Wednesday, July 13, 2022

संविधान के उल्लंघन का आरोप ही अपने आप में एक झूठा आक्षेप

 अभी कुछ दिनों पहले हिंदूवादी संगठनों ने राजधानी दिल्ली में कन्हैयालाल की गलाकाट हत्या के विरोध में एक बड़ी रैली निकली थी। इस रैली में इस बात की तख्ती लिखी ज्यादा दिखाई पड़ी की देश संविधान से चलेगा, ना की शरीया से। हैरत इस बात से हुई की अधिकतर मुस्लिमवादी संगठन और बुद्धिजीवी जो इस बात की दुहाई देते है की देश संविधान से नहीं चलाया जा रहा है, संविधान को कुचला जा रहा है। पर यह आरोप जिनपर लगाया जाता था वह सवयं संविधान की मांग कर रहे है और मुस्लिमो की पसंद शरीया की मजम्मत कर रहे है।

दरअसल बात ये है की संविधान के उल्लंघन का आरोप ही अपने आप में एक झूठा आक्षेप है। क्योंकि भारत में कोई सरकार संविधान क्या विधान का भी उल्लंघन नहीं कर सकती। बल्कि इनमे संसोधन की भी लम्बी प्रक्रिया है। जहा तक मोदी की बात है तो उन्होंने संविधान को ज्यादा इज्जत दर्शाते हुए बजाप्ता संविधान दिवस 26 नवम्बर घोषित किया है। हाँ जिन दलों को अपने पहचान के कारको का या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की तुष्टिकरण का काम करना होता है वे संविधान , विधान से इतर अपने प्रशासनिक आदेशों और फैसलों के जरिये इन्हे अंजाम देते है। दूसरा हिन्दुवादिओं के लिए कोई वैकल्पिक विधान है भी नहीं। जबकि इस्लाम दुनिया के अधिकतर देशो में संविधान के मुताबिक नहीं बल्कि शरीया और इस्लामिक कानून के जरिये चलता है। अब देखना ये है की भारत में संविधान के नाम पर कौन मिसलीड कर रहा है।
दरअसल भारत में मुस्लिम संविधान की ज्यादा दुहाई इसीलिए देते हैं क्योंकि भारत के विभाजन के बाद उन्हें भारत के सेक्युलर और सब धर्म के लिए जगह की नीति के प्रति आभार प्रकट करने और विभाजन करने वालो के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाने के बजाये उन्होंने अपनी परिस्थिति रोटी बेटी और जगह जमीं की खातिर भारत में ही बने रहने को भारत देश के प्रति उलटे अपना एहसान जताते रहे। दूसरा उन्होंने एक सेक्युलर देश भारत में भी संविधान सभा के जरिये अपने अलग मुस्लिम पहचान , मदरसा और शरीया के अस्तित्व के लिए पूरी ब्लैकमेलिंग और दबाव डालकर मौलिक अधिकारों के तहत धार्मिक शिक्षण संस्था का अधिकार लिया।
इसीलिए जब जब भारत्त की तमाम पहचानो से चलने वाली राजनीती में जब बहुसंख्यक संप्रदाय हिन्दुओं की राजनीती प्रखर होती है तब तब ये संविधान की दुहाई देते है। जबकि हमारी समस्या है की हमारा संविधान पहचान की राजनीती यानि असंख्य जाती , समुदाय , भाषा प्रान्त और लोकलुभावनवादी राजनीती को लोकतंत्र में पनपने नहीं देने का कोई बंधन नहीं लगाता है जो हमारे लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।
भारत के सांप्रदायिक विभाजन के बाद भी बहुसंख्यक सांप्रदायिक राजनीती के परवान चढ़ने में करीब 45 साल का समय लग गया। क्योंकि जातिवादी राजनीती के आगे वह पनप ही नहीं सकता था। आज सांप्रदायिक और जातिगत राजनीती दोनों में सांप्रदायिक राजनीती भारी पड़ रही है। मुस्लिमवादी अभी भी इस बात को मनाते है की भारत में जातिगत राजनीती चलती रहे जिससे हिन्दुओ में कभी एकता नहीं रहे। जबकि भारत के लिहाज से जातिगत राजनीती सांप्रदायिक राजनीती से ज्यादा विषैली है। हाँ यदि पाक बांग्ला भारत एक रहते तो हमारी एकता का सबसे बढ़ा आधार सेक्युलरवाद होता , सच्चा सेक्युलर जिसमे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पूरी गुंजाइश होती। इस्लाम संस्कृति भी भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में करीब एक हज़ार साल से अपना योगदान दे रही है।

भारत में आर्थिक सुधारों के चौथे दशक की शुरुआत पर राजनीतिक प्रशासनिक सुधार से अभी भी परहेज

 भारत में आर्थिक सुधारों के चौथे दशक की शुरुआत

पर राजनीतिक प्रशासनिक सुधार से अभी भी परहेज
        मनोहर मनोज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी अरुण जेटली स्मृति व्याख्यान के दौरान एक दिलचस्प बयान दिया की वह अपने शासन काल में चल रहे आर्थिक सुधारों को ना तो किसी के दबाव में और ना ही किसी लोकलुभावन उद्देश्य से बल्कि लोगों को राहत देने के उद्देश्य से संचालित कर रहे हैं। चूंकि भारत में चल रहा आर्थिक सुधारो का दौर अब तीन दशक पूरा कर चौथे दशक में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में न केवल नरेंद्र मोदी बल्कि विगत से अभी तक की सरकारों की आर्थिक मोर्चे पर किये गए कार्यों की सम्यक समीक्षा करने का यह मुनासिब वक्त है।
कहना होगा की ठीक 31 साल पहले इसी जुलाई माह में भारत में शुरू की गई आर्थिक सुधारों की श्रृंखला आजाद भारत के इस 75 साल के कालखंड की एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय घटना थी। हैरतपूर्ण बात ये थी तत्कालीन नरसिंह राव की सरकार ने आर्थिक सुधारों की यह पहल किसी राजनीतिक औचित्य के मार्फत नहीं उठाया था बल्कि देश की तत्कालीन संगीन आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर उठाया थी। पर यह एक ऐसी पहल थी जिसने भारत की आर्थिक नीतियों की समूची संरचना को बदलने के साथ अर्थव्यवस्था को बिलकुल एक नए परिवेश प्रदान किया था। मजेदार बात ये थी की भारतीय अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस द्वारा की गई इस  नीतिगत पहल पर इसके मुखय प्रतिद्वंदी दल एनडीए की सरकार ने कुछ ज्यादा ही दौड़ लगाई। पर नरसिंह राव  और वाजपेयी दोनों की सरकार के लिए नयी आर्थिक नीतियों का कदम उनके दल के  किसी  राजनीतिक  एजेंडे और उनके चुनाव जिताऊ प्लाटर के रूप में डिजाइन नहीं किया गया था।  इस वजह से अर्थव्यवस्था में बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद न तो नरसिंह राव 1996 का चुनाव जीत पाए और ठीक इसी तरह अर्थव्यवस्था का ज्यादा बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद बाजपेयी भी 2004 का चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद नयी आर्थिक नीतियों की प्रवर्तक कांग्रेस पार्टी जब केंद्र में यूपीए के तौर पर पदारूढ हुई तो वह अपनी आर्थिक नीति के मूल उद्देश्यों से विपरीत जाकर आर्थिक सुधारो का कथित मानवीय चेहरा लेकर आई। वह चेहरा जो भारतीय मतदाताओं के मनभावन और लोकलुभावन योजनाओं, अनुत्पादक तथा सब्सिडी जनित कार्यक्रमों  तथा किसान कर्जमाफी जैसे कदमों से सुसज्जित था। इसकी वजह से यूपीए अपना अगला 2009 का चुनाव जीत गई। लेकिन  यूपीए  द्वारा अर्थव्यवस्था के मूलभूत उद्देश्यों से किये गए खिलवाड़ की उसे सजा भी मिली क्योंकि उपरोक्त कदमों से अर्थव्यवस्था का वित्तीय घाटा बढ़ा जिससे एक तरफ अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति का घोर शिकार हुई तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार और घोटालो के पर्दाफाश का सिलसिला लगातार चलने से वह आगामी 2014 का चुनाव  हार गर्ई। इसके उपरांत जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब एनडीए- 2 का शासन में आगमन हुआ तो इसने अपने काम की शुरूआत नयी आर्थिक नीति के मूलभूत उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया और क्षत विक्षत अर्थव्यवस्था को जल्द पटरी पर लाने में कामयाब हो गई। अर्थव्यवस्था को तीन साल तक सही दिशा में ले जाने के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ नया करने की होड़ में सरकार  नोटबंदी का ऐसा कदम लेकर आई जिससे अर्थव्यवस्था को आगामी दौर में काफी नुकसान पहुँचा। रही सही कसर बिना पूरी तैयारी के लायी गयी जीएसटी से पूरी हो गई। इस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक सशक्तिकरण की कई योजनाओं मसलन उज्जवला, सौभाग्या , जनधन , जनसुरक्षा , स्वच्छता और बढे बजट की आवास योजना को लाने के वावजूद अर्थव्यस्था की विकास दर को पांच फीसदी से ऊपर ले जाने में वह निरंतर विफल रही । पर नरेंद्र मोदी की यह सरकार निमन विकास दर के बावजूद 2019 के चुनाव में अपने राजनीतिक प्लाटर में मतदाताओं को कई लुभावनी चीजे परोस कर ले आई , मसलन किसानो को प्रति माह 500 रुपये की सम्मान राशि , मध्य वर्ग के लिए आय कर की सीमा पांच लाख रुपये , मजदूरों के लिए बेहतर सामाजिक सुरक्षा की स्कीम। पर चुनाव जीतने में मास्टर स्ट्रोक बना पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी कैंपों पर किया गया हवाई हमला। यह कदम वैसे ही कारगर हुआ जैसे बाजपेयी को 1999 में कारगिल युद्ध में मिली विजय चुुनाव की जीत में तब्दील हो गई।
कुल मिलाकर इस दौरान नयी आर्थिक नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था को एक ऐसा नया डॉक्टराईन प्रदान किया जिसमे साम्यवादी और समाजवादी जुमले पर आधारित कॉर्पोरेट विरोधी और गरीब हितैषी कदमों का साहित्य नदारद था। इसमें निजी और विदेशी सभी निवेश को आकर्षित कर,बाजार शक्तियों का पूरा अवशोषण कर तथा सरकारी क्षेत्र को निजी क्षेत्र से प्रतियोगिता और साझेदारी दिलाकर देश की विकास दर को बढाना सबसे बड़ी प्राथमिकता बना। इसका फायदा ये हुआ की विकास दर की बढोत्तरी से सरकारों का कर राजस्व बढा और फिर इस राजस्व से देश की गरीबी निवारण और ग्रामीण विकास योजनाओं के आबंटन में जबरदस्त बढोतरी हुई।
लेकिन इस दौरान का सच ये भी था कि जिस सरकार ने नयी आर्थिक नीतियों पर शुद्ध आर्थिक तौर पर तवज्जो दी उससे अर्थव्यवस्था को तो फायदा मिला पर राजनीतिक लोकलुभावन एजेंडे से आसक्ति रखने वाला भारतीय मतदाताओं को वह रिझाने में कामयाब नहीं हो पाई। इस मामले की तह में जाए तो ऐसा होने की असल वजह ये थी कि देश में खालिस आर्थिक सुधारों को लाया गया पर पॉलिटिकल शार्टकर्टिज्म की वजह से इस सुधार से ताल्लुक रखने वाले राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों से सभी सरकारों द्वारा परहेज किया गया।  
मौजूदा मोदी सरकार की बात करें तो उस पर यूपीए की तुलना में नए आर्थिक सुधारों के प्रति दर्शायी जाने वाली संजीदगी पर सवालिया निशान भले न उठे , परंतु राजनीतिक अजेंडे को बहुत ज्यादा तवज्जो देने का आरोप जरूर चस्पा होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले यह कहते हों की वह केवल चुनाव के छह महीने पहले राजनीति करना पसंद करेंगे बाकी समय वह केवल सुशासन को तवज्जो देंगे। पर हकीकत ये है कि मोदी सरकार का एक एक कदम पोलीटिकल करेक्टनेस को ध्यान में रखकर किया जाता है। जाहिर है इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीति को तमाम आदर्शवादी और सुधारवादी कदमो से दरकिनार कर पहचान की राजनीति से लैस रखा जाता है। विगत की सरकारों ने भी आर्थिक कदमों के साथ साथ राजनीतिक व प्रशासनिक सुधारों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी लेकिन बल्कि मोदी सरकार पहले के मुकाबले ज्यादा पालीटिकल है। वैसे भी भारत में पहले और अब भी राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारो को न्यायालय, मीडिया और सिविल सोसाइटी की क्रियाशीलता के भरोसे छोड़ा गया है। क्योंकि राजनीतिज्ञों के लिए ये चीजें उनके विस्तार में बाधक दिखाई देती हैं। इस वजह से एक तरफ संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जाता है तो दूसरी तरफ  निष्पक्ष मीडिया और जागरूक सिविल  सोसाइटी  को तमाम तरह से  हतोत्साहित किया जाता है। प्रशासनिक सक्रियता प्रदर्शित करने में मोदी सरकार ने अपनी विगत की सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है। पर अफसोस ये है ये प्रशासनिक सक्रियता और जांच एजेंसियों की सारी चाक चौबंदी केवल और केवल मौजूदा सरकार के राजनीतिक विरोधियों में मौजूद अपराधियों और भ्रष्टाचारियों प्रति प्रदर्शित हो रही है।
कहना होगा किसी देश की चलायमान अर्थव्यवस्था में उस देश की राजनीतिक -प्रशासनिक उत्कृष्टता, तत्परता और गतिशील तथा गुणवत्ता युक्त संस्थाओ का बड़ा योगदान है। ऐसे में भारत में लोकतंत्र , सरकार और बाजार की जुगलबंदी कई सारे गैर आर्थिक प्रशासनिक व राजनीतिक सुधारों की ओर इशारा करती है जिनमे चुनाव व राजनीतिक दलों में सुधार, पुलिस सुधार, न्यायिक सुधार और योग्यतम लोगों की नियुक्ति संबंधी कई सुधार शामिल हैं जो अंततः: हमारी पालीटिकल इकोनामी को बेहतर तरीके से पोषित करेंगी।  

