Thursday, September 5, 2019

केरल त्रासदी ने आपदा पूर्व व बाद दोनो के लिये सचेत किया

केरल त्रासदी ने देश में आपदा पूर्व व बाद दोनो की व्यापक तैयारियों के लिये और ज्यादा  सचेत किया
मनोहर मनोज 
केरल में हुई पिछले सौ साल की रिकार्ड तोड़ बारिश और उससे पूरे प्रदेश के जलमग्र होने की विभीषिका हमारे देश में समय समय आने वाली महाआपदाओं के श्रेणी की नवीनतम कड़ी है। पहले तो हमें इस तथ्य से अवगत होना होगा कि भारत प्राकृतिक विविधताओं से एक परिपूर्ण देश है जहां भिन्न-भिन्न भौगोलिक संरचना के साथ-साथ जलवायुवीय परिस्थितियां भी भिन्न-भिन्न है। ऐसे में देश के विभिन्न स्थानों में प्राकृतिक आपदाओं का आगमन अवश्यम्भावी है। देश में ऐसे कई इलाके हैं जहां अतिवृष्टि तथा नदियों की संख्या ज्यादा होने से हर साल बाढ़ की विनाश लीला झेलनी पड़ती है। भारत का समुद्र तट काफी लम्बा हैै, जहाँ कभी भी चक्रवाती तूफान और सूनामी जैसे आपदाओं के लिए तैयार रहना पड़ता है। देश के कई हिस्सेे ऐसे हैं जहां बारिश कम होने तथा नदियों की संख्या कम होने से सूखे का सामना करना पड़ता है। भारत सेे हिमालय पर्वत श्रृंखला का बहुत बड़ा हिस्सा जुड़ा रहने से इसके निकटवर्ती इलाकों में जमीनें दरकने, बादल फटने और भूकम्प की घटनाएं आम बात है। भारत का बहुत बड़ा हिस्सा भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक अतितीव्रता और सामान्य तीव्रता वाले भूकंप की श्रेणी में आता है। जहां तक केरल की बात है तो वह वैसे ही भारत में हर साल आने वाले द० प० मानसून का भौगोलिक प्रवेशद्वार है। 
पिछले कुछ दशकों में देखें तो देश में प्राकृतिक आपदा की एक नहीं दर्जनों घटनाएं हुईं। इनमे वर्ष 1999 में आया ओडि़सा में चक्रवाती तूफान, लातूर-कच्छ-गढ्वाल में आए विनाशकारी भूकंप,  बिहार में कोशी व असम में ब्रह्मपुत्र नदियों की आयी विनाशलीला, विदर्भ-राजस्थान-गुजरात जैेसे जगहों पर सूखे तो दक्षिण भारत में २००४ में आए सूनामी, वर्ष 2013 में उत्तराखंड तथा 2014 में कश्मीर में आए सैलाब देश के हजारों लोगों को मौत के घाट उतार चुकी है।
आपदा पूर्व की तैयारियों की बात करें तो हमारे मौसम विभाग का कार्य बेहद अहम है, यदि इनके पास सारी तकनीकी सुविधाएं मौजूद हों और इनके विशेषज्ञ हमेशा चाक चौकस हों तो आपदा आगमन के ठीक पहले आने वाली तबाही और त्रासदी का आगाह कर बचाव की अहम तैयारियां की जा सकती है।  देश में आपदा प्रबंधन की समूची कार्य प्रणाली चाहे वो सरकारी स्तर पर हो तथा निजी और गैर सरकारी सगठनों के जरिये कार्यरत हो, उनके बीच आपस मे एक व्यापक समन्वय बनाकर इसे वैज्ञानिक और सुनियोजित तरीके से स्थापित किया जाए और फिर इसका संचालन किया जाए। आमतौर पर हमें सभी तरह के आपदा प्रबंधन पेशेवरों मसलन मौसम वैज्ञानिकों, आपदा विशेषज्ञों, तैराकों, फौज, पुलिस, डॉक्टर तथा पारामैडिकल कार्यकर्ताओं इत्यादि का एक ऐसा नेटवर्क चाहिए होता है जो देश में आपदा पूर्व व उसके बाद की तैयारी के लिये हर तरह से चाक चौकस और हर तरह के बचाव अभियान में फुल प्रूफ हो। दूसरा हर