Wednesday, October 21, 2015

दाल पर डुगडुगी तब बजी जब उसने 200 का आकड़ा पार कर लिया। लगता है वित्त मंत्री के लिए यह महंगा तभी महसूस हुआ जब यह 200 रुपये के भाव पर बिका। यह 140 रुपये प्रति किलो के भाव पर उन्हें महंगा नहीं लग रहा था। तभी वह बिलकुल स्थितप्रज्ञ भाव में बैठे हुए थे। आज की छापेमारी की कवायद और दाल की स्टॉक लिमिट का फरमान महीने भर पहले क्या सरकारें नहीं कर सकती थी। कब किस जिंस का आपूंति प्रबंधन असंतुलित हो जाये ,इसके लिए सरकार क्राइम इंटेलिजेंस की तरह प्राइस इंटेलिजेंस का इस्तेमाल क्यों नहीं करती। लगता है सरकार में बैठे लोग सत्ता की चकाचौंध और सुख सुविधा में ऐसे ठाले बैठे होते है की उन्हें जनता की परेशानी का अहसास ही नहीं हो पाता। बिहार का चुनाव भी उन्हें नहीं जगा पाया। सत्ता मदांध बना देती है। आखिर गांधी औरों से अलग क्यों थे ? उन्हें जनता जनार्दन के लाइव अहसास से सरोकार था, तभी वह समूचे देश की ट्रेन के तीसरे दर्ज़े में बैठकर यात्राएं की।
हमारे मोदी अपनी गरीबी का डंका खूब पीटते है। पर वह उनके 40 साल पूर्व का सच है। पिछले 20 सालों में तो उन्होंने वह जीवन नहीं जिया है तो फिर महंगाई या किसी भी जनसमस्या की आकुलता और व्याकुलता का अहसास कैसे होगा। सौ की एक बात ये है की एनडीए सरकार के पास भी महंगाई को स्थिर करने का व्यापक विज़न नहीं है। न्यूनतम और अधिकतम मूल्य की नीति कब आएगी ? इस सरकार की नीति भी यूपीए की ही तरह भोज के वक्त कद्दू बोने की कहावत को चरितार्थ करती है।

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