Wednesday, November 15, 2017

व्यस्था की  विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम 
मनोहर मनोज 

हम किसी विशेष राजनीतिक खेमे के प्रति कैसे कैसे अपने आग्रहों , दुराग्रहों और  पूर्वाग्रहों की वजह से उनके मोहपाश में बढे रहते है , उसकी एक नहीं कई मिशाले पेश की जा सकती है।  हमें जब असलियत का पता चलेगा तो हम पाते हैं  की हम किसी दल और किसी सरकार र्विशेष के प्रति आसक्त और अनासक्त है , पर मूल समस्याएं तो व्यवस्था जनित है , जिसके प्रति व्यवस्था  के संचालकों और नियामकों का  ध्यान आकर्षित कितना होता है,  वही बात मौलिक है। 
मोदी सरकार की उन योजनाओ का हम हवाला दे जो वास्तव में गेम चेंजर प्रकृति की थीं , पर उन योजनाओ में भी  व्यस्था की विडंबना किस तरह से अन्तर्निहित थी और सत्ता में बैठे उन लोगो की नजर में भी वे ओझल हों गई जिन्होंने अपने आप पर रूटीन सरकार का टैग मानने से इनकार किया था । सबसे पहले हम उजाला योजना को लें जिसके तहत करोडो एलईडी बल्ब रियायती दर पर देश भर में वितरित किये गए। इस योजना  में 300 रुपये के एलईडी बल्ब 80 -90 रुपये में बेचे गए। इस योजना का मकसद इन बल्बों के प्रयोग के जरिये देश में बिजली के खपत में भा री बचत  कर  ऊर्जा संरक्षण मुहिम को बढ़ाने का था। इस योजना के तहत सरकारी दफ्तरों तथा विभिन्न  बिजली कार्यालयों  में बेचे जाने वाले बल्ब के बिल भी दिये  जाते थे  जिसमे बल्ब फ्यूज होने पर ३ साल की गारंटी भी दी गयी। हकीकत ये है इसमें ज्यादातर बल्ब ख़राब हो जाते है पर इनके वापसी के आउटलेट कही नहीं मिलते। इस बात की  पुष्टि अब जाकर इन रिपोर्टो से  हुई की इस योजना के तहत वितरित  80 प्रतिशत बल्ब की क्वालिटी ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड के मा नको को पूरा नहीं करती। इस योजना का अलबत्ता फायदा लोगो को यह मिला की इन बल्बों  की बाजार  कीमत करीब १०० रुपये के आस पास आ गयी है और अब  बल्ब ख़राब होने पर उस पर कम से कम गारंटी औरउसकी वापसी सुनिश्चित है। सवाल है की  सरकार ने इन बल्ब सप्लायरो के बल्ब की क्वालिटी के प्रति  नरमी क्यों दिखाई और बिजली संरक्षण की यह एक बेहतर योजन व्यव स्था की विरूपता की कैसे शिकार हो गयी। 
हमलोगो को इस बात की बड़ी गलफहमी रहती है की सरकार जनकल्याण को तवज्जो देती है और निजी क्षेत्र जनविरोधी कार्य करते है।  दरअसल ये दोनों संगठन परस्पर प्रतियोगिता और नियमन के अ भाव में जनता का गला काटने को तैयार रहते है। एक अपनी भ्रष्टाचार ,लापरवाही और कामचोरी का पोषण जनता का गला दबाकर करना चाहता है तो दूसरा मुनाफा कमाने के लालच में जनता को हर समय रौदने को तैयार रहता है। ठीक इसी तरह हम यह भी जान लें की कोई दल विशेष की सरकार ईमानदारी और जनता के हितों की कोई चैंपियन नहीं होती है। कोई भी सरकार यदि मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का सामना नहीं करती तो वह भी निरंकुश होकर जनविरोधी, मनमानी और अतार्किक फैसले लेती है। पहला उदहारण तो हम दिल्ली मेट्रो के किराये में बेतरतीब बढ़ोतरी तथा भारत सरकार नियंत्रित एम्स द्वारा अपने शुल्क में बढ़ोत्तरी का ले। दिल्ली मेट्रो ने महज तीन महीने के दौरान अपने किराये में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है । जिस मेट्रो रेल का  एक आदर्श बुनियादी उपक्रम के रूप  हवाला दिया जाता था। जो उपक्रम पिछले आठ साल के दौरान बिना किराया बढ़ाये सरप्लस कमा रही थी। जो विदेश से लिए गए लोन को समय पर चुकता कर रही थी।  जो अपनी अधिकतर परियोजनाओं को समय पर या समय से पहले पूरा कर रही थी।  जिस उपक्रम को प्रौद्योगिकी से सुसज्जित भ्रष्टाचार मुक्त उपक्रम माना जाता था। वह उपक्रम अचानक दोगुना  किराया क्यों बढ़ा लेता है। केंद्र , दिल्ली प्रदेश सरकार के साझे में चलने वाले इस उपक्रम को अब अचानक अपनी लागतो में बढ़ोत्तरी का रोना क्यों रोना पड़ता है। हमारा मानना है की कोई भी उपक्रम चाहे वह घोषित रूप से जनकल्याणकारी क्यों न हो उसे सरकार की सब्सिडी पर आश्रित और पोषित नहीं होना चाहिए , उसे अपनी कार्यक्षमता और अपने उपलब्ध  संसाधनों के अधिकतम उपयोग के जरिये उसे अपने उपक्रम को चलाना  चाहिए। रेल हो , मेट्रो हो या सड़क परिवहन , इन्हे किराया बढा ने की छूट जरूर मिलनी चाहिए , पर ठीक उतनी ही जितना मुद्रा स्फीति की सालाना दर , यानि  यह  3 -4 फीसदी के बी च  ही होना होना चाहिए। पर दिल्ली मेट्रो ने तो अ पने अधिकतम किराये  को  32 रुपये से बढाकर 60 रुपये करने का एक बेहद कठोर कदम उठाया और हैरत  की बात ये है की जनता के कथित चौकीदार के चेहरे पर इससे थोड़ा उफ़ तक नहीं आया। इस मामले में दिल्ली सरकार का रवैया उचित था जिसने दिल्ली मेट्रो के आमदनी की फाइलों के जाँच की मांग की । 
ठीक इसी तरह दिल्ली एम्स की तर्ज़ पर  देश में 6 नए एम्स स्थापित किये जाने  को  एनडीए ने अपना यूएसपी बताती थी, उसमे से ऋषिकेश स्थित एम्स ने तो अपने विभिन्न  चिकित्सा शुल्क में निजी अस्पतालों की तर्ज़ पर कई गुनी बढ़ोत्तरी कर दी। जब अखबारों कदम की तीव्र आलोचना हुई तो उसने दर बढ़ोत्तरी वापस लेने का फैसला लिया। एम्स से जुड़ा दूसरा सवाल है आखिर देश के अन्य एम्स दिल्ली एम्स के बराबरी आने पर विफल क्यों हो रहे है की पटना स्थित मरीज को पटना एम्स छोड़कर दिल्ली एम्स में आना पड़ता है। तिस पर ऋषिकेश एम्स जैसा फैसला यही बताता है की सरकारें और सरकारी संस्थान परस्पर नकेल और स्व नैतिकता तथा जन संवेदनशीलता  के अभाव में  कैसे जनविरोधी हो जाते है।  क्या केंद्र सरकार  इस मामले में अचानक निजी क्षेत्र सरीखी मुनाफाखोर हो गयी और उसे अपने कदम के विरोध में के विरोध में प्रयाप्त राजनीतिक दबाव नहीं झेलना पड़ा। इस मामले पर दो दृष्टांतों का हवाला देना मुफीद होगा। पहला 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए सरकार ने गैस मूल्यों में दोगुनी बढ़ोत्तरी का फैसला लिया। यह चुनाव का राजनितिक मुद्दा बना। उम्मीदी ये थी की नयी मोदी सरकार भी कॉर्पोरेट हितैषी होने के नाते इस  मूल्य बढ़ोत्तरी के निर्णय  को जारी रखेगी। पर मोदी सरकार ने जनदबाव और लोकलज्जा में इन गैस मूल्यों को बढाने का फैसला नहीं लिया। ठीक इसी तरह से मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन किया जिसे किसान विरोधी फैसला माना गया।  शुरू में मोदी सरकार ने इस फैसले पर टस से मस नहीं होने का संकेत दिया।  पर विपक्ष के दबाव तथा अपनी ही  पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के दबाव में वह अपना फैसला पलटने पर बाध्य हो ग ई। 
गौरतलब है की मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी करीब दो दर्जन योजनाए और स्कीम्स सैद्धांतिक रूप से बेहद  पुख्ता किस्म की मानी गयीं । इससे देश की अर्थव्यस्था में एक नयी शानदार शुरुआत हुई। पर भ्रष्टाचार और काले  धन जैसे देश की दिक् दिगंत समस्या पर जब एक व्यापक व्यस्था परिवर्तन मुहीम चलाने से कन्नी काट कर इस सरकार ने बिना व्यापक विचार मंथन के नोटबंदी का ऐसा फैसला लिया जो सिस्टम सुधार में सुधार लाने पर आश्रित नही होकर बचे खुचे अच्छी चीजों को ही गड्ड मड  कर दिया। नोटबबंदी के फायदे नुकसान पर तो देश में बहुत परिसंवाद हो चुका है ,पर अंतिम निष्कर्ष यही निकला की  इससे देश को जो फायदा हुआ उससे तो कई गुना ज्यादा नुकसान हो गया । इस फैसले के साथ जो कुछ पूरक उपाय मसलन डिजिटल  भुगतान को जैसे बढ़ावा देने  के लि ये गए वह बिना  नोटबंदी के भी लाया जा सकता था। फिर मामला वही बन गया  की चौबे गए छब्बे बनने , दुबे बनकर आ गए। 
इस सरकार ने आधार कार्ड से देश की करीब  पिचासी योजनाओ  को लिंक करने तथा करीब 330 तरह के भुगतान को डीबीटी के जरिये अनिवार्य करने का जो कार्य किया, वह बेहद सराहनीय है।  पर हम यह नहीं भूलें चाहिए की आधार कार्ड का  कांसेप्ट यूपीए सरकार द्वारा लाया  गया, पर मौजूदा मोदी सरकार  ने  उस पर और तेज दौड़ लगाकर करीब 50000 करोड़ के भ्रष्टा चा  र पर रोक लगाने सफल रही है । जीएसटी भी यूपीए के कार्यकाल में  परिकल्पित हुआ और अब यह  मोदी सरकार ने उसे  व्याहारिक रूप में परिवर्तित किया है । पर मौजूदा स्थिति तो यही दर्शा रही है की  सहज , सरल और पारदर्शी कर व्यस्था की जीएसटी के जरिये जो परिकल्पना की गयी, वह तो घोर गहमागहमी की शिकार हो गयी। पहले तो इस सरकार ने एक एकाधिकारी नियामक मार्फ़त ढेर सारी वस्तुओ को 28 प्रतिशत की सूची में डाल दिया।  सबसे पहले तो 28 प्रतिशत का  कर ब्रैकेट लाना ही नहीं चाहिए था जिसका सभी लोगोने विरोध किया। अब जब विपक्ष ने दबाव बनाया तो पचास वस्तुओ को छोड़ कर अब सभी को 18 प्रतिशत के नीचे स्लैब में डाला गया । 
मोदी सरकार ने यह नारा दिया था की वह एक सरल सरकार होगी। पर इस सरकार ने एलपीजी की कीमतों को लेकर यूपीए द्वारा शुरू की गई दोहरी मूल्य नीति को ना केवल जारी  रखा बल्कि उस पर और ज्यादा  तेज दौड़ लगा दिया। मोदी ने अपने प्रभाव के जरिये करीब एक करोड़ लोगो से सब्सिडी लेकर ग्रामीण महिलाओ के लिए  ज्योत्सना  योजना लेकर वाहवाही तो लूट ली। पर यह कोई बुनि यादी सुधार  तो साबित नहीं हुआ। अभी देश के सभी शहरों में रहने वाले करीब 10 करोड़ मजदूर और किराये में रहने वाले लोग एलपीजी की इसी दोहरी मूल्य नीति की वजह से ब्लैक में 100 रुपये किलो गैस खरीद कर अपना भोजन बना पाते है। अगर बिना सब्सिडी दिए आप छोटू सिलिन्डर को खुले बाजार में उपलब्ध कराये तो सरकार को ना तो तो सब्सिडी वहन  करनी पड़ेगी और ना ही यह  ब्लैक में बिकेगी । 
अंत में अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतो  में आयी कमी को मौजूदा सरकार ने  जनता को पास ऑन करने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर  कर अपने ख़ज़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की  अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में  संतुलन स्थापित किया।  तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों , शराब , रियल एस्टेट जैसे कमाऊ मदों को जीएसटी में नहीं डाला गया जिससे जनता को ज्यादा राहतों की उम्मीद थी । फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए  विन विन स्टेप क्यों  माने।  चिंता की बात ये है जिस जीएसटी से हम देश में कर क्रांति के आगमन की कल्पना कर रहे थे वह  असल में अब तो देश में व्यावसायिक अराजकता का परिदृश्य झलका रही है। चिंता इस बात की ज्यादा है की सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व की चपत इससे ना पड़ जाये। क्योंकि देश में बिक्रीजनित सभी  उत्पाद सबसे पहले तो लेबल लगे  नहीं होते है, सब पर नए स्टॉक  मूल्य प्रिंट नहीं हुए है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी  रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। 
ऐसे  में मोदी सरकार को हम कैसे भिन्न सरकार माने, क्योकि इसने व्यस्था की विरुपताओं के असली बिन्दुओ पर हमला किया हीं  नहीं , अगर थोड़ा बहुत किया भी तो वह सेलेक्टिव तरीके से और अपने पोलिटिकल पैकेजिंग के साथ। 

