Friday, April 3, 2015

सरकारों के प्रदर्शन और राजनीतिक दलों की बेहतर घोषणाओं की कसौटी आखिर क्या हो?

आमतौर से यह सवाल बेहद मौजू है कि आखिर किसी भी केन्द्रीय, प्रांतीय और स्थानीय सरकारों  और इनकी विधायिका के जन प्रतिनिधि गण के प्रदर्शन और क्रियाकलाप की आखिर कौन सी कसौटी तय की जानी चाहिए  जिसके आधार पर मीडिया विश£ेषक और विपक्षी दल उनकी तारीफें करें या उन कसौटियों के खिलाफ जाने पर उसकी आलोचना करें। इसी तरह इन्हीं कसौटियों पर मतदाता उन्हें दूसरी बार पुन: जीताएं या हराएं। क्योंकि होता ये है कि सरकारों का और राजनीतिक दलों का भी एक बेहतर व सर्वमान्य प्रदर्शन मानक नहीं होने की वजह से लोग अपने अपने ढ़ंग से बे सिर पैर तरीके से सरकारों और चुनावी दलों की समीक्षा करते हैं।
यदि हम देशों के संविधान और शासकीय कानूनों के बेहतर अनुपालन को वहां के सत्तारूढ़ दलों या तीन टायर लोकतांत्रिक सरकार के प्रदर्शन की कसौटी मान लें जिस पर पर आम तौर पर सभी सरकारें चलने का कार्य भी करती हैं, तो इस आधार पर होता ये है कि सरकारों को अपने कार्यकाल में कम से कम न्यायपालिका के कोपभाजन बनने से मुक्ति जरूर मिल जाती है। पर यह जरूरी नहीं कि फकत इन पहलुओं पर मीडिया विश£ेषक और मतदाता उन्हेंं दोबारा अपना समर्थन दे दें।
सरकारों से अलग बहुदलीय लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों  की भी बात करें कि उनके प्रदर्शन, संगठन और घोषणा पत्र की भी आखिर कौन सी कसौटी हो जो मीडिया विश£ेषक और मुख्य रूप से मतदाताओं को उन्हें समर्थन या विरोध करने के लिये उत्प्रेरित करें।
उपरोक्त दोनों चीजें किसी भी देश की लोकतांत्रिक राजनीति की सफलता के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। अगर भारतीय लोकतंत्र और इसके पिछले साठ पैसठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि इस दौरान यहां सरकारों और राजनीतिक दलों की चुनावी सफलता को मूल रूप से दो तत्वों ने प्रमुख रूप से सुनिश्चित किया है। इनमें पहला है उनकी पहचान व भावुकता आधारित राजनीति जिसमे जाति, धर्म, प्रांत, भाषा, स्थानीय संस्कृति, राजनीतिक खानदान वगैरह का चुनावी उपादानों में भरपूर तरीके से इस्तेमाल करना जिससे लोग आसानी से गोलबंद हो जाते हैं और उनका वोटबैंक तैयार हो जाता है। और दूसरा तत्व है जिसनेे पिछले सालों में भारत की चुनावी राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह है सरकारों के लोकलुभावन क्रियाकलाप और इसके बरक्क्ष चुनाव में भागीदार राजनीतिक दलों की लोकलुभावन और खजाना लूटावन घोषणाएं।
अब प्रश्र ये है कि क्या हम सरकारों के प्रदर्शन और चुनावी दलों के लिये मत देने का वास्तव में कोई संवैधानिक पैमाना निर्धारित करना चाहते हैं या मतदाताओं को सहज सरल और त्वरित रूप से उत्प्रेरित क रने व लाभ पहुंचाने वाले उपरोक्त दोनों तौर तरीकें को ही चलाये रखना चाहते हैं। हमें यह तय करना होगा कि समूचे सिस्टम में लोगों को इंपावर करने वाले तत्वों को सरकारों के प्रदर्शन को मुख्य कसौटी बनाना चाहते हैं या चुनावी लोकतंत्र की अंकगणितीय जरूरत की किसी भी तरह से खानापूर्ति करना चाहते हैं। पिछले साठ सत्तर सालों की भारतीय लोकतंत्र की यात्रा में सरकारों में शामिल उच्च निर्वाचित नेतृत्व और जनप्रतिनिधियों की पात्रता, योगयता, क्षमता और प्रदर्शन तथा राजनीतिक दलों के चुनावी कार्यकलाप का कोई संहिताबद्ध मानक बिंदू ना तो संविधान में निर्धारित किया गया है और ना ही मीडिया विश£ेषकों की तरफ से इस पर कोई निर्धारित कसौटी आजमायी जाती रही है।
अभी तक भारत में पहचान की राजनीति, परिस्थतिजन्य पहल और लोकलुभावन घोषणाओं के आधार पर जो राजनीतिक दल पहली या दूसरी बार चुनाव जीतती हैं उन्हें मीडिया नथिंग सक्सीड लाइक सक्सेस के आधार पर उनका यशोगान करता है। परंतु तटस्थ राजनीतिक विश£ेषकों और एक आदर्श व प्रगतिगामी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में यकीन रखने वाले बुद्धिजीवियों के लिये तो ये सभी चुनाव परिणाम एक मानक कसौटी की नजर से अभी तक पहेली बनते आए हैं। इसलिये पिछले साठ सालों में हुए तमाम चुनावी परिणामों का कोई स्पष्ट पैमाना या समरूप कारण निकाल पाना बेहद मुश्किल है।
यह तो पिछले एक दो चुनावों से यह देखा जा रहा है कि गुड गवर्नेन्स या भ्रष्टाचार निवारण जैसे शब्द सभी दलों के चुनावी नारों और घोषणा पत्र में स्थान पाने लगे हंै अन्यथा विगत के चुनावों पर नजर डालें तो अबतक वूहत रूप से यही दिखा कि या तो एकदलीय प्रभुता व एकछत्र नेतृत्व के व्यक्तित्व का प्रभाव रहा, लोकलुभावन नारों और स्कीमों का प्रचलन, परिवारवाद, कमजोर विपक्ष, प्रतियोगी लोकतांत्रिक वातावरण का अभाव, बहुदलीय संघवाद जैसे कारक महत्वपूर्ण रहे, वही सूक्ष्म स्तर पर करीब करीब सभी दलों के प्रतिनिधियों की विजय में वही जाति, मजहब, प्रांतीयता, भाषा, संस्कृति एवं खानदानवाद जैसे कारकों का असर रहा। उपरोक्त दोनों के अलावा पिछले साठ सत्तर सालों में भारतीय चुनावों में मनी व मसल पावर का भी बेहद असरकारी प्रभाव रहा है। परंतु शुक्र है कि इन दोनों कारकों को भारत की चुनाव मशीनरी ने काफी हद तक काबू किया है परंतु धनशक्ति का प्रभाव चुनावों में अभी भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से काफी बड़ी भूमिका निभा रहा है।
