Wednesday, October 14, 2015

हमारी संस्कृति की बिभिन्नता ही इसकी सम्पन्नता की प्रतीक है 

हमारे सभी पर्व और त्यौहार चाहे किसी भी धर्म विशेष से जुड़े क्यों न हों, वह उस धर्म के ट्रेडमार्क के प्रतीक नहीं बल्कि हमारी संचयी संस्कृति की एक विराट लोक दृष्टि हैं। इन त्योहारो से जुड़े तमाम रीती रिवाजों, प्रक्रियाओं, पौराणिक कथानकों और ऐतिहासिक विशिस्ताओं का जिस सामाजिक उत्सवधर्मिता के साथ प्रदर्शन होता है उसपर हमें गर्व होना चाहिए। अगर हम इन्हे संस्कृति से इतर कर्मकांड,अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक तरीके का बताकर इसे बौद्धिक बहस के दायरे में लाने का प्रयास करते है तो कही न कही हम जीवन की एकांगिता को प्रोत्साहित करते है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब इन पर्व त्योहारों को हम नीरा संगठित धर्मो की चासनी लगाकर उससे कुछ उत्सवधर्मी अपने इस प्रायोजन के जरिये अपने संगठित धर्म का आतंक दूसरे संगठित धर्म पर दिखाने की आजमाईश करने लगते है और दूसरे संगठित धर्मावलम्बी इससे या तो दूरी बना लेते है और उस उत्सवधर्मिता के प्रति अरुचि दिखाते है। 
बात करें हिन्दू धर्म की तो यह धर्म संगठित तो बहुत बाद में हुआ पर सांस्कृतिक रूप से बहुत पहले से सम्मुन्नत हो गया। इसीलिए इसमें रीती रिवाजों , पूजा पाठों , पर्व त्योहारों , जीवन संस्कारो और पौराणिक आख्यानों  की काफी बहुतायत थी। पर बीते कालक्रम में इन सांस्कृतिक अनुष्ठानो को समाज के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने इन्क्लूसिव से एक्सक्लूसिव बना दिया। उत्सवधर्मिता को कर्मकाण्डवादी बना दिया। जीवन संस्कारो को वर्गो में बाट दिया। इससे हिन्दू धर्म एक समूह होने के बजाये वर्गीय समूह बन गया। 
भारत में और धर्मो के पर्व त्यौहार भी भारतीय संस्कृति की ही सम्पन्नता ,विशालता और विभिन्नता के प्रतिक है। कुछ लोग कहते है की भारत में अतिशय विभिन्नता है। मैं विभिन्नता को एक नेगेटिव शव्द मानता हु, दरअसल यह विभिन्नता नहीं बल्कि हमारी सम्पन्नता की प्रतीक हैं तभी तो हमारे पास हर चीज खानपान , वेश भूषा , बोली भाषा , धर्म जाती समुदाय समूह , गीत संगीत , पर्व त्यौहार ,पूजा पाठ में इतनी सारी वैरायटी उपलब्ध है, जिसको जो चाहे उसका आनंद लेकर अपने जीवन दर्शन को सार्थक कर सकता है। 

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