Tuesday, April 3, 2018

समाज में परिवर्तन और अधिकारों का प्रदर्शन आदर्शवाद से नहीं ताकत से


समष्टि में किसी भी तरह के परिवर्तन चाहे क्रांति के रूप में हो या प्रति क्रांति के रूप में हो या समय सापेक्ष परिघटनाओं की प्रस्तुति के रूप में हो , उसके प्रदर्शन का स्वरुप कभी भी तयशुदा मानकों तथा कल्पित आदर्शों से निर्धारित नहीं हुआ। इस बात की सम्पुष्टि कल सुप्रीम कोर्ट द्वारा दलित उत्पीड़न कानून को  निरस्त करने के विरोध में हुए देशव्यापी बंद  की घटना से ही  प्रदर्शित नहीं होती। बल्कि यह पिछले कुछ शताब्दियों से समूची दुनिया में श्रमिक संघवाद , महिला स्वच्छंदता तथा विदेशी साम्राज्यवाद के खिलाफ होने वाले राष्ट्रीय जागरण जैसे बिन्दुओ में भी यह स्फुरण भलीभांति रेखांकित हुआ है। भारत का अतीत जहाँ धर्म , दर्शन और संस्कृति में समृद्धि का हमें गौरव भान कराता रहा  है वही इसका अतीत हमारे  सामाजिक ताने बाने में विखंडन और  घोर असमानता का एक लम्बा गवाह रहा है। विग  के इस तथ्य का सबसे बड़ा प्रमाण और परिणति इसका विदेशियों के हाथो 800 साल गुलाम रहना रहा है। दूसरा देश में व्यापक धर्मान्तरण और फिर उसका राष्ट्रांतरण भी उसी का नतीजा है। वावजूद इसके हमारे देश का मौजूदा सामाजिक स्वरुप और  मोटे तौर पर इसका समूचा आचार व्यहार तथा  इसकी समूची लोकतान्त्रिक राजनीती पूर्ण रूप से बिरादरीवाद से प्रायोजित भी है और निर्धारित भी है। 
भारत में जातिगत असमानता तथा उत्पीड़न के खिलाफ कानूनी रूप से संरक्षण और एक कवच तंत्र आज़ादी के बाद से ही प्रतिपादित है। यदि इन कवच तंत्रो के जरिये कुछ भी दुरूपयोग होता है या इसको लेकर कुछ बेहतर या अलग विचार दिए जाते  है तो उस पर प्रतिक्रिया बेहद तीखी दिखती है। क्योंकि इस प्रतिक्रिया को समझदारी से नहीं मतलब , इसे अपने ताकत और अधिकारों को प्रतिक्रियावादी तरीके से प्रदर्शित करने से मतलब है। ऐसा ही रूप हमें स्त्री स्वच्छंदता और नर नारी समानता के सामाजिक डायनामिक्स में भी तो  दिखाई देता। जिस सवर्ण समुदाय को कल दलित जातियों का हिंसक प्रतिक्रियावाद बड़ा नागवार लगा क्या उसे  अपने समाज में स्त्री स्वतंत्रता को लेकर मध्यवर्गीय स्त्री चेतना का अपना एक आक्रामक स्वरुप नहीं दिखाई देता। स्त्री सशक्तिकरण और स्वच्छंदता को लेकर भी कोई भी  बेहतर विचार और आईडिया नव नारीवाद के आडियोलॉग सुनने को तैयार नहीं और इस पर उनकी हर प्रतिक्रिया बेहद तीखी और आक्रामक दिखती है। 
पूरी दुनिया में निम्न जातियों , स्त्री समुदाय के शोषण के लम्बे इतिहास की तरह मजदूरों के शोषण का भी लम्बा इतिहास रहा है। जब दुनिया के मजदूरों एक हो के नारे के साथ उन्नीसवी शताब्दी में समूचे यूरोप में पनपा श्रमिक संघवाद पूरी दुनिया में प्रसरित हुआ तो फिर उसने भी एक कल्ट का स्वरुप ले लिया। इसके तहत श्रमिक संघवाद के नाम पर आर्थिक और राजनितिक स्वरुप की प्रगतिशीलता को भी तार तार किया गया तथा उचित आलोचना को तवज्जो नहीं दिया गया। 
समूची दुनिया में  साम्राज्यवाद का करीब तीन सौ सालों का लम्बा दौर चला। इस दरम्यान एशियाअफ्रीका और लैटिन अमेरिका के तमाम देशो ने अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को जगाकर उपनिवेशवाद के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़ीराष्ट्रवाद का एक लम्बा उद्घोष चला। आज स्थिति ये है की वह साम्राज्यवादी शक्तियां ज्यादा उदार बनकर अपने को एक ग्लोबल स्वरुप में ढाल चुकी है और गुलाम देश राष्ट्रवाद के थोथे उमंग से अभी भी लबरेज है। उन्हें विश्व बंधुत्व और विश्व परिवार का विचार नागवार लगता है। 
बात यह है की असंतुलन से संतुलन की और जाने की हमारी प्रक्रिया तकनीकी परिवर्तनों की तरह फुल प्रूफ नहीं है। यह एक असंतुलन के खिलाफ दूसरा असंतुलन ज्यादा पैदा कर रही है। इसके लिए हम किसी एक को दोष नहीं दे सकतेहम सब दोषी है। अंततः हमें तो एक पूर्ण संतुलन की तलाश है।