पहचान की राजनीती से वोट प्राप्त करना आसान होता है पर सरकार,समाज और प्रशासन की राहें कितनी कठिन हो जाती है लोग इसका अंदाज़ा नहीं लगा पाते है। प्रसंग तो बिहार में चल रहे चुनाव का भी बनेगा। वहा हर बड़ी पार्टी ने खासकर एनडीए और महागठबंधन ने पहचान के अपने अपने दांव तैयार रखे है। दोनों के असली गवर्नेंस के अजेंडे में ज्यादा असमानता नहीं है। क्योकि नीतीश सुशासन के प्रतीक रहे है और भाजपा के संभावित उम्मीदवार सुशील मोदी भी सिद्धहस्त प्रशासक है पर उन्हें नीतीश की तरह उन्हें अभीतक प्रोजेक्शन नहीं मिला है। गवर्नेंस के मामले में महागठबंधन पर शक की सुई लालू की विगत की शैली रही है जिसे एनडीए जंगल राज पार्ट २ के रूप में खूब प्रचारित कर रहा है। पर जीत का असली अंतर पहचान के जुमले से होगा जिसके लिए दोनों समूह एक दूसरे की जबान फिसलने का इंतज़ार करते है। आरएसएस प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा की बात की तो जाती की पहचान पर मूल रूप से काम करने वाले महागठबंधन ने पिछडो की भावना उकसाने में थोड़ी भी देर नहीं की और अगड़ा और पिछड़ा का कार्ड तुरत खेल दिया। इसी तरह लालू ने कुछ हिन्दुओ के भी गोमांस खाने की बात कही तो बीजेपी ने उसे मुद्दा बना दिया।
सवाल यह है देश की बौद्धिक मनीषा और लोकतान्त्रिक सुधारो के प्रवर्तक क्या देश की राजनीती का यही तमाशा देखेंगे या देश की समूची चुनावी रीती नीति में पहचान के तत्त्व को उखाड़ फेंकने की भी कोई कवायद करेंगे।
मुझे लगता है की लोगों से हमें यह अपील करनी चाहिए की आप ना तो पार्टी, ना तो जाती , ना तो पैसा और ना ही पाउच पर वोट करें, सिर्फ और सिर्फ सबसे वाज़िब उम्मीदवार को वोट करें अन्यथा किसी को वोट नहीं करें। इससे पार्टियों को भविष्य में सुधरने की सीख मिलेगी और संवैधानिक सुधारों के लिए यही बाध्य होकर आगे आएंगे।
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