तरह की आपदा के पूर्व व बाद के लिये जरूरी सामग्रियों मसलन बाढ़ व तूफान के समय हेलीकाप्टर, बोट, पंप सेट, जनरेटर तथा आपातकालीन पूल व बांध बनाने की सामग्री, सूखे के समय कृत्रिम बारिश, वाटर टैंक, अनाज स्टाक तथा सप्लाई लाइन वगैरह, इसी तरह भूकंप व भूस्खलन के समय कैंप होम इत्यादि की सुविधा। हर तरह की आपदा में त्वरित तरीके से पैकेज्ड खाने  की पर्याप्त उपलब्धता की तो हमेशा दरकार होती है। केरल में अभी स्वयसेवी संगठनों के जरिये  खाना सुलभ  है पर उन्हें  आपदा प्रभावित लोगों तक उसे पहुंचाना सबसे बड़ी समस्या  बनी हुई है।
यह सही है कि आपदा प्रबंधन की पूर्व व बाद की तैयारियों के लिये विशाल संसाधन की आवश्यकता पड़ती है जिसमे आपदा चेतावनी यंत्रों की उपलब्धता के साथ साथ तकनीकी पेशेवरों की उपस्थिति भी शामिल है। एक गरीब अर्थव्यवस्था वाले देश के लिये इन कार्यों के लिये संसाधन जुटाना मुश्किल होता है। आम तौर पर जब भी कहीं आपदा आती है तो उस देश के अन्य हिस्से के लोगों के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी उदारता से दान दिये जाने की परंपरा निभायी जाती है। अत: इन परिस्थितियों में गरीब देशों में भी आपदा फंड की किल्लत नहीं होती है। परंतु आपदा काल में किये जाने वाले धन व संसाधन के व्यय में बंदरबांट व भ्रष्टाचार की संभावनाएं भी उतनी ज्यादा होती है। कई बार आपदा व्यय के सार्वजनिक ऑडिट नहीं होने की वजह से भ्रष्टाचारियों की बल्ले बल्ले हो जाती है। जरूरत इस बात की होती है कि आपदा प्रभावित राज्य और देश की सरकारें और उनकी संबंधित प्रशासनिक इकाईयां कितने बेहतर तरीके से आपदा पूर्व और आपदा बाद प्रबंधन के बेहतर समन्वय और नवीन प्रौद्योगिकी के जरिये इसकी स्मार्ट तैयारियंा करती हैं। 
आपदा प्रबंधन की तैयारियों की शुरूआत सबसे पहले विभिन्न तरह क ी आपदा परिस्थितियों में आम लोगों क ो बचने, संभलने-संभालने, हिदायतें बरतने और सभी तरह के निर्माण संबंधी निर्देशों का प्रभावी तरीके से पालन करने हेतू एक व्यापक जनजागरण अभियान चलाने से होनी चाहिए। इसे देशव्यापी अभियान का एक हिस्सा बनाना चाहिए। इसके लिये स्कूलों, दफतरों, गांव-देहातों, सार्वजनिक स्थलों में आपदा नियंत्रक प्रशिक्षकों द्वारा लगातार प्रशिक्षण और चेतना जगाने वाला क ार्यक्रम होते रहना चाहिए। 
वर्ष 2004 में इंडोनेशिया में जहां सूनामी का केन्द्र था, वहां से सूनामी लहरों को दक्षिण भारत के समुद्र तटों तक आने में 45 मिनट का समय लगा। तभी यह महसूस किया गया कि उस समय यदि सूनामी की पूर्व चेतावनी देने वाले उपकरण भारत में मौजूद होते तो उस समय देश की हजारों जानें तथा उनकी संपत्ति को बचाया जा सकता था। इसी तरह से 1999 में ओडि़सा में भी भयानक चक्रवात तूफान की पूर्व सूचना संभव नहीं हो पायी और पचास हजार से ज्यादा जानें तबाह हो गयी। शुक र इस बात का है यही चक्रवात जब २०१३ में ओडि़सा में आया तो इसकी पूर्व सूचना मिल जाने पर राज्य सरकार ने बेहतरीन तरीके से उसकी सारी तैयारी कर ली और इसके नतीजतन वहां जानमाल की ना के बराबर क्षति हुई। शुकर है कि आज की तारीख में हमारे पास सूनामी व चक्रवात की पूर्व चेतावनी देने वाली सुविधाएं भी मौजूद हैं। पर इसके बावजूद अतिवृष्टि, बाढ़, भूकंप, सूखे, महामारी, आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी परिस्थितियों के लिये हमारे आपदा पूर्व तंत्र को अभी काफी ज्यादा काम करने की जरूरत है। 