पुनश्च --मुझे लगता है भ्रष्टाचार और काला धन पर कोई  प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के बाद मोदी सरकार ने नोटेबंदी के जरिये महज एक हलचल मचाने के लिए और अपनी  पीठ खुद  थपथपाने जैसे बचकाने सरीखी हरकत की।  इस फैसले से यह बात भी साबित हुई की कोई सरकार  अपने दुलारी नौकरशाही को तंग नहीं करना चाहती और इसी वजह से मोदी सरकार  ने 100 करोड़ लोगो को पचास दिनों के लिए मौद्रिक आपातकाल में ला दिया  कई दूरगामी नकारात्मक असर पैदा कर दिए । ठीक वैसे ही जैसे कुछ दर्ज़न आतंकवादी को पकड़ने के लिए बिना इंटेलिजेंस और टारगेट शूटर के दिल्ली के समूचे एक करोड़ लोगो को घर खाली करने को कह दिया जाये। 

Monday, November 13, 2017

व्यस्था की  विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम 
मनोहर मनोज 

हम किसी विशेष राजनीतिक खेमे के प्रति कैसे कैसे अपने आग्रहों , दुराग्रहों और  पूर्वाग्रहों की वजह से उनके मोहपाश में बढे रहते है , उसकी एक नहीं कई मिशाले पेश की जा सकती है।  हमें जब असलियत का पता चलेगा तो हम पाते हैं  की हम किसी दल और किसी सरकार र्विशेष के प्रति आसक्त और अनासक्त है , पर मूल समस्याएं तो व्यवस्था जनित है , जिसके प्रति व्यवस्था  के संचालकों और नियामकों का  ध्यान आकर्षित कितना होता है,  वही बात मौलिक है। 
मोदी सरकार की उन योजनाओ का हम हवाला दे जो वास्तव में गेम चेंजर प्रकृति की थीं , पर उन योजनाओ में भी  व्यस्था की विडंबना किस तरह से अन्तर्निहित थी और सत्ता में बैठे उन लोगो की नजर में भी वे ओझल हों गई जिन्होंने अपने आप पर रूटीन सरकार का टैग मानने से इनकार किया था । सबसे पहले हम उजाला योजना को लें जिसके तहत करोडो एलईडी बल्ब रियायती दर पर देश भर में वितरित किये गए। इस योजना  में 300 रुपये के एलईडी बल्ब 80 -90 रुपये में बेचे गए। इस योजना का मकसद इन बल्बों के प्रयोग के जरिये देश में बिजली के खपत में भा री बचत  कर  ऊर्जा संरक्षण मुहिम को बढ़ाने का था। इस योजना के तहत सरकारी दफ्तरों तथा विभिन्न  बिजली कार्यालयों  में बेचे जाने वाले बल्ब के बिल भी दिये  जाते थे  जिसमे बल्ब फ्यूज होने पर ३ साल की गारंटी भी दी गयी। हकीकत ये है इसमें ज्यादातर बल्ब ख़राब हो जाते है पर इनके वापसी के आउटलेट कही नहीं मिलते। इस बात की  पुष्टि अब जाकर इन रिपोर्टो से  हुई की इस योजना के तहत वितरित  80 प्रतिशत बल्ब की क्वालिटी ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड के मा नको को पूरा नहीं करती। इस योजना का अलबत्ता फायदा लोगो को यह मिला की इन बल्बों  की बाजार  कीमत करीब १०० रुपये के आस पास आ गयी है और अब  बल्ब ख़राब होने पर उस पर कम से कम गारंटी औरउसकी वापसी सुनिश्चित है। सवाल है की  सरकार ने इन बल्ब सप्लायरो के बल्ब की क्वालिटी के प्रति  नरमी क्यों दिखाई और बिजली संरक्षण की यह एक बेहतर योजन व्यव स्था की विरूपता की कैसे शिकार हो गयी। 
हमलोगो को इस बात की बड़ी गलफहमी रहती है की सरकार जनकल्याण को तवज्जो देती है और निजी क्षेत्र जनविरोधी कार्य करते है।  दरअसल ये दोनों संगठन परस्पर प्रतियोगिता और नियमन के अ भाव में जनता का गला काटने को तैयार रहते है। एक अपनी भ्रष्टाचार ,लापरवाही और कामचोरी का पोषण जनता का गला दबाकर करना चाहता है तो दूसरा मुनाफा कमाने के लालच में जनता को हर समय रौदने को तैयार रहता है। ठीक इसी तरह हम यह भी जान लें की कोई दल विशेष की सरकार ईमानदारी और जनता के हितों की कोई चैंपियन नहीं होती है। कोई भी सरकार यदि मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का सामना नहीं करती तो वह भी निरंकुश होकर जनविरोधी, मनमानी और अतार्किक फैसले लेती है। पहला उदहारण तो हम दिल्ली मेट्रो के किराये में बेतरतीब बढ़ोतरी तथा भारत सरकार नियंत्रित एम्स द्वारा अपने शुल्क में बढ़ोत्तरी का ले। दिल्ली मेट्रो ने महज तीन महीने के दौरान अपने किराये में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है । जिस मेट्रो रेल का  एक आदर्श बुनियादी उपक्रम के रूप  हवाला दिया जाता था। जो उपक्रम पिछले आठ साल के दौरान बिना किराया बढ़ाये सरप्लस कमा रही थी। जो विदेश से लिए गए लोन को समय पर चुकता कर रही थी।  जो अपनी अधिकतर परियोजनाओं को समय पर या समय से पहले पूरा कर रही थी।  जिस उपक्रम को प्रौद्योगिकी से सुसज्जित भ्रष्टाचार मुक्त उपक्रम माना जाता था। वह उपक्रम अचानक दोगुना  किराया क्यों बढ़ा लेता है। केंद्र , दिल्ली प्रदेश सरकार के साझे में चलने वाले इस उपक्रम को अब अचानक अपनी लागतो में बढ़ोत्तरी का रोना क्यों रोना पड़ता है। हमारा मानना है की कोई भी उपक्रम चाहे वह घोषित रूप से जनकल्याणकारी क्यों न हो उसे सरकार की सब्सिडी पर आश्रित और पोषित नहीं होना चाहिए , उसे अपनी कार्यक्षमता और अपने उपलब्ध  संसाधनों के अधिकतम उपयोग के जरिये उसे अपने उपक्रम को चलाना  चाहिए। रेल हो , मेट्रो हो या सड़क परिवहन , इन्हे किराया बढा ने की छूट जरूर मिलनी चाहिए , पर ठीक उतनी ही जितना मुद्रा स्फीति की सालाना दर , यानि  यह  3 -4 फीसदी के बी च  ही होना होना चाहिए। पर दिल्ली मेट्रो ने तो अ पने अधिकतम किराये  को  32 रुपये से बढाकर 60 रुपये करने का एक बेहद कठोर कदम उठाया और हैरत  की बात ये है की जनता के कथित चौकीदार के चेहरे पर इससे थोड़ा उफ़ तक नहीं आया। इस मामले में दिल्ली सरकार का रवैया उचित था जिसने दिल्ली मेट्रो के आमदनी की फाइलों के जाँच की मांग की । 