अग्रिपथ स्कीम व्यापक सुधारों से बवाल पर विराम संभव

 अग्रिपथ स्कीम

व्यापक सुधारों से बवाल पर विराम संभव
        मनोहर मनोज
सेना में जवानों की भर्ती की नयी अग्रिपथ स्कीम का विरोध देश केे युवाओं की उन अपेक्षाओं पर होने वाले कुठाराघात की वजह से हो रहा है जिन अपेक्षाओं की परंपरा अबतक सभी सरकारों द्वारा निर्मित की गई हैं। ये परंपराएं क्या हैं, ये हैं केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अपने कर्मिकों की सेवाओं को ज्यादा सुरक्षित, स्थायी, वाजिब वेतन और तमाम अनुकूल सेवा शर्तो व कानूनों से सुसज्जित रखे जाने की। यही वजह है कि सरकारी सेवाओं में चाहे वह सेना ही क्यों ना हो, नियुक्त होने का खवाब देश का हर शिक्षित बेरोजगार जिसकी संखया करीब पांच करोड़ है देखता है। सेना में भी जवानों की 17 साल की कार्यअवधि होने का परंपरापरस्त भारतीय नौजवान इसे चार साल कर दिया जाए तो उसे कैसे मान लेेगा? हकीकत में इस नयी नियुक्ति स्कीम ने भारत के नौजवानों के मन में बेरोजगारी को लेकर पल रही एक व्यापक संचयित टीस को एक नया आउटलेट प्रदान कर दिया।
नयी स्कीम से दो बातें प्रमुखता से स्पष्ट हो रही हैं। पहला सरकार के नजरिये से यह सेना में जवानों की भर्ती की एक ऐसी नयी प्रक्रिया शुरू करना चाहती है जो भारतीय सेना को ज्यादा नौजवान व प्रशिक्षित चेहरों से सुसज्जित बनाये साथ ही सरकार पर आर्थिक बोझ भी कम से कम डाले। दूसरी तरफ देश के नौजवानों को इससे यह लगा कि सरकार देश में बेरोजगारों नवयुवकों की विशाल आबादी को देखते हुए उन्हें मनमानी सेवा शर्र्तों पर भर्ती कर उनकी बदहाल परिस्थितियों का नाजायज फायदा उठा रही है। कहना होगा इन विरोधाभासी धारणाओं के बीच हमारी देश की केन्द्र व राज्य दोनो सरकारों के लिए यह बड़ा ही लाजिमी वक्त था कि  वे अपने यहाँ हर महकमे में नियुक्ति सुधारों को  सुविचारित तरीके से  ले आतीं और इसे अपने सभी विभागों के कर्मचारियों के लिए लागू कर समूचे देश की एक नयी कार्मिक नीति का निर्माण करतीं।  कहना होगा आज हमारे देश के रोजगार परिदृश्य में अनेकानेक विसंगतियां विराजमान हैं जिसे लेकर समूचा माहौल बेहद निराशाजनक है। कहीं मोटे पगाड़ पर बिना उत्पादकता प्रदर्शित किये लाखो लोग सरकार में नौकरी कर रहे हैं और आजीवन मोटी पेंशन पा रहें हैं तो कहीं संविदा, कहीं माहवारी तो कहीं दिहाड़ी पर बेहद अल्प वेतन पर करोड़ो लोग काम करते दिखायी देतेे हैं। समूचे देश में संगठित बनाम असंगठित, सरकार बनाम निजी, कारपोरेट बनाम एमएसएमई, कांट्रेक्युअल बनाम स्थायी का एक बेहद असमान रोजगार परिदृश्य है।  अग्रिपथ स्कीम के विरोध को भी इसी आलोक में देखा जा सकता है।
इस मामले के अलावा जो मूल सवाल हमारे सर पर मुंह बाये खड़ा हैैै वह ये कि देश में शैक्षिक बेरोजगारों की विशाल आबादी। इसे लेकर सरकार की तरफ से ये बयान भी दिये जाते हैं कि देश के सभी बेरोजगारों के लिए 
 स्थायी  सरकारी  नौकरियां मुहै्यया करा पाना संभव नहीं है, आप स्वरोजगार व उद्यमिता करें या स्टार्टअप बिजनेस करें।  बात सही है पर इसी के साथ जो दूसरा सच है जिसे देश की सरकारें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि उनके यहां लाखों पद जो खाली हैं उनपर नियुक्तियों से उन्हें गुरेज क्यों हैं? अनुमान के मुताबिक केन्द्र सरकार के अलग अलग विभागों में करीब आठ लाख पद खाली हैं। दूसरी तरफ देश के सभी राज्य सरकारों के यहां कुल मिलाकर पचास लाख पद खाली हैं। इन पदों के खाली रहने से केन्द्र व तमाम राज्य सरकारों की अनेकानेका योजनाओं के क्रियान्वन में देरी व लेटलतीफी हो रही है, उनकी उत्पादकता का ह्लास तथा उनकी कई लोककल्याणकारी योजनाएं प्रभावित हो रही हैं। इसके बावजूद ये इसलिए नयी भर्ती नहीं करना चाहतीं क्योंकि मौजूदा कार्मिक कानूनों व सेवा शर्तों के हिसाब से इन्हें इतनी ज्यादा संखया में अपना दामाद बनाना गंवारा नही हैं और जैसे तैसे ये  अपना काम निपटवा लेना चाहती हैं। कभी कभार ज्यादा ज्यादा दिक्क्तत होने पर केन्द्र व राज्य दोनो सरकारों के विभाग कुछ कांट्रेक्चुअल नौकरियां दे देती हैं क्योंकि इसकी सेवा शर्तेँ सरकारों को ज्यादा बोझिल नहीं लगती।  रिक्तियों के बावजूद पक्की सेवा शर्तें पर भर्ती नहीं करने के मामले में केन्द्र व राज्य सरकारों दोनों की मंशा एक बराबर दिखायी देती है।  मौजूदा मोदी सरकार ने 2019 में भारतीय रेलवे में डेढ लाख नौकरियों की बहाली की घोषणा की परंतु उसे वह पूरा नहीं कर पाई। इनमे केवल कुछ पदों पर नियुक्तियां की गईं जिनकी सेवा शर्ते बिल्कुल अलग थीं। कहना होगा कि सरकार अपने विभाग में कांट्रेक्चुअल नौकरियों के लिए भी जो सेवा शर्तें आरोपित करती है वह निजी क्षेत्र की तुलना में कहीं जयादा श्रम हितैषी होता है। ऐसे में यह बड़ा बेहतर वक्त था कि सरकार एक व्यापक भर्ती नीति, नियुक्ति नीति, श्रम नीति, मजदूरी नीति व कुल मिलाकर एक व्यापक कार्मिक नीति लाती तो फिर मौजूदा विरोधों को कोर्ई हवा नही मिलती। क्योंकि नौजवानों को लगता कि रोजगार मार्केट में एक इक्वेल लेवल प्लेयिंग फील्ड निर्मित हो गया है।
 देश में बेरोजगारी दूर करने की दृष्टि से  देखें तो इस सुधार की आवश्यकता सबसे पहले दिख रही है क्योंकि इससे सरकार में खाली पदों की भर्ती शुरू हो जाती।  इससे नवजवान शिक्षित बेरोजगारों में एक बेहद अच्छा संदेश जाता कि मिहनत, कौशल व उत्पा दकता प्रदर्शित करने वालों के लिए काम की कमी नहीं है, कमी उनके लिए है जो स्थायी नौकरी पाकर अनुत्पादक बनना चाहते हैं। इस आधार पर सरकार में पहले से कार्यरत अनुत्पादक कार्मिकों के लिए छंटनी या स्थानापन्न का भी रास्ता खुलता। इससे देश की अर्थव्यवस्था को एक नयी कार्यशील व उत्पादकता आधारित दिशा व दिशा मिलती।
हमे मानना होगा कि कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह कितना भी बाजार केन्द्रित क्यों न हों, वहां भी राज्य ही सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता होता है। सरकार बाजार में ज्यादा से ज्यादा रोजगार अवसर सृजित करने वाली आर्थिक नीतियों का निरूपण जरूर करे परंतु अपने तई की रोजगार जिममेवारियों का भी जरूर निर्वाह करे। इस दिशा में मोदी सरकार को चाहिए कि वह एक रोजगार मंत्रालय का गठन कर सभी महकमों में रिक्तियोंं व भर्तियों का  आडिट सर्वेक्षण कर अधिकाधिक उत्पादकतापरक रोजगार सृजित करें। जरूरत है एक तरफ देश के सरकारी क्षेत्र में निजी क्षेत्र की तर्ज पर बेहतर उत्पादक माहौल निर्मित हो तो दूसरी तरफ सरकार के  नये श्रम कानूनों और उसकी सेवा शर्तों को निजी क्षेत्र पर भी थोपा जाए, जहां कामगारों के शोषण की ज्यादा संभावना होती है। यह आवश्यक है की  सरकार के सभी महकमों में सुधार की प्रक्रिया को पुराने व नये सभी पर एक बराबर रूप से लाया जाए। हम केवल नौजवान बेरोजगारों पर नये प्रयोग करेंगे तो फिर बनी बनायी परंपराओं के आलोक में नौजवानों में असंतोष उभरना लाजिमी है। मोदी सरकार एक नया व्यापक कार्मिक  सुधार लाती है तो वह एक लाठी से कई विरूपताओं बेरोजगारी, कामचोरी, भ्रष्टाचार, कामगारों के शोषण, अनुत्पादकता तथा नौकरशाही की लेटलतीफी व लालफीताशाही को भी निर्मूल कर सकेगी।  

मोदी सरकार के आठ साल अर्थव्यवस्था में कभी गिरावट तो कभी उछाल

 मोदी सरकार के आठ साल

अर्थव्यवस्था में कभी गिरावट तो कभी उछाल  
मनोहर मनोज
मोदी सरकार के पिछले आठ साल के  भारतीय अर्थव्यवस्था पर गौर करें तो  इसने एक तरह से  आंखमिचौनी का खेल दिखाया। कभी इसने  आशावाद की उंचाइयों को छूआ तो कभी यह निराशावाद के गर्त में भी गई, कभी खुशी तो कभी गम जताती रही। इन परिस्थितियों के लिए देश के राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय पटल पर  घटनाक्रम तो जिम्मेदार थे हीं बल्कि इस क्रम में मोदी सरकार द्वारा समय समय पर लिये गए फैसले भी जिम्मेदार थे। मोदी सरकार द्वारा कभी बेहद ठोस कदमों से तो कभी इसके गलत व जल्दबाजी में लिये गए फैसले से भी अर्थव्यवस्था में उतार व चढाव के हालात निर्मित हुए। इन सबके इतर भारतीय अर्थव्यवस्था को सदी की सबसे बड़ी महामारी कोविड-19 की एक बड़ी मार झेलनी पड़ी जिस पर दुनिया की महाशक्तियां भी बेबश साबित हुईं । परंतु पिछले आठ साल के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का एक पक्ष ऐसा था जो इन सभी घटनाक्रमों से बेखबर रहकर कमोबेश निरंतर चलायमान रहा। भारतीय शेयर बाजार ने इस दौरान निरंतर उंचाइयों को छूआ। आठ सालों में मुंबई संवेदी सूचकांक करीब ढाई गुना तो एनएसई तीन गुना बढ़ा। दूसरी तरफ बड़े कारपोरेट घरानों के  मुनाफे में आशातीत बढोत्तरी दर्ज हुई जिनमे से कई दुनिया के सबसे अमीर व्यवसायियों की रैंकिंग में भी शुमार होते रहे।
पिछले आठ सालों में भारत सरकार की गरीबी निवारण योजनाओं और संसाधन हस्तानांतरण कदमों, आधारभूत क्षेत्रों के निर्माण तथा इलेक्ट्रानिक प्रशासन तथा डिजीटल लेन देन के क्षेत्र को निश्चित रूप से एक नया आयाम मिला। कहना होगा  एनडीए सरकार के शासन व प्रशासन तथा राजनीति में जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छाप निर्विवाद और निर्बाध रूप से दिखायी पड़ी उसका अक्श भारत की अर्थव्यवस्था पर भी भलीभांति दिखायी पड़ा। यही वजह है की  केन्द्र सरकार के सभी मंत्रालयों, विभागों, निगमों के निर्णय प्रक्रियाओं और क्रियाकलापों में  प्रधानमंत्री कार्यालय का बर्चस्व दिखायी पड़ा  और पीएम  नरेन्द्र मोदी का सीधा दखल व प्रभाव आभासित हुआ। नोटबंदी और कोविड की वजह से अचानक लायी गयी देशबन्दी जिससे अर्थव्यस्था को भयानक  पहुंची वह मोदी का फैसला था।  सामाजिक आर्थिक विकास की करीब दो दर्जन योजनाएं प्रधानमंत्री योजना के रूप में नवीनीकृत की गई । सब्सिडी व लीकेज को रोकने तथा अबतक अछूते पड़े उन तबके के लिए योजनाएं बनायी गई और ऐसी योजना जो  उनके जीवन पर सीधा असर डाल सकें। मिसाल के तौर पर बरसों से चली आ रही एलपीजी सब्सिडी को शनै: शनै: हटाकर उज्जवला योजना के जरिये गांवों के करीब नौ करोड महिलाओं को गैस कनेक् शन देना, देश के करीब तीस हजार गैर विद्युतीकृत गांवों का बिजलीकरण करना, करीब तीन करोड़ घरों में सौभागया योजना के जरिये बिजली कनेक्शन प्रदान करना, बैंकों की सुविधाओं से अछूते पड़े 45  करोड़ लोगों के बैंक खाते खोलना, कोविड महामारी की रोकथाम के लिए करीब दो सौ करोड टीके प्रदान करना,  राजमार्गों रेलमार्गों व जलमार्गों तथा हवाई अड्डों का  रिकार्ड मात्रा में  निर्माण तथा 11 करोड़ शौचालयों का निर्माण मोदी सरकार के अभूतपूर्व व उल्लेखीय कार्यों की सूची में माना जा सकता है।
मोदी सरकार के पिछले आठ सालों के भारत की अर्थव्यवस्था के प्रवाह पर नजर डालेंं तो 2014 में ही पिछले यूपीए सरकार के निम्र विकास दर, तीव्र मुद्रा स्फीति दर तथा अनिर्णय के दौर से धीरे धीरे निजात मिलनी शुरू हो गई। मोदी सरकार के पहले तीन साल में देश की आर्थिक विकास दर में विगत वर्षों की तुलना में बढोत्तरी दर्ज हुई जो करीब सात फीसदी तक पहुंची।  लेकिन नवंबर 2016 में भ्रष्टाचार पर करारा प्रहार पर अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के क्रम में नोटबंदी लेकर मोदी सरकार ने यह सोचा कि इससे आतंकी व नक्सल नेटवर्क द्वारा जाली नोटों के उपयोग तथा नकद में रखे गए काला धन पर प्रभावी नकेल लगेगी। लेकिन यह कदम अर्थव्यवस्था के लिए उल्टा काफी हानिकारक साबित हुआ। इस कदम से सरकार को नये नोट जारी करने के एवज में  50  हजार करोड रुपये खरचने पड़े और देश के जीडीपी को करीब दो लाख करोड़ का अनुमानित घाटा उठाना पड़ा। इस कदम के पीछे हालाँकि सरकार का  इरादा सही था पर अति उत्साह व जल्दबाजी भरा यह कदम अर्थव्यवस्था का काफी नुकसान कर गई। इसके तुरंत बाद जुलाई 2017 में सरकार ने नयी जीएसटी प्रणाली भी लागू कर दी। इस कदम की तैयारी पिछले एक दशक से चल रही थी जिस पर  राजनीतिक आम सहमति बनाने में मोदी सरकार ने कड़ी  मिहनत की परंतु इस नयी रिजीम के अंतरगत देश के करदाताओं व व्यवसायियों की सभी व्यावहारिक जरूरतों का समाधान कर पाने में मोदी सरकार की कर मशीनरी व प्रशासनिक प्रणाली अक्षम साबित हुई। इस कदम के पांच साल बाद भी इसमे संशोधनों का दौर जारी है। नोटबंदी व जीएसटी से भारतीय अर्थव्यवस्था की गतिशीलता व तारतम्यता जो प्रभावित हुई उसका नतीजा 2017  से लेकर 2020  तक अर्थव्यवस्था में निम्र विकास दर तथा  मंदी व सुस्ती के रूप में दिखायी पड़ी।
 वर्ष  2020  में आकर भारतीय अर्थव्यवस्था का तो समूचा मंजर ही बदल गया जब कोविड महामारी से  वैश्विक अर्थव्यवस्था सहित भारतीय अर्थव्यवस्था  चौतरफा संकट में फंस गयी । अर्थव्यवस्था में रोजगार, उत्पादन, उपभोग का चक्र  बुरी तरह प्रभावित हुआ। वर्ष 2020 -21 - में भारतीय अर्थव्यवस्था मे दर्ज गिरावट समूची दुनिया में सबसे ज्यादा10  फीसदी थी। परंतु इस दौरान मोदी सरकार ने अपने उपलब्ध संसाधनों से भारत की जनता खासकर ग्रामीण आबादी को मुफ्त अनाज व स्वास्थ्य सुविधाएं देने मेें अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले भार को सही तरीके से जरूर संभाल लिया । गनीमत ये रही कि इस दौरान अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों में भारी गिरावट आई और मोदी सरकार ने इसका फायदा उपभोक्ताओं को ना देकर और इसके उत्पाद करों में और बढोत्तरी कर अपने राजस्व अर्जन का एक अच्छा श्रोत बनाये रखा।
कोविड के दौर में सरकार ने 25 लाख करोड़ का कथित इकोनामिक रिवाइवल पैकेज घोषित किया पर वह बैंकों व वित्तीय संस्थाओ द्वारा दिये जाने वाले कर्ज का एक नया आंकड़ा ज्यादा था। कोविड काल में पहली बार वित्त मंत्रालय ने वित्तीय घाटे के जीडीपी के 3.5 फीसदी रखने के वैधानिक लक्ष्य में 3  फीसदी और बढोत्तरी करने को विवश हुई। इसका मतलब ये था कि मुद्रा स्फीति को आमंत्रित करना और आज  यही स्थिति भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे प्रमुख विषय वस्तु बनी हुई है। यही वजह है कि पिछले पांच सालों से चल रही सस्ती मुद्रा नीति की अपनी अवधारणा से अब भारतीय रिजर्व बैंक विलग हो गया है। पिछले दो महीने में रिजर्व बैंक ने दो दो बार रेपो दर में बढोत्तरी कर बैंक दर करीब एक फीसदी बढ़ा  चुकी है जिसका उद्देश्य मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करना बताया जाता है । दूसरी तरफ सरकार के लिए सबसे ज्यादा चिंता बुनियादी जिन्सों की कीमतों में आयी बेतहाशा बढोत्तरी को लेकर है।
 पिछले आठ सालों में मोदी सरकार ने विनिवेश को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर नयी आर्थिक नीति के  एनडीए संस्करण को और पुख्ता बनाया तो दूसरी तरफ निजीकरण की विस्तार प्रक्रिया को बिना नियमन व किराया प्राधिकरणों के गठन तथा निजी सार्वजनिक प्रतियोगिता व सहभागिता के जामा पहनाया जा रहा है। यह कदम कई लोगों को नागवार लगा है। इन्हीं वजह से सरकारी परिसंपत्त्यिों के मौद्रिकीकरण जैसी योजना अमल में लायी गई है जिसके जरिये अगले 2024  तक 6  लाख करोड़ की राजस्व उगाही का लक्ष्य है। वैसे राजस्व के मोर्चे पर अच्छी खबर ये है कि जीएसटी संग्रहण का आंकड़ा  एक लाख करोड से बढ़कर करीब डेढ लाख करोड़ के आसपास आ गया है।