अब प्रश्र है कि करीब साठ सालों तक उपरोक्त तीनों तत्वों के लोकतांत्रित राजनीति में वर्चस्व में रहने के बाद अब जबकि देश में भ्रष्टाचार रहित प्रशासन व गुड गवर्नेन्स के कारक अब हमारे पब्लिक डोमेन के प्रचलित शब्द बन रहे हैं जो कि अपने आप में एक बेहद शुभ लक्षण हैं। ऐसे में समय की नजाकत को देखते हुए हमें कही न कहीं सरकारों व राजनीतिक दलों के प्रदर्शन का एक मानक और अधिमानित कसौटी निर्धारित करनी ही चाहिए। पर यह कसौटी अनौपचारिक तरीके की, स्वैच्छिक तरीके की और प्रवचनी तरीके की नहीं होनी चाहिए। अन्यथा सत्तारूढ़ दल की शैली बदस्तुर वही रहेगी कि चुनाव के छह महीने या साल भर पहले ताबड़तोड़ लोकलुभावन घोषणाएं करो, देश में युद्ध या कोई राष्ट्रवादी भावना बहाल करों या चुनाव में बेतरतीब पैसे खरचों, बेहद आक्रामक तरीके से प्रचार अभियान चलाने जैसे तत्वों पर चुनाव परिणाम निर्भर रहता आयेगा।
दूसरी तरफ विपक्ष दलों द्वारा ये होगा कि सत्तारूढ़ दल से कई कदम आगे जाकर लोकलुभावन घोषणाएं करों, सरकार के कार्यकलाप और प्रदर्शन को लेकर सीमा और अनुपात से ज्यादा  आलोचनाएं करो और अपने फिजूल के लटकों झटकों से जनता की सहानुभूति हासिल करो वगैरह वगैरह। हमारी लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति में एक शब्द हर चुनाव में सुनायी देता है वह है प्रो इन्क मबेंसी और एंटी इन्कंमबेंसी। मतलब मौजूदा सरकार के समर्थन की जनभावना और मौजूदा सरकार के विरोध की जनभावना। परंतु ये दोनों स्थितियां जिसमे या तो सत्तारूढ़ दल की जीत होती है या पराजय, दरअसल किसी कसौटियों से जुड़ी नहीं है बल्कि अनिश्चित परिस्थितिजन्य कारकों से जुड़ी है।
सत्ताधारी और विपक्षी दलों द्वारा अपनाये जाने वाले ये दोनों तरीके बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र और सक्षम लोकतांत्रिक सरकार गठित करने की कसौटी नहीं हो सकती। हमें इनको लेकर कसौटियों की एक ऐसी आदर्श और वैज्ञानिक संहिता निर्धारित करनी होगी जो कहीं से ना तो मीडिया के लेाकप्रिय जूमलों पर आधारित हो और ना ही बुद्धिजीवियों के थोथे प्रवचनों के जरिये निर्धारित होनी चाहिए। हमे इन कसौटियों को लोकतंत्र के सर्वप्रमुख और प्रामाणिक आधार संविधान और संविधानवाद के सिद्धांतों के जरिये ही निर्धारित करनी होगी। हमारा संविधान इन कसौटियों को लेकर वस्तुनिष्ठ है, तकनीकी है पर विषयनिष्ठ नहीं। संविधान में केवल यह उल्लिखित है कि जिस भी पार्टी को साधारण बहुमत मिलेगा वह सरकार का गठन करेगा। बस लोकतंत्र के सारे आदर्शों की यही इतिश्री कर दी जाती है यह सोचकर कि देश में इससे कम से कम कोई सैन्य विद्रोह नहीं होगा और हमारे लोकतंत्र की सफलता की यही पहचान होगी।
दूसरी तरफ देश में विभिन्न राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप, उनके संगठन की रूप रेखा और चुनावी हलचलों के निष्पादन और इसकी मोनिटरिंग के लिये चुनाव आयोग गठित किया गया है। परंतु चुनाव आयोग के पास भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून जो अपने आप में बहुत पूर्ण नहीं है उसके अलावा ऐसा कोई अस्त्र नहीं है जो चुनावी दलों को ढंग से नियंत्रित करे और उनकी समूची कार्यप्रणाली में व्यापक सुधारों को सुनिश्चित करे। यही वजह है कि सत्ता व विपक्ष दोनों दलों में जनता में सस्ती लोकप्रियता हासिल करने तथा वर्गीय तुष्टिकरण के क्रियाकलापों के जरिये वोट बैंक पालीटिक्स को प्रश्रय देने का प्रचलन बदस्तुर बना हुआ है। अत: ऐसे में सरकारों के प्रदर्शन, राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप को निर्धारित करने वाली एक व्यापक संवैधानिक कसौटी जबतक निर्धारित नहीं होगी तबतब वास्तव में लोकतंत्र का सही और शुद्ध विकास संभव होगा और ना हीं लोकतांत्रिक राजनीति के जरिये भ्रष्टाचार पर रोक व सुशासन की प्राप्ति संभव होगी।
गौरतलब है कि गुड गवर्नेन्स और भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था अपने आप में सरकारों और राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की कसौटी केे दो बेहतर शब्द है जिसे स्पेल आउट कर इसके लिये एक नहीं अनेक मानकों के निर्धारण और सांगठनिक व संस्थागत सुधारों के जरिये इसकी व्यापक कसौटी निर्धारित की जा सकती है। यह अच्छा होगा कि सरकारों से पहले हम राजनीतिक दलों के तौर पर कसौटियों का चयन करें जो कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल दोनों पर लागू होगा।
कसौटी के तत्व
चुनाव में भाग लेने वाले राजनीतिक दलों के लिये पहली मानक कसौटी है उनके चुनावी उम्मीदवार की योगयता। इस योज्यता में शैक्षिक योज्यता के साथ पब्लिक लीडरशिप की अर्हता से जुड़े सभी पहलुओं का समावेश, मसलन अपने चुनावी क्षेत्र के भूगोल, समाज, अर्थव्यवस्था, मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन तथा सभी तरह के समस्याओं पर जो अपनी पैनी नजर रखता हो। जिसमे अपने चुनावी क्षेत्र के समाजिक आर्थिक नियोजन का बेहतर विजन, चरित्र, ईमानदारी, छवि, नैतिकतावादी, सभी वर्ग के लोगों की बेहतरी की योजना हो। जो अपने क्षेत्र की जनसमस्या के प्रति बेहद सचेत और संवेदनशील हो। यह बेहद विडंबनाजनक बात है कि संविधान में हमने जनप्रतिनिधि की अर्हता के कारक को क्षीण बना दिया।
