Saturday, October 31, 2015

बिहार के चुनाव में कभी जाती तो कभी संप्रदाय यह सब क्या चल रहा है। यह सब सियासत है। और कुछ नहीं। कोई किसी से कम नहीं। याद कीजिये पिछले 2010 के चुनाव को। तब तो पहचान की ऐसी राजनीती नहीं चल रही थी। तब भी पहचान के दोनों प्रमुख प्लेयर भाजपा और लालू की राजद दोनों थे। उस समय ना भाजपा ने कोई कम्युनल कार्ड खेला था और ना ही उस समय लालू प्रसाद को जाती कार्ड खेलने का स्कोप और स्पेस मिल पाया था।
चुनाव तब हुआ था जंगल राज और मंगल राज के बीच। चुनाव में दोनों धड़ो में साइकिल बनाम मोटरसाइकिल बाटने की प्रतिगोगिता चली थी और अंत में वहां विकास को विनाश पर जीत मिली थी। इस चुनाव में क्या हो रहा है विकास और ईमानदारी का मुद्दा पहचान के मुद्दे के आगे नतमस्तक होता जा रहा है । इस परिस्थति के लिए एक ही शख्श जिम्मेवार है वह है लालू यादव।
इस शख्श ने अभी चुनाव की रणभेरी बजने के पहले ही जातीय उन्माद का माहौल बनाने के लिए खून पसीना एक कर दिया था । लालू यादव इतनी राजनीतिक विफलताओं के बाद भी अपने इस स्कूल ऑफ़ थॉट पर कायम है की बिहार में विकास और बेहतर उम्मीदवार के आधार पर चुनावी जीत मिलती ही नहीं। जीत केवल जातीय आधार पर मिलती है।
अब देखिये लालू ने अपना जातीय कार्ड खेला ,बीजेपी अपना कम्युनल कार्ड लेकर खड़ी हो गई।
हमें मालूम है की भारतीय लोकतंत्र में संविधान ने पहचान की राजनीती को जड़ मूल से कुचल डालने की व्यस्थाएं नहीं की है , इसीलिए यहाँ राजनीती के करियर में लोग अपनी उन्नति पहचान के बिन्दुओ जाती ,धर्म , प्रान्त और भाषा के आधार पर गढ़ते रहे है। परन्तु इनमे से कई लोगों ने पहचान की राजनीती के जरिये अपनी राजनितिक सफर शुरू कर अपनी राजनितिक हैसियत गढ़ने के बाद बेहतर प्रशासन की और उन्मुख हुए। जैसे की नरेंद्र मोदी गुजरात में धार्मिक उन्माद की राजनीती के बाद एक बेहतर प्रशासक के रूप में अपने को स्थापित किया । वही लालू बिहार में पहचान की राजनीती कर अपनी राजनितिक हैसियत बनाने के वावजूद भी बेहतर क्या एक कमतर प्रशासक भी नहीं बन पाये और आज भी उनके लिए जाती ही चुनाव जीतने का सबसे बड़ा तत्व है।
मुझे बड़ी हैरत होती है जब सामाजिक न्याय का हवाला देकर यह कहा जाता है की लालू ने बिहार में कमज़ोर जातियों को जबान देने का काम किया। मुझे लगता है की यह एक निहायत गलत तथ्य है। मै भी बिहार का हूँ और बिहार के सामाजिक और प्रशासनिक जीवन को बेहद सूक्ष्मता से देखा हूँ। लालू ने वहा कमज़ोर जातियों का बेहतरीन राजनीतिकरण किया यह सच है ,परन्तु अपने सत्ता समीकरण को मज़बूत करने में। ये वह दौर था जब लालू अपनी कैबिनेट मीटिंग ना कर पुरे राज्य में जातीय रैलियों के ताबड़तोड़ आयोजन में पुरे तौर पर मशगूल थे। इससे कमज़ोर जातियों की जुबान जरूर जगी, पर सिर्फ और सिर्फ चुनाव के वक्त , वह भी इसीलिए की उन कमज़ोर जातियों के एक दो प्रतिनिधियों को लालू ने चुनावी टिकट दे दिया था जिन्हे पहले किसी पार्टी ने नहीं दिया। परन्तु वे करोडो कमज़ोर लोग बाकी दिनों में वैसे ही बेजुबान रहे, अपनी पहले से ज्यादा भ्रष्ट व्यस्था के समक्ष, जिसमे दशको तक सड़के नहीं बनी , विकास बिलकुल ठप्प , सामाजिक आर्थिक योजनाये का पलीदा हो चूका था , फिरौती चरम पर, जहां अपहरण सबसे बड़ा उद्योग और केंद्र से आने वाले सारे पैसे सरेंडर हो जाते थे। जब चोरी की हुई गाडी मुख्यमंत्री आवास में मिला करती थी। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित कौन हुआ था , वही कमजोर ,पिछड़ी दलित बेजुबान जाती जो वर्षो से बेजुबान रहते चली आ रही थी वह तब भी थी और आज भी थी । लालू के इस कृत्य से इनके वर्ग शत्रु ऊँची जातियों का कुछ नहीं बिगड़ा। इनका राजनितिक प्रतनिधित्व कुछ प्रतिशत घट गया परन्तु उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत वही थी पर पीस रही थी वही पिछड़ी जनता।
उन बेजुबान जातियों और कमज़ोर वर्ग लोगों को नितीश भाजपा राज में पहली बार सरकार नाम से सरोकार हुआ और इसी समय से उन बेजुबान जातियों को जुबान मिला। जब हर क्षेत्र में बजट खरचना संभव हुआ। तबके बाद बिहार में कमज़ोर जातीया अपने उठान के बाद भी अभी और अभी और कहने का आत्मबल प्राप्त कर पायी है। जबकि लालू राज में उनके मतदाता उनसे यदि सड़क पुल बनाने की गलती से मांग कर देती थी तो लालू की नज़र में उनकी खैर नहीं होती थी।

Thursday, October 29, 2015

एक व्यक्ति ने लिखा की बीजेपी ने उस अरुण शौरी की बली दे दी जो वामपंथ की बौद्धिक रूप से सबसे ज्यादा बढ़िया विधेरता था। परन्तु मैं यह कहना चाहूंगा की वामपंथियों को एक्सपोस उन्ही के प्रतिमानों से ही ज्यादा किया जा सकता है। इसके लिए हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की तथाकथित विचारधारा और उनके ब्रांडेड तर्कों को दुहराने की जरूरत नहीं है। मिसाल के तौर पर सेकुलरिज्म, लेबर वेलफेयर,असंगठित मजदूर, theocracy और डेमोक्रेसी पर उनके चिंतन और कृत्य उनको एक्सपोस करने लिए काफी है। दिक्क्त ये है की वामपंथ के विरोधियों के पास बौद्धिक निर्बलता प्रचुर है और तर्क कमज़ोर है। मिसाल के तौर पर सेकुलरिज्म जैसे महान शब्द से दक्षिणपंथियों को डर लगता है, क्यों डर लगता है जबकि इसका असली उल्लंघन वामपंथी करते है। क्या आप भी इस्लामिक स्टेट की तरह हिन्दू स्टेट बनाना चाहते है? अगर बनाना चाहते है तो वह हिंदुत्व की मूल सहिस्णु प्रवृति के प्रतिकूल है। 
गरीब असंगठित और अप्रशिक्षित मज़दूरों को आगे बढ़ने के बजाए वाइट कालर वाले कर्मचारियों के सवालो को वामपंथी ज्यादा प्रमुखता से उठाते है। ये वो कर्मचारी है जो भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट है जिन्हे मैं पूंजीपतियों से ज्यादा बड़ा जनविरोधी मानता हूँ। 
धर्म अफीम का नशा है, परन्तु संगठित धर्म की सबसे ज्यादा विश्वव्यापी मार्केटिंग करने वाले इस्लाम और ईसाई धर्म की करतूतो से वामपंथियों की आंतरिक सहमति है। भारत के मामले में इनके रोल कुछ ज्यादा ही खतरनाक थे। इस्लाम के नाम पर अलग देश पाकिस्तान बनाने का इन्होने खुलेआम समर्थन किया। ये अपने को प्रगतिशील और उदार किस बिना पर कहते है जब दुनिया के सबसे अप्रगतिशील और रूढ़िवादी धर्म इस्लाम को अपना वर्ग शत्रु बनाने के बजाये वर्ग मित्र बनाते है। यह ठीक है की इस्लाम की उत्पत्ति एक भाईचारे पर आधारित पंथ के रूप में हुई। क्या वामपंथी यह समझते है की यह धर्म उनके समतामूलक समाज के ज्यादा करीब है। अगर ऐसा है तो उन्हें खुलकर अपना वैचारिक स्पष्टीकरण दे देना चाहिए। परन्तु आज मैं नहीं बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवी इस बात को कहते है की हम कोई साइंस दान ना पैदा कर दहसतगर्द पैदा कर रहे है। आज किस देश के वामपंथी डल ने isis ,अलक़यदा ,तालिबान की मज़म्मत की। फिर वामपंथ काहे की प्रगतिशील और उदार विचारधारा कही जाएगी। भारत में मुसलमानो पर होने वाली ज्यादितियो को कई गुना अनुपात से बढ़ा चढ़ाकर हाई लाइट करना और इससे हज़ार गुना पाक और बांग्लादेश में अल्पसंख्यको पर होने वाली ज्यादितियों पर मौन रहना, ये कौन सा वैचारिक न्याय है। 
भारत की जातीय व्यस्था भारत के सामाजिक जीवन की सबसे बड़ी कोढ़ रही है, जिस पर भारत के हिंदुत्व के ठेकेदार समानता की कोई बड़ी पहल नहीं करते। पर जो सबसे बड़ा समाजविज्ञानी सच है की आर्थिक परिवर्तन सभी परिवर्तनों के मार्ग खोलती है आज उस मार्ग से देश का वही वामपंथ भटक गया है जिससे सबसे ज्यादा उम्मीद थी ,पर इन्हे भी भारत के समाजवादिओं की बीमारी लग गयी है। वामपंथी भी गरीब जातियों के सशक्तिकरण अजेंडे को लाने के बजाये उनकी जातीय राजनीती के समीकरण गढ़ने को ही सामाजिक न्याय का मुख्य एजेंडा बना लिया है। 
अरुण शौरी एक पावरफुल राइटर थे, पर उनके राष्ट्रवाद के तर्क भारत की जमीनी सच्चाईयों और सामाजिक आर्थिक तथ्यों के बजाये युरोपीय फासीवाद के प्रतिमानों से ज्यादा सुसज्जित थे। विचारधारों की आपसी लड़ाई जब व्यक्ति , समाज के धरातल से ऊपर जाकर आसमानी धरातल पर होने लगे तो फिर उससे जनता जनार्दन का फायदा नहीं होता और जब जनता जनार्दन का फायदा नहीं होगा तो फिर राष्ट्रवाद का क्या मायने?

Tuesday, October 27, 2015

देश के तीनो राजनितिक खेमों के राजनितिक अस्तित्व का वैचारिक गणित निर्धारित करने वाला तत्व सामाजिक न्याय , धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद अब पुरे तौर पर एक्सपोज़ हो चुका है और अब यह साबित हो गया है की ये तीनो मृग मरीचकाएं जनता को गुमराह करने ले लिए है जिसका फलसफा जनता, समाज और देश को किसी भी तरह से वास्तविक फायदा देना वाला नहीं। इन तीनो का असल मिला जुला रूप केवल और केवल गुड गवर्नेंस के मुद्दे से जुड़ा है। और बिहार की बात करें तो इस मुद्दे पर असली आज़माईश गुड गवर्नेंस के दो स्थापितराजनितिक पहरुए नितीश और नरेंद्र के बीच होनी थी।
पहले नितीश की निराधार महत्वकांछा और उससे उपजी राजनितिक साझीदार को मिले धोखे के कृत्य पर नरेंद्र मोदी नीत राजनितिक धड़े को मोरल हाई ग्राउंड प्राप्त था। परन्तु पिछले एक महीने के चुनाव प्रचार के दौरान नितीश ने अपना संयम जिस तरह से बनाये रखा है ,वह वेहद काबिलेतारीफ है। उन्होंने इस प्रचार में ना तो हिन्दू मुस्लमान और ना ही अगड़ा पिछड़ा का कार्ड खेला और चर्चा केवल गवर्नेंस पर की और बिहार के अजेंडे पर की । पर इसके विपरीत बीजेपी और मोदी अपने विरोधियों पर अनर्गल आक्रमण में मशरूफ रहे। तंत्र मंत्र की चर्चा करना मोदी और बीजेपी की हताशा का प्रतीक है। नीतीश का नरेंद्र मोदी पर पिछले 17 महीने में काम नहीं करने का आरोप हालांकि तथ्य से परे है। पर इस आरोप पर मोदी का मज़बूती से प्रतिकार नहीं करना और इसके बजाये उन दोनों नेताओ पर पर्सनल अटैक करना बेमानी है।
मोदी का दाल और प्याज की महंगाई पर सही स्पस्टीकरण नहीं देना तथा केवल यह कहना आरक्षण को जारी रखा जायेगा,कोई ज्यादा जमने वाली बात नहीं लगी। अगर मोदी यह कहेंगे की वह पिछड़े के सशक्तिकरण के अजेंडे को एक नयी ऊंचाई देंगे तो बात जमती। वैसे नितीश अभी केवल बिहार का चुनाव नहीं लड़ रहे बल्कि वह भविष्य में मोदी के राष्ट्रीय नेतृत्व को चुनौती देने की तैयारियों में भी लगे है। 