ठीक इसी तरह दिल्ली एम्स की तर्ज़ पर  देश में 6 नए एम्स स्थापित किये जाने  को  एनडीए ने अपना यूएसपी बताती थी, उसमे से ऋषिकेश स्थित एम्स ने तो अपने विभिन्न  चिकित्सा शुल्क में निजी अस्पतालों की तर्ज़ पर कई गुनी बढ़ोत्तरी कर दी। जब अखबारों कदम की तीव्र आलोचना हुई तो उसने दर बढ़ोत्तरी वापस लेने का फैसला लिया। एम्स से जुड़ा दूसरा सवाल है आखिर देश के अन्य एम्स दिल्ली एम्स के बराबरी आने पर विफल क्यों हो रहे है की पटना स्थित मरीज को पटना एम्स छोड़कर दिल्ली एम्स में आना पड़ता है। तिस पर ऋषिकेश एम्स जैसा फैसला यही बताता है की सरकारें और सरकारी संस्थान परस्पर नकेल और स्व नैतिकता तथा जन संवेदनशीलता  के अभाव में  कैसे जनविरोधी हो जाते है।  क्या केंद्र सरकार  इस मामले में अचानक निजी क्षेत्र सरीखी मुनाफाखोर हो गयी और उसे अपने कदम के विरोध में के विरोध में प्रयाप्त राजनीतिक दबाव नहीं झेलना पड़ा। इस मामले पर दो दृष्टांतों का हवाला देना मुफीद होगा। पहला 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए सरकार ने गैस मूल्यों में दोगुनी बढ़ोत्तरी का फैसला लिया। यह चुनाव का राजनितिक मुद्दा बना। उम्मीदी ये थी की नयी मोदी सरकार भी कॉर्पोरेट हितैषी होने के नाते इस  मूल्य बढ़ोत्तरी के निर्णय  को जारी रखेगी। पर मोदी सरकार ने जनदबाव और लोकलज्जा में इन गैस मूल्यों को बढाने का फैसला नहीं लिया। ठीक इसी तरह से मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन किया जिसे किसान विरोधी फैसला माना गया।  शुरू में मोदी सरकार ने इस फैसले पर टस से मस नहीं होने का संकेत दिया।  पर विपक्ष के दबाव तथा अपनी ही  पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के दबाव में वह अपना फैसला पलटने पर बाध्य हो ग ई। 
गौरतलब है की मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी करीब दो दर्जन योजनाए और स्कीम्स सैद्धांतिक रूप से बेहद  पुख्ता किस्म की मानी गयीं । इससे देश की अर्थव्यस्था में एक नयी शानदार शुरुआत हुई। पर भ्रष्टाचार और काले  धन जैसे देश की दिक् दिगंत समस्या पर जब एक व्यापक व्यस्था परिवर्तन मुहीम चलाने से कन्नी काट कर इस सरकार ने बिना व्यापक विचार मंथन के नोटबंदी का ऐसा फैसला लिया जो सिस्टम सुधार में सुधार लाने पर आश्रित नही होकर बचे खुचे अच्छी चीजों को ही गड्ड मड  कर दिया। नोटबबंदी के फायदे नुकसान पर तो देश में बहुत परिसंवाद हो चुका है ,पर अंतिम निष्कर्ष यही निकला की  इससे देश को जो फायदा हुआ उससे तो कई गुना ज्यादा नुकसान हो गया । इस फैसले के साथ जो कुछ पूरक उपाय मसलन डिजिटल  भुगतान को जैसे बढ़ावा देने  के लि ये गए वह बिना  नोटबंदी के भी लाया जा सकता था। फिर मामला वही बन गया  की चौबे गए छब्बे बनने , दुबे बनकर आ गए। 
इस सरकार ने आधार कार्ड से देश की करीब  पिचासी योजनाओ  को लिंक करने तथा करीब 330 तरह के भुगतान को डीबीटी के जरिये अनिवार्य करने का जो कार्य किया, वह बेहद सराहनीय है।  पर हम यह नहीं भूलें चाहिए की आधार कार्ड का  कांसेप्ट यूपीए सरकार द्वारा लाया  गया, पर मौजूदा मोदी सरकार  ने  उस पर और तेज दौड़ लगाकर करीब 50000 करोड़ के भ्रष्टा चा  र पर रोक लगाने सफल रही है । जीएसटी भी यूपीए के कार्यकाल में  परिकल्पित हुआ और अब यह  मोदी सरकार ने उसे  व्याहारिक रूप में परिवर्तित किया है । पर मौजूदा स्थिति तो यही दर्शा रही है की  सहज , सरल और पारदर्शी कर व्यस्था की जीएसटी के जरिये जो परिकल्पना की गयी, वह तो घोर गहमागहमी की शिकार हो गयी। पहले तो इस सरकार ने एक एकाधिकारी नियामक मार्फ़त ढेर सारी वस्तुओ को 28 प्रतिशत की सूची में डाल दिया।  सबसे पहले तो 28 प्रतिशत का  कर ब्रैकेट लाना ही नहीं चाहिए था जिसका सभी लोगोने विरोध किया। अब जब विपक्ष ने दबाव बनाया तो पचास वस्तुओ को छोड़ कर अब सभी को 18 प्रतिशत के नीचे स्लैब में डाला गया । 
मोदी सरकार ने यह नारा दिया था की वह एक सरल सरकार होगी। पर इस सरकार ने एलपीजी की कीमतों को लेकर यूपीए द्वारा शुरू की गई दोहरी मूल्य नीति को ना केवल जारी  रखा बल्कि उस पर और ज्यादा  तेज दौड़ लगा दिया। मोदी ने अपने प्रभाव के जरिये करीब एक करोड़ लोगो से सब्सिडी लेकर ग्रामीण महिलाओ के लिए  ज्योत्सना  योजना लेकर वाहवाही तो लूट ली। पर यह कोई बुनि यादी सुधार  तो साबित नहीं हुआ। अभी देश के सभी शहरों में रहने वाले करीब 10 करोड़ मजदूर और किराये में रहने वाले लोग एलपीजी की इसी दोहरी मूल्य नीति की वजह से ब्लैक में 100 रुपये किलो गैस खरीद कर अपना भोजन बना पाते है। अगर बिना सब्सिडी दिए आप छोटू सिलिन्डर को खुले बाजार में उपलब्ध कराये तो सरकार को ना तो तो सब्सिडी वहन  करनी पड़ेगी और ना ही यह  ब्लैक में बिकेगी । 
अंत में अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतो  में आयी कमी को मौजूदा सरकार ने  जनता को पास ऑन करने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर  कर अपने ख़ज़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की  अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में  संतुलन स्थापित किया।  तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों , शराब , रियल एस्टेट जैसे कमाऊ मदों को जीएसटी में नहीं डाला गया जिससे जनता को ज्यादा राहतों की उम्मीद थी । फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए  विन विन स्टेप क्यों  माने।  चिंता की बात ये है जिस जीएसटी से हम देश में कर क्रांति के आगमन की कल्पना कर रहे थे वह  असल में अब तो देश में व्यावसायिक अराजकता का परिदृश्य झलका रही है। चिंता इस बात की ज्यादा है की सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व की चपत इससे ना पड़ जाये। क्योंकि देश में बिक्रीजनित सभी  उत्पाद सबसे पहले तो लेबल लगे  नहीं होते है, सब पर नए स्टॉक  मूल्य प्रिंट नहीं हुए है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी  रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। 
ऐसे  में मोदी सरकार को हम कैसे भिन्न सरकार माने, क्योकि इसने व्यस्था की विरुपताओं के असली बिन्दुओ पर हमला किया हीं  नहीं , अगर थोड़ा बहुत किया भी तो वह सेलेक्टिव तरीके से और अपने पोलिटिकल पैकेजिंग के साथ। 