हमने लोकतंत्र की सिर्फ खानापूर्ति की तभी हमने इसे लोकतंत्र नहीं फकत प्रतिनिधि लोकतंत्र बना दिया। भले वह प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लाखों लोगों के जीवन में परिवर्तन और बेहतरी लाने की सामथ्र्य नहीं रखता हो। आम तौर पर भारतीय लोकतंत्र में चुनावी उम्मीदवारों का चयन अभी तक पार्टी और उसके नेता की विहम्स एंड फैंसीज, चुनाव क्षेत्र के जातीय धार्मिक समीकरण, पार्टी में झंडा उठाने और नारे लगाने का कितना लंबा अनुभव हासिल हो या फिर चुनावी उम्मीदवारा बाहु बल और धनबल से कितना लवरेज है, इसी आधार पर उम्मीदवारी तय होती आयी है। हमने उपरोक्त में  उम्मीदवरों की अर्हता के बिंदूओं को लेकर जो चर्चा की, उसके तहत तो बेहद चंद लोग हीे होते हैं। यह बड़ा जरूरी है कि संविधान इस चुनावी उम्मीदवार की इस कसौटी को निर्धारित करें चाहे वह पार्टी का उम्मीदवार हो या निर्दलीय, जो एक अधिमानित सार्वजनिन व्यक्तित्व का मालिक हो।
अभी तक हमारी अवधारणा आम आदमी, अर्धशिक्षित और अपूर्ण शिक्षित और झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता जिसकी जाति धर्म उसके चुनावी क्षेत्र में शूट करती है, उसी को चुनावी उम्मीदवार बनाने की रहती आयी है। आज हमारे यहां उम्मीदवार के अपराध के रिकार्ड को लेकर थोड़ी बहुत संचेतना जरूर पनपी है पर सबसे अहम जनप्रतिनिधित्व की गुणवत्ता है। हमे सबसे पहले समझना होगा कि नेता की परिभाषा क्या होना चाहिए। हमारी समझ से नेता की परिभाषा यही कहती है कि वह व्यक्ति जो अपने लोगों, समुदाय और समर्थकों को अपने साथ बेहद सही राह पर ले चले। यह कार्य तभी संभव है जब वह राह दिखाने वाला व्यक्ति या नेता अपने समुदाय में सबसे ज्यादा सुलझा, योगय, काबिल, गुणवान, संप्रेषक, ईमानदार और संवेदनशील हो। परंतु व्यवहार में क्या दिखता है,जाति धर्म पैसा पाउच तथा बाहू बल, धन बल और रसूख बल के आधार पर लोग पार्टियों के टिकट पाते हैं।
आज सारी पार्टियां उम्मीदवारों के चयन का यही आधार तय करती है। यही पर हमारा लोकतंत्र बेमानी और खानापूर्ति तंत्र बनकर रह जाता है। हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया नवीस लोग इसके लिये राजनीतिक दलों को दोष देते हैं, परंतु वह उनका दोष नहीं है, यह दोष संविधान का है जिसमे इस बात को लेकर कोई उपबंध नहंीं है। राजनीतिक दलों का काम सुधार लाना नहीं बल्कि उनका लक्ष्य मौजूदा लोकतांत्रिक परिस्थितियों में चुनावी जीत हासिल करना है। जब सभी पार्टीगत और निर्दलय उम्मीदवारों की पात्रता बेहतर होगी तो जाहिर है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी बेेहतर पात्र होंगे, मंत्रियों की कार्यदक्षता बेहतर होगी, विधानमंडलों की कार्यवाहियां और कार्रवाईयां जनोन्मुखी और मुल्क की बेहतरी के लिये होगी।
दूसरी कसौटी राजनीतिक पार्टियों की समूची कार्यप्रणाली को लेकर है।
देखा जाए तो आज हर पार्टी का संगठन, सिद्धांत, साइज या तो पहचान की राजनीति को तवज्जो देता या फिर लोकलुभावन शैली को अपनाता है। क्योंकि हमारी लोकतांत्रित राजनीति की लेवल प्लेइंग की कुछ इस तरह से संरचित की गई जिसे संविधानवाद के जरिये किसी तरह के दिशा निर्देश की कोई नकेल नहीं लगी है। कुछ दिनों पहले न्यायालयों ने अपने अपने तरीकें से भारतीय राजनीतिक दलों को कई तरह से निर्देश दिये, मसलन राजनीतिक दलों के जातीय व मजहबी रैलियों पर रोक लगेे, पार्टियों क ो मिलने वाले चंदे पूरे तौर पर पारदर्शी बने, चुनाव में बाहुलबलियों को निषिद्ध ठहराया जाए और पार्टियों के भीतर सूचना के अधिकार कानून लागू किये जाए वगैरह वगैरह। परंतु ये फैसले हमारी पार्टियों को नागवार लगे और इसकी उन्होंने काट निकालनी शुरू कर दी। यदि यही चीजें संविधानगत होती तो फिर इसे लेकर कोई समस्या नहीं थी। शुक्र है कि सजायाफ्ता अपराधी को चुनाव लडऩे पर छह साल का प्रतिबंध लगाने का फैसला ले लिया गया।
देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के भीतर की कार्यप्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन लाने की जरूरत है। चाहे वह सदस्यता को लेकर हो। चाहे वह उम्मीदवार की स्क्रीनिंग के तरीके के लेकर हो। चाहे कार्यकर्ताओं के कैडर, उनके प्रशिक्षण और उनक ी आजीविका को लेकर हो, नेताओं के प्रोमोशन को लेकर हो, चाहे पार्टी में देश के गुड गवर्नेन्स को लेकर होने वाले पालिसी रिसर्च को लेकर हो, जनसमस्याओं की रिपोर्टिंग को लेकर हो या जन समस्या और राष्ट्रीय समस्या के बेहतर समाधान की तरकीब लाने को लेकर हो वगैरह वगैरह। इसके लिये संविधान के जरिये एक व्यापक दिशा निर्देश बनाये जाने की जरूरत है जिससे पार्टियों को परिवारवाद, वंशवाद, धनवाद, बाहुबलवाद, जातिवाद, मजहबवाद और तमाम तरह के नकारात्मकतावाद से मुक्त कर उन्हें पूरे तौर पर एक पेशेवर, आधुनिक, व्यापक, न्यायशील और सर्वसमावेशी रूप दिया जा सके।