PM Modi  categorically stated in one election meeting of Bihar,that he is highly committed for the reservation to stay on, but someone wants to snatch this right of deprived class through giving monkey share to some minority group.PM Modi delivered this statement under the fear of this impression that his party is being labelled as opposer of reservation.
It is very sad that whole lot of the 85 percent deprived section of society is concentrating around reservation, which is just a taboo, not more than this. It is just a tussle for getting few thousands of jobs for 100 crore deprived people. The transformation of our deprived lot depend only over empowerment, which has not been discussed at all. How many have land ownership, own residencial plots, Pucca house, literacy percentage, share in Higher and professional education, percentage living in Urban area and presence in white collar and corporate jobs, better health facility, consumption pattern etc. This reservation can be availed only by some literate class among the socially weaker castes, which can not guarantee the greater transformation of outnumbered weaker citizenry.Reservation must be continued, but it is not a big issue, the issue is huge empowerment and greater social justice which can encircle our 100 crore population

Sunday, October 25, 2015

हमें लगता है की धोनी का बतौर कप्तान अवसान काल आ चूका है। पहले उनकी बांग्लादेश में एक दिवसीय शृंखला में हार हुई। दक्षिण अफ्रीका ने टी २० में बुरी तरह पराजित करने के बाद अब एक दिवसीय शृंखला में बुरी तरह धो दिया। लगता है  धोनी एकदिवसीय मैचों में अभी और खेलना चाहते है। लेकिन कप्तानी के मोहपाश से अपने को दूर नहीं कर पाये है। धोनी के कप्तानी करियर का सबसे मजबूत पक्ष रहा है उनका खुद का और खासकर विपरीत परिस्थितियों में कमाल का प्रदर्शन। इस मामले में वह भारत के सबसे अव्वल खिलाडी  माने जायेंगे। इस वजह से उन्हें काफी लम्बे समय तक कप्तानी भी मिली। परन्तु धोनी ने कुछ अपने बदौलत और कुछ भाग्य के बदौलत भारत को बड़े टूर्नामेंटों में जरूर विजय दिलवाई परनतु धोनी टीम बनाने वाले कप्तान के रूप में नहीं जाने जायेंगे। धोनी खिलाड़ियों के पिक करने के मामले केवल अपनी निजी पसंद और बेहद जिद्दी प्रवृति के रहे। उन्होंने प्रवीण कुमार , युवराज सिंह , रविन्द्र जडेजा , सुरेश रैना वगैरह को काफी वरीयता दी वही सहवाग जैसे महान खिलाडी का करियर ख़राब करने में उनका अहम योगदान रहा। 
वही सौरभ गांगुली भारत को किसी बड़े टूर्नामेंट में नहीं जितवा पाये , शायद वह उतने भाग्यशाली नहीं थे ,पर किसी खिलाडी के प्रति उनका निजी आसक्ति नहीं थी ,केवल गुणवत्ता और विराट दृष्टि की वजह से वह भारतीय टीम में अनेकानेक खिलाड़ियों को तराशा जो अप्रतिम था। लक्ष्मण को टेस्ट मैच में. राहुल को एकदिवसीय मैच में , सहवाग को टेस्ट ओपनर के रूप में , हरभजन को एक आक्रामक गेंदबाज के रूप में , श्रीनाथ और ज़हीर तथा नेहरा को बेहतर तेज गेंदबाज के रूप में तथा युवराज और कैफ को तराशने का वह काम कर दिखाया जो भारतीय टीम के लिए मील का एक बड़ा पत्थर था। 
कुछ भी हो धोनी का भी भारत के सबसे महान फिनिशर बल्लेबाज तथा एक अलग शैली के कप्तान के रूप में जगह जरूर रहेगी। परन्तु धोनी की इज्जत तभी बढ़ेगी , जब वह कप्तानी छोड़ देंगे। वैसे भारत के खिलाड पद छोड़ने के मामले में मर्दानगी का परिचय कभी नहीं देते। लगता है धोनी भी उसी परंपरा का पालन कर रहे है। 

Friday, October 23, 2015



राजनीती में खास तौर से विधानमंडलों के निर्वाचित प्रतिनिधियो और राजनीतिक पार्टी के पदाधिकारियों को बयानों की अनुशासनहीनता पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए, जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय खेलों में अनुशासनहीनता करने पर खिलाडियों पर लगाया जाता है। इसी तरह इन नेताओ और इनके दलों पर इनके बदमिजाज व सनकी सरीखे एक्टिविज्म के लिए भी प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।
दूसरा यदि इस तरह की प्रवृतियां भूले भटके होती भी है तो उसे मीडिया में तगड़ी स्क्रीनिंग होनी चाहिए। आखिर राजनीती और मीडिया का कोई स्टैण्डर्ड कोड कंडक्ट भी तो हो।
तीसरा विधानमंडलों में पार्टियों को अपनी राजनीती चमकाने के लिए उलजुलूल हरकतों के लिए भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
हकीकत ये है की इन हरकतों से कोई पार्टी अछूती नहीं है। राजनितिक बयान देने में हर दल के कुछ नेता अपना बयान ब्रांड बना चुके है।
बीजेपी से साक्षी ,साध्वी,आदित्य नाथ, गिरीराज । कांग्रेस से दिग्विजय,मनीष तिवारी और जयराम। सपा से आज़म खान,अबु आज़मी। सीपीएम से बृंदा करात। अन्य पार्टियों में लालू , रघुवंश, शिवांनंद, ठाकरे बंधू , ओवैसी बंधू वगैरह वर्ग़ैरह।
अब बात करें विधानमंडलों की तो आज संसद में कांग्रेस जो हरकत कर रही है वही हरकत पहले बीजेपी विपक्ष में रहते कर रही थी। ऐसा नहीं है की इस कदम से सिर्फ सत्ता पक्ष को फायदा होगा ,विपक्ष के लोग भी मीडिया की तमाम सुर्खिया बटोर सकते है बशर्ते वे देश के तमाम व्यस्थाओं में मौजूद तमाम छिद्रो और विरुपताओ को तो उजागर करें।
बात मीडिया की करें तो वह यह समझती है उलजुलूल चीजे हलचल बन जाती है और इससे उनकी TRP और TAME बढ़ जाएगी। उनका यही ट्रेंड अब मौजूदा मीडिया का ट्रेडिशन बन चूका है।
ज्यादा दिन नहीं हुए जब देश के अखबारों में देश के तमाम चार और कार मसलन भ्रष्टाचार, अत्याचार ,कदाचार ,दुराचार ,बलात्कार और चीत्कार से भरे होते थे और स्टार नेटवर्क के तहत चलने वाला एनडी टीवी अपनी दृश्य श्रव्य खबरों और कार्यक्रमों से लोगों को व्यामोहित किये हुए था। अब तो मीडिया में भेड़चाल और गीदड़ चिघार दोनों एक साथ चल रहे है।
अब बताईये की लोकतंत्र हमारा मज़बूत हो रहा है या कमज़ोर।
अंत में शमशेर राणा की ये बात बड़ी अच्छी लगी की बंद कमरे में वन्दे मातरम कहना बड़ा आसान ही पर देश के लिए मरने को कितने तैयार है? ऐसे ही हमारे देश के कुछ ब्यानबाज नेता है जिनमे कितने देश की दुर्व्यस्था को बदल डालने को तैयार है?

Thursday, October 22, 2015

MOS,Home says,North Indians are law breakers,Fine,u may be right,but before this u must know your law protector Police themselves are big law breaker.
If People are not to be law breaker,then what was the need of huge hierarchy of police org.But why police is not bound to fairness in policing and sensitive enough in the surveillance of weaker people,after all they are being paid out of taxes collected from the Public.
one can see the ample difference between the attitude of North Indian police and south Indian police also, like their people. Why southern police always shows their concern for their duty,whereas north India police look like aristocrat and behave in a rude and abusive language

Wednesday, October 21, 2015

दाल पर डुगडुगी तब बजी जब उसने 200 का आकड़ा पार कर लिया। लगता है वित्त मंत्री के लिए यह महंगा तभी महसूस हुआ जब यह 200 रुपये के भाव पर बिका। यह 140 रुपये प्रति किलो के भाव पर उन्हें महंगा नहीं लग रहा था। तभी वह बिलकुल स्थितप्रज्ञ भाव में बैठे हुए थे। आज की छापेमारी की कवायद और दाल की स्टॉक लिमिट का फरमान महीने भर पहले क्या सरकारें नहीं कर सकती थी। कब किस जिंस का आपूंति प्रबंधन असंतुलित हो जाये ,इसके लिए सरकार क्राइम इंटेलिजेंस की तरह प्राइस इंटेलिजेंस का इस्तेमाल क्यों नहीं करती। लगता है सरकार में बैठे लोग सत्ता की चकाचौंध और सुख सुविधा में ऐसे ठाले बैठे होते है की उन्हें जनता की परेशानी का अहसास ही नहीं हो पाता। बिहार का चुनाव भी उन्हें नहीं जगा पाया। सत्ता मदांध बना देती है। आखिर गांधी औरों से अलग क्यों थे ? उन्हें जनता जनार्दन के लाइव अहसास से सरोकार था, तभी वह समूचे देश की ट्रेन के तीसरे दर्ज़े में बैठकर यात्राएं की।
हमारे मोदी अपनी गरीबी का डंका खूब पीटते है। पर वह उनके 40 साल पूर्व का सच है। पिछले 20 सालों में तो उन्होंने वह जीवन नहीं जिया है तो फिर महंगाई या किसी भी जनसमस्या की आकुलता और व्याकुलता का अहसास कैसे होगा। सौ की एक बात ये है की एनडीए सरकार के पास भी महंगाई को स्थिर करने का व्यापक विज़न नहीं है। न्यूनतम और अधिकतम मूल्य की नीति कब आएगी ? इस सरकार की नीति भी यूपीए की ही तरह भोज के वक्त कद्दू बोने की कहावत को चरितार्थ करती है।

Tuesday, October 20, 2015



हरियाणा में एक दलित परिवार के दो बच्चो को जिन्दा जला दिया गया ,इस पर मैं यह लिखने वाला था की ऐसे करतूतकताओ को ठीक वैसे ही जिन्दा जला कर कंगारू जस्टिस कर दिया जाना चाहिए। पर हैरत तब हुआ की आपसी रंजिश घटना में हुए इस वाकये की जानकारी पुलिस के संज्ञान में थी और पीड़ित परिवार की सुरक्षा में 6 पुलिसकर्मी लगाये गए थे। असली हत्यारी तो वे पुलिसकर्मी थे जो जनता के करो से प्राप्त पैसे से अपने वेतन लेते है और उसके बाद भी उनकी ततपरता और संवेदनशीलता ताक पर थी। देश में वयस्था परिवर्तन के तमाम मुद्दे में पुलिस रिफार्म एक अहम मुद्दा है। पर वयस्था के महा अज्ञानी लोग इन घटनाओ पर सामाजिक न्याय का ज्ञान देने लगते है। समस्याओ के असली समाधान के बजाये इन्हे भड़काने में ही मजा आता है। गैर बराबरी , शोषण , अत्याचार , दुराचार , अन्याय जैसे सारे मरज़ो की दवा सार्थक अजेंडो से सराबोर सुशासन के अजेंडो में छिपी है जो हर सवालो का तार्किक जवाब ढूंढ सकती है। जबकि जातीय आक्षेपों की चुटीली टिप्पणियां महज कुछ लोगों के लिए इन मज़लूमो के प्रतिनिधि बनने का सिर्फ रास्ता खोल सकती है। बाकी करोङो पीड़ित शोषित की बेहाली, बदहाली और बेजुबानी की दशा बदलने में इन चुटीली टिप्पणियों से लेशमात्र भी असर नहीं पड़ने वाला।
I rate Virendra Sehwag, the most dominating batsman of India and among the top 3 most devastating batsman of the world.I am very sad, this caliber of batsman isquitting cricket in such pathetic mode. BCCI has respect only for players like Sachin and Rahul. They organised special match for them, but Viru was always neglected by selectors and specially by Dhoni in his lean patch situation, whereas some players were always been provided safety net by the BCCI and Dhoni in their miserable period. Sehwag's contribution for Indian cricket is even bigger than Sachin on many counts.
Sehwag's has only one defects that he did not have playboy image in Media, so he could not get back his position in India team, whereas players like Yuvraj, despite consistent failures on all levels, able to make pressure over selectors through Media coverage.
Some players really did not get justice with their career. Vindod Kambli was never provided safety net. Saurabh was forced to tender his retirement almost 2 years early. India's most fittest players Md. Kaif was discarded without any reason. And now Virendra Sehwag, more dangerous batsman than Viv Richards is forced to die

पहचान की राजनीती से वोट प्राप्त करना आसान होता है पर सरकार,समाज और प्रशासन की राहें कितनी कठिन हो जाती है लोग इसका अंदाज़ा नहीं लगा पाते है। प्रसंग तो बिहार में चल रहे चुनाव का भी बनेगा। वहा हर बड़ी पार्टी ने खासकर एनडीए और महागठबंधन ने पहचान के अपने अपने दांव तैयार रखे है। दोनों के असली गवर्नेंस के अजेंडे में ज्यादा असमानता नहीं है। क्योकि नीतीश सुशासन के प्रतीक रहे है और भाजपा के संभावित उम्मीदवार सुशील मोदी भी सिद्धहस्त प्रशासक है पर उन्हें नीतीश की तरह उन्हें अभीतक प्रोजेक्शन नहीं मिला है। गवर्नेंस के मामले में महागठबंधन पर शक की सुई लालू की विगत की शैली रही है जिसे एनडीए जंगल राज पार्ट २ के रूप में खूब प्रचारित कर रहा है। पर जीत का असली अंतर पहचान के जुमले से होगा जिसके लिए दोनों समूह एक दूसरे की जबान फिसलने का इंतज़ार करते है। आरएसएस प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा की बात की तो जाती की पहचान पर मूल रूप से काम करने वाले महागठबंधन ने पिछडो की भावना उकसाने में थोड़ी भी देर नहीं की और अगड़ा और पिछड़ा का कार्ड तुरत खेल दिया। इसी तरह लालू ने कुछ हिन्दुओ के भी गोमांस खाने की बात कही तो बीजेपी ने उसे मुद्दा बना दिया।
सवाल यह है देश की बौद्धिक मनीषा और लोकतान्त्रिक सुधारो के प्रवर्तक क्या देश की राजनीती का यही तमाशा देखेंगे या देश की समूची चुनावी रीती नीति में पहचान के तत्त्व को उखाड़ फेंकने की भी कोई कवायद करेंगे।
मुझे लगता है की लोगों से हमें यह अपील करनी चाहिए की आप ना तो पार्टी, ना तो जाती , ना तो पैसा और ना ही पाउच पर वोट करें, सिर्फ और सिर्फ सबसे वाज़िब उम्मीदवार को वोट करें अन्यथा किसी को वोट नहीं करें। इससे पार्टियों को भविष्य में सुधरने की सीख मिलेगी और संवैधानिक सुधारों के लिए यही बाध्य होकर आगे आएंगे।

Sunday, October 18, 2015

I can never support some Hindu communal appeal taking the instance of Cow and beef and they instigate people to vote for BJP, it is totally unacceptable.If they feel they are countering vote appeasement politics of some political groups, who protect Islamic fundamentalism and also making caste appeal, then they both come on same line.Both are identity politics. this is way to falsely polarize people on stupid subjects. One should support or vote only those candidates, who are capable and having mass sensitivity towards their peoples problems and honesty irrespective of any political parties. Voting should be shier on the basis of good governance and over agenda of real social justice.