पुनश्च --मुझे लगता है भ्रष्टाचार और काला धन पर कोई  प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के बाद मोदी सरकार ने नोटेबंदी के जरिये महज एक हलचल मचाने के लिए और अपनी  पीठ खुद  थपथपाने जैसे बचकाने सरीखी हरकत की।  इस फैसले से यह बात भी साबित हुई की कोई सरकार  अपने दुलारी नौकरशाही को तंग नहीं करना चाहती और इसी वजह से मोदी सरकार  ने 100 करोड़ लोगो को पचास दिनों के लिए मौद्रिक आपातकाल में ला दिया  कई दूरगामी नकारात्मक असर पैदा कर दिए । ठीक वैसे ही जैसे कुछ दर्ज़न आतंकवादी को पकड़ने के लिए बिना इंटेलिजेंस और टारगेट शूटर के दिल्ली के समूचे एक करोड़ लोगो को घर खाली करने को कह दिया जाये। 

Tuesday, September 12, 2017

Unfortunately, one of the major symbol of Economic reform, GST, an integrated unified indirect tax regime, is proving to be another big fiasco for the economy just like demonetization been brought 10 months back. What the reports and situations are being looked upon, it has created a big unsettled economic regime for all of us. The reason is not that the GST is bad, the bad is its preparatory mechanism. GST council still looks completely confused and clueless. sometimes items are being included in one list, sometimes it is included in another list. There is complete anomalies while picking the items while putting them in any tax slab. Sometimes there is repetition, sometimes it is going all alone. First of all, all items must have been considered, what were their earlier tax status and how their status gets changed under new GST regime, it should be considered accordingly, but without considering these, things are being put in in blind manner. There must be logic and consideration of end effect over the price of any items, while keeping them under any tax slab of GST.
i think, what items will be covered under GST regime, it is also not clear cut. Despite the coming of GST, grey areas are still widely open, which is jeopardizing the revenue generation of the governments. Out of these scenario, the state governments will suffer more, because petroleum products taxation has not been put under GST, which is the major source of tax income of centre.And central government has created already its safety net through hiking the tax rates being imposed over all petroleum products, that is why people in spite of lower crude oil prices, paying more for the petrol and diesel.