भारत के करीब सभी राजनीतिक दल जब सत्ता से बाहर रहते है तो वेे गुड गवर्नेन्स और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन लाने को लेकर कोई पालिसी रिसर्च या इंपलीमेंटेशन मेकानिज्म बनाने में तल्लीन नहीं रहते बल्कि जातीय एवं धार्मिक आधार पर मतदाताओं के आंकडें तैयार किये जाते हैं और गैर मुद्दों को लेकर एक्टीविज्म में संलग्र रहते हैं। वहीं जब ये पार्टियां सत्ता में होती है तो ये सारे कार्य नौकरशाहों के भरोसे संचालित करते हैं जिसकी हमारे संविधान ने इनकी पब्लिक एकांउटेबिलिटि तय ही नहीं की है। सत्ताधारी दल के लोग अपने अपने जनसमस्याओं को लेकर बेहतर रिपोर्टिंंग का कार्य नहीं कर इनके द्वारा अपने समर्थकों रिश्तेदारों को को  ठेके दिलाने, किसी की ट्रांसफर पोस्टिंग कराने और किसी को निजी प्रत्यक्ष लाभ दिलाने वास्ते इनके कार्यकर्ता मंत्रियों के यहां लाबिंग करते हैं या दलाली करते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि हमारे संविधान ने बहुदलीय लोकतंत्र के मातहत पार्टियों कि कार्यकलाप का एक बेहतर माडय़ूल हीं तय नहीं किया है। उम्मीदवारों और पार्टियों के लिये ये दोनों कसौटी निर्धारित करना बेहद जरूरी है।
क्रमश:......

युवाशक्ति का महाउद्घोष

आज युवा शक्ति का सर्वत्र उद्घोष ही नहीं बल्कि महा उद्धघोष हो रहा है। परिवारों में, समाज में, मार्केट में, फिल्मी दुनिया में, राजनीति में हर जगह इस वर्ग की दुहाई का मानों एक स्वर्ण काल आभासित हो रहा है। युवा वर्ग की जरूरत, रूचि और पसंद के हिसाब से मार्किट में तमाम प्रोडक्ट की लॉन्चिंग  कर उसका बाजार तैयार किया जाता है। समाज इस वर्ग को जोश और ज़माने का पर्याय मान कर अपनी दशा और दिशा निर्धारित करना चाहता है। परिवारों की बात करें तो हर परिवार अपने नौजवान सदस्य के ऊपर अपनी परवरिश का समूचा दारोमदार देखता है। और हर युवा अपने माँ बाप के आसरे का सहारा बनने की जद्दोजहद में होता है।
फिल्मी दुनिया में युवा मनोभावों को उकेरने और चित्रित करने की पटकथा सबसे अव्वल दिखाई देती है और अंत में राजनीति की बात करें तो दुनिया के सबसे बड़े युवा देश भारत की बहुदलीय और प्रतियोगी लोकतान्त्रिक चुनावी व्यस्था में युवाओ की दुहाई का तो जबरदस्त दौर ही चल रहा है। देश की जनसख्या का करीब 35 प्रतिशत हिस्सा भारत में एक बहुत बड़ा वोट बैंक होने के कारण राजनीतिक दलों की सफलता का एक बड़ा पैमाना बन चुका है। पूरी दुनिया में लोग यह मानते है की युवा वर्ग की प्रभावशीलता एक सर्वकालीन, पारलौकिक और दिक दिगंत गुंजायमान अवधारणा रही है। क्योकि मानव सहित हर जैविक प्राणी के आविर्भाव से लेकर अवसान तक तथा जीवन की हर अवस्थाओ ऐज, फेज और स्टेज में हम जो अपना सफर पूरा करते है उसकी सबसे चमत्कृत और रोमांचक अवस्था युवावस्था ही तो होती है। जन्म और बचपन के बाद आने वाली युवा अवस्था एक ऐसी अवस्था है जो हमारे जीवन, समाज, परिवार, देश और युग सभी को एक निर्णायक मोड़ प्रदान करने वाली साबित होती है।
यह अवस्था एक ऐसे मोड़ से गुजरती है जो कही भी मूड़ सकती है। अच्छी दिशा में भी तो बुरी दिशा में भी, अनुशासित प्रवृति में भी तो अराजक प्रवृति में भी, तपोनिष्ठ प्रवृति में भी तो ऐययाशी प्रवृतियों में भी, सकारात्मक व रचनातमक प्रवृतियों में भी तो इसके उलट नकारात्मक और विध्वंसक प्रवृतियो में भी, कर्मयोगी के रूप में भी तो कामचोर के रूप में भी, लम्बी रेस के घोड़े के रूप में भी तो शार्टकट तरीके से हासिल करने वाले के रूप में भी। एक सुसंस्कृत और भद्र परुष के रूप में भी तो उलट एक असभ्य और अपराधी प्रवृति के रूप में भी। एक ईमानदार और चरित्रवान के रूप में भी तो इसके उलट बेईमान व भ्रष्ट व्यकति के रूप में भी। एक स्वप्नदर्शी, आदर्शवादी, सिद्धांतवादी और नैतिकवादी व्यक्ति के रूप में भी तो इसके उलट रातो रात बड़ा पा लेने के रूप में भी। कुल मिलाकर इसके मायने ये है की यह अवस्था ऐसी है जो अंग्रेजी में मेक और ब्रेक के कहावत को चरित्रार्थ करती है।
यह एक दुधारी तलवार की तरह है जो एक युवा को सैनिक और सिपाही भी बना सकती है तो दूसरी तरफ  उसे एक दूर्दांत अपराधी भी बना सकती है। यह तो हमारे सिस्टम, समाज और सरकारों का दायित्व है की वह इस युवा वर्ग के जोश, प्रतिभा और जजबे को कौन सा रूप प्रदान करते हैं। क्योकि प्रतिभा तो एक अपराधी में भी होता है और एक सैनिक में भी होता है। प्रतिभा तो एक आतंकवादी विस्फ ोटक बनाने वाले के पास है तो दूसरी तरफ  हमारे रक्षा संस्थान के वैज्ञानिक के पास भी है, केवल रास्ते अलग है। एक वैध रास्ता है तो दूसरा अवैध। एक रास्ता सामाजिक है दूसरा रास्ता असामाजिक है। एक रास्ता कानूनसम्मत है तो दूसरा गैरकानूनी है।
अब सवाल ये है की क्या इन सारे परिप्रेक्ष्यों और सामाजिक परिस्थितियों में युवा वर्ग की क्या केवल दुहाई दी जाएगी या इनकी दशा और दिशा का एक व्यापक एजेंडा भी विचारित और निर्धारित होगा।
 यह सही है की देश काल और परिस्थिति के मुताबिक युवा वर्ग की मानसिकता, प्रवृति और विचारभूमि बदलती रहती है। परन्तु युवावस्था जो एक स्टेज ऑफ़  लाइफ  है उसके पोषण, संस्कार, शिक्षा, प्रशिक्षण और परितोषण की एक तयशुदा नीति भी तो होनी चाहिए। हमारी युवा नीति का तकाजा है की उनके स्वास्थ्य, मन:स्थिति, कौशल निर्माण, व्यक्तित्व और पेशेवर जरुरतो को लेकर हमारे देश में कैसा इंफ ्रास्ट्रक्चर तैयार है ।

युवा और महिला एक नैसर्गिक वर्ग जिसकी कई सामाजिक श्रेणियाँ