मंदी और तेजी के बीच झूलती अर्थव्यवस्था का संक्रमण काल

 मंदी और तेजी के बीच झूलती अर्थव्यवस्था का संक्रमण काल  

        मनोहर मनोज
पिछले दो दशक में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है जब अर्थव्यवस्था में निजी घरेलू क्षेत्र द्वारा किया जाने वाला निवेश इसके बचत दर की तुलना में कम हो गया है। अभी हाल में भारतीय रिजर्व बैंक की पेश सालाना रिपोर्ट में भारतीय अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति और भविष्य की संभावनाओं को लेकर जो बातें कही गई हैं वह देश की वृहद अर्थव्यवस्था के विभिन्न कारकों में एक चक्रीय असंतुलन को दर्शा रही है। असंतुलन इस बात को लेकर है कि देश के घरेलू क्षेत्र ने अपने आय अतिरेक को निवेश के बजाए बैंक व वित्तीय सुरक्षित जमाओं में लगाने को जहां तवज्जो दी है वही दूसरी तरफ सरकारी क्षेत्र की तरफ से की जाने वाली बचत में गिरावट दर्ज हुई है। इस परिप्रेक्ष्य में पूंजीगत निवेश में आई कमी से कहीं न कहीं देश में स्फीतिकारी कारकों को बढावा मिल रहा है। आंकड़ों के मुताबिक साल 2021 में निजी घरेलू क्षेत्र की बचत दर मात्रा सकल राष्ट्रीय कमाई की 11.5 फीसदी है जो पिछले दो दशक में सर्वाधिक है जो साल 2004 के बाद से पहली बार निवेश दर को पीछे छोड़ ती दिख रही है। माना जा रहा है कि देश केे घरेलू क्षेत्र द्वारा गैर वित्तीय निवेश में दिखायी गई अरूचि कोविड की वजह से थी। इस दौरान अर्थव्यवस्था में व्याप्त असुरक्षा की वजह से हमारा घरेलू क्षेत्र पूंजीगत निवेश से कतराता रहा। इस अवधि में वित्तीय जमाओं के महत्वपूर्ण उपकरण म्यूचुअल फंड में अकेले 2.5 लाख करोड़ का रिकार्ड बचत दर्ज हुआ। वही इसके विपरीत कोविड राहत खर्चों की वजह से सरकारी क्षेत्र के वित्तीय बचत में आई क मी से सकल राष्ट्रीय बचत दर वर्ष 2021 में 29.4 फीसदी से घटकर 27.8 फीसदी रह गई है।
कहना होगा कि अब रिजर्व बैंक का ज्यादा ध्यान देश में मौजूदा मुद्रा स्फीति बढोत्तरी की तरफ है जिसकी वजह से देश में मैन्युफैक्चरिंग यानी विनिर्माण उत्पादों की महंगाई तेजी से बढी है जिसका असर कही न कहीं खुदरा मुद्रा स्फीति दरों पर भी तीव्रता से पड़ा है। गौरतलब है कि देश में खुदरा मुद्रा स्फीति दर यानी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पिछले आठ वर्षों में सर्वाधिक 8 फीसदी तथा थोक मुद्रा स्फीति दर करीब 15 फीसदी तक जा चुकी है। आम तौर पर थोक मुद्रा स्फीति दर खुदरा दर से कम ही होती रही हैं लेकिन अभी थोक मूल्य सूचकांक का खुदरा मूल्य सूचकांक से दोगुना होना अर्थव्यवस्था के लिए बेहद हानिकारक है। गौरतलब ये भी है कि मुद्रा स्फीति की इस बढोत्तरी में गैर खाद्य पदार्थों का योगदान ज्यादा है। रिजर्व बैंक की इस रिपोर्ट से तथा रिजर्व बैंक द्वारा अभी मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने को लेकर उठाये जाने वाले कदमों से भी अब यह साफ हो गया है कि बैंक अब अगले दो साल नियंत्रित मुद्रा प्रसार यानी उंची ब्याज दर के दौर को बनाये रखेगा। वजह ये है कि पहले नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई तथा फिर कोविड के काल में अर्थव्यवस्था की जो बंदी हुई उसके उपरांत अर्थव्यवस्था को अभी अभी जो नयी उड़ान भरने का अवसर मिला वह तमाम औद्योगिक लागत उत्पादों की बेहद उंची कीमतों के अवरोध से दो चार रहा है। सिमेंट, इ्र्रस्पात, कोयला, बिजली, पेट्रोलियम, रसायन व प्लास्टिक उत्पादों की बढती कीमत से देश में नये  उत्पादन की लगत बढ़ गयी है। रूस-यूक्रेन युद्ध तथा दुनिया के सबसे बड़े मैन्युफैक्चरिंग मुल्क चीन में लगे लाकडाउन की वजह से भी आयातित लागत उत्पादों की महंगाई को और बढावा मिला है। हालांकि इस दौर में भारत सरकार द्वारा पेट्रोल,डीजल व उज्जवला ग्राहकों की एलपीजी की कीमतों में क्रमश:10 व 8 रुपये प्रति लीटर तथा 200 रुपये प्रति सिलेंडर की कटौती एक फौरी राहत लेकर आई है। पर यह कटौती देश में खुदरा मुद्रा स्फीति दर पर मामूली असर ही डाल पा रही है क्योंकि थोक मूल्य सूंचकांक खुदरा दर से करीब दोगुना ज्यादा है। माना जाता है कि थोक दर में आई एक फीसदी की कटौती खुदरा दरों में सिर्फ एक चौथाई की कटौती ला पाती है।
मौजूदा आर्थिक परिदृश्य के मद्देनजर भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर अभी यही माना जा सकता है कि वर्ष 2016 से लेकर 2021 तक अर्थव्यवस्था जहां मांग की कमी झेल रही थी वह अर्थव्यवस्था अब मांग के मुकाबले नये निवेश की कमी झेल रही है। वित्तीय बचत की बढोत्तरी की वजह से जहां  पूंजीगत निवेश प्रभावित हुआ था वह रिजर्व बैंक की नयी मुद्रा नीति की वजह से अभी भी प्रभावित ही रहेगा। घरेलू क्षेत्र जो देश में बचत का सबसे बड़ा श्रोत है जिसे अर्थव्यवस्था की बढोत्तरी का भी एक बड़ा पैमाना माना जाता है उसे अब पूंजीगत निवेश में स्थानांतरित किये जाने के लिए सरकार की तरफ से कई छूटों की दरकार है। इधर वित्त मंत्रालय की तरफ से विभिन्न मंत्रालय और विभागों में बिना व्यय के शिथिल पड़े फंडों को आगामी दिनों में तेजी से खर्च किये जाने का निर्देश दिया गया है। जाहिर है इससे सरकार की बचत और कम होगी।  
 कुल मिलाकर जरूरत इस बात की है कि देश में बचत-निवेश-उत्पादन-रोजगार- आय-मांग-के चक्र के जरिये पुनरनिवेश की प्रक्रिया को निरंतर व त्वरित रूप से चलायमान रखा जाये  जिससे सरकारों के कर राजस्व में यथोचित बढोत्तरी हो तथा संसाधन हस्तानांतरण की प्रक्रिया को बढावा देकर विकास व कल्याण की प्रक्रिया को सुचारू रखा जाए। इसके लिए सरकार तथा इसके सभी नियामकों की तरफ से भी बड़ी ही सूझ बूझ तथा अचूक आर्थिक निर्णयों व नीतियों को रुपायित करने की दरकार है। अभी मुद्रा स्फीति को पांच फीसदी के एक सामान्य दर पर लाना सबसे बड़ी चुनौती है, जिसमे जाहिर है भारतीय वित्त व मौद्रिक व्यवस्था के सबसे बड़े नियामक रिजर्व बैंक की भूमिका  ज्यादा अहम है। कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था में पहले लंबे चले मंदी के दौर की समाप्ति के बाद जो अब तेजी का दौर आया है उसमें आई इन नयी अड़चनों के निराकरण का  सबको इंतज़ार है ।