Saturday, October 17, 2015

While observing the whole system thoroughly, I do feel, there is no need of Judiciary in this system, at least the present state of judiciary, which never work for the free, fair and quick justice to the millions of people, institutions and even state. For the redressal of all kind of disputes, the mutual reconciliation and its then and there disposal is the best way to get justice and enable the system to work in most efficient and smooth manner. 
It is only for the fulfillment of ''separation of power'' principle of democracy and concept of constitutional validity, judiciary is required. The constitutional bench is always needed.
The yesterday's decision of Supreme court shows their frustration over the absence of earlier unbridled status, which they had got before the institution of NJC. The most pathetic point is that what would of supremacy of Legislature, that will be only in theory?
In actual terms, the executive plays all the shots. But barring judiciary everyone comes under fourth estate scrutiny, but this third estate JUDICIARY even don't want to listen its genuine criticism and always show its weapon of anti defamation.
The circumstances of gross sensationalism and excitement over so many thing is not because of politicians and their political ideologies. It is only and only because of Media. Being a media person i am strongly of this view. Had Media barred all these statements,beyond proportion coverage,cheap publicity seeking attitudes, we do not have this sort of situations.
See, in a way, ultimately Media is also not the culprit. Media is just following a lunatic trend and nobody is there to lead them towards better direction. It does not have some guiding elements like Media Policy.If we have a proper media policy and media commission, these stupid things would not have come in our public domain and some identity playing politicians might have no takers in this democratic market.
sabko samjhane wali media ab sabse jyada nasamajh ho chuki hai, this has become irony of today's media

Thursday, October 15, 2015

I never leave any matter relating to ruling party beyond my notices,which genuinely deserve to be criticized, but today i fully rather, word by word agreed what Arun Jaitley has stated over the writers and laureates, who have returned back their awards. This is so unfortunate, that these writers are making a false rhythm of their dissent without having any concrete instances of mis happening in the country. This is completely out of proportion reaction. If writers become ploy of some party's or ideologies, it is saddest issue for the whole intellectualism. Intellectualism is always above politics, it must be guiding element to the all political ideologies, but very sadly it is itself being guided by the so called political ideologies.

 One thing more i would like to add that any award or prize given to the writers is not any kind of benevolence or courtesy on the part of govt. being committed to the writers, it is just the token of grace to them, they have much more stake in this system, they deserve many more than this. But if they returned back them, it means  they regard their awards as benefit or obligation of govt. so they think returning them will be taken as their dissent against anything, they must understand that even without doing this, they can attack over govt.

Wednesday, October 14, 2015

हमारी संस्कृति की बिभिन्नता ही इसकी सम्पन्नता की प्रतीक है 

हमारे सभी पर्व और त्यौहार चाहे किसी भी धर्म विशेष से जुड़े क्यों न हों, वह उस धर्म के ट्रेडमार्क के प्रतीक नहीं बल्कि हमारी संचयी संस्कृति की एक विराट लोक दृष्टि हैं। इन त्योहारो से जुड़े तमाम रीती रिवाजों, प्रक्रियाओं, पौराणिक कथानकों और ऐतिहासिक विशिस्ताओं का जिस सामाजिक उत्सवधर्मिता के साथ प्रदर्शन होता है उसपर हमें गर्व होना चाहिए। अगर हम इन्हे संस्कृति से इतर कर्मकांड,अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक तरीके का बताकर इसे बौद्धिक बहस के दायरे में लाने का प्रयास करते है तो कही न कही हम जीवन की एकांगिता को प्रोत्साहित करते है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब इन पर्व त्योहारों को हम नीरा संगठित धर्मो की चासनी लगाकर उससे कुछ उत्सवधर्मी अपने इस प्रायोजन के जरिये अपने संगठित धर्म का आतंक दूसरे संगठित धर्म पर दिखाने की आजमाईश करने लगते है और दूसरे संगठित धर्मावलम्बी इससे या तो दूरी बना लेते है और उस उत्सवधर्मिता के प्रति अरुचि दिखाते है। 
बात करें हिन्दू धर्म की तो यह धर्म संगठित तो बहुत बाद में हुआ पर सांस्कृतिक रूप से बहुत पहले से सम्मुन्नत हो गया। इसीलिए इसमें रीती रिवाजों , पूजा पाठों , पर्व त्योहारों , जीवन संस्कारो और पौराणिक आख्यानों  की काफी बहुतायत थी। पर बीते कालक्रम में इन सांस्कृतिक अनुष्ठानो को समाज के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने इन्क्लूसिव से एक्सक्लूसिव बना दिया। उत्सवधर्मिता को कर्मकाण्डवादी बना दिया। जीवन संस्कारो को वर्गो में बाट दिया। इससे हिन्दू धर्म एक समूह होने के बजाये वर्गीय समूह बन गया। 
भारत में और धर्मो के पर्व त्यौहार भी भारतीय संस्कृति की ही सम्पन्नता ,विशालता और विभिन्नता के प्रतिक है। कुछ लोग कहते है की भारत में अतिशय विभिन्नता है। मैं विभिन्नता को एक नेगेटिव शव्द मानता हु, दरअसल यह विभिन्नता नहीं बल्कि हमारी सम्पन्नता की प्रतीक हैं तभी तो हमारे पास हर चीज खानपान , वेश भूषा , बोली भाषा , धर्म जाती समुदाय समूह , गीत संगीत , पर्व त्यौहार ,पूजा पाठ में इतनी सारी वैरायटी उपलब्ध है, जिसको जो चाहे उसका आनंद लेकर अपने जीवन दर्शन को सार्थक कर सकता है। 

Tuesday, October 13, 2015

Today Nitish rebutted very rightly over his alleged bribe taking Minister seen in sting operation. Nitish said one NDA Minister has had 2 crore rupee found at his residence,but he still remains in NaMo's central ministry, whereas he fired his minister immediately and even his election ticket has been cancelled.
I tried to know, who is this 2 crore cash minister, I come to know 2 crore minister is same, who is said to be the biggest contractor of Hinduism in Bihar, having long hair antenna over his head. Tathastu........brothers, why are you so bothered about your leader and your favorite political party, no body is full truth, everybody is half truth. This is kaliiiiiiyuuuug .All are naked in this hamammmmm..

We have some abnormal, beyond proportion and totally uncalled for reaction over some thing. In place of Blackpainting of Sudhindra Kulkarni, those Shivsainik must have guts to ask question with Mahmud Kasoori and make him naked over his arguments given on India pak relation. If Sudhindra Kulkarin says that Jinnah had softcorner for Mumbai and he wanted to resettled here. It is mere illusion. If Jinnah had aspired so, he did not have long communal battle for the formation of Islamic Pakistan.
I want to know, which one is more dangerous, the defects at beginning or devils at the end. If the root is ok, then the stem and leaves will be okay. Same things apply with the corruption and black money. Corruption is committed, hence black money is created. Recently Bank of Baroda was reported to be deporting 6,000 crore black money to Hong kong. It means despite lots of measure, taken by MOF,corruption is being committed in the country through various ways, so disclosure is not there and that money, which becomes black money and that is being caught in its foreign flight mode through banking network.
Fact of the matter is that we have innumerable corruption occurring in the country and so in outcome we have black money. So better to cleanse the system through various reform measures before talking anything about black money.
I was least interested in the news flash which came regarding black painting of Sudhindra Kurlkarni by Shivsena activists at Mahmud Kasoori's book release function, i was more interested in knowing about what Kasoori speaks there. I was very much expecting that he will be condemning India pak partition there and will create a new good will. Rather he spoke there as a Pak politician and saying Modi must take forward the approach of Vajpayee taken over Kashmir. Mr. Kasoori, listen ! NaMo can not carry forward the foolishness of Vajpayee, which he committed and got Kargil in place of that act. 
The plain truth is that Pak was formed on the basis of a Muslim nation and it thinks that Kashmir, being a Muslim majority and adjacent province must be its part. But India thinks, being a secular nation it has every right to make hold over Muslim majority princely state Kashmir which was well accessed with India with the consent of its king. I think India must say now that the partition of India was rather illegal in form of Pakistan

Monday, October 12, 2015


चुनावी लोकतंत्र में मतदाता की वही हैसियत है जो बाजारवादी व्यस्था में उपभोक्ता की । जिस तरह से कंज्यूमर इज दी किंग किसी भी मार्किट इकॉनमी का सबसे प्रचलित जुमला है वही लोकतंत्र में मतदाता ही राजा है, यह जुमला उतना ही महत्वपूर्ण है। परन्तु हमारा यह लोकतंत्र दरअसल परोक्ष लोकतंत्र है। इसीलिए तो यह असल में पार्टी चालित लोकतंत्र है। हमारे इस दलीय नहीं बल्कि बहुदलीय लोकतंत्र में मतदाता भी दो तरह के होते हैं पहला पार्टीसन वोटर्स यानी किसी पार्टी विशेष के अंध समर्थक वोटर्स जो हर हाल में अपनी पार्टी अच्छी हो या बुरी अपनी पार्टी के साथ बंधे रहते है और उन्हें वोट करते हैं। दूसरे वोटर्स फ्लोटिंग वोटर्स कहलाते हैं ,जो पार्टियों के प्रदर्शन के हिसाब से अपना समर्थन बदलते रहते हैं। यह आम तौर पर माना जाता है की पार्टीसन वोटर्स वही होते है जो अपनी पहचान यानी जाती धर्म प्रान्त भाषा संस्कृति के प्रति व्यामोहित होते हैं ,पार्टी नेतृत्व से भावुक लगाव, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ लालच की वजह से किसी पार्टी विशेष के साथ बंधे होते है ।
फ्लोटिंग वोटर्स केवल और केवल सत्ता और विपक्षी दलों के प्रदर्शन के आधार पर ही किसी पार्टी के प्रति अपने वोट का मन बनाते हैं।
सच्चा लोकतंत्र वह है जहा फ्लोटिंग वोटर्स की तादाद ज्यादा है। पर विडम्बना ये है की हमारे 85 प्रतिशत मतदाता पार्टीसन किस्म के ही है और सिर्फ 15 प्रतिशत फ्लोटिंग है।
इसी तरह मीडिया जो लोकतंत्र का चौथा खम्बा है उसे तटस्थ रहना सच्चे और अच्छे लोकतंत्र के लिए उतना ही जरूरी है जितना न्यायपालिका का। परन्तु मीडिया को संविधान में मान्यता नहीं दिये जाने से इसे पूंजीपतियों के अधीन होकर गुलाम मानसिकता में किसी पार्टी लाइन पर चलने को बाध्य होना पड़ता है। अभी ऊपरी तौर पर लोग स्वीकार ना करें पर भीतरी तौर पर अधिकतर मीडिया किसी न किसी राजनीतिक खेमों में बटे हुए है। देश में राजनीतिक सुधार के अनगिनत मामले जिसके पहरुए मीडिया को बनना चाहिए वह राजनीतिक सुधार के मुद्दे राजनीतिक दलों के जिम्मे छोड़े हुआ है। और हो क्या रहा है की जिस तरह से प्रतियोगी बाजार व्यस्था में कंपनिया आपस में गठबंधन जिसे कार्टेल कहा जाता है बना कर कंस्यूमर को किसी और दुकान में जाने का मौका ही नहीं देती है। इस बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र में भी राजनीतिक सुधार के मुद्दे पर सभी पार्टियों ने अपना कार्टेल बना लिया है की इसे सुधारना ही नहीं है।
इनही सब बातों का नतीजा है की सुधारों के प्रतीक माने जाने वाले नमो की पार्टी भाजपा राजनीतिक सुधारो के प्रति कितनी लापरवाह है जिसने सर्वाधिक 52 फीसदी दागी लोगों को चुनावी टिकट दिया। पिछली बार ऐसा ही जदयू और रजद में भी था। इस पर यह लोग ये जबाब देंगे की टिकट चुनाव जितने की क्षमता देखकर दिए जाते हैं। यदि ऐसा है तो पैसे और ताकत से भी अबतक चुनाव जीते जा रहे थे तो अब उसपर नकेल क्यो डाली गयी क्योकि यह सच्चे लोकतंत्र के प्रतिकूल था ऐसे ही अच्छे कैंडिडेट भी लोकतंत्र के लिए बेहद अनुकूल चीज है।
बात चली है फ्लोटिंग वोटर्स की, मीडिया की तो अब बात की जाये सोशल मीडिया तो इसका हाल माशाअल्लाह। करीब करीब सारा सोशल मीडिया दो लाईनों पर बटा हुआ है। कन्वेंशनल मीडिया में तो तटस्थता का लिहाज भी होता है पर यहाँ तो हर व्यक्ति माउथपीस ही लगता है।