सबसे मुख्य बात जो ध्यान में रखे जाने की है वह ये है की जब भी हम युवा और महिला उत्थान जैसे विषयो पर बाते करते हैं तब यह भूल जाते हंै की यह युवा और महिला कोई सामाजिक वर्ग नहीं है। ये दोनों एक प्राकृतिक या नैसर्गिक वर्ग हैं। महिला समूची मानव जाती की आधी आबादी है जो  समवेत दृष्टि से वास्तव में वर्ग नहीं लिंग है। हाँ इस लिंग के कई सामाजिक वर्ग हंै, मसलन शिक्षित महिला व अशिक्षित महिला, उच्च मध्य वर्ग की महिला व निम्न मध्य वर्ग की महिला, गावों की महिला व शहरों की महिला, उंची जाती की महिला व पिछड़ी व दलित जाती की महिला, बहुसंख्यक वर्ग की महिला और अल्पसंख्यक वर्ग की महिला वगैरह वगैरह। कामकाजी महिला और गृहिणी महिला, आधुनिक विचारों की महिला व परंपरागत विचारों की महिला।
जब तक हम महिलाओं के लिए इस तरह के निर्धारण नहीं करेंगे तब तक बहुविध नारी सवालों का व्यापकता से हम ना तो समाधान कर पाएंगे और न ही इन अलग अलग महिला वर्गो के साथ सही न्याय कर पाएंगे। समूचे नारी सवालों का विश्लेषण जब हम एक प्राकृतिक वर्ग ना मानकर एक सामाजिक वर्ग के आधार पर करते हंै तो उससे नारी सवालों की प्रसंग दर प्रसंग और परत दर परत व्याख्या नहीं हो पाती है, समाधान तो दूर की बात । मसलन देहात के इलाकों में महिलाये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, जबकि शहरी मध्य वर्ग की महिलायें अपने सम्मान की लड़ाई के लिए संघर्ष कर रही हंै।
कहना ना होगा इसी तरह युवा भी महिलाओं की तरह प्राथमिक तौर पर कोई सामाजिक वर्ग नहीं बल्कि जीवन की एक अवस्था है जो पुरुष, महिला, गाव, शहर, पश्चिम और पूरब सभी जगह होती हैं, हाँ इनके भी कई सामाजिक वर्ग वैसे ही हैं जैसे महिलाओं के हैं। मसलन उच्च शिक्षित युवा बनाम अर्धशिक्षित और अनपढ़ युवा वर्ग। शहरी युवा बनाम ग्रामीण युवा, उंची जाती का युवा बनाम दलित जाती का युवा। बड़े कापोर्रेट घराने में काम करने वाला युवा बनाम दिहाड़ी मजदूरी करने वाला युवा, पर्क सैलरी पैकेज पाने वाला युवा बनाम छोटा पगाड़ पाने वाला युवा।
मौजू सवाल ये है कि जब तक हम जीवन के इस युवा स्टेज के तमाम सामाजिक वर्गों की स्थिति का गहराई से अलग अलग अवलोकन नहीं करते तब तक हम सभी युवा सवालों को एक रूप कैसे दे सकते हैं। हम युवा वर्ग से वोट लेने के लिए उनकी दुहाई देते हैं जिससे की युवा वोटों की गोलबंदी हो सकें।पर इनके अजेंडे को निर्धारित करने के महाकार्य को कैसे अंजाम दे सकते है जब तक हम इस समस्या पर कोई एक व्यापक नज़रिये का निर्माण नहीं कर पाएं ।
दिक्कत ये है की हम जीवन के इस अनिवार्य स्टेज युवा अवस्था की महज एक दुहाई देकर सभी युवाओं की एक ही दशा और दिशा मान लेने की बहुत बड़ी भूल कर लेते हैं । ये ठीक है की सभी सामाजिक वर्गों के युवाओं के लिए एक अच्छा रोजगार पाना एक कॉमन मकसद और लक्ष्य हो सकता है, परन्तु फि र भी हर वर्ग के युवा की समस्या की प्रकृति, प्रकार और तीव्रता में काफी अंतर है। जिस तरह से हमने लिंग के आधार महिलाओं का कई सामाजिक वर्गीकरण किया उसी आधार पर युवा के भी कई सामाजिक वर्गीकरण और इनका प्रत्यक्षीकरण कर ही समस्या की व्यापकता की पड़ताल कर उसका औचित्य परक समाधान निकाल पाएंगे। मिसाल के तौर पर शहरी सभ्रांत वर्ग का युवा अपने गर्ल फ्रेंड व बॉयफ्रेंड बनाने के लिए संघर्षरत है तो दूसरी तरफ गावों का कम पढ़ा लिखा नौजवान बस इतना ही चाहतें हैं की उनकी इतनी दिहाड़ी कमाई हो जाए जिससे किसी अच्छे घर से उनके लिए शादी का रिश्ता आ जाये। गावों में कम पढ़ा लिखा युवा किसी अच्छे फैक्ट्री में नौकरी पा लेने के लिए संघर्षरत है तो महानगरों में एक ऐसा युवा वर्ग है जो विदेश जाने के वीजा पाने की जद्दोजहद में लगा है।
एक तरफ  युवाओं का एक वर्ग ऐसा है जो एयरलाइन टिकट की एडवांस बुकिंग कर कॉपोर्रेट जॉब के लिए इंटरव्यू देने जाता है तो दूसरी तरफ गावों के अर्धशिक्षित और अर्धकुशल नौजवान लम्बी दूरी के ट्रैन के जनरल कम्पार्टमेंट में भेड़ बकरी की तरह ठूसकर पंजाब, दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव जैसी जगहों के लिए कूच करता है। वीजा लेने वालो के मन में जहंा अमेरिका और यूरोप के बड़े शहरों के सपने तैरते हंै तो दूसरी तरफ गावों के नौजवान के सपनों में एक अच्छी फैक्ट्री में अच्छी पगाड़ वाली नौकरी पाने के सपने तैरते हैं जिससे वह एक चाइनीज मोबाइल खरीद सकें और अपने परिवार और गांव के सदस्यों को दिखा कर अपनी युवा अवस्था के सपने का एक रोमांच ग्रहण कर सके।
मेरा कहने का इरादा यहां कोई साम्यवादी विचार की भावनाओ का बिम्ब गढऩा नहीं है बल्कि इन उद्धरणों के जरिये इस बात को सपष्ट करना है की जेंडर और लाइफ स्टेज के सवालों को हम एक चासनी में ढ़ालकर उनकी समस्याओं का वैज्ञानिक समाधान नहीं कर सकते। उनके अलग अलग सामाजिक वर्गो की प्रसंग दर प्रसंग समस्या का अवलोकन कर ही निराकरण कर सकते हैं। जब हम युवा और महिला वर्ग के अलग अलग सामाजिक जमातों की समस्याओं की गहराई में जायेंगे, तभी हमें एक मुकम्मल एजेंडा, नीति और एक व्यापक समाधान का पर्सपेक्टिव पैकेज तैयार हो सकता है।