रुपये की गिरावट, मुद्रा स्फीति व सस्ती मुद्रा नीति

 रुपये की गिरावट, मुद्रा स्फीति व सस्ती मुद्रा नीति

                                             मनोहर मनोज
भाजपा के अपने दौर के हैवीवेट नेता प्रमोद महाजन से एक बार यह पूछा गया कि समूची दुनिया में उन्हें भारत को लेकर किस बात से सर्वाधिक गौरव महसूस होगा तो उन्होंने कहा कि जब दुनिया के लोग दुनिया की तमाम बड़ी मुद्राओं डालर, पौंड, यूरो और युआन की तुलना में सबसे ज्यादा तरजीह भारतीय रुपये को देंगे। आज उन्हीं की पार्टी भाजपा की केन्द्र में पिछले आठ सालों से सरकार है और भारतीय रुपया अभी अमेरिकी डालर की तुलना में अपने इतिहास के सबसे निम्र स्तर करीब 78 रुपये प्रति डालर पर पहुंचा है। बताते चलें 1980 में एक अमेरिकी डालर की कीमत करीब दस रुपये थी और  करीब चालीस साल के बाद वह करीब आठ गुने निचले स्तर पर जा चुकी है।
देखा जाए तो यह विडंबना केवल भारत की नहीं है बल्कि भारत सरीखे दुनिया के उन तमाम विकासशील देशों की है जिन्होंने सम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और दासता की बेडिय़ों से निकलने के उपरांत अपने आर्थिक विकास को गति देने के लिए घाटे का बजट और सस्ती मुद्रा की आर्थिक नीति को लगातार अपनाया। मतलब ये है कि विकास को गति देने के लिए इन देशों की सरकारें अपनी आमदनी से ज्यादा खर्चें करती हैं और खर्चे और आमदनी के बीच के अंतर को पाटने के लिए देश के भीतर और बाहर से कर्जे लेती हैं, दूसरा अपने केन्द्रीय बैंक  के मार्फत नयी मुद्राएं जारी करवाती हैं और तीसरा जनता पर करारोपण की मात्रा बढाती हैं। इस क्रम में इन विकासशील देशों में वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन की तुलना में मुद्रा प्रसार की मात्रा ज्यादा बढ जाने से जहां आंतरिक स्तर पर मुद्रा स्फीति और महंगाई का खतरा तो बढता ही रहा है तो दूसरी तरफ विदेशी कर्ज, उत्पादन की तकनीक व मशीनरी की विदेशों से आयात पर निर्भरता बढने से इन देशों की मुद्राओं का विदेशी विनिमय मूल्य भी लगातार घटता रहा है। इसके विपरीत विकसित देशों की बात की जाए तो वहां की सरकारें घाटे के बजट के बजाए अपने बढते खर्चे को पूरा करने के लिए अपने निवासियों पर करारोपण पर निर्भर करना ज्यादा पसंद करती हैं। इसका नतीजा ये है कि विकसित देशों में करों का उनकी जीडीपी में अनुपात 15 से 20 फीसदी तक होता है वही भारत जैसे विकासशील देशों में यह अनुपात मुश्किल से 10 से 12 फीसदी के बीच देखा जाता है।
पिछले पिचहत्तर साल की भारत की अर्थव्यवस्था पर गौर करें तो घाटे के बजट लगातार बनाये जाने से यहां बाह्य व आंतरिक दोनो स्तर पर सस्ती मुद्रा नीति के चलन को काफी प्रमुखता दी गई। इससे एक तरफ हमारा व्यापार घाटा यानी चालू खाते का घाटा लगातार बढता गया तो दूसरी तरफ आंतरिक स्तर पर मुद्रा स्फीति में भी लगातार बढोत्तरी होतीगई। इन परिस्थितियों में हमारी मुद्रा रुपये का दुनिया की सभी बड़ी विदेशी मुद्रा की तुलना में विनिमय मूल्य स्थिर होना तो दूर उसमे गिरावट का मंजर ही बराबर दिखायी देता रहा है। मजे की बात ये है कि भारत  अभी दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर उस हिसाब से हमारी मुद्रा दुनिया की सबसे छठी मजबूत मुद्रा नहीं है बल्कि हमारा रुपया विनिमय मूल्य के हिसाब से दुनिया में पचासवें स्थान के भीतर भी नहीं आता है। पिछले  दो  दशक  से भारत में विदेशी मुद्रा कोष की रिकार्ड मात्रा कायम रही पर जैसे ही यह कोष अभी छह खरब डालर से थोड़ा नीचे आया तो डालर के मुकाबले रुपये की कमजोरी उजागर हो गई। यह स्थिति इस बात को दर्शाती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को आंतरिक व बाह्य दोनो मोर्र्चे पर अभी परिपक्वता की स्थिति प्राप्त नहीं है।
अभी देश में रुपये की गिरावट के साथ साथ मुद्रा स्फीति की मौजूदा दर करीब 8 फीसदी पर पहुंच चुकी है जो नरेन्द्र मोदी सरकार के अबतक के कार्यकाल की सबसे उंची दर है। इसकी वजह भी साफ है। पिछले कुछ सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का आलम होने, कोविड की महामारी तथा देशबंदी की परिस्थिति में अर्थव्यवस्था के बिल्कुल शिथिल हालत में पहुच जाने की वजह से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगातार सस्ती मुद्रा की नीति अपनायी जाती रही। इससे अंतत: मुद्रा स्फीति को बढावा मिलना शुरू हो गया तो दूसरी तरफ बाह्य स्तर पर रूस-यूके्रन युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के मूल्यों में भारी बढोत्तरी ला दी है। पेट्रोलियम उत्पादों की महंगाई वैसे भी भारत में मुद्रा स्फीति व महंगाई के एक बड़े कारक के रूप में कायम रही है।  फिलवक्त सस्ती मुद्रा नीति को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के बाद से पहली बार अपने बैंक दरों व रेपो दरों में बढोत्तरी का फैसला लिया । अब इसका असर ये होगा कि बैंकों से मिलने वाला कर्ज थोड़ा महंगा हो जाएगा जिससे मुद्रा प्रसार पर थोड़ा अंकुश लगेगा।
भारत में अभी महंगाई के पीछे बंद पड़ी अर्थव्यवस्था में अचानक आई मांग खासकर बुनियादी उद्योगों के लागतोंं के मामले में  ज्यादा जिममेदार रही है जिससे थोक मूल्य सूचकांक को भी बढावा मिला है। दूसरी तरफ खाद्यान्नों के उत्पादन में आई कमी की वजह से जो आपूर्ति प्रभावित हुई है उससे खुदरा मूल्य सूचकांक में बढोत्तरी हुई है। पहली बार एमएसपी से खुले बाजार की दर ज्यादा दिख रही है जो स्थिति अति उत्पादन की स्थिति में देखा जाता तो भारतीय किसानों के लिए एक बड़ी अनुकूल स्थिति मानी जाती।
कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था में दीर्घकालीन तरीके से अपनाया जाने वाला घाटे का बजट जो अभी कोविड के दौर में पहले के चार फीसदी से बढाकर बजट लक्ष्य में छह फीसदी कर दिये जाने तथा सरकारी व्यय के लिए आंतरिक व बाह्य कर्जे पर बढती निर्भरता की वजह से सार्वजनिक ऋण के सकल घरेलू उत्पाद के पिचासी फीसदी तक पहुंच जाने का नतीजा आंतरिक व बाह्य स्तर दोनो स्तरों पर दिखायी दे रहा है। इस वजह से रुपये का मूल्य भी गिरा है तो दूसरी तरफ मुद्रा स्फीति भी बढ रही है। ऐसे में सस्ती मुद्रा नीति पर रिजर्व बैंक द्वारा लगाया गया आंशिक लगाम भी आंशिक ही राहत देगा क्योंकि देश में खाद्य जिंसों के उत्पादन में आई कमी से सप्लाई चेन प्रभावित हो चुका है। इस एवज में सरकार ने गेहूं व अन्य अनाजों के निर्यातों पर भी रोक लगा दी है। कुल मिलाकर इस मामले का लब्बोलुआब यही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वास्तविक मजबूती हासिल करने की राह अभी आसान नहीं है, इसमे बड़े सूझ बूझ से लंबी रेस की तैयारी करनी पड़ेगी तभी भारतीय रुपये को भी दुनिया के पटल पर सममान हासिल हो सकेगा।

सफेद हाथी बन चुके हैं भारत के विश्वविद्यालय

 सफेद हाथी  बन चुके हैं  भारत के विश्वविद्यालय 

मनोहर मनोज
हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में शिक्षा पर होने वाले व्यय की अपर्याप्तताओं  पर बार बार टिप्पणियां की जाती हैं। इसी के बरक् श इस बात का भी हवाला दिया जाता है कि भारत के कोई भी विश्वविद्यालय या उच्च तकनीकी या प्रौद्योगिकी संस्थान दुनिया के नामवर उत्कृष्ट संस्थानों की श्रेणी में नहीं आते। ये बातें सच हैं पर इससे भी बड़ा सच ये है कि भारत के सरकारी क्षेत्र के करीब 513 विश्वविद्यालय बरसों से पूरे तौर पर सफेद हाथी बन चुके हैं। भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों की उत्पादकता बिल्कुल नगण्य है, जिन पर जनता के करों से इकठ़ठा किया बेशुमार संसाधन खर्च होता है, जहां पर पढने वाले बच्चे सबसे पहले वहां आए दिन टीचिंग व नान टीचिंग कर्मचारियों की हड़ताल, कभी छुट्टी तो कभी आपदा से ना तो पूरी पढाई कर पाते है,जो यदि थोड़ी बहुत पढाई करते हैं तो वह उनके रोजगारों व कुशलता निर्माण से कोई वास्ता नहीं रखता है। भारत के इन विश्वविद्यालयों के तमाम विभागों और इनके मातहत संचालित करीब 25 हजार महाविद्यालयों में नियुक्त करीब दो लाख शिक्षकों व कर्मचारियों  के वेतन पर हर साल दो लाख करोड़ रुपये का व्यय किया जाता है। लेकिन यहां का कार्य परिवेश व शैक्षिक परिवेश बिल्कुल हैरान कर देना वाला है जहां पठन पाठन संबंधित तमाम उत्पादक गतिविधियां नहीं होने तथा राजनीतिक गतिविधियों में मशगूलियत का नजारा ज्यादा दिखायी पड़ता है। अगर इन सभी उच्च शिक्षा के प्राध्यापकों की उत्पादकता व सामाजिक रिटर्न पर गौर किया जाए तो यह भली भांति प्रतीत होगा कि भारत जैसे निर्धन देश का कितना बहुमूल्य संसाधन बिना किसी समुचित रिटर्न के बर्बाद हो रहा है।
बताते चलें अभी देश म सरकारी व निजी दोनों क्षेत्र मिलाकर देश में विश्वविद्यालयों की संखया एक हजार है जिसमे सरकारी क्षेत्र में राज्य सरकारों केे मातहत करीब 343 विश्वविद्यालय, राजकीय सहायता प्राप्त करीब 115 मानद विश्वविद्यालय और केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित करीब 46 विश्वविद्यालय अस्तित्व में हैं। राजनीतिक मांगों को ध्यान में रखकर विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी जाती है जिसके सभी संकायों में पढने वाले छात्रों की संखया मुश्किल से एक हजार से भी ज्यादा नहीं होती है जिस पर न्यूनतम सालाना व्यय 100 करोड़ बनता है।
आज की तारीख में उच्चतर शिक्षकों का वेतनमान यूजीसी वेतनमानों के अधार पर जो दिया जाता है वह  दो से तीन तीन लाख मासिक होता है जितनी तनखवाह तो भारतीय आर्मी  के जेनरल की भी नहीं होती। सामान्य दिन में एक प्राध्यापक मुश्किल से एक से तीन  कक्षा लेता है। अभी तो कोरोना महामारी के दौर में पिछले दो सालों से विश्वविद्यालयीय विभागों व महाविद्यालयों में पढाई का काम बिल्कुुल ठप है। परंतु इस महामारी में इनकी मोटी तनटखवाहें  बंद 
 नहीं  हुर्इं। वैसे भी भारत में सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में हर वक्त कोरोना सरीखा ही माहौल होता है। अभी राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय में कोरोना के पहले भी यदि पढाई का माहौल पता कर लें तो यह मालूम पड़ेगा कि एक साल में मुश्किल से तीन महीनें भी कक्षाएं नहीं चलीं।
बताते चलें अभी भारत में 
 शिक्षा पर  हर साल साढे छह लाख करोड़ रुपये  व्यय किया जाता है। इसका करीब दो तिहाई हिस्सा प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा पर व्यय होता है जो किसी भी सरकार की प्राथमिकता में शामिल होने वाला क्षेत्र हो ता है बाकी एक तिहाई हिस्सा उस उच्च शिक्षा पर किया जाता है जहां उच्च शिक्षा की महज एक खानापूर्ति की जाती है। गौरतलब है कि शिक्षा पर होने वाले इस कुल व्यय में करीब एक लाख करोड़ रुपये व्यय के न्द्र सरकार करती है। केन्द्र सरकार इस रकम में से करीब साठ हजार करोड़ रुपये स्कूली शिक्षा पर और बाकी राशि वह उच्च शिक्षा पर करती है। बाकी राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जाता है।
अब सवाल ये है कि भारत में शिक्षा पर होने वाला व्यय जो मानव विकास की सबसे बड़ी मद होती है, उसकी जीडीपी हिस्सेदारी जरूर बढे लेकिन फिलवक्त उस पर जितनी राशि खर्च हो रही है उससे हासिल होने वाली उत्पादकता का भी तो निर्धारण हो।
अभी कोरोना काल में देश की समूची प्राथमिक ,माध्यमिक  व उच्च शिक्षा करीब करीब  ठप्प रही है। निजी क्षेत्र में चालित शिक्षण संस्थानों ने  इस अवधि में दूरस्थ या आनलाइन शिक्षा हेतू अपने आप को 
 तुरंत  समायोजित कर लिया पर सरकारी क्षेत्र के करीब दस लाख स्कूलों व कालेजों में अधिकतर जगह पढाई इसलिए ठप्प रही क्योंकि वहां ब्राडबैंड नेटवर्क नहीं होने से वे आनलाइन मोड में नहीं आ सके। इससे  देश के करोड़ों नौनिहालों का भविष्य खराब हुआ परंतु पब्लिक डोमेन में इस मसले पर उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी अर्थव्यवस्था व बेरोजगारी को लेकर हुई।
कहना होगा कि देश के अधिकतर उच्च शिक्षा संस्थानों में क्या कोरोना काल हो या सामान्य काल हो, वहां शैक्षिक माहौल हमेशा से बदहाल रहा है जो अब और बदतर हो गया है। उच्च शिक्षण संस्थानों के प्राध्यापकों को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की छूट ने उन्हें अपने मूल दायित्वोंं से विमूख करने के साथ उन्हें अपनी उत्पादकता के प्र्र्रति लापरवाह बनाया है। विश्वविद्यालयों  कुलपतियों की  नियुक्ति में राजनितिक लॉबी और भ्रष्टाचार  चरम  पर है जबकि निजी क्षेत्र में तो स्थिातियां उलट है, वहां शिक्षकों को अपने काम के बराबर उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। इन परिस्थितियों में भारत के शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय की बढोत्तरी का सवाल बाद में आता है इससे पहले तो वहां की कार्यपरिस्थितियां को पेशेवर, उत्पादक, गुणवत्ता परक, लागत संवेदनशील बनाये जाने की जरूरत है। इसीलिए अब ये सवाल बेहद मौजू है कि देश में शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपस्थित निजी व सार्वजनिक दोनों के लिए एक नियमन प्राधिकरण बनाये जायें जिससे अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र की भांति यहां भी लेवल प्लेयिंग की स्थिति उत्पन्न हो। जबतक निजी क्षेत्र द्वारा छात्रों से एक निर्धारित व वाजिब शुल्क लेने की परिपार्टी नहीं बनती तथा सरकारी क्षेत्र द्वारा चालित हमारे युनिवर्सिटी कैंपस उत्पादक नहीं बनते, तबतक वे दुनिया में सेंटर फार एक्सीलेंस नहीं बन सकते ।
भारत में नयी शिक्षा नीति के तहत शिक्षा के भाषाई माध्यमों को लेकर एक सुस्पष्ट नीति बेशक अख्तियार की गई है। लेकिन इसके अलावा देश में हर तरह की शिक्षा में एक अधिमानक सिलेबस बनाने और फिर शिक्षा के  अर्थशास्त्र को लेकर  इसे  एक नियमन प्राधिकरण के गठन के जरिये उसे सुलझाए जाने की जरूरत है। देश के सभी शैक्षिक संस्थानों की अलग अलग गुणवत्ता रैंकिंग के बनाने के बजाए क्यों नहीं हम इन सभी को एक बराबर निर्धारित उच्च मानक स्तर पर लाते? हमे कहना होगा कि भारत जैसे घोर विषमता मूलक देश में यदि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम और रोजगार को लेकर एक देशव्यापी, सर्वग्राही और एक समान बुनियादी,नीतिगत'क़ानूनगत  व वित्तीय संरचना गठित नहीं करते तबतब भारत में इस विषमता की तेजी से बढ रही
  खाई को    हम  नहीं पाट सकते ।

भारतीय अर्थव्यवस्था 2022 में अभूतपूर्व उछाल लेगी बशर्ते.