Sunday, October 11, 2015

केंद्र में भारी बहुमत पाने के बाद हुए कई उपचुनावों में जब भाजपा की हर होती चली गया तो तदोपरांत प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य विधानसभा के चुनावो में खुद मुख्य प्रचारक की भूमिका संभाली। पहले हरियाणा, महाराष्ट्र , जम्मू कश्मीर और झारखण्ड सब जगह मोदी ने मतदाताओ से यह कहा की हमें एक बार मौका दे दो ,मैं सूद व्याज के साथ आपके सारे देनदारियां चूका दूंगा। सिर्फ ६ महीने में समूचे राज्य का सिस्टम बदल दूंगा। एक एक कर सभी राज्य में मोदी ने यही उद्बोधन लोगों के समक्ष रखा। इन सभी राज्यों में हमें तो नहीं लगता की मोदी के मनमाफिक मुख्यमंत्री बनने के अलावा वहा के गवर्नेंस और उसके सिस्टम में कोई मुलभुत सुधार आया है। ना ही इन राज्यों में मोदी गवर्नेंस के हालचाल और अपने वादे की समीक्षा करने गए है। यही जुमला अभी मोदी बिहार में अपनी तमाम मीटिंगों में दुहरा रहे है।
क्या लोग हर बार इस जुमले पर विश्वास कर लेंगे। इससे मोदी जी जिस विशव्सनीयता यानि क्रेडिबिलिटी के लिए जाने जाते है उस पर भारी बट्टा लगेगा। मोदी की केंद्र सरकार OROP के मामले में अविश्वसनीय साबित हुई, काफी हिल हुज़्ज़त बाद इसे लागू किया गया। इसी तरह सैनिक वॉर मेमोरियल की पहले बजट में घोषणा हुई पर इस कैबिनेट स्वीकृति अब जाकर मिली है लगता है यह अगले 5 साल के बाद ही तैयार होगा।
बिहार में नरेंद्र मोदी की सुशासन की घोषणा लोगों के गले नहीं उतरेगी क्योकि वहाँ पहले से सुशासन बाबू बैठे हुए है। अलबत्ता नमो उनके विगत के धोखे और लालू के जंगल राज पर ही कुछ जनता की सहानभूति पा सकते है। परन्तु यह सबको मालूम होना चाहिए दोनों न नाम के शख्श नरेंद्र और नितीश एक ही शैली के राजनेता है और दोनों के अपने अपने ईगो एक दूसरे से सींग लड़ाने को मजबूर किये है.
यह बात अलग है की यदि बिहार में भाजपा नहीं जीतती है तो आने वाले दिन नरेंद्र मोदी और उनकी कोएट्री के लिए काफी भारी पड़ेगा और नितीश चुनाव जीत कर भी अपने बेमेल साझीदार के वजह से अपना रास्ता निष्कंटक नहीं रख पाएंगे। पर इसका यह मतलब नहीं की मैं वहाँ के चुनाव परिणाम पर कोई भविष्वाणी कर रहा हु, क्योकि मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ। हमारा काम पॉलिटिकली राइट एंड रोंग का पर्दाफाश करना और एक्चुअली राइट एंड रोंग को हाईलाइट करना है।

Thursday, October 8, 2015

कांग्रेस आज़ादी लड़ने वाली पार्टी थी उसे आज़ाद भारत की हुकूमत चलाने का ज़िम्मा दिया जाना बहुदलीय लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल था। औचित्य तो यह बनता था की बहुदलीय लोकतंत्र के लिए एक नया समतल मैदान बनाना चाहिए था। यह प्रक्रिया १० सालो के लिए राष्ट्रीय सरकार गठित कर पूरी की जा सकती थी परन्तु मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कांग्रेस ने देश का विभाजन कर सत्ता अलोकतांत्रिक तरीके से प्राप्त कर ली। गांधी का कांग्रेस को आज़ादी के बाद भंग करने की सलाह बेहद महत्वपूर्ण सलाह थी। अगर सलाह मानी गयी होती तो देश का विभाजन , फिर कांग्रेस का एकाधिकार और उसके तदन्तर नेहरू गांधी परिवार का एकाधिकार नहीं होता जो कि राजनीतिशास्त्र की भावना के अनुरूप लोकतंत्र का यह असली अक्स नहीं था। 
अब आईये विपक्ष पर। जिस तरह से 63 साल पुरानी और व्यापक काडर वाली कांग्रेस पार्टी को सत्ता का हस्तांतरण हो गया उन्हें टक्कर देने के लिए जाहिर है विपक्षी दलों को अपनी स्थापना , विस्तार और प्रतियोगी बनाने में नाको चने चबाने थी। समाजवादी लोगों की जमात बेशक उस समय विचार और संगठन दोनों दृष्टि से नंबर एक विपक्षी थे। 1990 तक विपक्ष के रूप में समाजवादीओ के तमाम धड़ो को ही हर बार राजनितिक अवसर मिले। इस दौरान हमें क्या देखने को मिला की इनके महान विचार संगठन की दृष्टि से मज़बूत नहीं हो पाये। नेतृत्व में ईगो बराबर हावी रहा। तीसरा समाजवाद के तमाम उसूल हिपोक्रेसी की भेट चढ़ गए। यह मैं नहीं भारत का राजनितिक इतिहास बोल रहा है। 

समाज़वाद का आकर्षक शब्द केवल नारों और भासणो तक यानि ज़मीं पर थोड़ी विकास द र और उसे गाव और गरीबो में वितरण का काम नौकरशाही की भेट चढ़ गयी। पहले गावो में सरकार की उपस्थिति पुलिस के ज़ुल्म के रूप में दिखती थी बल्कि अब तो आपके पूंजीवाद के इस दौर में भी गावो में हर व्यक्ति कम से कम किसी न किसी योजना में संलग्न हो गया। यह इसीलिए नही हुआ की 2000 के बाद कुछ दिनों के लिए बाजपेई और १० सालो के लिए मनमोहन कोई नवसमाजवाद लेकर आ गये। हुआ यह की नयी आर्थिक नीतियों से सरकार के राजस्व में भरी बढ़ोतरी हुई और गावो में हस्तांतरित होने वाला पैसा पिछले दो दशक में 9 हज़ार करोंण से बढ़कर 120 हज़ार करोण हो गया। इससे सिस्टम में भ्रष्टाचार के बावजूद लोगों का मौद्रिक एम्पावरमेंट बढ़ गया तो इसे पूर्व समाजवाद की विफलता नहीं कहेंगे?
अब आप भाजपा के एक दल के रूप में उदय पर आइये। अपने फ़रमाया की वह अछूत थी और उसे कोई भाव नहीं देता था। कोई भी संस्था या व्यक्ति यदि आज शिखर पर है तो इसका यह मतलब नहीं की वह कभी शून्य पर नहीं रहा होगा। भाजपा के विचारो से मैं सहमत नहीं परन्तु एक वैकल्पिक राजनितिक संगठन के रूप में उसकी सक्सेस स्टोरी महत्वपूर्ण तो है ही। आखिर समाजवादी क्यों मत्तिमेट हो गये। क्यों जनता परिवार फिर भंग हो गया। ऐसा एक बार नहीं कई बार हो चूका है और इसिलए कांग्रेस को एकाधिकारी पार्टी के रूप में बारबार रहने का मौका मिला। 
आज देश में लोकतनत्र को असल में मज़बूत बनाने,सामाजिक न्याय को व्यापक करने और धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत बनाने के लिए कुछ बुनियादी सुधारों की जरूरत है जिसके लिए कोई पार्टी तैयार नहीं है


It is very good that any sort of crime get awakened us, but the question is why we get more activated when somebody is murdered in sectional violence. Though, the murder of Akhlaq at dadri was very horrible, but on the same day one another Muslim businessman at Hyderabad was terribly murdered at a restaurant, the scene of murder was get recorded in CCTV Camera and it was viral on social media, but we did not discuss, only because it did not have sectional color.
In the same way there are many incidents which take place everyday in our society, not necessarily we able to know each one and our sensitivity could not access them. These things are completely human. But unless we paste spice with these sort of things with sectionalism, we even don't discuss them. Every kind of inhuman things must be suppressed by we civilized lot.
कुछ बौद्धिक लोगों व लेखको द्वारा अपने पुरुस्कार लौटाये दिए जाने की खबर आई है। सवाल ये है की ये शख्स बौद्धिक है या बौद्धिकता की राजनीती के खेमेबाज। असली बौद्धकता ना तो अंधी होती है, ना बहरी और ना ही गूंगी , ना ही चीजों को उसकी तीवत्रता के अनुपात से बढ़ा कर दिखाती हैं और न उसे घटाकर दिखाती है। यदि यह राजनीती और धर्म के गलियारों में घुसती भी है तो उसकी दृष्टि विहंगम होती है ना की एक प्रचलित कोने का दीदार करती है। उसे satellite उपग्रह की तरह समूची दुनिया के हर कोने की तस्वीर दिखती है। जब समूचा तस्वीर बौद्धिकता के कैनवास पर नहीं उतरता तब वह राजनीती के एक फैसनपरस्त खेमे का सहारा लेकर बौद्धिकता का प्रभाव नहीं आंतंक प्रस्तुत करती है।
क्या कुछ कुछ खेमेबाज बौद्धिकों का दिमाग इस कदर असंतुलित और नासमझ हो चुका है जिसमे पुरुस्कार लौटने वाले केवल शामिल नहीं हैं, एक धर्म विशेष के कुरीतियों, अंधविस्वासों जो गुजरे ज़माने का सच हो चूका हो , जिसमे सुधार की हवाओं की खिडकिया कभी बंद नहीं हुई हों उस पर आप लगातार आक्षेप लगाते जाएं और जिन धर्म विशेष ने पिछले हज़ार सालों से राजनितिक दलों की तरह अपने को संगठित करने की आड़ में सुधारो की खिड़कियों को हमेशा बंद रखे हों, जिनमे समूची दुनिया में हिंसा के क्रूरतम संगठन बनने की होड़ लगी हो, उन्हें यह सब एक बौद्धिक होकर भी नहीं दिखता। बौद्धिकता केवल सचाई , निष्पक्षता, संवेदनशीलता और वैज्ञानिक अध्ययनों से चलती है जिसमे हर सही को सही और हर गलत को गलत करने का सहस होता है। मुझे ख़ुशी है की तारेक फ़तेह और तस्लीमा नसरीन जैसे बौद्धिक शख्सियत ऐसे पाखंडी और एक आँख से देखने वालों का पर्दाफाश कर रहे हैं।

Tuesday, October 6, 2015




कौन कहता है की बीजेपी जातिवादी पार्टी नहीं है। कम से कम चुनावी टिकट देने में सारी पार्टियां जातिवादी है। आरजेडी को हम यादव पार्टी कहते है क्योकि उसने जदयू के साथ सर्वाधिक 63  टिकट यादव को दिया और मुस्लिम को 33 । पर बीजेपी तो अपने को हिन्दू संप्रदाय की  चैंपियन पार्टी कहती है परन्तु  बिहार की तीन फीसदी आबादी वाली भूमिहार जाति को करीब 22 सीट यानी 15 फीसदी और 3 फीसदी राजपूत जाती को 30 सीटें यानि 18 फीसदी टिकट कैसे दे दिया? क्या इसलिए की बड़ी चोटिए वाले गिरिराज के नेतृत्व में ये जातियां हिंदुत्व की ज्यादा बेहतर ठेकेदारी कर रही है। कुल14 फीसदी ऊँची जाती की आबादी को बीजेपी ने करीब 40 फीसदी टिकट कैसे दे दिया ? हकीकत ये है भारत में हर दल की अपनी एक गुरुत्व जाती है और ये बाकी जातियों में थोडा थोड़ा विस्तार कर अपने चुनावी जीत की सामाजिक व्यूह रचना बनाती है। ऐसे में सारी पार्टियों का यह कहना की वह राष्ट्र के लिए, अकलियत के लिए, गरीब गुरुओं के लिए काम करना चाहती  है,ये छलावा है. उपरोक्त बाते इसीलिए उठ रही है क्योकि भारतीय लोकतंत्र अब  वास्तव में एक जातीय लोकतंत्र में तब्दील हो चूका है जिसमे सामाजिक न्याय की अंकगणितीय परिकल्पना  हर जाती के जनसँख्या अनुपात के अनुसार बटने की तरफ है जिसमे जहा सांख्यकीय असंतुलन होता है वहां राजनितिक असंतोष उत्पन्न हो जाता है। 
परन्तु यह तो बस मौजूदा परिस्थिति का व्याख्यान है। ऐसा होना किसी भी राजनितिक और लोकतान्त्रिक आदर्शो के सर्वथा प्रतिकूल और इसके बेहतर भविष्य के लिए बहुत बड़े खतरे की घंटी है। पर क्या करेंगे इसमें राजनितिक दलों का भी दोष नहीं है.उनका कार्य तो अपने अपने सामाजिक कोंस्टीटूऐंसी में अपनी पोलिटिकल मार्केटिंग कर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना है। दोष तो हमारे संविधान का है जो विभिन्नताओं से भरे समाज को ध्यान में रखते हुए इस अंकगणितीय लोकतान्त्रिक राजनीती को तमाम सामाजिक पहचानो के इस्तेमाल से प्रतिबंधित नहीं किया। इन प्रतिबन्धों  के उपाय क्या क्या हो सकते है इस पर अध्ययन और बहस की जरुरत है। 
अगर भारत के राजनितिक दल यह कहते है की वह जाती को ध्यान में रखकर नहीं उम्मीदवारों की निष्ठां और काम को ध्यान में रखकर टिकट देते है तो  यह उनका तर्क ईमानदार नहीं है। वैसे तो हर पार्टी में टिकट स्क्रीनिंग का एक पुख्ता सिस्टम होना चाहिए जो अभी भी उस पार्टी के मठाधीश द्वारा तय किया जाता है। और जातिवाद दूर करने के लिए सभी राजनितिक कार्यकर्ताओ और नेताओ के नाम में सरनेम लगाना प्रतिबंधित हो जाना चाहिए। 