देखा जाये तो आज कौन सा युवा वर्ग हमारे मीडिया में, राजनीती में, फिल्मों में उनकी दुहाई के केंद्र में है। इनमे वही युवा शामिल है जो देश के समूचे शहरी क्षेत्रों में रहने वाला शिक्षित और पेशेवर युवा है जो कुछ कछार ग्रामीण क्षेत्र में भी मौजूद है। जो मोबाइल, लैपटॉप से सुसज्जित होकर एफबी, ट्विटर और व्हॉट्सअप्स पर कनेक्टेड है। और हमारे कम से कम 60 फीसदी युवा जो अनपढ़ हंै, अर्धशिक्षित हैं, अकुशल हैं, अस्वस्थ हैं, जिन के मन में सपनें बनते तक नहीं, पूरे होने तो दूर की बात है। जिसे या तो 14 साल की उम्र के पहले या तो बाल मजदूर बनना पड़ता है या जवानी की उम्र तक एक अनुभवी दिहाड़ी मजदूर बन जाना पड़ता है। जिसे अपने माँ बाप की गरीबी की वजह से अपने पैरो पर चलना उम्र के पहले ही सीख लेना पड़ता है। जिसे अपने व्याह की उम्र में ही अपने बेटे बेटी के व्याह शादी की तैयारी में मशगूल हो जाना पड़ता है।
अब सवाल ये है कि क्या ऐसे युवा वर्ग के लिए हमारे पास दुहाई देने का स्लोगन है। इसका उत्तर तो नहीं में है। इसके लिए न तो नीति है, न नियोजन है और ना ही कोई नियामक संस्था है। देखा जाये तो युवा के लिए पढ़ाई, नौकरी और अवसर ये तीनो बेहद अहम फैक्टर हैं। पर इसके बावजूद पर हमारे यहाँ युवाओं की अलग अलग दुनिया होने से इनके समाधान भी अलग अलग है। पहला अलगाव तो हमें गांव व शहर के बीच में दिख जाता है। दूसरा अलगाव स्थानीय माध्यम और अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई से आ जाता है। तीसरा अलगाव अलग अलग बोर्ड व सिलेबस से आ जाता हैै। चौथा अलगाव पेशेवर और गैर पेशवर शिक्षण से आ जाता है। और अंत में सभी युवाओं की अलग अलग परिवारिक पृष्ठभूमि होने की वजह से अलगाव तो एक जगजाहिर सी बात है।  ऐसे में हमारे सामने एक महाप्रश्न ये है की क्या हम देश की युवा शक्ति को एक रूप और एक संसार देने के लिए एक क्षिक्षण माध्यम, एक एजुकेशन बोर्ड, एक सिलेबस और व्यक्तित्व निर्माण की क्या कोई एक नीति का निरूपण हम नहीं कर सकते

मूल समस्या का निदान 

मंै यह बात हमेशा से मानता हूँ की देश में गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान नारों और समाजवादी योजनाओं के मार्फत नहीं लायी जा सकती । 1950-90 की कालावधि हमें अच्छे से याद है। हम निजी-सार्वजनिक साझेदारी, परस्पर प्रतियोगिता, प्रतियोगी बाजार तथा नियमन प्राधिकरण के मार्फत ही गरीबी बेरोजगारी का प्रभावी समाधान ला सकते हैं। आज गावों के कम पढ़े लिखे और निरक्षर युवकों को बड़े महानगरो और औद्योगिक केन्द्रों में जो रोजगार मिला और उनसे जो उन्हें आमदनी मिली उससे उनके चेहरों पर मुस्कान आई है जो पिछले 40 साल की समाजवादी नीतियों और नारों से संभव नहीं हो पाया था।
आर्थिक क्षेत्र में देखा जाए तो सरकारों के मूल कार्य चार हंै। पहला आधारभूत सुविधाओ का विकास, दूसरा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानव विकास सुविधाओं की उपलब्धता, तीसरा सामाजिक सुरक्षा की व्यापक मौजूदगी और चौथा इन तीनो के जरिये रोजगार का अधिक से अधिक सृजन। आज देश में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को बल मिला तो उसके पीछे मध्यान्ह भोजन योजना  का मुख्य रूप से हाथ था। इसी तरीके से हमें चाहिए की असंगठित क्षेत्र के कामगारों के वेतन को मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाये। इसी तरह से देश हर अर्धकुशल, अकुशल युवा कामगारों के लिए अनिवार्य कौशल विकास का प्रशिक्षण कार्यक्रम बेहद अहम है। ख़ुशी की बात ये है की  मोदी सरकार द्वारा कौशल प्रबंधन को अपना प्राथमिक कार्यक्रम बनाया गया है।
हमारी युवा नीति का सारा दारोमदार बहुत कुछ हमारी शिक्षा और रोजगार नीति की स्पष्टता, सरलता, व्यापकता और समरूपता पर निर्भर करती है। इसी के जरिये हम देश के युवा सवालों को मात्रात्मक तरीके से हल कर सकते हैं। पर मात्रात्मक हल से ज्यादा बड़ी चिंता हमारे युवा सवालों की गुणात्मकता को लेकर है। प्रश्न ये है की क्या हम देश काल परिस्थिति तथा जोश जमाने के प्रयाय युवा वर्ग को हम उनके अपने समाज में चलंत ट्रेंड और ट्रेडिशन पर ही छोड़ देंगे या इनके लिए नैतिक मूल्यों और आदर्शवादी उपमानों का कोई एक मॉडल भी तय करेंगे। हम युवा वर्ग की दुहाई देते है पर यह भूल जाते हैं की आज की हमारी वह प्रतीकात्मक युवा पीढ़ी नैतिकता जैसे शब्दों का मजाक उड़ाती है। आदर्शों और सिद्धान्तों की बात को अव्यवहारिक ठहराती है। धैर्य और सहिंष्णुता को बेवकुफ ों का कृत्य मानती है। संघर्ष और तपस्या के बजाये रातो रातो सफ लता पाने के हथकंडो का इस्तेमाल करना ज्यादा पसंद करती है। गरीबों, पीडितों और कमजोर तबके के प्रति असंवेदनशील बनी रहती है। हमारी युवा नीति की सबसे बड़ी जरूरत है की हम देश के युवा वर्ग के लिए एक नए उच्च नैतिक मानदंड तय करें। आज हमारी युवा पीढ़ी मिहनत, संघर्ष, सहिस्णुता और सम्मान प्रदर्शित करने के बजाये अहंकार, चकाचौंध, विलासिता और ऐशो आराम को प्राथमिकता देना पसंद करती है। दूसरी तरफ युवाओं की दूसरी दुनिया जो हमारी युवा वर्ग की दुहाई के चलंत प्रतीक में शामिल नहीं है, वह ज्ञान, जागरूकता और अपने हक़, दायित्वों और कर्म से अनजान  है। वह कुछ ज्यादा सोचने और कर गुजरने की स्थिति में ही नहीं है।