 भारतीय अर्थव्यवस्था 2022 में अभूतपूर्व उछाल लेगी बशर्ते...

                                                            मनोहर मनोज
यदि कोविड महामारी की तीसरी लहर ने दस्तक नहीं दी और इसके साथ ही इसके नये खतरनाक वेरियेंट ओमिक्रेन के दहशत पर काबू पा लिया गया तो यकीन मानिये साल 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था अभूतपूर्व उछाल दर्ज करेगी। अभी मौजूदा स्थिति पर गौर करें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के कु लांचे भरने की जमीन बेहद अनुकूल दिखाई पड़ रही है। कहना होगा 2021 के उत्तरार्ध में कोविड की दूसरी मारक लहर से उबरने के बाद भारत अर्थव्यवस्था के अनेकानेक मानकों पर जो उभार दर्ज हुआ है वह आगामी साल 2022 के लिए आशाओं के नये आयाम बुन रहा है। इस क्रम में कोविद के करीब 150 करोड़ टीके देते हुए वर्ष 2021 की दूसरी छमाही में जहां औद्योगिक उत्पादन में बढोत्तरी, बाजार मांग में अभूतपूर्व बढोत्तरी, बुनियादी उद्योगों की तेज पकड़ती रफतार, विकास जनित आयात में बढोत्तरी से विदेशी मुद्रा कोष का  हो रहा खर्च, नये इपीएफ खातों में बढोत्तरी से रोजगार दर में उपजा आशावाद, शेयर बाजारों में दर्ज हो रहा अभूतपूर्व उछाल, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में आई मजबूती, बैंकों के एनपीए में आ रही कमी तथा सरकार के राजस्व में हो रही बढोत्तरी तथा वित्तीय घाटे के लक्ष्य से कम होने के इनकान से वर्ष 2022 क ी अर्थव्यवस्था के लिए एक बेहतर जमीन दिखायी पड़ रही है। पर इन सबसे इतर नये साल 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था का जो सबसे बड़ा सवाल बनेगा वह ये कि सरकार अपने तई लायी गई सार्वजनिक परिसंपत्ति मौद्रिकीकरण योजना के रोडमैप पर किस तरह काम करने जा रही है, इसके निर्धारित लक्ष्य को कितना हासिल करने जा रही है?  कुल मिलाकर मोदी सरकार का यह कदम भारतीय अर्थव्यवस्था की किस तरह की दशा उत्पन्न करने जा रहा है साथ ही किस तरह की दिशा निर्धारित करने जा रहा है, वर्ष 2022 में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा। पर इस पहलू की मीमांसा करने के पहले साल 2021 में घटित उन दो घटनाक्रमों पर नजर दौड़ाना भी बेहद महत्वपूर्ण होगा जिसके मायने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम है। पहला ये कि मोदी सरकार ने कोविड 19 महामारी के उपरांत पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी करारोपण कर अपने राजस्व संतुलन को साधने का जो प्रयास किया था वह लंबे अरसे तक देश की आम जनता पर भारी बोझ का बायस बना।  इस बोझ से निजात तब मिली जब कुछ महीने पूर्व हु ए उपचुनावों में हार से घबड़ाकर सत्तारूढ एनडीए ने पेट्रोल व डीजल की क ीमतों में उत्पाद कर की कटौती के जरिये क्रमश: दस व पांच रुपये की कटौती की। इस कदम से ना केवल आम जनता को राहत मिली बल्कि मुद्रा स्फीति की दर को एक सही सीमा तक सीमित करने में मदद मिली जिस कदम की भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने भी सराहना की। दूसरा कदम मोदी सरकार ने जो उठाया वह भी एक राजनीतिक दबाव के तहत यानी यूपी विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर लिया गया, वह था किसानों के करीब एक साल से चल रहे महाआंदोलन की प्रमुख मांग तीन कृषि कारपोरेट कानूनों की वापसी का। इससे किसान आंदोलन समाप्त हो गया। परंतु किसान संगठनों की दूसरी मुखय मांग एमएसपी को कानूनी दर्जा को लेकर सरकार द्वारा कोई एकमुश्त घोषणा ना कर एक विशेषज्ञ कमेटी गठित कर उसमे किसानों के प्रतिनिधियों को शामिल करने की बात कही गई है। दरअसल वर्ष 2021 के उत्तरार्ध में मोदी सरकार द्वारा लिये गए ये दोनो पहल वर्ष 2022 की भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बड़े उत्प्रेरक का काम कर सकती हैं। यदि केन्द्र व राज्य सरकारें अपने राजस्व में हो रही बढोत्तरी को देखते हुए अपने उत्पाद व वैट शुल्कों में कटौती कर पेट्रोलियम कीमतों में और कमी लाती हैं तो वर्ष 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था  के विकास दर पर यह सकारात्मक असर डालेगा। दूसरा यदि एमएसपी को कानूनी दर्जा मिल जाता है तो भारतीय कृषि के लिए अबतक का सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन होगा। यह एक ऐसा कदम होगा जो भारतीय कृषि की उत्पादकता में व्यापक बढोत्तरी लाने के साथ साथ सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी बढाने के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को एक नया संबल प्रदान करेगा। दरअसल अंग्रेजी मीडिया में जो कृषि विशेषज्ञ तीन कृषि कारपोरेट कानून को वापिस लिये जाने के कदम को सुधारों से पीछे हटने की कवायद मान रहे हैं दरअसल ये लोग भारतीय कृषि की सामाजिक आर्थिक व पेशेवर परिस्थितियों से बेहद अनजान हैं। एमएसपी प्रणाली में अधिकाधिक कृषि उत्पादों को शामिल करना, एमएसपी की दरों को लागत युक्त वाजिब बनाना, कृषि उत्पादों के मूल्यों को समयानुसार भुगतान सुनिश्चित करना तथा इन सभी को एक व्यापक कानूनी दायरा प्रदान करना ही सबसे बड़ा सुधार है। इसके बाद ही कारपोरेट क्षेत्र के कृषि क्षेत्र में निवेश को आकर्षित किये जाने का प्रश्र उठता है।
इन दोनो कदमों के इतर साल 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था का समूचा मयार मोदी सरकार के सार्वजनिक परिसंपत्ति के मौद्रिकीकरण अभियान पर निर्भर करेगा। बताते चलें वर्ष 2021-22 के बजट क ी घोषणा के मद्देनजर अगले चार साल यानी वर्ष 2025 तक सार्वजनिक परिसंपत्त्यिों सड़क राजमार्ग, रेलवे, पावरग्रिड, बिजली उत्पादन, गैस पाइपलाइन, बंदरगाहों, टेलीकाम टावर, शहरी रियल इस्टेट, हवाई अड्डे, स्टेडियम व खानों को निजी उपयोग की इजाजत देकर करीब कुल छह लाख करोड़ रुपये की उगाही किये जाने का एक रोड मैप प्रस्तुत किया। यह एक ऐसी कदम था जो विगत में नयी आर्थिक नीति के तहत निजी व सार्वजनिक भागीदारी व एक नियमन व किराया प्राधिकरण के तहत निजी सार्वजनिक प्रतियोगिता के माडयूल से बिल्कुल अलग दिखायी पड़ा। इस कदम में सरकार का ना तो कोई नीति वक्तव्य था और ना ही कोई लेवल प्लेयिंग की अवधारणा। कुल मिलाकर इस कदम से मोदी सरकार पर सब कुछ बेचूए का आरोप लगता रहा है वह आरोप और परिपक्व होता दिखायी पड़ा । बताते चलें इस कदम के जरिये मोदी सरकार ने जो अपना रोडमैप बनाया है उसके तहत मौजूदा वित्त वर्ष 2021-22 में 88 हजार करोड़, 2022-23 में 162 हजार करोड़, 2023-24 में 179 हजार करोड़, 2024-25 में 167 हजार करोड़ रुपये की उगाही का लक्ष्य है। अलग अलग सेक्टर की बात करें तो सर्वाधिक राजमार्गो के जरिये 160 हजार करोड़, रेलवे से 152 हजार करोड़, बिजली ट्रांसमिशन से 45 हजार तथा बिजली उत्पादन से 40 हजार करोड़, गैस पाइपलाइन से 24 हजार करोड़, टेलीकाम से 35 हजार करोड़, भंडार गृहों से 29 हजार करोड़, खानों से 29 हजार करोड़, बंदरगाहो ंसे 13 हजार करोड़, स्टेडियमों से 11 हजार करोड़ तथा शहरी रियल इस्टेट से करीब 15 हजार करोड़ की उगाही का लक्ष्य है।
कुल मिलाकर इन सभी सार्वजनिक परिसंपत्त्यिों से उपयोग शुल्क के जरिये आमदनी प्राप्त करने का आइडिया उपरी तौर पर सही लगता है। सरकार के सभी संसाधन चाहे वह भौतिक आधारभूत हों या फिर इसके मानव संसाधन ही क्यों ना हो, उनकी समुचित उत्पादकता व आमदनी निषेचित किया जाए। पर इन सभी कदमों को बिना एक समूचा परिचालन माडयूल व कार्य प्रणाली लाये तथा बिना एक बड़े नीतिगत वक्तव्य जारी किये जो लाया गया है वह कई सारे संदेहों को जन्म देता है तथा मोदी सरकार के बारे में बनी इस धारणा को भी संपुष्ट करता है कि यह सरकार अपना सब कुछ कारपोरेट को बेच देना चाहती है। कुल मिलाकर आगामी 2022 में भारतीय अर्थव्यवस्था का समूचा सूरतेहाल व दारोमदार इन्हीं कदमों से निर्धांरित होने जा रहा है बशर्ते कोविड महामारी की नयी धमक फिर से सबकुछ मटियामेट ना कर दे।