Saturday, September 9, 2017

प्रधानमंत्री उस दधीचि का वरण क्यों किया है

प्रधानमंत्री उस दधीचि का वरण क्यों किया है जो उन्हें वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु की चुनावी राजनीती में विभाजन रेखा की दीवार को और ज्यादा गहरी कर सके , प्रधानमंत्री को तो उस दधीचि कर वरन करना चाहिए जो अपने अस्थि खंजर से अपराध, भ्रष्टाचार , बीमारी , गन्दगी , अकुशलता , संवेदनहीनता, बेरोजगारी और निर्धनता का समूल नाश कर सके। दरअसल प्रधानमंत्री स्वयं एक अच्छे विजनरी है , बेहद मिहनती है , हर आदमी अपने लिए कोई न कोई  मनपसंद पॉइंट रखता है, अपने को ऊर्जामान रखने के लिए उस हिसाब से प्रधानमंत्री भी अपनी बेष भूषा के जरिये अपने को जबरदस्त तारो तजा रखते है। विदेशी दौरों और पब्लिक मीटिंग में प्रधानमंत्री का पैशन और प्रोऐक्टिवेनेस देखने लायक होता है। पर इन सब के बावजूद नरेंद्र मोदी के राजनितिक उभार के इतिहास को देखें तो यह साफ पता चलता है , ये उस स्कूल थॉट से बिलोंग करते है , जो पहचान की राजनीती पर आधारित रहा है। इस स्कूल ऑफ़ थॉट से हमारे यहाँ कई राजनीतिज्ञों की फेहरिश्त है। यह एक ऐसा स्कूल  है उसमे बड़ी तेजी से राजनीती के करियर का ग्राफ बढ़ता है। इसमें लालू , मुलायम , मायावती, दिग्विजय , ओबैसी , आज़म,के नाम भी शामिल है। अब राजनीती में एक दूसरा स्कूल ऑफ थॉट है वह बयान स्कूल ऑफ थॉट है। इसमें पहचान वाले सभी वे लोग जिन्होंने इसमें मास्टरी कर ली , वह और सफल है।इसी स्कूल से केजरी का भी उदय हुआ। लेकिन  इस स्कूल में  मुलायम और मायावती अब पीछे हो गये  है। पर इन दो के अलावा जिनमे प्रशासन करना आता है और अपने  काम के मामले में अपना विज़न भी रखता है और व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट भी नहीं , उस सूची में मोदी आते है, पर लालू  सरीखे लोग इस सूची में नहीं आते। इस लिए मोदी अभी आज की इस कलियुगी राजनीती के शिखर पर है।  परन्तु इतिहास में  स्थायी जगह वो लोग बनाते है जो इन सबसे इतर अपने आदर्श , मानवता , विज़न , सदाशयता , विराट संवेदनशीलता , नैतिकता और बड़े वैल्यूज को लेकर जीते है, खैर गांधी तो बहुत ऊपर की चीज थे। पर नेहरू , शास्त्री , वाजपेयी जैसे लोग इसमें जरूर आते थे।   यहाँ तक की अडवाणी जी भी जो बीजेपी में धुर दक्षिणपंथी सोच और शैली के जन्मदाता माने जाते थे, उन्होंने  भी बेहद उसूल  और नियमितता के साथ अपना सार्वजनिक जीवन व्यतीत किया।  पर मोदी जी के असली आदर्श इंदिरा गांधी है , जो अपनी राजनीती में हैसियत बनाये रखने के लिए किसी भी हद तक आक्रामक रहती थी , जो इसके लिए किसी आदर्श में कैद रहना पसंद नहीं करती थी। साथ ही मजबूत निर्णय लेती थी। पर मजबूत निर्णय लेने के चक्कर में मोदी ने नोटबंदी का अर्थव्यस्था के लिए एक आतमघाती फैसला ले लिया हालांकि उनकी राजनीती के लिए आश्चर्यजनक तरीके से लाभदायी फैसला साबित हुआ। जीएसटी ,सैद्धांतिक रूप से बड़ा कदम, परन्तु इसकी तैयारी और अनुप्रयोग देखकर तो ये लगता है की अर्थव्यस्था काफी पीछे ना चली जाये। परन्तु डोकलाम के मुद्दे पर प्रधानमंत्री पीठ थपथपाए जाने के काबिल लगे, इसलिए और ज्यादा की उन्होंने इस बड़े उपलब्धि पर अपने पीठ नहीं थपथपाई। ऐसे ही सर्जिकल स्ट्राइक पर भी उन्होंने किया था , परन्तु पार्टी वालो ने इस पर घिन्ना दिया था. 
अपराध की वारदात वो करते है जो अनपढ़, अधीर  और नासमझ होते है, भ्रष्टाचार वो करते है जो पढ़े लिखे, पर लालची और स्वार्थी होते है , आतंकवाद वो करते है, जो पढ़े होते है, साथ में कट्टर और क्रूर होते है। नक्सल वो होते है जो अपनी राजनीतिक विचारधारा और हिंसा का कॉकटेल पीते है। दंगाई वो होते है जिनके दिल और दिमाग में केवल अपने धरम के प्रति प्रेम और दूसरे धरम के प्रति नफरत होती है। बलात्कारी वे होते है, जो अपने रूमानी और जिस्मी जनून में अनाग्रह और अधीरता के वशीभूत हो जाते है। पर इसमें मार काट करने वाले गैर पेशेवर अपराधियों के मनोविज्ञान को देखे तो उनपर गुस्सा से ज्यादा तरस आता है। उनकी थोड़ी सी भूल, लापरवाही , कुंठा , तंगी , नासमझी , निर्दयता उनसे समाज में  कैसे कैसे अपराध करवा देती है और वह कानून के नज़र में फँसी के फंदे का पात्र बन जाता है। आखिर आंकड़े क्यों ये बताते हैं की  अस्सी प्रतिशत फंदा गवार, अनपढ़ , जाहिल , समाज के कमजोर वर्गो को प्राप्त होता है। ये कोई पेशेवर अपराधी नहीं बल्कि अपनी त्वरित निर्दयता, भय और गुस्से की ज्वाला में वो गैर इंसानी हरकत कर देते  हैं। प्रद्युम्न जैसे छोटे मासूम के साथ उस बहशी ने जो हरकत की, उस पर उसकी फांसी होनी तय है। पर यह व्यक्ति थोड़ा भी सोचा होता की मै अपनी कुंठा और भय में कैसा हरकत करने जा रहा हूँ जिसका नज़ारा देखर सारी मानवता सिहर उठेगी , रुदन और क्रू नदन से विभोर हो उठेगी, हर माँ बाप अब अपने बच्चे में उस प्रद्युम्न का अक्स और अंजाम की  कल्पना कर भयभीत रहेगा।  वह नौनिहाल तो दुबारा नहीं आ पायेगा, पर आगे  हमारे समाज की मनः स्थिति में कैसे सुधार आ पायेगा। समाज में करोडो लोग किस किस मानसिकता के वाहक होते है , उनका संतुलन, समझ , संवेदना, धैर्य , सचाई का स्तर क्या है और फिर उन्हें सही रास्ते पर ले जाने के क्या उपाय हो सकते है , समाज के दिशा निर्देशकों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है।   