कुल मिलाकर आज वक्त युवा वर्ग की दुहाई देने का नहीं है। उनके लिए एक बेहतर दशा और दिशा निर्धारित करने का है, उनके लिए एक समवेत नीति बनाने का है, उनके तमाम संवर्गो के लिए प्रासंगिक नीति और नियोजन का है, उनके लिए अनेकानेक दुनिया बनाने के बजाये एकसमान दुनिया बनाने की है, उनके लिए सामाजिक संवेदना, राष्ट्रीय गौरव बोध, नैतिक जीवन मूल्यों को पुनरस्थापित करने का है। उन्हें देश की समूची व्यस्था में बदलाव के लिए एक धीर गंभीर सेनानी बनाये जाने का है।
इसके लिए हमें वह युवा नीति चाहिए जो सबसे पहले तो युवाओं में त्वरित रूप से नैतिक मूल्यों के प्रति गहरा आकर्षण बोध पैदा करे। जो भोगी नहीं त्यागी बनाये, जो स्व नहीं सर्व भावना से अभिभूत हो।

Thursday, April 2, 2015

Cacophonic Sound of 'Youth Power' in Public Domain

Today, the word youth is buzzing around everywhere. The cacophonic sounds of youth can be heard all the time -- in our families, in the markets, in the larger society, and, of course, very much in our politics. It seems that we are ushering towards the golden era of the youth world. Products are being launched, keeping in mind the tastes and likings of the youth and accordingly, a youth market is being created.
Our society regards this class as an agent of change. The oldest institution of the world - 'family,' takes its youth members as the future backbone of its well-being and survival. Every parent desires their son or daughter to shoulder their responsibility in the gerental phase of their life. The biggest selling theme in our film world revolves around youth-centric romantic sagas. And last, but not the least, the world of politics too, is abuzz with the symbolism of youth and their aspirations. In the largest youth populated country of the world, i.e., India, the youth class has, in a way, become the deciding factor for the success of political parties.
It is a universal and an all-time belief that every living animal in this world finds its best form of life in its youth only. A person passes through several phases and stages in his/her life, but it is their youth, which becomes the highlight of his or her life. Coming after one's childhood and adolescence, the youth stage of life brings a deciding turn or change in one's life. However, this change could also be a misdirectional one, instead of going in the right direction. This is the age when one can either go over a good path or a bad one. It can either go in the disciplined way or the haphazard way. It can either take up the path of sacrifices or the way of indulgences. It can adopt either a positive & constructive agenda or a negative or destructive one.
To sum up, this age can go either way; it can make, but can also break. It is like a two-edged weapon. One can become a dreaded criminal or just the opposite -- a true patriot soldier of the country. It is the duty of our system, including of our governments to give a proper direction to the youth. The quality of our youth depends upon how the society nurtures and brings up its young and moulds its talents and enthusiasm. Because, talent lies both in a criminal as well as in a soldier. This talent lies in an explosive-maker and in a defence scientist, alike. The difference is only in the direction they have chosen. One way is the law-abiding one while the other is of the law-violater. One is the legal way while the other, illegal. One is social while the other, anti-social.
Now, the question arises -- shall we frame a new broad-based agenda about the conditions and future of our youth generation, in the given context and circumstances, or should we just keep repeating the merely emotional juggernaut regarding the youth. It is true that in every era, the mentality, attitudes and thinking horizons of the youth have been different. But, the question is, that, for this crucial stage of life, can't we have an established policy about their education, training, upbringing & orientation and career. We need to create huge infrastructures for the health, skills, personality and career requirements of the youth community.
When we talk about youth, it is imperative to discuss about women also. Because, unlike the impression being created, neither is a social class. Both classes are natural entities. One relates to gender while the other relates to a stage of life that everyone goes through, which is known as adolescence. But, we treat them as a kind of social class which faces class-war kind of situation in the society.
