Saturday, October 31, 2015

मुझे बड़ी हैरत होती है जब सामाजिक न्याय का हवाला देकर यह कहा जाता है की लालू ने बिहार में कमज़ोर जातियों को जबान देने का काम किया। मुझे लगता है की यह एक निहायत गलत तथ्य है। मै भी बिहार का हूँ और बिहार के सामाजिक और प्रशासनिक जीवन को बेहद सूक्ष्मता से देखा हूँ। लालू ने वहा कमज़ोर जातियों का बेहतरीन राजनीतिकरण किया यह सच है ,परन्तु अपने सत्ता समीकरण को मज़बूत करने में। ये वह दौर था जब लालू अपनी कैबिनेट मीटिंग ना कर पुरे राज्य में जातीय रैलियों के ताबड़तोड़ आयोजन में पुरे तौर पर मशगूल थे। इससे कमज़ोर जातियों की जुबान जरूर जगी, पर सिर्फ और सिर्फ चुनाव के वक्त , वह भी इसीलिए की उन कमज़ोर जातियों के एक दो प्रतिनिधियों को लालू ने चुनावी टिकट दे दिया था जिन्हे पहले किसी पार्टी ने नहीं दिया। परन्तु वे करोडो कमज़ोर लोग बाकी दिनों में वैसे ही बेजुबान रहे, अपनी पहले से ज्यादा भ्रष्ट व्यस्था के समक्ष, जिसमे दशको तक सड़के नहीं बनी , विकास बिलकुल ठप्प , सामाजिक आर्थिक योजनाये का पलीदा हो चूका था , फिरौती चरम पर, जहां अपहरण सबसे बड़ा उद्योग और केंद्र से आने वाले सारे पैसे सरेंडर हो जाते थे। जब चोरी की हुई गाडी मुख्यमंत्री आवास में मिला करती थी। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित कौन हुआ था , वही कमजोर ,पिछड़ी दलित बेजुबान जाती जो वर्षो से बेजुबान रहते चली आ रही थी वह तब भी थी और आज भी थी । लालू के इस कृत्य से इनके वर्ग शत्रु ऊँची जातियों का कुछ नहीं बिगड़ा। इनका राजनितिक प्रतनिधित्व कुछ प्रतिशत घट गया परन्तु उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत वही थी पर पीस रही थी वही पिछड़ी जनता।
उन बेजुबान जातियों और कमज़ोर वर्ग लोगों को नितीश भाजपा राज में पहली बार सरकार नाम से सरोकार हुआ और इसी समय से उन बेजुबान जातियों को जुबान मिला। जब हर क्षेत्र में बजट खरचना संभव हुआ। तबके बाद बिहार में कमज़ोर जातीया अपने उठान के बाद भी अभी और अभी और कहने का आत्मबल प्राप्त कर पायी है। जबकि लालू राज में उनके मतदाता उनसे यदि सड़क पुल बनाने की गलती से मांग कर देती थी तो लालू की नज़र में उनकी खैर नहीं होती थी।

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