कोविड काल में तो दुनिया भ्रष्टाचारों से और ज्यादा दो चार हुई

 कोविड काल में तो दुनिया भ्रष्टाचारों से और ज्यादा दो चार हुई

मनोहर मनोज
अभी अभी जो अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार रोधी दिवस मनाया गया उसके मायने कुछ ज्यादा ही ध्यानाकर्षित करने वाले थे। मतलब ये था कि कि पिछले करीब दो सालों से एक अप्रत्याशित व अभूतपूर्व महामारी का सामना कर रही दुनिया ने सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचारों की हरकतों से भी ज्यादा दो चार हुई। व हरकत जो सामान्य लीक से हटकर और ज्यादा क्रूर थी। कहना होगा कोविड महामारी के मद़देजनर जहां समूचा जनसमुदाय कोविड आपदा  के बुनियादी राहत व स्वास्थ्य सुविधाओं को हासिल करने की आस लगाया हुआ था वही जनता अपने सरकारों की नौकरशाही के जरिये भ्रष्टाचार,असंवेदनशीलता, स्वविकेक अधिकारों के दुरुपयोग, राहत कोष के बंदरबांट तथा निजी अस्पतालों द्वारा की जा रही अभूतपूर्व लूट का भी सामना कर रही थी। दुनिया भर के देशों के भ्रष्टाचारों की सूची व रैंकिंग निर्मित करने वाली ट्रांन्सपरेन्सी इंटिरनेशनल ने तो इस कोविड महामारी को दुनिया के कई देशों के हुक्मरानों के लिए सार्वजनिक फंड क े दुरुपयोग करने , निविदा प्रदान करने में अनियमताएं बरतने के साथ साथ लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचले जाने का भी गंभीर इल्जाम लगाया। ट्रांसपरेन्सी इंटरनेशनल की अध्यक्षा डेलिया फरेरा रुबियो ने तो यहां तक कहा कि कोविड 19 सिर्फ एक स्वास्थ्य और आर्थिक संकट नहीं है बल्कि पूरी दुनिया के लिए यह भ्रष्टाचारों का भी एक संकट रहा है जिसका बेहतर प्रबंध करने में हम विफल हो रहे हैं। टीआई संस्था ने माना कि कोविड-19 काल में दुनिया के तमाम देशों में मौजूद संरचनात्मक भ्रष्टाचारों ने अपना ज्यादा ही विद्रूप रूप अख्तियार किया जिससे कोविड 19 को लेकर किया जाने वाला राहत कार्य बाधित हुआ।
भ्रष्टाचार और लोकतांत्रिक अधिकारों का किस तरह से कोविड काल में हनन हुआ उसका ब्यौरा विस्तृत है। क्योंकि भ्रष्टाचार की रोकथाम करने के मामले में दुनिया के दो तिहाई देशों का अंक पचास से नीचे है वही कई देशों में निरंकुश व अधिनायक प्रवृति वाले शासकों ने जनता के मौलिक अधिकारों का हनन किया। सबसे पहले भारत की बात करें तो उपरोक्त दोनो बातें यहां भी भली भांति देखी गईं। यहां भी भ्रष्टाचार का टीआई सूचकांक गत वर्ष के 76 पायदान से बढकर वर्ष 2021 में 86 हो गया तथा भारत के भ्रष्टाचार रोकथाम को लेकर किया जाने वाला प्रयासों का अंक मात्र 40 था जो टीआई के औसत स्कोर 43 से भी नीचे था। कोविड 19 में लौकडाउन के नाम पर करोड़ों लोगों को अपने स्वजनों से दूर रहने के लिए विवश कर उन्हें हजारों किलोमीटर दूर स्थित अपने ठिकाने पर जीते मरते पैदल चलने के लिए विवश किया गया। इतना ही नहीं राहत कोष के चंदे सरकार के आधिकारिक कोष में ना लेकर एक नये गठित कोष में लिये जाने के इल्जाम लगे।
दुनिया के आंकड़े पर गौर करें तो  ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के इस साल का भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई) ने यह साबित किया कि दुनिया के अधिकतर देशों ने  इस दौरान भ्रष्टाचार से निपटने में बहुत कम या कोई प्रगति नहीं की है और दो-तिहाई से अधिक देशों का स्कोर 50 से नीचे देखा गया। टीआई के विश्लेषण  ने तो यह साफ साफ जता दिया कि कोविड-19 न केवल एक स्वास्थ्य और आर्थिक संकट है, बल्कि एक भ्रष्टाचार संकट भी है, जिसके घातक प्रभावों के कारण असंख्य लोगों की जानें चली गई।  टीआई ने तो भ्रष्टाचार से ग्रसित देशों को यह सुझाव तक दे डाला कि उनके लिए यह आवश्यक है कि वे अपनी 1. निगरानी संस्थानों को मजबूत करें और यह सुनिश्चित करें कि संसाधन उन लोगों तक पहुँचें जिनकी सबसे अधिक ज़रूरत है 2. खुला और पारदर्शी अनुबंध सुनिश्चित करें क्योंकि यह माना गया कि कई सरकारों ने कोविड की वजह से खरीद प्रक्रियाओं में भारी ढील दी तथा जल्दबाजी व अपारदर्शी प्रक्रियाओं से भ्रष्टाचार और सार्वजनिक संसाधनों के दुरुपयोग के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान किया। 3 टीआई ने यह सुझाव दिया कि नागरिकों को स्पेस प्रदान कर लोकतंत्र की रक्षा सुनिश्चित की जाए। क्योंकि कई सरकारों ने कोविड काल में संसदों को निलंबित करने, सार्वजनिक जवाबदेही तंत्र को त्यागने और असंतुष्टों के खिलाफ हिंसा भड़काने के लिए इस महामारी का फायदा उठाया। नागरिक दायरों व स्पेस की रक्षा के लिए, नागरिक समाज समूहों और मीडिया के अधिकारों को नुकसान पहुंचाया गया। 4 सरकारें प्रासंगिक डेटा प्रकाशित करने में भी विफल रहीं।  
कहना होगा कि भ्रष्टाचार संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग की प्रमुख बाधाओं में से एक है जिसे कोविड-19 महामारी ने और भी कठिन बना दिया। क्योंकि संकट के प्रभावों के आग में भ्रष्टाचार अक्सर और घी डालने का काम करता है। गौरतलब है कि दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली देश अमेरिका में इस दौरान भ्रष्टाचार की रैकिंग 2012 के बाद से अपने सबसे निचले स्थान पर पहुंच गया। करीब एक खरब डालर के अभूतपूर्व कोविड-19 राहत पैकेज की निगरानी के लिए अमेरिकी प्रशासन को भी भ्रष्टाचार की गंभीर चुनौतियों से दो चार होना पड़ा। इतना ही नहीं दुनिया भर के अन्य क्षेत्रों की तरह, अमेरिका में भी सरकारों ने कोविड-19 से लडऩे के लिए नागरिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने तथा विभिन्न राज्यों में आपातकाल लागू करने के रूप में असाधारण उपाय किए। इन प्रतिबंधों में वहां भाषण और सभा की स्वतंत्रता में कमी, कमजोर संस्थागत नियंत्रण व संतुलन तथा नागरिक समाज के लिए कम स्थान छोडने सभी शामिल थे।
फिलीपींस में कोविड 19 के बहाने मानवाधिकारों और मीडिया की स्वतंत्रता के उल्लंघनों की खबरें आर्इं। यूरोप के कई देशों में वहां के प्रशासन में पूर्ण पारदर्शिता और जवाबदेही का अभाव पाया गया। एशिया प्रशांत और अमेरिका में, कुछ सरकारों ने तो कोविड 19 का इस्तेमाल अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए किया लेकिन अपने नागरिकों को आपातकालीन सहायता के बिना छोड़ दिया। मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्र ीका में, देशों ने भ्रष्टाचार विरोधी उपायों को कमजोर कर दिया, जबकि पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के कुछ हिस्सों ने निगरानी कम कर नागरिक स्वतंत्रता को और कम कर दिया।
अफ्रीकी देशों की बात करें तो सहारा जोन के देशों में जीवन की बढ़ती लागत, भ्रष्टाचार और आपातकालीन धन के दुरुपयोग किये जाने की खबरें आईं। लैटिन अमेरिकी देशों में  निकारागुआ,हैती और वेनेजुएला तो भ्रष्टाचार को लेकर निम्रतर प्रदर्शन करने वाले रहें। ट ीआई की रिपोर्टों पर गौर तरें तो कोविड 19 महामारी ऐसी आपदा बनी जिस ने  महिलाओं, लड़कियों, स्वदेशी समूहों, बुजुर्गों, प्रवासियों और एफ्रो-अमेरिकियों सहित कमजोर आबादी पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव डालने के साथ वहां उपजी गहरी सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को भी उजागर किया है। कोलंबिया जैसे देशों में तो कोविड काल मेंं सत्ता का एक खतरनाक केन्द्रीकरण देखा गया। अल सल्वाडोर में कोविड 19 संबंधित खरीद से संबंधित अनियमितताएंं और भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए । नॉर्वे की सरकार ने आपातकाल की स्थिति घोषित की जिसने संवैधानिक नियमों को चुनौती दी। कोविड-19 के कारण, कम से कम 11 यूरोपीय संघ के देशों में चुनाव देरी से हुए। कुल मिलाकर कोविड -19 महामारी ने समूची दुनिया में कानून के शासन से संबंधित गंभीर मुद्दों को उजागर कर दिया जिससे भ्रष्टाचार के साथ लोकतंत्र और भी कमजोर हुआ

बैंक डिफाल्टरों पर सख्ती बरतने का वित्त मंत्री का बयान सराहनीय

 बैंक डिफाल्टरों पर सख्ती बरतने का वित्त मंत्री का बयान सराहनीय

मनोहर मनोज
अभी कुछ दिन पूर्व अपने कश्मीर दौरे के दौरान केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बयान दिया जिसमे उन्होंने सरकार द्वारा देश के सभी बैंक डिफाल्टरों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई किये जाने की बात कही। उन्होंने यह कहा कि देश में बैंकों के साथ धोखाधड़ी कर या उनसे लिये गए कर्ज की रकम पचाने वाले देश के अंदर और विदेश भागने वाले डिफाल्टरों की की एक बहुत बड़ी तादात है जिनसे सरकार लगातार 
 सख्ती   बरतने की अपनी नीति पर काम कर रही है।
 कहना होगा पिछले एक दशक के दौरान देश में जिस तरह बैंकों की अनुत्पादक परिसंपत्ति यानी एनपीए की रकम छह लाख करोड़ रुपये से करीब दोगुनी बढकर उनकी कुल परिसंपत्ति की करीब बारह फीसदी हो गई थी, वह देश की अर्थव्यवस्था की एक बेहद चिंतनीय तस्वीर उपस्थित कर रही थी। देश के आर्थिक भ्रष्टाचारियों के लिए तो बैंक ही सबसे बड़े साफ्ट टार्गेट बने हुए थे और कर्ज लेकर लापता होने व इन्हें नहीं चुकाने वालों की एक लंबी सूची और इसका एक विशाल स्वरूप देश में निर्मित हुआ जा रहा था। एक तरह से लाइलाज बन चुकी इस बैंकिंग बीमारी के इलाज को लेकर वित्त मंत्री का यह संकल्प बेहद सराहनीय है। यह बताना जरूरी है कि देश में अभी विभिन्न  बुनियादी समस्याओं और मूलभूत राष्ट्रीय लक्ष्यों के मार्ग में जो कुछ बड़े अवरोध हैं मसलन अनेकानेक स्वरूपों में उत्प्रकटित प प्रसरित हो रहे  भ्रष्टाचारों, बेलगाम बढता कालाधन व बेनामी संपत्ति का आकार, कर चोरी व कर विवादों इत्यादि के साथ साथ बैंकों के एनपीए का बढता दैत्याकार भी इसमे प्रमुख रूप से शामिल रहा  है।
गौरतलब है कि हमारे देश में भ्रष्टाचार का सर्वप्रमुख स्वरूप यानि मौद्रिक भ्रष्टाचार अलग अलग दौर में अलग अलग रूपों में अवतरित होता रहा है। मसलन 1990 के दशक में देश में कुकरछत्ते की तरह उग आए नान बैंकिग कंपिनयों का दौर आया जिन्होंने लोगों को असामान्य रूप से ज्यादा ब्याज का लालच देकर उनसे अरबों खरबों की जमाएं ली और एक अरसे बाद इनमे अधिकतर कंपनियां भूमिगत हो गईं। इनके करोड़ो जमाधारकों की पेशानी पर बल पड़ गया, किसी के  बेटियों की शादी रुक गई, बच्चों की पढाई बाधित हो गई, किसी का इलाज रुक गया। फिर दो हजार के दशक में रियल इस्टेट कंपनियों ने अपने प्रीलांच हाउसिंग स्कीमों के लुभावने प्रस्ताव दिखाकर निवेशकों से लाखों करोड एैंठकर रफूचक्क र होने का दौर देखा गया।  फिर 2010 के दशक में सस्ती मुद्रा नीति व रियायती कर्ज नीति का फायदा उठाकर देश के तमाम  छोटे बड़े व बड़े कारपोरेट कारोबारियोंंं ने बैंकों से जमकर क र्ज लिये और फिर उसके बाद सभी को मालूम ही हैं कि कहानी क्या घटित हुई?  विदेशों में भागे  कर्जदारों में विजय माल्या, ललित मोदी, नीरव मोदी, मेहूल चौकसे के नाम से अबतो सभी  लोग वाकिफ  हैं। कहना होगा जब पीएनबी बैंक से स्विफट स्कीम का फायदा उठाकर मामा भांजे यानी चौकसे व नीरव मोदी द्वारा करीब 11 हजार करोड़ रुपये की विशाल कर्ज राशि के गबन का मामला आया तब इसके ठीक बाद देश की जांच एजेंसियों ने इसी सरीखी करीब एक दर्जन और बैंकमारी की घटनाओं का पता लगाया जिनकी रकम भी सैकड़ो व हजार करोड़ रुपये में पायी गई थी। कहना होगा  जब इन सभी बैंकों के कर्ज घोटाले उजागर हो रहे थे तब हमारे देश में बैंकों की कर्ज नीति के हैरतनाक रवैये को लेकर भी लोगों का गमोगुस्सा भी  चरम पर पहुंच रहा था । बात ये उभरी कि जो बैंक एक छोटे कर्ज की रकम लेने के लिए कर्जदार को नाकोचने चबवा देते हैं वे  बैंकर हजार करोड़ में कर्ज लेने वालों के प्रति आखिर इतनी ढिलाई व लापरवाही कैसे दर्शाते है? सवाल है कि देश के बैंकों ने अबतक अपनी कर्जनीति को बिल्कुल नीतिसम्मत  व पारदर्र्शी क्यों नहीं बनाया है? जब लोगों  को दिये जाने वाले कर्जे की संस्तुति बैंकरों के विवेक पर छोड़ दी जाएगी तो उसमे भ्रष्टाचार तो होगा ही साथ साथ निवेश व कर्ज की असुरक्षा भी चरम पर होगी। आज तक हमारी बैंकिंग व्यवस्था में यह अवधारणा नहीं  पनप पायी कि कोई भी कर्ज की रकम बिना सममूल्य जमानत राशि लिये  सुरक्षित हो ही नहीं सकती। पर हमारे बैंकरों ने छोटे कर्जदारों को तो कही का ना छोड़ा पर बड़े कर्जदारों के साथ तो उन्होंने एक तरह से कल्युजिव करप्शन यानी साझा भ्रष्टाचार की मिशालें पेश की है। यही वजह है कि अबतो बैंकों के सर्वोच्च पदाधिकारियों के कटघड़े में जाने की खबरें आने लगी हैं।
बहरहाल वित्त मंत्री द्वारा बैंक डिफाल्टरों पर कड़ी कार्रवाई कर उनसे कर्ज वसूली की रफतार को तीव्र बनाने को लेकर अपने समाधान सूत्रों का जो खुलासा किया गया है उसमे उन्होंने बैंक की फंसी पूंजी की वसूली के चार सूत्रों की बात कही  है। उनके ये सूत्र चार आर पर आधारित हैं  जिसमे पहला रिकोगनीशन यानी कर्जदारों की पहचान-दूसरा रिजोल्युशन यानी सुलह-समाधान-तीसरा रिकैपिटलाइजेशन यानी पूनरपूंंजीकरण और चौथा रिफोर्म यानी सुधार इ न चारों का वित्त मंत्री ने उल्लेख किया है।  गौरतलब है कि वित्त मंत्री के इस संकल्प की सच्चाई अभी कुछ दिन पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा देश के बड़े बैंकरों के साथ हुई बैठक में दी गई इस जानकारी से भी साबित होती है जिसमे उन्होंने पिछले सात साल के दौरान देश के बैंकों द्वारा कुल करीब पांच लाख करोड़ रुपये की की फंसी पड़ी परिसंपत्ति की उगाही की बात कही। इसके साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह भी उल्लेख किया कि उनकी सरकार  राष्ट्रीय बैंकिंग परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कोष योजना के जरिये करीब दो लाख करोड़ रुपये की फंसी पड़ी परिसंपत्ति की और रिकवरी करेगी। कही ना कही प्रधानमंत्री का यह बयान मौजूदा बैकिंग परिदृश्य के लिए एक बेहद आशाजनक तस्वीर उपस्थित करता है।
इसके इतर अभी केन्द्रीय प्रवर्तन निदेशालय की तरफ से एक सूचना जारी की गई है जिसमे यह बताया गया कि निदेशालय द्वारा अभी तक विजय माल्या, मेहूल चौकसे व नीरव मोदी की भारत स्थित करीब 9300 करोड़ सममूल्य की परिसंपत्ति उनके कर्जदाता सार्वजनिक बैकों को स्थानांतरित की जा चुकी है।
कहना होगा कि देश में ऐसे  मानसिकता वाले भ्रष्टाचारियों की एक बहुत बड़ा तबका है जो बैंकों से बड़े बड़े कर्ज लेकर उन्हें डकारने की जुगत में लगा रहता है। इस मानसिकता को तभी बदला जा सकता है जब देश में एक फुलप्रूफ नयी कर्ज व निवेश संस्कृति स्थापित की जाए जिसमे कोई भी कर्ज किसी भी सूरत में ना डूबे उसे लेकर हर तरह के नीतिगत व तकनीकगत  उपाय सुनिश्चित किये जाएं। मजे की बात ये है कि देश में अभी माइक्रो फाइनेन्स व स्वसहायता समूहों द्वारा लिये जाने कर्ज की अदायगी का आंकड़ा सौ फीसदी देखा जाता  है परंतु बड़े बड़े उद्योगों मसलन आटोमोबाइल, स्टील, बिजली, मोबाइल व संचार कंपनियोंं, रियल इस्टेट, उड्डयन तथा अन्य इन्फ्रा कंपनियों के कारपोरेट समूह द्वारा लिये जाने वाले कर्ज बेहद असुरक्षित दशा में क्यों  हैं?
कहना होगा बढता एनपीए देश की  बैंकिंग व्यवस्था के सीधे अस्तित्व पर हीं प्रश्न  चिन्ह खड़ा करता है जिसका समाधान  एक व्यापक, समरूप, पारदर्शी तथा स्वत: सुरक्षित जमानत के प्रावधानों के जरिये हासिल किया जा सकता है। इसे लेकर मौजूदा मोदी सरकार की पहल काबिलेतारीफ है परंतु देश में  डिफाल्टरों की एक लंबी सूची है जिसमे रियल इस्टेट, एनबीएफसी, कारपोरेट के तमाम मामलों का निपटारा अभी बाकी है और इस मामले में  आईबीबीआई अभी नौ दिन चले अढ़ाई कोस की ही चाल में चल रही है। 
लेखक प्रसिद्द पुस्तक ए क्रूसेड अगेंस्ट करप्शन के लेखक हैं 