पुनःश्च ==बीजेपी पर हिन्दू सांप्रदायिक पार्टी का टैग पर यह हिन्दू ऊँची जाती , वैश्य और कुछ पिछड़ी जातियों में विस्ताररत। इस का वर्ग शत्रु मुस्लिम। कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से सब जातियों की पार्टी पर आजकल अल्पसंख्यक पहचान पर ज्यादा केंद्रित होने के साथ स्थान ,काल और पात्र के हिसाब से हर जाती और सम्प्रदाय का प्रबंधन। इंदिरा गांधी के ज़माने में यह ब्राह्मण,भूमिहार ,हरिजन और मुस्लमान की पार्टी थी। लालू मुलायम  के लिए यादव और मुस्लमान मुख्य जाती । इनका वर्ग शत्रु ऊँची जातियों के साथ दलित भी।  बीएसपी की जाती रविदास  दलित जातियां तथा मुस्लिम और ब्राह्मणो की तरफ विस्ताररत । इनका वर्ग शत्रु ब्राह्मण और ऊँची जातियाँ। उपेन्द्र कुशवाहा के लिए कुशवाहा और रामविलास पासवान के लिए पासवान राजनितिक जाती है। इनका पुराना वर्ग शत्रु ऊँची जाती अब बदल गया  है और अब यह क्रीमी पिछड़े के खिलाफ है। जदयू के लिए कुर्मी और विभिन अति पिछड़ी जातियां और मुस्लिम। इनका वर्ग शत्रु लालू नहीं अब मोदी हो गया है। एमआईएम के लिए मुसलमान और इनका वर्ग शत्रु हिन्दू। ये सभी जातीय राजनीतिक समीकरण यूपी और बिहार के है. इसी तरह से देश के हर राज्य और वहां के प्रभाव वाले राजनी तिक दल में वहां के बड़े नेता की जाती से उनका सामाजिक बेस निर्धारित हो रहा है। 

अंतिम सवाल ये है क्या यह परिस्थिति सुधारी जा सकती है जिसमे एक ऐसा बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र विकसित हो जिसमे उनकी पोलिटिकल मार्केटिंग केवल गुड गवर्नेंस और असली सामाजिक न्याय से पूरित राजनीती के जरिये हो सकती हो  तो मेरा जबाब है, ऐसा बिलकुल किया जा सकता है। इसका MODULE तैयार है ,क्योकि मेरा मानना है की टिप्पणी के साथ उसका यथोचित समाधान ना हो तो फिर उसका कोई मायने नहीं। परन्तु जिस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से चल कर नीचे तक फैला है उसी तरह जातिवाद भी ऊँची जातीयों से ही शुरू हुआ और नीचे तक फैलायमान हुआ है। इसके खात्मे की शुरुआत भी पहले ऊपर से होनी चाहिए। 
 

वंचित वर्ग को आरक्षण से नहीं सशक्तिकरण से फायदा

वंचित वर्ग की राजनीति के परिसंवाद यानी पालीटिकल डिस्कोर्स में आरक्षण का मुद्दा पुन: तीव्रता से चर्चाएमान हुआ है। पिछले 1970 के दशक से लेकर अभी 2010 के दशक तक भी आरक्षण पर होने वाले समर्थन और विरोध के समूचे साहित्य और उनमें प्रयुक्त शाब्दिक टर्मों,दृष्टांतों,उद्धरणों और आख्यानों पर यदि नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि इसके समर्थक और विरोधी दोनों अपने स्वार्थगत जुमलों से उपर नहीं जा पाए हैं। इनमें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका जबाब किसी भी पक्ष के पास नहीं हेै।
पहला सवाल ये है कि देश में आरक्षण के जरिये हो या किसी भी तरीके से हो, वंचित वर्ग का सतत उत्थान हमारी उच्च प्राथमिकता में क्यों नहीं है? दूसरा  सवाल ये है कि देश का गैर आरक्षित वर्ग आरक्षण के विरोध से पहले वंचित वर्ग के प्रति अपनी संवेदनशीलता दर्शाते हुए उनके उत्थान का एक बेहतर फार्मूला और क्रियान्वन एजेेंडा लाने की मांग क्यों नहीं करता? दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग को यदि यह लगता है कि हजारों साल से जुल्म सहने की वजह से उसेे मिलने वाला आरक्षण दरअसल उसका मौलिक अधिकार है। ऐसे में उनसे सवाल ये है कि हजारों साल जुल्म सहने वाले में से 95 फीसदी आबादी इस मौलिक अधिकार का उपभोग क्यों नहीं कर पा रही है?
केवल पांच फीसदी वंचित लोग कई पीढ़ीयों से इस मौलिक अधिकार का उपभोग कर जो मोटे असामी हो गए हैं, वंचित वर्ग के क्रीमी लेयर हो गए हैं वहीं केवल इसका फायदा क्यों उठा रहे हैं और यही वह वर्ग है जो इस वंचित वर्ग के पालीटिकल डिस्कोर्स को भी जगाए हुए है। इस स्थिति से वंचित वर्ग और उंची जाति के बीच वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु का एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार हुआ है जो वंचित वर्ग की राजनीति को जगाये रखने के लिये उसे खाद पानी तो प्रदान कर देता है पर बहुसंख्यक वंचित वर्ग के सामाजिक आर्थिक उत्थान के एजेंडों को सदा की भांति बियावान में ही फेंके रहता है।
वस्तुस्थिति ये है कि आरक्षण की अर्हता प्राप्तिके लिये जो कार्यक्रम होने या चलने चाहिए,जो राष्ट्रीय अभियान चलाए जाने चाहिए वह वंचित वर्ग के पालीटिकल डिस्कोर्स में शामिल क्यों नहीं हैं। यदि ऐसा है तो फिर हम आरक्षण को एक ऐसा राजनीतिक एजेंडा क्यों ना माने जो पांच फीसदी कथित वंचित हितों को ही पिचानवे फीसदी वास्तविक पिछड़े के व्यापक कल्याण के एजेंडों के व्यापक मंथन पर तरजीह दिये जा रहा है।
इस तथ्य को मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि भारत में जाति एक वर्ग की तरह है। इसमे सामाजिक पिरामिड पर आसीन उंची जाति से लेकर निचले पायदान पर स्थित निम्र जातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति उसी पिरामिड की ही भांति है। यानी विकास के तमाम मानकों मसलन भू स्वामित्व की स्थिति, आवास की स्थिति, प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपभोग, शिक्षा क ा स्तर, स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता, परिवार नियोजन, संगठित श्रमिक वर्ग में हिस्सेदारी,औद्योगीकरण,शहरी आबादी का अनुपात और व्हाइट कालर नौकरियों में इनकी आबादी का अनुपात, इन सभी दृष्टियों से वंचित वर्ग की स्थिति आज भी उसी पिरामिड के समान है। परंतु दूर्भागयजनक पहलू ये है कि वंचित वर्ग के कथित नेतृत्व ने इस पिरामिड की पीड़ा हरने का बस एक ही फार्मूला तय किया है वह है आरक्षण का। आज वंचित वर्ग के सतत उत्थान के अनेकानेक मसले जो उनके व्यापक सशक्तीकरण के एजेंडे की तरफ ले जाते हैं उसकी चर्चा हमारे पब्लिक डोमेन में नदारद है। ऐसा कर कथित वचित नेतृत्व स्वार्थी अगड़े जातियों का ही भला कर रहे हैं। यही वजह है कि सामाजिक पिरामिड का आकार जस का तस है। पिछड़ों का थोड़ा बहुत उत्थान जरूर हो रहा है पर सामाजिक पिरामिड पर आसीन उंची जातियां दिन दूनी रात चौगुनी तरीके से बढ़ रही हैं।
राजनीतिक और प्रशासनिक आरक्षण से कुछ सौ लोग एमपी एमएलए और मंत्री बन जाते हैं और कुछ हजार वंचित पहचान के लोग सरकारी नौकरियों में चले जाते हैं पर ये भी लोग वही हैं जिनका सामाजिक आर्थिक व शैक्षणिक आधार पहले से मजबूत है। पर वंचित जमात के करोड़ों करोड़ लोगों में से सभी एमपी एमएलए और सरकारी अफसर तो नहीं बन सकते हैं, उन्हें तो उसकी अर्हता पाने में ही मौजूदा चाल से तो सदियों का रास्ता अभी सफर करना होगा।
वचित जमात के सशक्तीकरण के अनेंकानेक एजेंडे हैं। मसलन इस बात की हर साल समीक्षा होनी चाहिए कि देश में कितने प्रतिशत वंचित परिवार भूमिहीन हैं और कितने वंचित परिवारों को प्रति वर्ष भूमि के पट्टे दिये गए? कितने वंचित परिवार आवास हीन हैं और उनमे कितनों को आवासीय पट़्टे प्रदान किये गए? कितने प्रतिशत वंचित परिवार को पक्के मकान दिये गए ? इस बात की सालाना समीक्षा होनी चाहिए। वंचितों के कितने प्रतिशत बच्चे स्कूलों में नामंाकित हैं और इनके ड्रापआउट का प्रतिशत कितना है और इसकी रोकथाम के लिये हर साल की प्रगति रिपोर्ट क्या है? यदि इस देश में एकसमान शिक्षा नीति नहीं अपनायी जाती है तो वंचित जमात की शिक्षा का एक पैमाना यह भी होना चाहिए कि कितने प्रतिशत वंचित वर्ग के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में नामंाकित हैं?
वंचित वर्ग के कितने बच्चों को टीकाकरण अभियान में शामिल किया गया है? उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और पेशेवर शिक्षा में वंचित वर्ग की कितनी भागीदारी है और उसकी सालाना प्रगति दर कैसी है? वंचित वर्ग में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिये सभी आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता कैसी है? वचित वर्ग के गरीब छात्रों में कितने प्रतिशत को वजीफे के दायरे में लाया गया है और उसकी सालाना प्रगति रिपोर्ट क्या है? वंचित वर्ग को सस्ता, त्वरित व पक्षपातरहित न्याय उपलब्ध हो पा रहा है या नहीं। ये सारे एजेंडे वंचित वर्ग के सशक्तीकरण के मार्ग के कदम हैं। सही है कि ये सारे कदम हमारे त्रिस्तरीय लोकतांत्रिक सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों के विभिन्न कार्यक्रमों के मार्फत उठाये भी गए हैं। हो सकता है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के द्वारा इसकी सालाना औपचारिक समीक्षा भी की जाती होगी पर सवाल ये है कि क्या ये सारी बातें हमारी सरकारों व सार्वजनिक चर्चाओं की उच्च प्राथमिकता में शामिल हैं? इसका जबाब नहीं में ही आएगा। पर वंचित वर्ग के राजनीतिक डिस्कोर्स में तो ये बातें बिल्कुल शामिल ही नहीं की जाती हेंै। यही वजह है कि उपरोक्त सारे कदमों को इस मौजूदा व्यवस्था में एक खानापूर्ति तरीके से चलाया जा रहा है जिसके पीछे ना तो राजनीतिक इच्छाशक्ति है और ना ही पब्लिक डोमेन में इसकी प्राथमिकता।
जिस आरक्षण के मसले को दलित वंचित वर्ग की पालीटिक्स के डिस्कोर्स में इतना तवज्जो मिला हैं क्या उसका बेहतर विकल्प ये नहीं है कि देश में आम तौर पर सभी गरीब वंचित वर्ग के लोगों के लिये प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग और ट्रेनिंग के लिये एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम चलाया जाए? देश के हर शहर में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा वंचित वर्ग के छात्रों के कोचिंग व प्रशिक्षण के जरिये यदि उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराया जाता तो कितना बेहतर होता? हम आरक्षण की वैशाखी के जरिये किसी वंचित को प्रशासनिक संरचना में शामिल करने के बजाए यदि हम उसे पहले ही काबिल बनाकर उस संरचना में शामिल करें तो वंचित वर्ग के सशक्तीकरण की दिशा में कितना बड़ा कार्य होता? सुप्रसिद्ध कोचिंग संस्था सुपर थर्टी के संचालक आनंद कुमार तो स्वर्य वंचित वर्ग के हैं और वह कई वंचितों की प्रतिभा को प्रशिक्षण और कोचिंग प्रदान कर तराशते हैं। उनका कार्य असल मायने में वंचितों के सशक्तीकरण का है ना कि वंचितों के आरक्षण की डुगडुगी बजाने का रहा है।
जो लोग वंचित वर्ग को अयोगयता का प्रतीक बताते हैं वह इस मसले पर अपनी गहरी दृष्टि नहीं दर्शाते। हर व्यक्ति योगय बनाया जा सकता हेै जिसके लिये आरक्षण नहीं संरक्षण और सबसे उपर सशक्तीकरण ही कारगर होता है। वंचित वर्ग की राजनीति करने वालों के लिये आरक्षण सबसे आसान मोहरा बन गया है जो भोले भाले अशिक्षित, अनजान, गंवार और सुसुप्तावस्था में पड़ी 95 फीसदी वंचित आबादी को भावुक रूप से गोलबंद तो कर देती है पर इन्हें वास्तव में कोई फायदा नहीं होता।
बात जब वंचित वर्ग के सशक्तीकरण की आती है तो गुड गवर्नेन्स यानी सुशासन का एजेंडा काफी अहम हो जाता है। कुछ दिनों पहले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौर में कुछ दलितवादियों ने उस आंदोलन का यह कहकर विरोध किया कि भ्रष्टाचार विरोध के बहाने दलित और आरक्षण व्यवस्था का विरोध किया जा रहा है। भ्रष्ट दलित नेताओं ने इस आंदोलन को अपने हितों पर चोट पहुंचते देख यह अनर्गल बयान तो दे दिया पर यह बहुत बड़ा हकीकत है कि भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था व गुड गवर्नेन्स से गरीबों और कमजोरों को ही सबसे ज्यादा सुरक्षा ढ़ाल प्राप्त होती है। वास्तविकता ये है कि देश में सभी वंचित वर्ग जिसमे अनुसूचित जाति, अनूसूचित जनजाति, अति पिछड़े और उंची जाति के निर्धन लोग सभी शामिल हैं, के वास्तविक और समवेत उत्थान का मार्ग आरक्षण से कभी भी नहीं प्राप्त होगा, यह केवल उनके संरक्षण और सशक्तीकरण से प्राप्त होगा और यह मार्ग गुड गवर्नेन्स से संभव है।
परंतु दूर्भागय से इस मार्ग को कंटकाकीर्ण बनाये रखने के पीछे समाज की अगड़ी जातियों के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों और वंचित वर्ग के कुछ चंद नेतृत्व वर्ग जो पिछड़ों को आरक्षण के बेवकुफी भरे तिलिस्म में फंसाये हुए हैं,मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं।
गौरतलब है देश में जबतक छोटे उद्योग को आरक्षण प्रदान किया गया तबतक वह बड़े उद्योगों के सामने निरीह बने रहे पर जब नयी आर्थिक नीति के दौरान इन्हें आरक्षित सूची से बाहर किया गया इन्होंने बड़े उद्योगों को हर मामले में पटकनी दी। वजह है कि उनमे व्यवस्था से जूझने और संघर्ष करने का जज्बा आ गया। वही स्थिति हमे वंचित वर्गों में लानी होगी परंतु इसके लिये उन्हें सारी सुविधाएं और संरक्षण जरूर मुहैय्या करानी होंगी।
आरक्षण से राजनीतिक तौर पर वंचितों के कुछ प्रतिनिधि एमपी एमएलए बन गए, सरकारी नौकरियों में इनकी कुछ संख्या आ गयी जो आम तौर पर वंचित वर्ग के अभिजात वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोग थे। परंतु डिप्राव्ड मासेज अभी भी सशक्तिकरण की बाट जोह रहा है। इसकी वजह ये है कि पालीटिकल डिस्कोर्स में केवल आरक्षण शामिल है,सशक्तीकरण नहीं।
अब तो कई समाजविज्ञानी इस बात को भली भांति जान गये हैं कि आरक्षण का नारा एक छलावा है जिसका वंचित मासेज के हितों से कोई लेना देना नहीं। न्यायालय की बनायी व्यवस्था के तहत आरक्षण की सीमा पचास फीसदी निर्धारित है पर इसे पाने की होड़ में विभिन्न जातियों की करीब 85 फीसदी आबादी शामिल हो गयी है। ऐसे में अगर देश में तीन करोड़ के बजाए तीस करोड़ सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ायी जाएगी तभी सरकारी नौकरियों में सभी की भागीदारी संभव होगी। साल में केन्द्र सरकार मुश्किल से एक लाख कर्मचारियों की भर्ती करती है जिसमे पसास करोड़ की वंचित आबादी में से केवल पचास हजार लोगों को नौकरी प्राप्त हो पाती है। ऐसा में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि देश का 85 फीसदी वंचित वर्ग सरकार के सभी काम काज जिसमे योजना, कार्यक्रम, परिसंपत्ति, बजट और क्रियान्वन सभी शामिल है, उसमें अपनी 85 फीसदी भागीदारी की बात करे।
वह यह सोचे कि बिना आरक्षण के ही अपने सामथ्र्य की बदौलत सभी नौकरियों में 85 फीसदी का आंकड़ा प्राप्त करे। काश ऐसा ही होता। यही तभी संभव है जब वंचित वर्ग के सशक्तीकरण के एजेंडों को पब्लिक डोमेन में ज्यादा चर्चित करेें और हमारे पालीटिकल डिस्कोर्स में उसे अहम स्थान हासिल हो। फिर यह सामाजिक न्याय नहीं बल्कि विराट सामाजिक न्याय होगा और इसका विरोध करने वाले गैर आरक्षित तबकों को शर्मसार होना पड़ेगा क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्था को हमेशा हीं मजलूमों, निर्धनों, कमजोरों, पीडि़तों और असहायों के प्रति  प्राथमिक रूप से ज्यादा संवेदनशील होना पड़ता है।

