Monday, October 12, 2015


चुनावी लोकतंत्र में मतदाता की वही हैसियत है जो बाजारवादी व्यस्था में उपभोक्ता की । जिस तरह से कंज्यूमर इज दी किंग किसी भी मार्किट इकॉनमी का सबसे प्रचलित जुमला है वही लोकतंत्र में मतदाता ही राजा है, यह जुमला उतना ही महत्वपूर्ण है। परन्तु हमारा यह लोकतंत्र दरअसल परोक्ष लोकतंत्र है। इसीलिए तो यह असल में पार्टी चालित लोकतंत्र है। हमारे इस दलीय नहीं बल्कि बहुदलीय लोकतंत्र में मतदाता भी दो तरह के होते हैं पहला पार्टीसन वोटर्स यानी किसी पार्टी विशेष के अंध समर्थक वोटर्स जो हर हाल में अपनी पार्टी अच्छी हो या बुरी अपनी पार्टी के साथ बंधे रहते है और उन्हें वोट करते हैं। दूसरे वोटर्स फ्लोटिंग वोटर्स कहलाते हैं ,जो पार्टियों के प्रदर्शन के हिसाब से अपना समर्थन बदलते रहते हैं। यह आम तौर पर माना जाता है की पार्टीसन वोटर्स वही होते है जो अपनी पहचान यानी जाती धर्म प्रान्त भाषा संस्कृति के प्रति व्यामोहित होते हैं ,पार्टी नेतृत्व से भावुक लगाव, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लालच की वजह से किसी पार्टी विशेष के साथ बंधे होते है ।
फ्लोटिंग वोटर्स केवल और केवल सत्ता और विपक्षी दलों के प्रदर्शन के आधार पर ही किसी पार्टी के प्रति अपने वोट का मन बनाते हैं।
सच्चा लोकतंत्र वह है जहा फ्लोटिंग वोटर्स की तादाद ज्यादा है। पर विडम्बना ये है की हमारे 85 प्रतिशत मतदाता पार्टीसन किस्म के ही है और सिर्फ 15 प्रतिशत फ्लोटिंग है।
इसी तरह मीडिया जो लोकतंत्र का चौथा खम्बा है उसे तटस्थ रहना सच्चे और अच्छे लोकतंत्र के लिए उतना ही जरूरी है जितना न्यायपालिका का। परन्तु मीडिया को संविधान में मान्यता नहीं दिये जाने से इसे पूंजीपतियों के अधीन होकर गुलाम मानसिकता में किसी पार्टी लाइन पर चलने को बाध्य होना पड़ता है। अभी ऊपरी तौर पर लोग स्वीकार ना करें पर भीतरी तौर पर अधिकतर मीडिया किसी न किसी राजनीतिक खेमों में बटे हुए है। देश में राजनीतिक सुधार के अनगिनत मामले जिसके पहरुए मीडिया को बनना चाहिए वह राजनीतिक सुधार के मुद्दे राजनीतिक दलों के जिम्मे छोड़े हुआ है। और हो क्या रहा है की जिस तरह से प्रतियोगी बाजार व्यस्था में कंपनिया आपस में गठबंधन जिसे कार्टेल कहा जाता है बना कर कंस्यूमर को किसी और दुकान में जाने का मौका ही नहीं देती है। इस बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र में भी राजनीतिक सुधार के मुद्दे पर सभी पार्टियों ने अपना कार्टेल बना लिया है की इसे सुधारना ही नहीं है।
इनही सब बातों का नतीजा है की सुधारों के प्रतीक माने जाने वाले नमो की पार्टी भाजपा राजनीतिक सुधारो के प्रति कितनी लापरवाह है जिसने सर्वाधिक 52 फीसदी दागी लोगों को चुनावी टिकट दिया। पिछली बार ऐसा ही जदयू और रजद में भी था। इस पर यह लोग ये जबाब देंगे की टिकट चुनाव जितने की क्षमता देखकर दिए जाते हैं। यदि ऐसा है तो पैसे और ताकत से भी अबतक चुनाव जीते जा रहे थे तो अब उसपर नकेल क्यो डाली गयी क्योकि यह सच्चे लोकतंत्र के प्रतिकूल था ऐसे ही अच्छे कैंडिडेट भी लोकतंत्र के लिए बेहद अनुकूल चीज है।
बात चली है फ्लोटिंग वोटर्स की, मीडिया की तो अब बात की जाये सोशल मीडिया तो इसका हाल माशाअल्लाह। करीब करीब सारा सोशल मीडिया दो लाईनों पर बटा हुआ है। कन्वेंशनल मीडिया में तो तटस्थता का लिहाज भी होता है पर यहाँ तो हर व्यक्ति माउथपीस ही लगता है।

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