Friday, September 8, 2017

People are openly claiming that Jouranlists are to be also on left and right line, now a question is ,when we have demarcation line for our judges that this is BJP supporter Judge and this is congress supporter judge. At least i am thankful to the God, he has given me the sense, which helps me to become a complete neutral journalist, criticizing or praising anything purely on the merit of thing or judging anything purely on its objectivity.Some says, there should be ideology for anything. I think whole Media has its own ideolgoy, not necessary to match or do anything with some sort of political ideology. The fundamental ideology of Media is to make public opinion on the basis of decency of anything, to oppose all injustice, corruption, exploitation and all inhuman, unsocial and anti national things and must have an equal yardstic for everything.
Any way a time will come when our sensual society will judge our ruling party purely only the basis of their GOOD GOVERNANCE and they will judge opposition parties, how they raise the issue of
MAL GOVERNANCES of the ruling party. That is it.
I never saw our Indian cricket team on such a brutal killing note, what this Virat team displayed in Sri Lanka. Though India has won two times world cup and also achieved no.1 test ranking on quite some times. But this win in Sri Lanka shows the attitude and gesture, which India never had. Though, Sri Lanka was weak team, despite this India always displayed the Australian and one time West Indian attitude to always grab win, never become complacent.. Now the real test of this attitude of Virat led India team will be expected to watch out in overseas series, especially in S Africa, Australia and England. But we still have to work over our Pace battery. In the meantime a big congrat to India cricket team.
A big salute to Kangana Ranawat.The way she exposed the dynasty cult of Bolliwood on program AAP KI ADALAT, I felt first time ever a bolliwood female star dare to say about such a big reality of this industry. Kangana represents this industry as a B town and off dynasty member, so if she says something about this industry, it shows her struggle power and bravo attitude
Read it again, Manohar Manoj September 7, 2014 · New Delhi ·
What we assume about PM NaMo is that he is very hard working person. Even NaMo himself says that even my opponents accept this that i am a very hard working person.At his red fort speech NaMo said that he is ready to work more, because he is the head servant of the country. But his state CM Anandi Ben Patel has another idea on this. She has said in her interview published in today's TOI that Keshu Bhai Patel was extremely hard working person. Comparing Modi with him Gujrat CM says that NaMo is system maker, he believes in making the set up of governance, that is why she finds Gujrat very easy to govern.
personally i rate this quality more what Anandi has mentioned about NaMo. I am always of the view the good governance means the making of system, a full proof and disposable system, considering every point coming before this. A PM or CM works very hard in order to making of a system, then it is ok, otherwise 24 hour simple working of PM or CM does not guarantee good governance to be achievable
The murderer of Kalburgi, Pansare and now of Lankesh, if they really belong to right wing outfit, then they must be thoroughly investigated. Out of these Pansare was murdered in Mahrashtra, where BJP is ruling, otherwise In Karnataka, the ruling party is not BJP, rather it is congress, they must go for full investigation. If they are really found to be supporter of BJP and its allies, then it can be said, that this is not the BJP of Advani and Vajpayee, when they never used to support such kind of violent opposition to any idea.If it is happening now, it is extremely shame condition for the present leadership and they have no right to say about any high moral of their party, that was the matter of past for them.

Monday, August 28, 2017

We do not know, Suresh Prabhu, as a Rail Minister will continue or will have a last laugh, but we must heed on some of his tweets. He says that he worked very hard with his sweat and blood to nurture this railways organisation.
Suresh Prabhu may have worked hard, but he did not have a comprehensive and holistic vision regarding Indian railways. Fact is that these sort of persons never traveled much through trains, so they did not have much knowledge of ground reality. After coming to power, a person never finds a true perspective of problems, unless he directly faced it. What officers and surrounding persons provide briefings, Minister generally rely over them. Revival of Raiway was not the work of only the fund management or preparing some sort of project reports. Suresh Prabhi did not know, which areas of Railways had leakages, which areas were vulnerable, where was the revenue potential, where was the productivity constraints, where was the problem of integrity of Railways officials, where are the annomalies?
Though Prabhu is simple person, but despite this he was lucky that he got this ministry. He is neither a political heavy weigh, nor he has a solid vision regarding the governance of railways,which is such a big and topmost public dealing area of central government.


Now it is crystal clear that all those issues of nationalism, Hinduism, cow conservation, secularism, social justice are false and fraudulent. All are indulged in politics, the politics of selfishness and making public foolish. The only issue is that is good governance. One who talked about cow conservation, proved to be mass murderer of mother cow. One who talked about patriotism, proved to be anti national. One who talked about social justice, proved to be a big family feud. one who talked about secularism, proved to be big separatist.One who talked about democracy, proved to be a big dictator.
So beware of these issues. parties and leaders must be rated only on merit, that merit is of good governance




What CAG does work in the field of corruption in governments and administration, same work ADR does in the field of electioneering and functioning of different political parties. The recent report of ADR over funding of political parties, their source, their credibility and their volume must be an eye opener for all of us. BJP which claims is attacking corruption and black money,but this party is much ahead over taking donation from the black money holder, who even do not show their PAN. We can not curb corruption in one way, we have to brought multi corner attack over this. The ruling party which is ready to first attack ownself, that would be termed as real reformer. Your have to accompany political reform along with administrative and corporate reform, otherwise political patronage and political shelter do not allow to bring major change and overhauling in the system.
Two events which took place, i regard them good for the political health of country. First is that PM Narendar Modi keeps saying their NDA parliamentrians to be present during the sitting of both house. Although, despite his repeated instruction his MPs were found absent in the house. Normally we questions MPs, when deadlock gets created in the house generally when house boycott call given by opposition. But i am always of the view even ruling party MPs do not take much interest in the proceedings of house. Very few participate in the debate and ask questions. Though, i feel it should be made compulsory for all MPs.
Second development which i read about in newspaper today. A school of governance has started in Mumbai. I think it will make the public leadership area more disciplined and the persons who want to make their career in politics, they will try to understand,what governance is called. it is not the identity factor loke caste, creed, community, region, religion and language, which always attract politicians for achieving success in their field


In parliamentary democracy like us, legislature is supreme only in principle, in real term, it is executive, which play all the shots. Despite the separation of power principle, it is executive which sets the tone and temperament of other three organ legislature, Judiciary and Media. This is the reason,, the supreme court chief justice pointing out the Judicial ill preparedness in the country and expecting big initiative on behalf of top executive PM.
We have a number off issue to be addressed in judiciary and it has to be look after by executive only.. So the case of Media also.
Our whole media of country has got factionalized. Political party may be feeling happy with their supporter media organisation and media people and feeling animosity with the opposer media org. and media people. Is this a good scenario for our Media? Media can not become spokesman for the respective political party, it should always have to be neutral, objective and pleader for the public onlyyy




One can listen the actual music of the effect of demonetisation now. The dividend paid by RBI to the Govt,of India has been just half of the payment made in the last year. The reason is the extra expenses incurred over the printing of new 500 and 2000 currency notes, which is accounted to be around 14,000 crore alone and second the appreciation of rupee also enhanced the expenditure of RBI, Which resulted in the lowering down of dividend paid to the GOI. Because of short payment, ministry of finance has to scale up the fiscal deficit, what has been decided for the financial year 2017-18, which is estimated to be 3.8 percent of GDP. Now all hope relies on cutting of bank rate further, which will enable more credit distribution and hence we have more growth. Right now bankers are facing fund flush situation and there are no enough takers for the loans in the market
Till yesterday, media has been tirelessly portraying the consistent catchy and solid decisions of Yogi government in UP, but now the real picture emerges through the incident of Gorkakhpur, when 30 child patients succumbed to die in the absence of oxygen cylinder. The whole incident of Gorkahpur medical hospital entails about the lackluster approach of hospital management. And this is the picture of almost all public institutions. The insensitivity, lack of concern, priority to self interest, these are the things,which is ruining the working culture of almost every government offices.
To me any statement regarding government's decision coming over media, do not have any meaning unless it gets visible on ground. That is it.