गांधी को जो मैने समझा

गांधी को वास्तविक और वैज्ञानिक रूप से समझने के लिये यह बड़ा जरूरी है कि उन्हें महात्मा गांधी के पहले मोहन दास गांधी नामक व्यक्ति के रूप में परखा जाए। हम आम तौर पर गांधी को महात्मा गांधी के बतौर ज्यादा आकलन करते हैं,विचारते हैं वह उपमा जो उन्हें उनके पचास पार के उम्र में प्राप्त हुई है। वह मोहन दास जो पहले इंगलैंड में अपनी बैरिस्टर की शिक्षा के दौरान समय बिताये, तदंतर दक्षिण अफ्रीका में 22 सालों का एक लंबा पेशेवर व सार्वजनिक जीवन जिया। वहां के जद्दोजहद को झेलते हुए अपने सिद्धांतों, संस्कारों, उसूलों, प्रेरणा प्रकल्पों तथा अपने अनुभवों के जरिये अपने जीवन के कई पड़ावों को पार किया। इस दौरान उनका तीन बार भारत आगमन भी शामिल है। यह वही दौर है जिस दौरान मोहन दास ने महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की आधारशिला निर्मित की। 1914 में जब मोहन दास का भारत भू भाग पर स्थायी तौर पर अपने सामाजिक राजनीतिक एजेंडे के साथ अवतरण हुआ तब गांधी अपने जीवन को एक तरह से सन्यस्त आश्रम की ओर मोड़ चुके थे। उनका खान पान, वेश भूषा, रहन सहन बिल्कुल बदला हुआ था जिस पर पिछले दस सालों में वह द0 अफ्रीका में कई सारे प्रयोग, मंथन और मनन कर रहे थे।
मोहन दास के व्यक्तित्व पर कई लोगोंं का प्रभाव पड़ा, परंतु प्राथमिक तौर पर उनके व्यक्तित्व पर देखा जाए तो उन पर उनके अपने परिवार के संस्कारों की गहरी छाप दिखायी देती है जिसमे उनक। मां बाप व परिवार तथा स्कूली जीवन का अनुभव सभी शामिल हैं। गांधी के जीवन पर हिंदू धर्म की छाप बेहद प्रखरता से दिखायी देती है जिसे उन्होंने अपनी धर्मपरायण माताजी से प्राप्त किया था जो साल में करीब चार महीने उपवास पर ही रहती थी। मोहन दास के व्यक्तित्व में सेवा भाव की प्रबल भावना उसी समय घर कर गयी थी जब वह अपने स्कूली दिनों में ही अपने बीमार पिताजी की घंटों सेवा सश्रुषा में बिताते थे। बचपन के दिनों में मोहनदास के मनमस्तिष्क पर श्रवण कुमार की कथा जिसे उन्होंने एक नाटय़ मंचन के दौरान दिखा का गहरा प्रभाव पड़ा। इससे उन्हे अपने मा पिता की सेवा की प्रेरणा मिली। अपने पिता की मृत्यु के करीब आधे घंटे पूर्व तक वह अपने पिता के पैरो की मालिश कर रहे थे। मोहनदास पर दूसरा प्रभाव उनके स्कूली दिनों में राजा हरिश्चंद्र नाटक का पड़ा जिसके जरिये उन्हें सत्य के लिये किसी भी तरह के समझौते नहीं करने की सीख मिली। ये दो दृष्टांत ऐसे थे जो मोहनदास के जीवन को उम्र पर्यन्त दिगदर्शित व निर्देशित करते रहे। मोहन दास में शाकाहार के प्रति लगाव, मद्यनिषेध की भावना उनके परिवार की बदौलत ही आई थी तथा गौतम बुद्ध की शिक्षाओं से करूणा और अहिंसा के प्रति गहरी आस्था जगी।
एक समय ऐसा था जब मोहन दास अपनी स्कूली दिनों में अपने मित्रों तथा भाई की शागिर्दी में मांसाहार, मदिरा तथा धूम्रपान का भी अनुभव लिया परंतु बाद में इसपर घोर पाश्चाताप किया तथा आजीवन इससे दूर रहे।
गांधीजी के मूल आदर्शों जिनमे सत्य व अहिंसा, सत्याग्रह, सादा जीवन, आत्मनिर्भरता, सामुदायिक कार्य, शोषण के खिलाफ विनम्रतापूर्ण प्रतिक्रिया, अधिकारियों के प्रति व्यवहारकुशलता, प्राकृतिक जीवन व चिकित्सा के प्रति गहरी आस्था, अपने आहार को लेकर बेहद सजगता व संवेदनशीलता। ये सारी चीजें उन्होंने किसी विचारधारा व बौद्धिक तिलिस्मों के प्रभाव में आकर नहीं बल्कि अपनी अंतरदृष्टि और उसकी उपादेयता के मुताबिक गढ़ा। उन्होंने अपने जीवन के सारे दृष्टांत अपने परिवार, मां बाप, स्कूली शिक्षा, अपने धार्मिक रीति रिवाजों से हीं मुख्य तौर पर प्राप्त किया जिसके जरिये उन्हें शाकाहारी भोजन, मदिरा पान के प्रति अनासक्ति,स्वच्छता के प्रति बेहद लगाव और अपने संवाद में अतिशय विनम्रता तथा ईश्वर के प्रति गहरी आस्था जैसे गुणों को अपनी पहचान बनाया। हालांकि इसका मतलब ये नहीं कि गांधी के जीवन में बौद्धिक संवादों और पुस्तकीय अध्ययनों का प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि इनका भी खूब प्रभाव पड़ा। चूंकि गांधी जी के व्यक्तित्व में धर्म व ईश्वर के प्रति आस्था बेहद अंतरजात थी इसलिये उन्होंने अपने लंदन में बैरिस्टरी की पढ़ाई में बिताये गए वक्त के दौरान विभिन्न धर्मों के कई पवित्र पुस्तकों का अध्ययन किया। बाद में वह थियोसाफी विचारधारा के बेहद करीब आए। इंगलैंड से लेकर दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान मोहन दास ने लियो टाल्सटाय रचित पुस्तक किंगडम आफ गॉड पढ़ी जिसने धार्मिक दर्शन के प्रति उनकी रूचि व ईश्वर की सत्ता जानने की उत्सुकता को भलिभांति पूरित किया। यही वजह है कि गांधी इस पुस्तक को अपने बेहद पसंदीदा पुस्तक मानते है जिसने उनके जीवन की दृष्टि को एक सम्यक दिशा देने में काफी मदद की।
मोहन दास के जीवन के मिशन को एक और बड़ा आयाम रस्किन लिखित पुस्तक अनटू द लास्ट से प्राप्त हुई जिसने उनके जीवन की दशा को निर्णायक मोड़ प्रदान कर दिया। इस पुस्तक का गांधी ने बाद में सर्वोदय नाम से गुजराती में अनुवाद किया। इस पुस्तक को पढऩे के बाद गांधी बंगले में रहने के बजाए आश्रम में रहने लगे। पेशेवर जीवन के साथ साथ श्रममूलक कार्यों में दिलचस्पी लेने लगे। इसके तहत उन्होंने जोहानेसबर्ग के पास फीनिक्स में खुले खेत में आश्रम स्थापित किया। इस आश्रम में बागवानी, दस्तकारी, बढ़इगिरी से लेकर शिक्षण,पत्रकारिता सभी तरह का कार्य होता था। द0अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के तिरस्कार, शोषण और उनके मौलिक अधिकारों की रक्षा को लेकर चल रही मुहिम को लेकर एक आंदोलनकारी गांधी के साथ एक पत्रकार गांधी का भी उदय हुआ। एक श्वेत पत्रकार मित्र के साथ उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में इंडियन ओपिनियन नाम से एक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। गांधी का यह पत्रकारीय जीवन उनके भारत में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भी अनेक पत्रों जिसमे गुजराती नवजीवन,यंग इंडियन के नाम से जारी रहा।
दक्षिण अफ्रीका में अपने प्रवास के दौरान गांधी को उनके कई ईसाई मित्रों ने उन्हें अपने धर्म की दीक्षा लेने के लिये दबाव डाला,उन्हें कई धार्मिक पुस्तकें भेंट की परंतु मोहन दास ने इन सभी पुस्तकों को विनम्रतापूर्वक पढ़ा पर इससे कभी प्रभावित नहीं हुए और उन्हें कहा कि बुद्ध का दर्शन ईसा मसीह के त्याग से कहीं बड़ा है जिससे मानवता का कहीं ज्यादा व्यापक कल्याण छिपा है। गांधी की अपने हिंदू धर्म और इसके रीति रिवाजों पर गहरी आस्था थी जिसकी वजह उनके परिवार के संस्कारों का भारी असर था। इसका मतलब यह भी नहीं था कि मोहन दास कोई रूढि़वादी हिंदू थे। जब मोहन दास बैरिस्टर की पढ़ाई के लिये लंदन जा रहे थे तो उस समय उनके परिवार बल्कि उनके रिश्तेदारों ने उनके विदेशगमन के खिलाफ यह कहकर विद्रोह कर दिया कि हिंदू धर्म में समुद्र गमन पाप है। उनकी मां ने कहा कि लंदन के गोरे ईसाई मांस व मदिरा का सेवन करते हैं। मोहन दास इसके बावजूद अपने भाई की मदद से लंदन गए पर अपने मां को मांस मदिरा नहीं खाने का वचन दिया जिसे उन्हें जीवन पर्यन्त निभाया। एक दौर ऐसा था जब मोहन दास लंदन में  शाकाहार रेस्तरां की खोज में पांच पांच किलोमीटर पैदल चलते थे। कई बार भूखे रह जाते थे। हिंदू धर्म में बलि प्रथा को लेकर मोहन दास काफी परेशान हुए। अपने कलकते प्रवास के दौरान एक बार वह काली मंदिर का दर्शन करने गए और वहां बली किये जानवरों के  खून की धार देखकर वह हिल से गए। इसी तरह बनारस में विश्वनाथ मंदिर घूमते वक्त मोहन दास जब वहां गंदगी का आलम देखा तो बेहद दुखी हुए। अछूतोद्धार को लेकर गांधी क ी मुहिम एक तरह से हिुदू धर्म की तत्कालीन व समकालीन परंपराओं के खिलाफ उनका एक क्रियात्मक विद्रोह ही तो था। परंतु इसके लिये उन्होंने क्रांति सदृश पाखंड का प्रदर्शन नहीं किया।
मोहन दास कभी भी चाहे उन पर शारीरिक हमला हुआ हो या मानसिक तिरस्कार, उसपर कभी भी प्रतिक्रियावादी नहीं रहे, हमेशा ही उस पर अपनी विनम्र प्रतिक्रिया देते थे। इस वजह से दक्षिणी अफ्रीका में कई गोरे अफसर व पुलिस अधिकारी गांधी के व्यवहार के कायल थे और उनके आग्रह जो दरअसल सत्य का आग्रह था, विनम्रता का आग्रह था, मानवता और करूणा का आग्रह था, उसे ठूकरा नहीं पाते थे। इन्हीें वजहों से मोहन दास ने द0अफ्रीका में भारतीयों के नागरिक अधिकारों के हनन के कई मामलों से लेकर हो या भारत में चंपारण के नीलहे किसानों के अत्याचार की रोकथाम को लेकर हो,खेड़ा किसान विद्रोह को शांत करने को लेकर हो, अहमदाबाद मिल मालिक व श्रमिक गतिरोध समाप्त करने क ो लेकर हो तथा देशव्यापी असहयोग आंदोलन हो इन सबमें गांधी ने अपने विनम्रतापूर्वक आग्रहों से अथोरिटीज को अपनी बात मनवाने के लिये मजबूर किया।
गांधी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू ये है कि कैसे वह व्यक्ति अपने सार्वजनिक जीवन में अपने आइडियोलोजी और आर्गेनाइजेशन का झंडा ढ़ोने के बजाए अपने व्यवहार, कर्म और स्वयं पर प्र्रयोग कर अपने एजेंडे को प्रदर्शित किया तथा लक्ष्य को प्राप्त किया। जब गांधी भारत में अपने सार्वजनिक जीवन में सामाजिक व राजनीतिक दमन के एजेंडे के प्रतिकार के लिये मैदान में उतरते हैं तो वह पूरे देश में एक छोटी धोती और गमछा पहनते है, यह किसी ढ़ोंग व पाखंड के तहत नहीं था बल्कि देश के प्रति व्यक्ति औसत कपड़े की उपलब्धता इतनी ही थी इसलिये गांधी ने इससे ज्यादा मात्रा में कपड़े के उपभोग से मना कर दिया। देश का आम आदमी रेल के तीसरे दर्जे में यात्रा करता है इसलिये गांधी ने रेल के तीसरे दर्जे में बैठ कर दशकों तक समूचे देश की यात्राएं की। वह मानते थे कि आम जन की समस्या को तभी परखा जा सकता है जब उसी के बराबर की जीवन सुविधाएं भोगी जाए।
विडंबना ये है कि भारत के सभी राजनीतिक दलों के नेता तथा सार्वजनिक जीवन में मौजूद लोग गांधी का प्रसंग हर समय दिखाते हैं पर गांधी सदृश जीवन जीने का सामथ्र्य उनमे किसी में नहीं। अनटू दी लास्ट पुस्तक पढऩे से पूर्व मोहन दास दक्षिण अफ्रीका में फर्नीचर युक्त अच्छे बंगले में रहना पसंद करते थे। बाहर जाने पर रेलवे प्लेटफार्म वगैरह पर रुकने के बजाए वह होटल के कमरे में रहना पसंद करते थे। रेलवे व समुद्री यात्राओं में प्रथम श्रेणी में यात्रा करना पसंद करते थे। उनका परिधान फ्राक सूट होता था जिसमे टाई व गलाबंद का पूरा ध्यान रखते थे। परंतु इस पुस्तक के बाद उनका जीवन आश्रमवासी का हो गया। आहार में केवल फल व नट़स पर आश्रित हो गए। ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने लगे। फीनिक्स से मोहन दास का जो आश्रमजीवन शुरू हुआ वह भारत में आकर अहमदाबाद, चंपारण में भितिहरवा तथा महाराष्ट्र के वर्धा आश्रम तक जारी रहा।