जन से ज्यादा जनसेवक सरकारों की प्राथमिकता में क्यों

 जन से ज्यादा जनसेवक सरकारों की प्राथमिकता में क्यों

                                 मनोहर मनोज
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ सरकारों ने कोरोना काल में उपजे राजस्व संकट का हवाला देकर पेट्रोलियम उत्पादों में भारी करारोपण के जरिये जनता पर तगड़ा बोझ डाला तो दूसरी तरफ केन्द्र सरकार तथा यूपी सहित कई राज्य सरकारों ने राजस्व संकटों के बावजूद अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते व त्यौहारी बोनस पर हजारो करोड़ रकम खर्च की। पिछले डेढ वर्ष की कोरोना की चौतरफा मार से हम सबने देखा समाज का अधिकतर तबका अपने रोजगार, आमदनी और आजीविका के लिए बिलबिला रहा था वही इन सबके बीच समाज का एक तबका ऐसा था जिसे इस अभूतपूर्व व अप्रत्याशित आर्थिक संकट में भी फिक्र करने की दरकार नहीं थी। क्योंकि इस वर्ग की मोटी सैलरी बदस्तुर इनके बैंक खातों में जमा हो रही थी। सरकार द्वारा केवल इनका महंगाई भत्ता थोड़े दिन के लिए स्थगित कर दिया गया तो उनमे हाहाकर मच गया था। कोरोना की वजह से राजस्व की भयानक तंगी के बावजूद आखिरकार सरकारों को वर्ष 2020 में ही इस महंगाई भत्ते को भी देरसबेर देने के लिए विवश होना पड़ा था । यह वर्ग कौन है , यह वर्ग है  हमारी श्रम शक्ति का करीब पंद्रह फीसदी हिस्सा जो संगठित क्षेत्र कहलाता है, जो सफेद कालर कर्मचारी वर्ग कहलाता है। इनमे सरकारी कर्मचारियों का करीब शत प्रतिशत हिस्सा व कुछ बड़े कारपोरेट समूहों के कर्मचारी शामिल हैं। कोरोना की मार में वे कारपोरेट समूह जिनके व्यवसाय चपेत में आ गए थे, उन्होंने तो अपने कर्मचारियों को बाय बाय करने या उनकी सेलरी में भी भारी कटौती करने में देर नहीं लगाई।  
श्रम और ट्रेड यूनियन के मानक कानूनों का हवाला देकर हम कह सकते हैं कि कर्मचारियों के लिए पर्याप्त वेतन व महंगाई के मुताबिक उनमे निरंतर बढोत्तरी, रोजगार की सुरक्षा, छुट्टियां व तमाम सुविधाएं हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। परंतु सवाल ये है कि ये स्थितियां केवल चंद लोगों के लिए क्यों, सभी के लिए क्यों नहीं? लोकतंत्र के निजाम में भी लोक के बजाए  लोकसेवक  यदि उच्च प्राथमिकता में रखा जाए, जिसकी आमदनी व कार्यपरिस्थितियां किसी भी संकट में टस से मस ना हो और देश के बाकी लोगों के संकटों में भी इसे साझेदार ना बनाया जाए तो आखिर इस लोकतंत्र को कुलीन तंत्र क्यों ना माना जाए? वह कुलीन वर्ग जिसकी हर संकट में सरकारें सुध रखती हों और पिचासी फीसदी कामगारों को हर मामले में चाहे वेतन की पर्याप्तता हो, नौकरी की सुरक्षा हो या अन्य कार्यपरिस्थितियों को मुहैय्या करना हो, उन्हें उपेक्षित रखती हों तो आखिर किसी भी सरकार या शासन व्यवस्था की यह किस प्रणाली की ओर इशारा करता है? यानी सरकारों के कर्मचारी तो दुलारू पूत बनकर रहेंगे और बाकी लोग सौतेले पूत। शासन की नैतिकता तो यह कहती है कि संकट के दौर में सरकार की तरफ से समाज के हर वर्ग को एक बराबर  ट्रीट किया जाना चाहिए। नौकरी की सुरक्षा या तो सबके लिए हो या किसी के लिए भी नहीं हो, वेतन की सुनिश्चितता सभी कामगारों के लिए हो या सभी के वेतन उसकी उत्पादकता व प्रदर्शन से जोड़ कर रखी जाए, वेतन आयोग का गठन सभी श्रेणी के कामगारों के लिए हो, यानी देश में एक बराबर श्रम नीति, एक बराबर रोजगार नीति और इन सभी के पूर्व एक समान शिक्षा नीति हो। 
कहना होगा भारत में जहां पर दुनिया में विषमता व असमानता की सबसे गहरी खाई दिखाई पड़ती है, वह खाई इस कारोना की लंबी अवधि के दौरान और भी गहरा गई। वजह साफ थी समाज के एक वर्ग के लिए आय सुरक्षा का माहौल था तो बाकियों के लिए घोर असुरक्षा। इस दौरान शेयर बाजार पर नजर डालें तो अमीर तो बेशुमार अमीर बन गए और गरीब  और कंगाल बन गए। कोरोना के दौरान सरकारों के पे रौल पर चलने वाले कर्मचारियों में कुछ वर्ग तो आफिसों में जाने की जोखिमें भी ले रहा था और कुछ दफतरों में आने जाने की खानापूर्ति भी कर रहा था पर कई ऐसे थे जो पूरे डेढ साल अपने कार्यस्थल नहीं गए पर उनकी तनखवाहें उनके तन की खवाहिशें पूरी करने बेरोकटोक जारी थीं। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में पूरी पढाई बंद थी पर लाखों प्राध्यापक लाखों रुपये की सैलरी ले रहे थे । वैसे भारत के उच्च शिक्षा परिसरों में तो पढाई का ये आलम है कि वह किसी न किसी वजह से हर समय अघोषित कोरोना काल होता है। करोड़ो स्वरोजगारी, कारोबारी व असंखय उद्योगों पर निर्भर करने वाले करोड़ो लोगों के पास संकट काल में अपने को बचाने का कोई उपाय नहीं था।  ऐसे में सवाल है कि जब संकट काल आता है तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी वर्गों को संकट का एक बराबर हिस्सेदार क्यों नहीं बनाया जाता और दूसरी तरफ राहतों के मामले में सबका एक बराबर क्यों नहीं ध्यान रखा जाता। ऐसा नहीं हो सकता कि एक वर्ग को हर हाल मे सरकार की तरफ से सुरक्षित बनाया रखा जाए और बाकियों को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया जाए।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोरोना के मद्देनजर सभी सांसदों व मंत्रियों के वेतन में पच्चीस फीसदी की कटौती की और उनकी सांसद निधि योजना स्थगित कर दी जो एक सराहनीय कदम था, परंतु यही कटौती सभी शासकीय कर्मचारियों के वेतन में भी क्यों नहीं लागू की गई? मतलब ये है कि संगठित समूह के कामगारों के वेतन में आधी भी कटौती कर दी जाए तब भी इनके चूल्हें पर संकट नहीं होता लेकिन वे लोग जो एक दिन काम नहीं करेंगे उनके शाम का चूल्हा नहीं जलता। हमारे यहाँ दो लाख माहवारी पेंशन पाने वाले है और दो सौ वाले भी, पर दो सौ वालो को पेंशन अनियमित है और दो लाख वालों का नियमित। 
कहना होगा अपने कर्मचारियों के हितों को पहली प्राथमिकता में रखे जाने की यह शासकीय संस्कृति कोई मौजूदा नरेन्द्र मोदी की सरकार में नहीं उपजी है, बल्कि यह पहले से ही कायम है। पर विडंबना ये है कि नये तरीके से सोचने व काम करने वाली सरकारें भी इस बेहद अहम पहलू पर अपना सेकेन्ड थौट नहीं दर्शा पातीं। आखिर ऐसा क्यों है? हम लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते हैं, एक दल दूसरे दल पर हमले करने और उसे नंगा करने में अपनी सारी शक्ति व समय लगा देते हैं, मीडिया भी अपने विशलेषण में सरकारों के पालीटिकल आइडियोलाजी से इतर अन्यत्र ध्यान नहीं देती।  इनका ध्यान उस ढांचे पर नहीं जाता जिसका निजाम किसी भी दल की सरकार हो वह हमेशा कायम रहता है। यह वर्ग किसी भी सूरत में अपने हित को बनाये रखता है क्योंकि सरकार के भीतर प्रमुख फैसले लेने वाला  वर्ग 
यही है। यही सरकार है। यह कहने के लिए लोकसेवक है पर है यह लोकस्वामी जिनके हितों पर किसी भी तरह की आंच नहीं पड़ती।  असल बात ये है कि लोकतांत्रिक सरकारें देश के संगठित कामगार वर्ग और उसमे शामिल क रीब तीन करोड़ सरकारी कर्मचारियों को एक मजबूत दबाव समूह व एक बड़ा वोट बैंक समझकर इन्हें छेडऩे का जहमत नहीं उठातीं और लोकतंत्र के अधीन एक अलोकतांत्रिक व कुलीन तंत्र को पोषित कर रही होती हैं। ऐसे में यह सवाल बड़ा लाजिमी बन जाता है कि इन्हें अमेरिकी व्यवस्था की तरह पालीटिकल रिजीम के बदलाव के साथ ब्यूरोक्रेटिक रिजीम के बदलाव के दायरे में लाया जाए या फिर इन्हें आम लोगों के मतदान के अधिकार दायरे से वंचित रखा जाए । यदि उपरोक्त में से कोई एक स्थिति नहीं लायी जाएगी तो ऐसे में यह वर्ग पालीटिकल समूह को अपने ब्लैकमेलिंग के दायरे में रखने में हमेशा सफल होता रहेगा और जनतंत्र में जन के बजाए जनसेवकों का ही तंत्र चलता रहेगा। तीसरा विकल्प ये बचता है कि इन्हें  कारपोरेट तंत्र की तरह काम नहीं तो दाम नहीं की नीति पर लाया जाये ।