Three safai workers got died inside sewage hole. It was such a horrific and brutaly tragedic event took place in Delhi. Can there be a bigger issue of social justice than this event. Can we have a bigger agitation over this than the agitations, which usually take place over reservation. It would not happen? Because there is no strong vested interest in this. In this 21st century of India, which has had impression of a technology savvy country, what is happening this? Even we do not have application of machines and related technology while cleaning sewage or culvert. It took 50 years, when we abolished carrying latrine over head and how will it take to stop manual handling of sewage holes?
In this country India, where inequality on all level is so sparse and poignant, we never became serious to eliminate this, only political posturing are being played, otherwise we have in numerous types of VIP culture operating everywhere in our country. In western world, sweeper and CEO have same status, but in India in the absence of intensive program over social empowerment, we are only playing politics of dalits, not the empowerment. Can we have 30 crores dalits as the president of India. But even without a dalit president, we can empower our 30 crore dalits, just to bring them in the mainstream of the country. In that case we may have dalit president on regular basis.


Mahagathbandhan is finally being broken in the republic of Bihar. Good governance supporters are happy at this event, whereas social justice supporters are unhappy. My neutral outlook say that if Lalu and his family is demon of corruption and dynasty, then both Prefix of N, means Narendra Modi and Nitish are great dictator. Though Narendra Modi has ability to manipulate, but Nitish is high sort of obstinate person. Both are culprit of neglecting their guru and sernior leaders in party. It was George Fernandez who provided great leverages to Nitish, but ultimately Nitish debunked him, same way Advaniji was maker of modi, but Modi not only poured water on the primeministerial ambition of Advani, even he did not nominated him for the presidential post.
Now both N have come in one courtyard. Let us see what is going to happen in future. But believe me if exit days of corrupt and dynastic forces have arrived in our polity, we would also have a time when we will get rid of dictatorial forces also and ultimately we only have reformist and systematists in our public domain of the country



Now Pranab Mukherji is retired, so one can comment over him what one has observed of him. Pranab Mukherji was not outstanding as an intellectual or as an ideologue, nor he was a prolific politician. He never won any election from West Bengal. During the left upsurge in Bengal, he just acted as a congress man who was their permanent well wisher. Pranab da was a typical congressman who always bank upon the blessings of top congress leadership. He was devout supporter of Indira Gandhi, so his political career got nurtured. Rajeev Gandhi scrapped him, but he got the goodwill of upcoming congress leadership of PV Narsimha Rao and Sonia Gandhi. I never found Pranab Mukherji as prolofic speaker and he was also not a visionary kind of person.
But off course Pranab Mukherji was very sincere and seasoned in his activity in politics, so he was regarded as a good political manager. His consistent speed of work in politics gave him reward in politics which took him to the post of president. What a irony, one man, L K Advani, who was the chief nurturer of a political party, who produced a bunch of leadership in the party, was just thrown away by the present power in command. Whereas less political heavyweight person like Pranab da had got the post of President. The present dictator had no moral to work under Advani and he needed a rubber stamp president, which he find in unknown person like Kovind, who is being echoed now as dalit president, as if all 25 crores of dalits will have gold spoon in their hands now onwards..
Yesterday we had a series of CAG reports over various field like availability of arms and ammunition for the armed forces, worst condition of food and catering in railways, under showing of revenue and profit by the telecom companies, failure of crop insurance policy like that. Now the blind supporter of BJP says these CAG reports are untrue and false, the same CAG reports were used to be true and eye opener to them during UPA regime. This is the politics of corruption, what i have been keep saying.
Corruption in structural form is still continuing. Bureaucracy and work culture is same, only difference is that on the top there is man who having 56 inches chest, who take all decision in a complete dictatorial way under the tag of democracy.
I have been always of the view, under Suresh Prbhu, railways is not showing any tangible reform, only difference is that some stations look clean, otherwise TT raj, inspector raj, tout raj, contractor raj all are still operational.
we have only politics, somewhere identity politics, somewhere politics of misinformation, that is all.
I am strongly of the view that CAG is most credible anti corruption institution, we must give them penalizing rights also. We see CBI, which just work as an vendetta agent of ruling govt., we have judiciary,which takes long time and have more concern with their own ego and privilleges.So only hope lies with CAG, at least regarding macro kind of corruption.




The way, NDA picked up its president and vice president candidate, it clearly shows the dictatorial attitude of Modi. It was notr a decision based over any democratic norm, reasonability, suitability, seniority and above all personality. It was just proved to be a lottery for some one, who got the candidature. Modi only sees himself, not the party as whole. He just politicalized the election of President and vice president both, just for the sake of his political future plan. Selection of candidate based on caste, region, even for the post like president and vice president, what it shows ? Country is still banking upon identity politics, rather the persona and capability of candidate. I completely disagree with this style of Modi regime, no element of idealism and justification at all. I do not like the non ideal and unjustified things
During my Europe trip, i read five books namely 1. Train to Pakistan by Khushwant Singh, pages-200, 2. Indian wins Freedom, by Maulana Azad, around 300 pages, 3. Indians sturggle for Independence by Bipin Chandra and four co-author,total pages 500,4. Sardar Ballabh bhai Patel by MP Kamal, total pages, around 100 pages and 5. Jayshankar Prasad ki kahaniyan, around 300 pages. Out of these jayshankar prasad and Bipin Chandra written books are still incomplete, rest all were completed.
Train to Pakistan is a fiction on partition based over a village named Mano Mazra, situatied at present India Pak border, depicting there's social dynamics. Khuswant did not forget to mention whisky, women in this fiction too. He has one character named Iqbal Singh, who always gives suspicion of his belonging whether to Sikh or Muslim.
I enjoyed reading book, ''India wins freedom. Mualana Azad had presented a unbiased and true perspective of struggle of freedom particularly since world war 2 situation.i will elaborate this book later. Book written over Patel gives impression, after all why present NDA regard him their hero.
Jayshankar prasad's stories depict the contemporary sociology of the country in a very update manner
आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी पर हो रही राजनीति
मनोहर मनोज 