गांधी के जीवन का सबसे बड़ा संदेश ये था कि वह पाखंडी या हिपोक्रेट कभी भी नहीं रहे। वह जो भी थे वह अपने अंतरजात अंतरदृष्टि की वजह से थे जो घोर मानवीयता और संवेदनशीलता से ओतप्रेत था। सार्वजनिक जीवन में लबा वक्त गुजारने के दौरान कभी भी शो आफ नहीं किया। उनका जीवन हमें इस बात की शिक्षा देता है कि अगर आप सचमुच एक अच्छे व्यक्ति हैं, एक संवदेनशील प्राणी हैं, एक साफ हृदय व सदाशयी व्यक्ति हैं, एक उसूलपसंद व्यक्ति हैं, एक धैर्यवान व मृदुभाषी व्यक्ति हैं तो अपने घोर दुश्मनों के लिये भी बुरे नहीं हैं। बैरिस्टरी शिक्षा ग्रहण करने के बाद मोहन दास जब राजकोट में अपनी प्रैक्टिस करनी शुरू की तो वह वहां जम नहीं पाए तब किसी ने कहा कि आप मुंबई कोर्ट में प्रैक्टिस करें पर वहां भी पता चला कि वहां तो क्लाइंट कमीशन पर मिलते हैं जिस क्योटरी मे बैरिस्टर मोहन दास ने शामिल होने से मना कर दिया। ऐसा भी हुआ जब कई बार मिले केस को भी मोहनदास सुलझा नहीं पाए। मोहनदास यह बात समझ गए कि उनका पेशा बेहद तिकड़मी तरीके का है पर उन्हें अपनी आजीविका तो चलानी है। इस दौरान परिस्थिति कुछ इस तरह से निर्मित हुई कि उन्हें दं अफ्रीका के नेटाल प्रांत स्थित अपने भाई के परिचित एक मुस्ल्मि व्यवसायी के एक कानूनी विवाद में सहायक की नौकरी के लिये वहां जाना पड़ा।
वहां एक साल का काम पूरा करने के बाद जब मोहन दास वापस भारत लौटने की तैयारी में ही थे तभी वहां के एक स्थानीय अखबार में भारतीयों को प्रांतीय एसंबली में भागीदारी से प्रतिबंधित करने संबंधी एक खबर पढ़ी और यही से उन्होंने वहां के भारतीयों को एकजुट कर इंडियन नेटाल कांग्रेस की स्थापना की और इसके बतौर सचिव अपने सार्वजनिक जीवन की एक तरह से शुरूआत की। परंतु उनकी आजीविका का क्या होगा। लोगों ने उन्हें चंदे की पेशकश की परंतु मोहन दास को यह अच्छा नहीं लगा। अपने जीवन जीविका के लिये उन्होंने अपने साथी भारतीयों से आग्रह किया कि उनके जो भी कानूनी विवाद संबंधी केस हों उन्हें दिये जाए जिससे कि वह आजीविका चला सकें। धीरे धीरे मोहन दास ने वहां अपने पेशेवर जीवन को संस्थापित किया और तदंतर सुप्रीम कोर्ट आफ साउथ अफ्रीका के अटोर्नी बने। अपनी आत्मकथा में गांधीजी लिखते हैं कि उन्होंने अपने पेशे में यह तय कर लिया कि ना तो वह ज्यादा चार्ज लेेंगे ना ही कम और वैसे ही केस अपने हाथ में लेंगे जिसमे उनके क्लायंट ने किसी तरह की धोखाधड़ी ना की हो।
गांधी जी के व्यक्तित्व की एक खासियत ये थी कि वह अपने सार्वजनिक जीवन में एक मीडिया संचारक के रूप में भी काम करते रहे। गांधी ने अपने दक्षिण अफ्रीकी संघर्ष के अनेंनानेक पहलू को भारत यात्रा के दौरान कांग्रेस पार्टी के जरिये और यहां के समाचार पत्रों के जरिये उठाया। कलकते के कुछ अखबारों ने उनके एक एक पृष्ठ का लंबा साक्षात्कार प्रकाशित किया तो इसी दौरान एक समाचार पत्र के संपादक ने अपने दफ्तर में उन्हें दो घंटे इंतजार करवा दिया। गांधी जी को पता था कि मीडिया की किसी सामाजिक मसले और लोक सेवा के मामले में एक बड़ी भूमिका है। इस वजह से वह अपना समाचार पत्र निकालते रहे।
गांधी जी पेशे से बैरिस्टर थे, हृदय से एक आध्यात्मिक व्यक्ति, दिमाग से एक आग्रही व्यक्ति, आत्मा से ईश्वर का अनुशासन मानने वाले, सिद्धांतों से एक नैतिकतावादी व्यक्तित्व,शरीर से श्रम के अराधक, पब्लिक एक्टिीविस्ट के रूप में एक पत्रकार, जीवन यापन से सन्यासी, भोजन के रूप में फलाहारी, चिकित्सक के रूप में हाइड्रोपैथ, संपत्ति संचयक के रूप में ट्रस्टी, धर्म के रूप में हिंदू पर धार्मिक दर्शन सर्वधर्मसमभाव का, व्यवहार में विनम्रता और अंग्रेजों की तरह धन्यवाद शब्द का बारंबर प्रयोगकर्ता और एक समाजिक प्राणी के रूप में हमेशा अपने सहकर्मियों पर विश्वास जताने वाले व्यक्ति थे।
गांधी जी के सार्वजनिक जीवन की एक और बड़ी खासियत थी कि सार्वजनिक गतिविधियों पर होने वाले खर्चे के लिये वह चंदे लेने में विश्वास करते थे और उसे तहे दिल से स्वीकार करते थे। दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत तक में गांधी ने अपने असंख्य दोस्तों, पेशेवरों और व्यवसायी मित्रों से चंदे व अनुदान प्राप्त की और आश्रम के खर्चे को पूरा किया। गांधीजी अपनी आत्मकथा में लिखते हंै कि मदनमोहन मालवीय चंदे के जरिये बड़े बड़े काम किये। उन्हें बड़े बड़े राजा महराजा अनुदान देते थे जिसकी बदौलत उन्होंने बनारस वि0वि0 से लेकर मथुरा के मंदिर तक का निर्माण कार्य किया। गांधीजी ने लिखा है कि इस मामले में मैं भी मालवीय जी से ज्यादा पीछे नहीं था। गांधी जी को दं0अफ्रीका में अपने पेशेवर जीवन के दौरान ढ़ेरो सोने चांदी व सामान मिले। वह समझ नहीं पा रहे थे कि इसका क्या करें। पत्त्नी का दबाव था कि इसे स्वीकार किया जाए क्योंकि बेटों की शादियों में सोने चांदी की जरूरत पड़ेगी पर उनकी अपनी नैतिकता और अंदर की पुकार इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं था। तभी गांधी को ट्रस्टीशिप का ख्याल आया और उन्होंने इन सारे उपहारों को एक ट्रस्ट बनाकर सुपूर्द कर दिया।
हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि गांधीजी के एक शख्सियत के रूप में हुए उत् थान में उनका लंबे समय तक अंग्रेजी परिवेश में रहना भी एक कारक था जिससे उन्हें अपने सार्वजनिक जीवन के व्यक्तित्व गढऩे में सहायता मिली। हांलाकि गांधीजी ने इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को समझने के लिये अंग्रेजी का ज्ञान बेहद जरूरी है। गांधी का करीब  पच्चीस साल का शुरूआती शैक्षिक,बौद्धिक और पेशेवर जीवन विदेश में व अंग्रेजी पृष्ठभूमि में व्यतीत हुआ। इस वजह से उन्हें उनसे संवाद व व्यवहार स्थापित करने कभी दिक्कत नहीं हुई। गांधीजी के बारे में कुछ लोगों की ये धारणा होगी कि वे अंग्रेजों क। हर हाल में विरोधी थे तो उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिए। वह अंग्रेजों तथा ब्रिटिश साम्राज्य के एक अरसे तक लॉयल भी रहे जब उन्हें लगा कि जन अधिकारों के लिये उनका विरोध करना है तभी वह उनके विरोध के लिये खड़े हुए। 1899 में जब वह पहली बार साउथ अफ्रीका से भारत आए तो उन्होने तत्कालिन ब्रिटिश साम्राज्य के लिये स्वागत स्मृति तैयार किया। यहां तक कि 1914 में वह अफ्रीका से सीधे इंगलैंड पहुंचकर प्रथम विश्वयुद्ध के लिये ब्रिटिश रायल आर्मी के लिये स्वयंसेवक तैयार करना शुरू किया। 1920 में जब वह असहयोग आंदोलन के सिलसिले में पंजाब जाना था उन्होंने बिना वायसराय की अनुमति के वहां जाना उचित नहीं समझा। उन्हें जब अनुमति मिली तभी वह वहां रवाना हुए।
यह भी बात सही है कि मोहन दास गांधी एक हिंदू होते हुए मुसलमानों के प्रति बेहद समभावी दृष्टि रखते थे। खिलाफत आंदोलन का उनके द्वारा समर्थन की कई लोग आलोचना करते हेैं पर गांधी की एक्टिीविटी हार्डकोर इंटेलेक्चुअल सिद्धांतों पर नहीं चलती थी। उन्हें लगा कि भारत के मुसलमान दिल से तुर्की के खलीफा के प्रति श्रद्धा रखते हेंै तो ऐसे में उन्हें उनकी भावनाओं का समर्थन करना चाहिए और उन्होंने अली बंधुओं को इस मामले में खुल कर मदद की।
एक बार मुंबई में गांधीजी ने हिंदू मस्लिम एकता को लेकर एक कार्यक्रम आयोजित किया। वह इसमे लोगों की बेहद कम उपस्थिति देखकर बेहद चकित हो गए क्योंकि और कार्यक्रमों में वह इससे कई गुनी ज्यादा भीड़ देखा करते थे। उन्होंने इस प्रसंग पर लिखा कि यह कितनी बड़ी विडंबना है कि पक्षपाती और रोमांचक चीजें उभय पक्षों को आकर्षित करती हैं लेकिन रचनात्मक विचारों और प्रयासों का समाज में कोई भी पक्ष नामलेवा नहीं होता। गांधी का यह कथन आज के दौर में कहीं ज्यादा युक्तिसंगत लगता हेै।
यह भी कहना उचित नहीं होगा कि गांधी केवल एक एक्टिीविस्ट थे, बल्कि वह एक मौलिक बौद्धिक और दार्शनिक थे जिनके विचार विभिन्न धार्मिक व वैचारिक दर्शनों की भ_ी में तपकर तैयार हुआ था और जिनकी जड़े भारतीय दर्शन के इर्द गिर्द ही पैठी हुई थीं। आज की दुनिया जो भयानक राजनीतिक हिंसा और सामूहिक हिंसा की शिकार है उस मर्ज की सबसे बड़ी दवा सत्य व अहिंसा के गांधी के सिद्धांत में छिपी हेै। उनका सत्याग्रह का सिद्धांत लोकतांत्रिक तरीके से विरोध दर्शाने का एक बहुत बड़ा उपकरण साबित हुआ हेै। उनका ट्रस्टीशिप का सिद्धांत पूंजीवाद के नग्र रूप क ो सार्थक बनाने तथा संपत्ति के लालच की रोकथाम की दवा है। स्वच्छता के प्रति उनकी भावना लोगों को अपने व्यक्तिगत व सार्वजनिक स्थलों की सफाई के लिये समय और श्रमदान करने के लिये प्रेरित करती है।  उनका सादा जीवन का सिद्धांत खर्चीले व विलासी जीवन शैली के प्रति विरक्ति लाता है।
ब्रह्मचर्य में उनका विश्वास आत्मा और मस्तिष्क के शुद्धीकरण का एक बड़ा अस्त्र है। उनके बुनियादी शिक्षा का सिद्धांत छात्रों के उद्देश्यपरक जीवन व उनके नैतिक व पेशेवर स्वास्थ्य वर्धन के लिये लाभदायक है। उनका स्वदेशी का सिद्धांत घरेलू व मैन्युफैक्चरिंग उद्योग को संबल प्रदान करने वाला था। मीडिया के प्रति उनका दृष्टिकोण इसे बदलाव लाने व जनमत निर्माण करने के एक यंत्र बनाने का था। उनके अछूतोद्धार का दृष्टिकोण सामाजिक समानता का मंत्र था। प्रार्थना की अवधारणा अपने को सर्वशक्तिमान के समक्ष आत्मसमर्पण करने का था। सेवा भाव के प्रति उनका समर्पण मानवता के पूजारी का था। सार्वजनिक कार्य में होने वाले व्यय के प्रति उनका दृष्टिकोण चंदे पर आधारित था जिसे वह पारदर्शी रखना चाहते थे। गांधीजी का समूचा सार्वजनिक जीवन हमे यह बताता है कि कैसे कोई सामुदायिक सेवा ईमानदारी, निष्ठा, निस्वार्थ और बिना किसी राजनीतिक न ीयत के की जाती है। गांधी एक धर्मपरायण व्यक्ति थे परंतु उन्होंने पाखंड का इस्तेमाल नहीं किया और धर्म का उपयोग अपने को अनुशासित व नैतिक बनाने के लिये किया। उनके ईश्वर से डरने का आशय अपने को गलत व अनैतिक कार्यों से बचाने के लिये था और अपने कार्य व चिंतन को सही दिशा में ले जाने के लिये था। सबसे विलक्षण पहलू गांधी का यह था कि अपने सार्वजनिक कर्म कें दौरान उन्होंने कभी किसी राजनीतिक दल का आतंक निर्मित नहीं किया क्योंकि वह राजनीतिक श्रेय कभी लेना ही नहीं चाहते थे।
दूर्भागय यही था कि इस महामना को अपने अंतिम दिनों में देश के विभाजन का स्वरूप देखना पड़ा और कई गलतफहम लोगों का कोपभाजन बनना पड़ा। परंतु जो लोग गांधी को असल में समझते हैं वे हमेशा इस बात को स्वीकार करेंगे कि इस दुनिया में एक ऐसा मसीहा आया जो पूरी दुनिया में फकत मानवता के लिये जिया और किया।