एमएसपी को कानूनी दर्जा भारतीय कृषि की सबसे बड़ी जरूरत

 एमएसपी को कानूनी दर्जा भारतीय कृषि की सबसे बड़ी जरूरत

                                                            मनोहर मनोज
हर बार की तरह इस बार भी खरीफ सीजन में किसानों को अपने उत् पाद बेचने के लिए दरबदर होना पड़ रहा है। उनकी खेती के लागत के आधार पर उनके फसलों का लिवैया नहीं मिल रहा है। कई  जगह से तो किसानों द्वारा धानो से लदे ट्राली को जलाये जाने की खबरे आ रही हैं। यह सिलसिला पहले भी चलता रहा है। कभी सीजन में औने पौने दाम की वजह से सडक़ों पर टनों की मात्रा में प्याज फेके जाते रहे हैं, कभी टमाटर फेके जाते रहे हैं तो कभी दूध बहाये जाते रहे हैं। उत्पादन सीजन के दौरान कई खेती उत्पादों की हैरान कर देने वाली बेहद कम कीमतें किसानों को अपने गमोगुस्से का आखिर इसी तरीके से इजहार करने का मौका देती रही हैं। सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा हैं और दूसरा क्या इस तरह के वाक्ये को  नहीं रोक ा जा सकता है? इस मामले का बिल्कुल रामबाण इलाज हमारे सामने मौजूद है वह ये है सभी जरूरी खेती उत्पादों की न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का कानूनी निर्धारण।
यह कितनी हैरतनाक बात है कि लोककल्याणकारी राज्य  का दावा करने वाली सरकारें, देश की बहुसंखयक  किसान 
 आबादी   की हितैषी होने का दावा करने वाली सरकारें , खेतीहर अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने का दावा करने वाली सरकारें एम्एसपी को कानूनी दर्जा देने की बात को क्यों नहीं स्वीकार करती? सरकारों को यह बात या तो समझ में नहीं आ रही, या उनके जमीनी किसान हितों की समझ ना रखने वाले महानगरीय पृष्ठभूमि के सलाहकारों की वजह से उनके दिमाग पर ताले जड़ गए है कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से बचो। कानूनी एमएसपी तो एक ऐसा फार्मूला है जो एक साथ भारतीय कृषि व भारतीय अर्थव्यवस्था की कम से कम तीन बड़ी समस्या का एकसाथ समाधान कर सकती हैं। सबसे पहले तो यह खेती के सीजन में उत्पादों की एकाएक बड़ी आवग यानी ओवरसप्लाई की वजह से इसके बाजार कीमतें गिरने से बचाती है। इस वजह से किसानों की आमदनी की सुरक्षा जो उनके सीजनल पेशे की वजह से मारी जाती है उसे एक ऐसा ढाल मिलता है, जो उन्हें अगले सीजन में भी खेती के लिए प्रेरित करती है जिससे अगली बार बाजार में खेती उत्पादों की सप्लाई की किल्लत नहीं हो पाती है। क्योंकि जब जब एक सीजन में ओवर सप्लाई की वजह से फसल उत्पादों की कीमत गिरी हैं और उन्हें एमएसपी द्वारा गिरने से नहीं बचाया गया तबतब आगामी सीजन में उन उत्पादों की किल्लत और फिर उसकी आकाश छूती महंगाई होनी तय सी रही हैं। क्योंकि अगली बार किसान बेहतर दाम नहीं मिलने की वजह से उन उत्पादों की खेती नहीं करता या उसका रकबा घटा देता है। ऐसा कई बार हुआ है जब आलू ,प्याज, टमाटर, गन्ना, तिलहन की कीमतें गिरी और अगले सीजन में इनकी भयानक किल्लत हुई हैं। ऐसे में एमएसपी की व्यवस्था अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति को रोकने का एक बड़ा ढाल का काम करती हैं। बताते चलें इस ढाल का एक बार नहीं बल्कि कई बार यही फार्मूला मोदी सरकार द्वारा भी अपनाया गया । पिछली बार जब दलहन की कीमतें आसमान छूने लगीं तो उसके एमएसपी में भारी बढोत्तरी की गई और एफसीआई में दलहन के खरीद की व्यवस्था नहीं होने के बावजूद उसकी एक सीमा तक खरीददारी की गई तो देश में दलहन का उत्पादन बढ गया और लोगों को दाल की कीमतों से राहत मिली। इस बार मोदी सरकार ने तिलहन को लेकर भी यही फार्मूला अपनाया है और इस बार इ नकी एमएसपी कीमतों में भारी बढोत्तरी की गई है। एमएसपी को कानूनी दर्जा देने का जो तीसरा फायदा है कि सरकार को किसानों से हर जगह उनके उत्पाद स्वयं खरीदने की बाध्यता नहीं होगी। बताते चलें हर वर्ष गेहूं व चावल की खरीद को लेकर सरकार को अलग से भारी भरकम विशाल वित्त की व्यवस्था करनी पड़ती है जिसके लिए सरकारों को बैंकों को अरबों की राशि बतौर ब्याज देना पड़ता है।  इस कार्य के पीछे  हालांकि  भारत सरकार का उद्देश्य खेती के उत्पादों की कीमतें में गिरावट को रोकना प्रमुख नहीं  है, उनका मुखय उद्देश्य देश मे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन करना है। एक ऐसी व्यवस्था है जिसे विगत से सभी सरकारें सर्वोच्च प्राथमिकता में रखती आई और इसके लिए सरकार अपने जीडीपी का करीब एक फीसदी यानी डेढ लाख करोड़ की सब्सिडी वहन करती है। इसी प्रणाली का उपयोग कर इस बार कोविड की आपदा में मोदी सरकार ने मुफत अनाज बाटकर राजनीतिक लोकप्रियता भी हासिल की । लेकिन यदि इसी एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दिया जाए तो सरकार के बफर स्टाक यानी चार करोड़ टन के अलावा किसानों के बाकी अतिरेक उत्पादों की भी निजी संस्थाएं एक तय मूल्य पर खरीदने को बाध्य होंगी। सरकार को इसके लिए हर जगह अपना खरीद नेटवर्क, भंडारण गोदाम, वित्त व मानव संसाधन पर भारी निवेश करने की जरूरत नहीं होगी।  कहना होगा कि जबसे किसानों का आंदालन चल रहा है मोदी सरकार गला फाड़ फाडक़र कहे जा रही है कि वह किसानों से अनाज एमएसपी पर खरीदती रहेगी। सवाल ये है कि सरकार क्या खरीदकर अहसान जतायेगी? उसे पीडीएस चलाना है तो वह ऐसा जरूर करेगी। क्या  सरकार को यह बात मालूम नहीं है कि उसके एफसीआई की खरीद एजेंसियों का नेटवर्क पंजाब, हरियाणा व पं यूपी के अलावा  देश के बाकी हिस्सों में केवल छिटपुट तरीके से चलती है? सरकार यदि एमएसपी पर स्वयं खरीदना चाहती है तो वह फिर समूचे देश के सभी छह लाखों गांवों में एफसीआई की खरीद नेटवर्क स्थापित करे? जाहिर है सरकार को इसके लिए विशाल संसाधन खरचना पड़ेगा। इससे बचने का सरकार के पास बड़ा आसान उपाय है कि वह एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दे और देश के तमाम निजी कंपनियों को किसानों के उत्पाद खरीद में भागीदार बनाये। 
सबसे बड़ी हैरत तो तब होती  है कि जब  सरकार आर्थिक गतिविधियों में निजी क्षेत्र को हिस्सेदार बनाने की पूरजोर वकालतें करती है। अर्थव्यवस्था के अनेकानेक क्षेत्रों में निजी निवेश का रोडमैप बनाती है। निजी व विदेशी क्षेत्र के लिए सरकारी उपक्रमों व गतिविधियों में हिस्सेदारी प्रदान करती हैं, फिर किसानों के उत्पादों की खरीददारी में उन्हें हिस्सेदारी देने में क्यों गुरेज हो रहा है। ये बात जरूर है कि यह  हिस्सेदारी बिना कानूनी दर्जा के नहीं दिया जा सकता? क्योंकि सबको मालूम है कि खेती रोजरोज नहीं सीजन में होता है और तब अचानक आवग से इसकी कीमतें गिरनी तय होती है। ऐसे में जब सरकार इन उत्पादों को एक निर्धारित दर से कम पर यानी बाजार दर पर नहीं खरीद सकती तब हम निजी क्षेत्र को कम दर पर क्यों खरीदने दें?
 आखिर सरकार नयी आर्थिक नीति के तहत लेवल प्लेयिंग फील्ड की बात करती है तो उसे निजी क्षेत्र को भी मलह सरकारी एमएसपी दर पर खरीदने को क्यों नहीं बाध्य करनी चाहिए।

यह ठीक है कि मोदी सरकार से पूर्व की सरकारों ने भी एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की पहल नहीं की। लेकिन तीन नये कृषि कानून के विरोध में यदि किसानोंं ने इस पुराने मुद्दे को यदि जीवंत कर दिया है तो मोदी सरकार को इसे अपने अहं और प्रतिष्ठा का प्रश्र ना बनाकर इस मांग को मानकर इसका श्रेय  लेना चाहिए।  यदि मोदी सरकार ऐसा नहीं करती तो इसका मतलब साफ है कि वह निजी क्षेत्र को खेती उत्पादों के  सीजन में गिरे मूल्यों पर खरीदने के  लूट की छूट देना चाहती है।

राजमार्गों के विकास के नाम पर टोल की मनमानी वसूली क्यों

 राजमार्गों के विकास के नाम पर टोल की मनमानी  वसूली क्यों

 मनोहर मनोज
अभी हाल में एक देश एक टोल नीति के तहत देश के राजमार्गों के प्रयोगकर्ताओं के लिए देशव्यापी टोल प्रणाली फास्ट टैग की शुरूआत की गई है। इसके तहत देश भर के वाहन देश भर के किसी राजमार्ग पर आनलाइन टौल भुगतान के जरिये बेरोकटोक आवाजाही कर सकेंगे। इस नयी राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक टौल संग्रहण यानी एनइटीसी प्रणाली के तहत देशभर के सभी वाहनों से सहज व  त्वरित तरीके से टोल वसूली किये जाने की योजना है। इस नयी प्रणाली के  तहत टौल वसूली की प्रणाली पूरी तरह से पारदर्शी, एकरूप, लीकेज मुक्त होने के साथ सरकारों के राजस्व में भारी बढोत्तरी करेगी। केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के मुताबिक नयी प्रणाली से मौजूदा ६०० टोल प्लाजा से टोल वसूली की मौजूदा राशि तीस हजार करोड रुपये से बढकर एक लाख करोड़ रुपये हो जाएगी।
ऐसे में अब सवाल ये है कि देश में राजमार्गों का प्रयोग शुल्क की वसूली करना और उस राशि से देश में और नये राजमार्गों के निर्माण को विस्तार दिये जाने की अवधारणा जो बीस साल पहले देश में शुरू की गई, क्या वह नीति पूरी तरह से दुरूस्त है? न्यायोचित है? और देश में राजमार्गों की आधारभूत संरचना को प्रोत्साहन प्रदान करने का केवल यही विकल्प है? मोटे तौर पर यह बात जरूर माना जा सकता है बुनियादी संरचना किसी भी देश के आर्थिक विकास की पहली प्राथमिकता होती है। साथ ही इस बात को वाजिब माना जा सकता है कि कोई भी बुनियादी सुविधा बिल्कुल नि:शुल्क प्रदान नहीं की जा सकती। साथ ही इस बात को भी स्वीकर किया जाना चाहिए कि सरकार द्वारा बुनियादी सुविधाओंं का एक वाजिब प्रयोग शुल्क उपयोगकर्ताओं पर ओरोपित किये जाना कोई गलत नीति नहीं है। परंतु देश में राजमार्गों के प्रयोग शुल्क के रूप में टोल वसूली करना और टोल वसूली के ठेके प्रदान करने के पीछे का असल सच देश में राजमार्गों की टोल प्रणाली को लेकर कई सवाल भी खड़े करता है।
सबसे पहले तो देश में टौल नाके यानी टौल प्लाजा पर गाडिय़ों की लंबी कतार लगने, उससे जाम लगने, टौल की दरों के मनमाने और अतिशय निर्धारण करने, टोल संचालन कर्ताओं के ठेके दिये जाने की समूची प्रणाली के पारदर्शी नहीं होने, टोल शुल्क की राशि का उस राजमार्ग की मरम्मत व रखरखाव पर खर्च नहीं किये जाने, टोल लिये जाने वाले मार्ग के बेहतर रखरखाव का अभाव पाये जाने तथा टोल ठेकेदारों द्वारा राजनीतिक दलों और नौकरशाही को रिश्वतें प्रदान करने को लेकर अनेकानेक सवाल आज भी कायम हैं।
बताते चलें कि देश में बुनियादी आर्थिक विकास को लेकर जब राजमार्गों के तीव्र विकास को बड़ी प्राथमिकता दी गई तो यह माना गया कि इसके लिए पर्याप्त संसाधन की दरकार है। इस क्रम में बाजपेयी की एनडीए सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर पिचहत्तर पैसे प्रति लीटर कर अधिभार लगाया। इसके बाद भी सरकार को इस बाबत संसाधनों की पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पायी तो टोल के रूप में इसके प्रयोग शुल्क लेने की अवधारणा शुरू की गई। परंतु जब यह अवधारणा शुरू हुई तो यह माना गया कि नवनिर्मित राजमार्ग पर एक निश्चित समयअवधि तक टौल वसूला जाएगा जिससे कि उसके निर्माण राशि की भरपाई हो जाए और उसके बाद टौल लेना बंद कर दिया जाए। इस क्रम में राजमार्गों के निर्माण के लिए निजी निवेशकों को भी बीओटी, बीओएलटी और टीओटी के जरिये शामिल किया गया। बीओटी यानी बिल्ड, ओपरेट एंड ट्रांसफर, बीओएलटी यानी बिल्ड आपरेट लीज और ट्रांसफर, टीओटी यानी टौल आपरेट एंड ट्रांसफर। यानी इन तीनों प्रणाली से यह भान होता है कि जो राजमार्ग का निर्माण करेगा कुछ समयअवधि तक वह इसका संचालन करेगा ,टोल लगाएगा और बाद में वह सरकार को वह राजमार्ग स्थानांतरित कर देगा और तब वह सडक़ टौल फ्री हो जाएगा।
परंतु पिछले दो दशक में देश में ऐसा कोई राजमार्ग नहीं दिखा जिस पर टौल टैक्स शुरू किया गया और फिर उसे वापिस ले लिया गया हो। बल्कि इसे निरंतर और निर्बाध जारी रखा गया। अलबत्ता देश के महानगरीय परिधि में जहां टौल वसूली की वजह से घंटो जाम लगा करता था, वहां पर न्यायालय के हस्तक्षेप से ट्राफिक जाम का हवाला देकर टौल नाका समाप्त कराया गया। इसमे दिल्ली गुडग़ांव और दिल्ली नौएडा टौल नाके की बंदी प्रमुख परिघटना रही है।
केन्द्रीय सडक़ मंत्री नितिन गडकरी अपने बयानों से जहां यह साबित करने का प्रयास करते हैं वह सडक़ परिवहन के मामले में नया सुधार लाना चाहते हैं। परंतु उनकी टोल नीति किसी भी दृष्टि से समुचित, न्यायोचित और पारदर्शी नहीं दिखती है। अभी अभी जो नयी फास्ट टैग प्रणाली की शुरूआत की गई जिसके जद में करीब साठ लाख वाहन जुड़ चुके हैं और उससे करीब सौ करोड़ रुपये की रोज अदायगी सुनिश्चित हो चुकी है। इससे टौल नाके पर जाम से जरूर मुक्ति मिलेगी और टौल वसूली में विराजमान लीकेज भी इससे समाप्त हो जाएगा। बताते चलें कि एक आंकड़े के मुताबिक टौल प्लाजों पर लगने वाले जाम से देश की अर्थव्यवस्था को हर साल साठ हजार करोड़ रुपये की जीडीपी का नुकसान हो रहा था।
परंतु अभी सबसे बड़ा सवाल जो कायम है कि टौल की दरों का पर्याप्त निर्धारण कब होगा? क्या टोल वसूली की कोई समयसीमा भी तय होगी? टौल प्लाजा के ठेके देने की नीति की पारदर्शिता कब निर्धारित होगी? कुछ वर्ष पूर्व गडकरी ने तो यह घोषणा कर दी थी कि देशभर से टौल वसूली की प्रणाली ही वह समाप्त कर देंगे। और सडक़ प्रयोग के एवज में वाहन क्रय के समय उसके पंजीयनशुल्क केे जरिये राशि लिये जाने की नीति को प्रश्रय देंगे। परंतु वह ऐसा नहीं कर सके । बाद में उनका यह बयान आया कि देश में राजमार्गों के निर्माण की गति को त्वरित करने के लिए प्रचुर संसाधन की आवश्यकता है जिसकी पूति ना तो सरकार के बजट से संभव है, ना पेट्रोलियम अधिभार से अकेले संभव है और ना ही वाहन पंजीकरण की राशि उसके लिए पर्याप्त है। ऐसे में आज सरकारें टौल प्रणाली को ही काफी तवज्जों दिये जा रही हैं। लेकिन  टोल दरें समूचित रूप से तय नहीं होने से देश के सभी वाहनों के लिए राजमार्गों का उपयोग एक बेहद महंगा सौदा बनता जा रहा है। आज की तारीख में ईंधन व्यय के बाद वाहनों के खर्च का का दूसरा सबसे बड़ा मद टौल टैक्स बना हुआ है। देश में पंजीकृत ट्रक और बसों की संख्या करीब तीन करोड़  है। इन्हें औसत रूप से हर साल पांच लाख रुपये केवल टौैल के मद में अदा करना पड़ता है। गडकरी के राज में वाहन उपयोगर्ताओं को ट्रैफिक नियमों की अवहेलना को लेकर भी आजकल भारी भरकम जूर्माना देना पड़ता है, जबकि ट्रैफिक पुलिस का भ्रष्टाचार चरम पर है जिस पर उनका नया ट्राफिक कानून कोई नकेल नहीं कस पाता।
नयी फास्ट टैग प्रणाली से टौल नाकों पर बेशक लंबी कतार नहीं होगी, सेन्सर तकनीक से वाहनों का टौल आनलाइन भुगतान हो जाएगा। परंतु गडकरी को दो बातों पर भी ध्यान देना होगा। पहला कि टौल की दरें बेहद उचित रखी जाए और दूसरा टौल ठेकेदारों को निविदा देने में बेहद पारदर्शिता बरती जाए। गौरतलब है कि अभी देश में करीब १४० हजार किमी राजमार्गों में करीब चालीस हजार किमी मार्ग टौल के दायरे में लाये जा चुके हैं। यानी टोल प्रणाली का अभी और विस्तार होगा, ऐसे में एक नयी समुचित, सुलझी व पारदर्शी टोल नीति लाया जाना बेहद जरूरी होगा।