Tuesday, October 6, 2015




कौन कहता है की बीजेपी जातिवादी पार्टी नहीं है। कम से कम चुनावी टिकट देने में सारी पार्टियां जातिवादी है। आरजेडी को हम यादव पार्टी कहते है क्योकि उसने जदयू के साथ सर्वाधिक 63  टिकट यादव को दिया और मुस्लिम को 33 । पर बीजेपी तो अपने को हिन्दू संप्रदाय की  चैंपियन पार्टी कहती है परन्तु  बिहार की तीन फीसदी आबादी वाली भूमिहार जाति को करीब 22 सीट यानी 15 फीसदी और 3 फीसदी राजपूत जाती को 30 सीटें यानि 18 फीसदी टिकट कैसे दे दिया? क्या इसलिए की बड़ी चोटिए वाले गिरिराज के नेतृत्व में ये जातियां हिंदुत्व की ज्यादा बेहतर ठेकेदारी कर रही है। कुल14 फीसदी ऊँची जाती की आबादी को बीजेपी ने करीब 40 फीसदी टिकट कैसे दे दिया ? हकीकत ये है भारत में हर दल की अपनी एक गुरुत्व जाती है और ये बाकी जातियों में थोडा थोड़ा विस्तार कर अपने चुनावी जीत की सामाजिक व्यूह रचना बनाती है। ऐसे में सारी पार्टियों का यह कहना की वह राष्ट्र के लिए, अकलियत के लिए, गरीब गुरुओं के लिए काम करना चाहती  है,ये छलावा है. उपरोक्त बाते इसीलिए उठ रही है क्योकि भारतीय लोकतंत्र अब  वास्तव में एक जातीय लोकतंत्र में तब्दील हो चूका है जिसमे सामाजिक न्याय की अंकगणितीय परिकल्पना  हर जाती के जनसँख्या अनुपात के अनुसार बटने की तरफ है जिसमे जहा सांख्यकीय असंतुलन होता है वहां राजनितिक असंतोष उत्पन्न हो जाता है। 
परन्तु यह तो बस मौजूदा परिस्थिति का व्याख्यान है। ऐसा होना किसी भी राजनितिक और लोकतान्त्रिक आदर्शो के सर्वथा प्रतिकूल और इसके बेहतर भविष्य के लिए बहुत बड़े खतरे की घंटी है। पर क्या करेंगे इसमें राजनितिक दलों का भी दोष नहीं है.उनका कार्य तो अपने अपने सामाजिक कोंस्टीटूऐंसी में अपनी पोलिटिकल मार्केटिंग कर ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना है। दोष तो हमारे संविधान का है जो विभिन्नताओं से भरे समाज को ध्यान में रखते हुए इस अंकगणितीय लोकतान्त्रिक राजनीती को तमाम सामाजिक पहचानो के इस्तेमाल से प्रतिबंधित नहीं किया। इन प्रतिबन्धों  के उपाय क्या क्या हो सकते है इस पर अध्ययन और बहस की जरुरत है। 
अगर भारत के राजनितिक दल यह कहते है की वह जाती को ध्यान में रखकर नहीं उम्मीदवारों की निष्ठां और काम को ध्यान में रखकर टिकट देते है तो  यह उनका तर्क ईमानदार नहीं है। वैसे तो हर पार्टी में टिकट स्क्रीनिंग का एक पुख्ता सिस्टम होना चाहिए जो अभी भी उस पार्टी के मठाधीश द्वारा तय किया जाता है। और जातिवाद दूर करने के लिए सभी राजनितिक कार्यकर्ताओ और नेताओ के नाम में सरनेम लगाना प्रतिबंधित हो जाना चाहिए। 

पुनःश्च ==बीजेपी पर हिन्दू सांप्रदायिक पार्टी का टैग पर यह हिन्दू ऊँची जाती , वैश्य और कुछ पिछड़ी जातियों में विस्ताररत। इस का वर्ग शत्रु मुस्लिम। कांग्रेस सैद्धांतिक रूप से सब जातियों की पार्टी पर आजकल अल्पसंख्यक पहचान पर ज्यादा केंद्रित होने के साथ स्थान ,काल और पात्र के हिसाब से हर जाती और सम्प्रदाय का प्रबंधन। इंदिरा गांधी के ज़माने में यह ब्राह्मण,भूमिहार ,हरिजन और मुस्लमान की पार्टी थी। लालू मुलायम  के लिए यादव और मुस्लमान मुख्य जाती । इनका वर्ग शत्रु ऊँची जातियों के साथ दलित भी।  बीएसपी की जाती रविदास  दलित जातियां तथा मुस्लिम और ब्राह्मणो की तरफ विस्ताररत । इनका वर्ग शत्रु ब्राह्मण और ऊँची जातियाँ। उपेन्द्र कुशवाहा के लिए कुशवाहा और रामविलास पासवान के लिए पासवान राजनितिक जाती है। इनका पुराना वर्ग शत्रु ऊँची जाती अब बदल गया  है और अब यह क्रीमी पिछड़े के खिलाफ है। जदयू के लिए कुर्मी और विभिन अति पिछड़ी जातियां और मुस्लिम। इनका वर्ग शत्रु लालू नहीं अब मोदी हो गया है। एमआईएम के लिए मुसलमान और इनका वर्ग शत्रु हिन्दू। ये सभी जातीय राजनीतिक समीकरण यूपी और बिहार के है. इसी तरह से देश के हर राज्य और वहां के प्रभाव वाले राजनी तिक दल में वहां के बड़े नेता की जाती से उनका सामाजिक बेस निर्धारित हो रहा है। 

अंतिम सवाल ये है क्या यह परिस्थिति सुधारी जा सकती है जिसमे एक ऐसा बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र विकसित हो जिसमे उनकी पोलिटिकल मार्केटिंग केवल गुड गवर्नेंस और असली सामाजिक न्याय से पूरित राजनीती के जरिये हो सकती हो  तो मेरा जबाब है, ऐसा बिलकुल किया जा सकता है। इसका MODULE तैयार है ,क्योकि मेरा मानना है की टिप्पणी के साथ उसका यथोचित समाधान ना हो तो फिर उसका कोई मायने नहीं। परन्तु जिस तरह भ्रष्टाचार ऊपर से चल कर नीचे तक फैला है उसी तरह जातिवाद भी ऊँची जातीयों से ही शुरू हुआ और नीचे तक फैलायमान हुआ है। इसके खात्मे की शुरुआत भी पहले ऊपर से होनी चाहिए। 
 

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