The fact is that in a family, a male boy is dearer to the female mother, whereas a female daughter is much dearer to the male father. In a similar way, a female 'daughter-in-law' gets ill treated more by her female mother-in-law and vice versa. When we discuss these two categories of 'women' and 'youth,' we must always take them as natural entities, which, of course, have many further sub-categories; like modern women vs traditional women, rural women vs urban women, educated women vs uneducated women, upper middle class women vs lower middle class women, upper caste women vs dalit caste women, etc. All these classes of women have different environments, upbringing, nature & area of problems and issues. For example, in urban areas women are fighting for their respect, whereas in rural areas women have to struggle even for their survival and they routinely face physical assaults.
A similar situation exists with the youth generation, also. Like women, we have various social categories of youth, all having different concerns and issues. Even with respect to employment, which is a universal youth problem, there is one educated youth class which aspires for high salaries and big banner corporate jobs, whereas another class of semi-educated youth just aspires to get a job in a factory, where they can have, at least, the facility of provident fund. Relationships are also a common concern of all the youth classes. However, here too, there are differences between the various youth classes. In urban metropolitan cities, the youth aspires to get a good job so that he can have a boy friend or girl friend, whereas, in rural areas, a semi-educated youth hardly wants a Rs 10,000 per-month job, so that he can get a good marriage offer from a good family.
Thus, although, both, the urban, high-class, educated youth as well as the rural, uneducated or vernacular-language educated youth seek a job, but there is a definite difference of context. The urban youth is busy making visas and booking airline tickets to the first world or Middle East countries. Whereas the rural uneducated youth just goes to the metropolis or the industrial centres by sitting in the general compartment, crammed like goat and sheep laden trucks. We know that the metropolis and the middle-east countries have a high demand for the semi-skilled youth. Both the classes of youth have their dreams, but the areas and types of dreams are different. One is dreaming to have a Chinese mobile while the other has a dream to have a big MNC job and travel around the world with a high perk and salary.
Here, I am not trying to carve out the icons of socialism; rather I am trying to say that we can not address the issue of youth belonging to different social sections with one common stick. It would not provide scientific solutions to the problems. Until and unless we have a deep-rooted analysis of every section of the youth society in the country, followed by a comprehensive policy, perspective and a solution plan, we can not address the issues of these sections adequately. It is important to know, after all, who represents and symbolises  the youth class today in our media, politics and films?
They are the youth who are professionaly educated and equipped with mobiles and laptops and networked on social sites like FB, Twitter and Whatsaps. This class of youth resides in urban areas although, some belong to rural areas too. The rest 60 percent of youth are either uneducated or under educated, unskilled or semi-skilled, unhealthy, and do not even dare to dream, leave alone fulfill it. This youth works as child labourer till the age of 14 and become daily wage earners, thereafter.
They lead a harsh life from a very early age because of their parental poverty. These are the youth who get married at an early age, and by the time they become adult, they're already marrying their children. We do not have even an emotive slogan for this class of youth. We have neither policy nor planning nor any established authority for this class.
We know that education, employment and availment of opportuniy; these are common goals for all youth. But because of presence of variety of youth class, their solution does not come under one head. We have several kinds of differences among these youth class. The first difference is due to the medium of education. Second difference is that of rural and urban. The third difference is of educational curriculum and examination board. Fourth difference is that of professional and formal education and last, but not the least, their family background. Consequently, we have created many worlds of youth class in the counry. Under these cirumstances, the biggest remedy is to start with making one education medium with trilanguage formula, one curriculum and one education board and a uniform policy of personality development for all sections of youth in the country.
Thanks to the post new economic policy era, the rural undeducated youth labourer has received some benefits too. In the period of 1990-2010, the growing industrialisation and urbanisation availed opporutunity to the rural youth laborer. It ultimately raised their income and purchasing power. Prior to 1990, we only had the socialistic slogan for removal of poverty and unemployment, nothing else more than this. We still believe that  through this kind of public-private particiapation, formation of regulatory authorities in several areas and injection of competition, we can generate enough employment, income and government revenue for poverty alleviation and purchasing power, thus curing poverty.
Fundamental solution
I firmly belive that in the economic field, the government should focus only on four activities, which are, 1) Development of Infrastructure, 2) Strengthening the education and health components of human development 3. Providing social security at large scale for all vulnerable sections of society, and, 4) Through all the above measures, generate as much as employment opportunities as possible.
Today, we have better statistics about the primary litercy percentage of the country, that is because of the provision of 'mid day meal scheme' in all the schools. In the same way, we must ensure price-index linked wage policy for all unorganised labourers. Our new youth policy must be co-related with the education and employment policies which must have simplicity, clarity to have impact. Only then will it give boost to the skill development of the unskilled and semi skilled labour force of the country.
It is a matter of appreciation that the present NaMo government has made skills development its focus, which is directly related to the empowerment of the youth of the country. But, we also have to take notice of the fact that these measures can address the concerns of the youth only in terms of quantity, whereas. we need to address them in terms of quality, too. We can not leave the youth to be led by their age, instincts and circumstances only, which are being decided by time, trend and traditions of the society. Rather, we have to inject a value system among them.
We have to decide upon a module of morality, values and idealism for them. Politicians and market gurus keep talking about the youth class with an emotive appeal, but they must also overview as to which way the youth generation is heading to. This youth generation is making fun of words like 'morality', 'principles', 'idealism', 'values' etc. They treat them as impractical things. Values like patience and soberiety are regarded as foolish, today. Rather than struggle, today's youth wants to achieve success overnight through tricks and shortcuts. This class has almost become insensitive to the poor, deprived and oppressed. Instead of paying tribute and respect to the elders, today's youth indulges in arrogancy, glamour and showing of luxury consumables.
On the other side, there is the other class of youth which is not being symbolized by our media, politics or the film world, as the mainstream youth. In fact, this youth is trapped in ignorance and unawareness, so this class is not alert either for their rights or their responsibilities in the society. The youth sitting on the otherside is in fact, not in a capacity to either think or work. On the whole, this is not the time for raising mere emotive slogans for this class of youth. We need to form a completely new policy for the youth, in order to address their conditions and direction, both.
They need a multi-sectional planning and work plan. Instead of making multiple worlds for them, we need to make a uniform world for all the youth. It is earnestly required to revive feelings of social sensitivities, national pride and moral values among the youth of the country. For that, we need a youth policy which can immediately create a greater degree of attraction among the youth for ethics and ultimately make them a bonafide soldier and agent of social and system change. v