Deprived Class Needs To Be Empowered, Rather Than Reservation

The issue of reservation has again got its limelight in the political discourse of deprived class of the country. Since 1970s to now in 2010s, what  the both pro and anti reservationists have used the terms, instances, examples in their reservation literature, they all have been full of verbal jugglery only; they have not gone above this. There are some such issues, which can't be answered by any of them. Firstly, why the absolute upliftment of deprived class is not in our top priority?
If it is a reality, then why our upper class is not sensitive enough to raise this demand  that deprived must be given top class empowering forumula with full implementation plan before raising  any sort of their opposition to the policy of reservation. Secondly if the leadership of deprived class feels that they have been hugely negligent for thousands of years, so reservation is their fundamental right, then they must be asked if it has been such, then why merely five percent population of deprived class is able to enjoy this fundamental right, who have already become well off and formed themselves a creamy layer in their society.
This is the class which has awakened this issue of reservation in their political discourse. Finally this situation has created a political demarcation line between upper class and deprived class in form of 'class friends' and 'class foe', which in fact provides water and fertilizers to the 'dalit politics' in the country, not the surety and guarantee of socio economic upliftement of the dalits and deprived in the country. And because of this reservation, the real upliftement agenda of the deprived class has gone to the backburners.
Fact is that the eligibility condition for getting the reservation is still beyond the clutches of majority of the deprived sections of the society and all those policies and programs which should be carried upon for them that has not been even discussed in the political discourse of deprived politics. Then, why not we term this reservation issue, as an issue which is benefitting the interests of merely 5 percent of deprived citizenery over the mass welfare cause of 95 percent deprived citizenry of the country?
No one should ignore this fact that in India caste is class; there is no doubt about that. The upper caste situtated at upper position of social pyramid and all deprived sections are still lying over the bottom of this social pyramid. On the basis of several indicators of development, whether on the basis of land ownership status, owning of pucca houses, per capita income, per capita consumption, level of literacy, availability of health facilities, status of family planning, their presence ratio in the orgainsed workforce, presence in the Industrial activities, ratio of population living in urban areas, presence ratio in white collar jobs.
On all these indicators, the presence of deprived class look like that social pyriamid only. But irony is that in order to change this structure, the deprived section leadership is not interested in all above mentioned development indicators. They are only interested in burning the issue of reservation; by doing this they are helping the vested interests of some few upper caste people. This is the reason, if deprived are progressing just somehow in spread effect manner, on the contrast the upper class is progressing by leaps and bound and structure of social pyramid is same what it was earlier.
The reservation has only enabled some few deprived class people to become MP, MLA or Ministers and some thousands people to become government servant, these are those people who belong to elite among deprived class, who have strong educational and economic base from very before. But millions of downtrodden and deprived are still struggling to find their eligibilities for getting the benefit of reservation and further irony is that the current pace would take them even centuries to fulfill that eligibility.
There are numerous agendas of empowerment of deprived sections. For example there must be every year review how many dalit and deprived families are landless in the country and how many of them have got strip of land in a year? How many families are homeless and how many have been provided houses in said year? How many children of deprived class are admitted in several schools of the country and what is the ratio of their dropouts and what measures have been taken for checking this dropout? If we don't adopt the uniform education policy in the counry, then this criteria is also necessary to carry that how many percentage of deprived class children are enrolled in English medium public schools of the country?
How many neo born infants belong to deprived class are covered undere the national immunization plan? What is the status of entereneurship development among the deprived citizenry? How many poor deprived students have been provided scholarship? Whether the deprived class is getting the instant, cheap and unbiased justice out of this judicial system? These all agendas are key to the upliftment of the deprived class of the country.
However these all measures may have been initiated by the respective three tier of democratic governance through their several dept. and ministries. The ministry of social justice and empowerment may be reviewing them on annual basis also, but in formality only. So the the question is why all these agendas are not in our topmost priority of our governance and become the base of political will power of the government. Why it does not constitute to be the core of the discourse of deprived politics.
The issue of reservation which has occupied itself so high position in the political discourse of deprived class, will it be not better, we have a nationwide coaching and training network for all those deprived class aspirants availed through govt. and non govt. agencies? If we include deprived class people in our administration and other structure of counry through making them capable and efficient, that would be much much better intitative than bringing them through crutches of reservation. This would more help the cause of their empowerment. The organizer of famous coaching institutes 'super 30', Aanand kumar belong to a deprived class and he nurture the talent of many deprived class students through highest degree of coaching which has sure shot result in IITs and etc. What he is doing now, that is actually the empowerment of deprived class rather than singing the song of reservation.
The people who regard deprived section people incapable and inefficient, they have perhaps not observed  them in deep rooted manner. Everyone can be made able and capable, but they need survelliance and empowerment, not the crutches of reservation. One who does politics of reservation, for them reservation is easiest bait to unite all 95 percent ignorant, illiterate and passive population of deprived section. But the question is, after all when those 95 percent will get benefitted in actual terms?
The reality is that the real upliftment of all deprived class people comprising SC, ST, Extreme OBC and poor upper caste people is not possible through reservation; it is only possible through empowerment and availing all basic amenties to them. It is possible through good governance. But unfortunately some vested interested group who belong to both upper caste and deprived class want to maintain this statusquo by keeping their community in the web of crutches like reservation. Some years ago when country was witnessing a huge sort of agitations against corruption, then some corrupt dalit politicians and activist along with other corrupt elements opposed this movement by saying that this movement is against the 'social justice' and 'reservation'. These corrupt elements delivered inappropriate statement, but the fact is that the corruption free governance always provides big armoury to the poor and deprived sections.
It is notable here until unless we have had a reservation policy for SSI, they never progressed, but when reservation facilities were lifted, they competed with big industries in a very successful manner and they over stepped them on many fronts. The reason was, they left the crutches and made themselves strong and able. Same story will have to applied among our deprive class so that compete with the upper class of the society but they surely need all basic facilities and survelliance.
Because of reservation, some people able to become MP, MLA and Ministers in this representative cracy democracy and some thousands people got the seat of government servants,  who actually belonged to deprived eltite category, but the masses of deprived is earnestly waiting for their empowerment.
Now many social scientists are also of the view that the slogan of reservation has just become a fake which has nothing to do with the lot of the deprived masses. We all know the maximum reservation limit is fifty percent, for getting that limit almost 85 percent population of various castes have come and joined the race. If we have 30 core govt. employees in the countries in place of present 3 core, then we would be alble to accommodate all reservation aspiring people. But on the contrast, our Central govt. hardly employs one lakh people in a year; out of them 50 thousand get the reservation benefit. Under these circumstances will it be not better the 85 percent deprived population start demanding for 85 percent share in all kind of government activities in terms of all schems and plans, programs and budget and its implementations, which is more logical and reasonable.
Must they not think that without having reservation they will even have hold over 85 pc total jobs of the country. It is possible, but only when we have time bond mass empowerment program for all deprived section people of the country and also we have topmost agenda in the political discourse. Then we have not only social  justice, rather it would have greater social justice and any anti reservationist if start oppose this, have to be shameful before opposing it. This is because the public authority has first and foremost priority to the cause and sensitivity of deprived, downtrodden and proletriate class.