कांग्रेस का बीजेपी और आरएसएस पर बार बार यह आरोप लगाना की उनके नेता आज़ादी आंदोलन के दौरान कभी जेल नहीं गए। उन्होंने आज़ादी आंदोलन का समर्थन नहीं किया। उनका यहाँ तक आरोप की उन्होंने अंग्रेजो की मुखबिरी भी की। कांग्रेस के ये सभी आरोप एक ऐसे अप्रासंगिक, अनर्गल और बेतुके आरोप है जो आज की इस प्रतियोगी राजनीती में उनके किसी भी हद तक जाकर अनाप शनाप उद्धरनो के प्रदर्शन, अपरिपक्वता तथा उनकी राजनीतिक हताशा भरी हरकत को दर्शाते है।
कांग्रेस का सबसे पहले यह आक्षेप इस मामले में बेमानी है की 1925 में स्थापित आरएसएस ना तो कोई राजनीतिक दल था , ना ही इसकी स्थापना फकत स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ने के लिए की गयी थी और ना ही उस समय यह कांग्रेस के समानांतर कोई प्रतियोगी राजनीतिक जमात थी। उस समय कांग्रेस की यदि थोडी बहुत कुछ प्रतियोगी जमातें थीं भी तो वे सोशलिस्ट , कम्युनिस्ट वगैरह थीं। पर कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी तो मुस्लिम लीग थी। मुस्लिम लीग तो कांग्रेस के राष्ट्रवाद की कचूमर निकालने वाली राजनीतिक धड़े के रूप में काम कर रही थी। कांग्रेस जो आरोप अभी आज़ादी के दौरान की आरएसएस पर लगा रही है, वह आरोप तो दरअसल उस समय मुस्लिम लीग पर लगाया जाता था की यह दल अंग्रेजो द्वारा कांग्रेस को कमजोर करने के लिए स्थापित किया गया था। ढाका के नवाब को राजकीय संरक्षण देकर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1905 में पहले बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन कराया गया और फिर मुस्लिम लीग का गठन करवाया गया। फुट डालो और राज करो की पुरानी नीति के मातहत इस दल को खुश करने के लिए अंग्रेजो द्वारा इनके लिए गवर्निंग काउंसिल से लेकर प्रांतीय काउंसिल में अलग साम्प्रदायिक निर्वाचक प्रणाली का प्रावधान किया गया। इनके कोई नेता जेल में नहीं डाले गए। इस बात का तो सबसे प्रमुखता से खुलासा मौलाना आज़ाद ने अपनी पुस्तक इंडिया विंस फ्रीडम में किया है।
इतिहास गवाह है कैसे कैसे मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद और सेकुलरिज्म दोनों मूलभूत सिद्धांतों का जनाजा निकाल कर अंततः अलग पाकिस्तान का निर्माण किया।
आरएसएस और हिन्दू महासभा जैसे संगठन हिन्दू आधारित विचारधारा का जरूर पोषण कर रहे थे , पर उनकी राजनीतिक शक्ति कांग्रेस के सामने बिलकुल गौण थी। देश का बहुसंख्य हिन्दू जनमानस कांग्रेस के साथ था। आरएसएस तो इस फॉर्मूले पर काम कर रहा था की हिन्दू धर्म एक संगठित धर्म नहीं है जबकि इसके मुकाबले मुस्लिम और ईसाई धर्म पूरी दुनिया में एक संगठित धर्म के रूप में काम कर रहे है। इनकी मुख्य दर्शन यह था की देश में हिन्दुओ का भी एक विशाल स्वयंसेवी जथ्था होना चाहिए जो हिन्दुओ की आन बान शान की रक्षा करे। यह संगठन बहुत हद तक एक मिलिटेंट स्वंयसेवी संस्था के रूप में काम कर रही थी। इतिहास के तथ्यों को देखे तो इस संगठन ने कभी नहीं कहा की देश का बटवारा करो। बल्कि मुस्लिम लीग द्वारा आयोजित डायरेक्ट एक्शन डे के दिन इनके द्वारा देशभर में की गई हिंसा में यह संगठन प्रतिक्रियात्मक हिंसा में संलग्न हुआ फ्रीडम एट मिडनाइट किताब की माने तो 14 अगस्त 1947 के दिन कराची में जिन्ना के माउंटबैटन के साथ पाकिस्तान के गवर्नर जनरल की शपथ लेते समय इस संगठन द्वारा हिंसा किये जाने की ख़ुफ़िया सुचना जरूर दर्ज़ हुई थी ,पर इनका वो प्लाट सफल नहीं हो पाया था
अब इस मामले के दूसरे पक्ष पर गौर करें। कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली संगठन थी। पर आज़ादी के बाद देश में स्थापित लोकतंत्र के तहत बहुदलीय व्यस्था के अधीन शामिल राजनीतिक दलों के बीच प्रतियोगिता हो , इसके लिए जरूरी था की देश में लोकतान्त्रिक शासन चलाने वाली राजनितिक दलों का नए सिरे से गठन हो। कही कही गाँधी जी द्वारा आज़ादी के पूर्व की करता धर्ता कांग्रेस को भंग करने का सुझाव का इशारा भी इसी तरफ था। अन्यथा पुरानी पार्टी होने के नाते और देश भर में अपने नेटवर्क होने की वजह से कांग्रेस का इस लोकतान्त्रिक भारत के शासन में हमेशा एकदलीय व्यस्था में एक तरह से चलना तय था। और ठीक ऐसा हुआ भी। देश की बाकी पार्टियों को नए सिरे से अपना अखिल भारतीय स्वरुप बनाने में लम्बा वक्त लगा। आरएसएस ने तो अपना राजनितिक दल 1950 में जाकर जनसंघ के रूप में बनाया। जनसंघ करीब 30 साल बाद जनता पार्टी के साझीदार के रूप में, 1998 में बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए 1 और 2014 में एनडीए 2 के रूप में शासन में पाया।
ऐसे में कांग्रेस अब यदि यह सोचती है की आज़ादी के लड़ाई में शामिल होने वाले दल ही भारतीय लोकतंत्र की दलीय प्रतियोगिता में शामिल होने की अर्हता रखते है तो उनका सोचना बिलकुल अनुचित है और दूसरा उन्हें ऐसा कहने का नैतिक आधार भी नहीं बनता। तीसरा आज की कांग्रेस तो आज़ादी वाली कांग्रेस है भी नहीं जो भारतीय समाज के विशाल समागम का प्रतिनिधितत्व करती थी जिसके अंदर कई सामाजिक धाराए समाहित थी। आज़ादी के बाद की कांग्रेस तो दरअसल नेहरू गाँधी परिवार की लिमिटेड कमपनी है। ऐसे में इस कांग्रेस को आज़ादी की लड़ाई वाली कांग्रेस को अपनी लिगेसी मानने की कोई नैतिकता नहीं बनती है। जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री तक कांग्रेस का एक आदर्श झलकता था। बाद में यह कांग्रेस देश के बजाये एक परिवार का प्रतिनिधित्व करती है।
वैसे भी कांग्रेस को इतिहास से सबक लेनी चाहिए की आखिर उनकी धर्मनिर्पेक्षता और राष्ट्रवाद का पलीता किसने लगाया ? आपने किसी भी सूरत में देश के विभाजन को रोकने का क्यों नहीं प्रयास किया? आप यह क्यों नहीं मानते की 15 अगस्त देश की आज़ादी का नहीं बल्कि देश के विभाजन का दिवस साबित हुआ ? गाँधी महात्मा ने उस आज़ादी दिवस का जश्न नहीं मनाया बल्कि उस विभाजन का शोक दिवस मनाया। इस मौके पर उन्होंने अपना राजनीतिक चेहरा छोड़कर एक मानवीय चेहरा ग्रहण कर कलकत्ते के हिन्दू मुस्लिम दंगों को रोकने में अपना सर्वस्व झोक दिया। बल्कि उनके इस मानवीय स्वरुप में कई बेवकूफ हिन्दुओ को मुस्लिम और पाकिस्तानपरस्ती चेहरा दिख गया और उन्हीं में से एक सिरफिरे ने गाँधी की हत्या कर दी। पर हमारी कांग्रेस पार्टी इस मामले के पुरे परिप्रेक्ष्य को उजागर ना कर इस पर आरएसएस विरोध की राजनीती की और आज भी कर रही है

दूसरा सवाल यह उभर कर सामने आता है की इस प्रतियोगी लोकतंत्र में आपको देश के दूसरे दलों द्वारा शासन करना क्यों नहीं मंजूर? तीसरा आपने अपने देश में सभी तरह की पहचान की राजनीती को लोकंतंत्र के तकाजे को देखते हुए से शुरू में ही क्यों नहीं प्रतिबंधित कर दिया ? यदि आप यह सोचते है हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत में हिंदुत्व की राजनीती बीजेपी के पावर गेम को आसान बना देती है तो इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता पर इसके लिए जरूरी था की पिछले साथ सत्तर सालो में आपने देश में तमाम पहचानो वाली राजनीती को जड़ मूल से प्रतिबंधित किया जाता परन्तु देश में इतने वर्षो तक जाती, विरादरी और खानदान की राजनीती को पनपाया गया जिसका अंतिम फलसफा समुदाय की राजनीती में तब्दील हो गया है। ऐसे में सवाल यही है अपने क्यों नहीं भारतीय राजनीती का डिस्कोर्स शुरू से ही गुड गवर्नेंस के मानकों पर कसने का काम किया? हकीकत यह है कि समय ,सुविधा के हिसाब से आपने उन सभी तत्वों का अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ में इस्तेमाल किया।