वाली ज्यादितियों पर मौन रहना, ये कौन सा वैचारिक न्याय है।
भारत की जातीय व्यस्था भारत के सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी कोढ़ रही है, जिस पर भारत के हिंदुत्व के ठेकेदार समानता की कोई बड़ी पहल नहीं करते। पर जो सबसे बड़ा समाजविज्ञानी सच है की आर्थिक परिवर्तन सभी परिवर्तनों के मार्ग खोलती है आज उस मार्ग से देश का वही वामपंथ भटक गया है जिससे सबसे ज्यादा उम्मीद थी ,पर इन्हे भी भारत के समाजवादिओं की बीमारी लग गयी है। वामपंथी भी गरीब जातियों के सशक्तिकरण अजेंडे को लाने के बजाये उनकी जातीय राजनीती के समीकरण गढ़ने को ही सामाजिक न्याय का मुख्य एजेंडा बना लिया है।
अरुण शौरी एक पावरफुल राइटर थे, पर उनके राष्ट्रवाद के तर्क भारत की जमीनी सच्चाईयों और सामाजिक आर्थिक तथ्यों के बजाये युरोपीय फासीवाद के प्रतिमानों से ज्यादा सुसज्जित थे। विचारधारों की आपसी लड़ाई जब व्यक्ति , समाज के धरातल से ऊपर जाकर आसमानी धरातल पर होने लगे तो फिर उससे जनता जनार्दन का फायदा नहीं होता और जब जनता जनार्दन का फायदा नहीं होगा तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मायने?
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