Saturday, October 31, 2015

बिहार के चुनाव में कभी जाती तो कभी संप्रदाय यह सब क्या चल रहा है। यह सब सियासत है। और कुछ नहीं। कोई किसी से कम नहीं। याद कीजिये पिछले 2010 के चुनाव को। तब तो पहचान की ऐसी राजनीती नहीं चल रही थी। तब भी पहचान के दोनों प्रमुख प्लेयर भाजपा और लालू की राजद दोनों थे। उस समय ना भाजपा ने कोई कम्युनल कार्ड खेला था और ना ही उस समय लालू प्रसाद को जाती कार्ड खेलने का स्कोप और स्पेस मिल पाया था।
चुनाव तब हुआ था जंगल राज और मंगल राज के बीच। चुनाव में दोनों धड़ो में साइकिल बनाम मोटरसाइकिल बाटने की प्रतिगोगिता चली थी और अंत में वहां विकास को विनाश पर जीत मिली थी। इस चुनाव में क्या हो रहा है विकास और ईमानदारी का मुद्दा पहचान के मुद्दे के आगे नतमस्तक होता जा रहा है । इस परिस्थति के लिए एक ही शख्श जिम्मेवार है वह है लालू यादव।
इस शख्श ने अभी चुनाव की रणभेरी बजने के पहले ही जातीय उन्माद का माहौल बनाने के लिए खून पसीना एक कर दिया था । लालू यादव इतनी राजनीतिक विफलताओं के बाद भी अपने इस स्कूल ऑफ़ थॉट पर कायम है की बिहार में विकास और बेहतर उम्मीदवार के आधार पर चुनावी जीत मिलती ही नहीं। जीत केवल जातीय आधार पर मिलती है।
अब देखिये लालू ने अपना जातीय कार्ड खेला ,बीजेपी अपना कम्युनल कार्ड लेकर खड़ी हो गई।
हमें मालूम है की भारतीय लोकतंत्र में संविधान ने पहचान की राजनीती को जड़ मूल से कुचल डालने की व्यस्थाएं नहीं की है , इसीलिए यहाँ राजनीती के करियर में लोग अपनी उन्नति पहचान के बिन्दुओ जाती ,धर्म , प्रान्त और भाषा के आधार पर गढ़ते रहे है। परन्तु इनमे से कई लोगों ने पहचान की राजनीती के जरिये अपनी राजनितिक सफर शुरू कर अपनी राजनितिक हैसियत गढ़ने के बाद बेहतर प्रशासन की और उन्मुख हुए। जैसे की नरेंद्र मोदी गुजरात में धार्मिक उन्माद की राजनीती के बाद एक बेहतर प्रशासक के रूप में अपने को स्थापित किया । वही लालू बिहार में पहचान की राजनीती कर अपनी राजनितिक हैसियत बनाने के वावजूद भी बेहतर क्या एक कमतर प्रशासक भी नहीं बन पाये और आज भी उनके लिए जाती ही चुनाव जीतने का सबसे बड़ा तत्व है।

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