हमे इस बात को समझ लेना चाहिए कि विज्ञान व तकनीक का मानवता और उसके समुचित विकास में सदुपयोग होना चाहिए न कि कुछ लोगों के व्यावसायिक हितों की रक्षा में इसका दूरूपयोग । विकास की नवीनतम अवधारणा ने तो विज्ञान तक नीक को अपने चंगूल में ले लिया है और इसी की परिणति है उत्तराखंड, कश्मीर और अब केरल का यह विनाशकारी अंजाम। उत्त्राखंड व कश्मीर में नदी तटों पर  बेतरतीब निर्माण तो दूसरी तरफ पनबिजली पैदा करने के लिये केरल में पिछले सालों में डेढ दर्जन से ज्यादा डैम बनाये गए जिससे राज्य में पानी के निस्काषन को प्राकृतिक अनुकूलता नहीं प्राप्त हो पायी।
 समय आ गया है कि हम विभिन्न आपदा घटनाओं की एक संपूर्ण योजना का निरूपण करते हुए चार सूत्री योजना पर अमल करें जिसमे पहला देश भर में सभी तरह की मानव जनित व प्राकृतिक आपदा की पूर्व व उपरांत तैयारियों और उसकी जिम्मेवारियों के लिये सभी तरह के कानूनों, विधानों, संस्थाओं को नये सिरे से परिभाषित कर उनमे आपसी समन्वय की एक स्थायी व्यवस्था मौजूद हो। दूसरा देश भर में आपदा रोकथाम पेशेवरों मसलन मौसम विज्ञानी, आपदा विशेषज्ञ, आपदा रोकथाम प्रशिक्षकों, सेना, पुलिस, अग्रि शमन दस्तों, सुरक्षा विशेषज्ञों, चिकित्सक, पारा मैडिकल कर्मचारियों का एक राष्ट्रीय क ार्यदल का गठन हो। तीसरा विभिन्न आपदा रोकथाम निर्देशों के सख्ती से पालन के लिये एक राष्ट्रीय योजना का निर्धारण हो। औैर चौथा आपदा से जुड़े हर तरह की विकास व निर्माण की गतिविधियों को लेकर देश के हर स्थान के मुताबिक भोगोलिक आर्थिक विकास की नीति का निर्माण हो। अंत में उपरोक्त चारों महती उद्येश्यों की पूर्ति के लिये केन्द्र व राज्य स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिये एक अलग से विभाग या मंत्रालय का गठन होना चाहिए, क्योंकि देखा यह जाता है कि किसी भी आपदा के वक्त कृषि मंत्रालय द्वारा नियंत्रित प्राकृतिक आपदा कोष यानी सीआरएफ और गृह मंत्रालय द्वारा नियंत्रित राष्ट्रीय आपदा राहत कोष यानी एनसीआरएफ के  जरिये मदद राशि का एलान केन्द्रीय दल द्वारा सर्वेक्षण के बाद तय होता है जिस पर राज्यों द्वारा मदद राशि पर्याप्त नहीं दिये जाने पर शिवका शिकायत किया जाता है। जैसा कि अभी केरल ने बीस हजार करोड़ के नुकसान की बात बतायी परंतु प्रधानमंत्री द्वारा अभी सिर्फ 500 करोड़ की मदद का एलान किया गया।
 यदि देश में कुछ चीजें बिल्कुल असह्य यानी नो टोलरेंस की स्थिति में ढ़ालनी है, जिसमे नो टोलरेंस टू करप्शन, नो टोलरेंस टू क्राइम, नो टोलरेंस टू एक्सीडेंट और नो टोलरेंस टू डिले स्लीपेज एंड लीकेज इन क्लामेटीज रिलीफ तो इनमे चौथे को सबसे अव्वल रखना होगा। भारत में पिछले एक दशक के दौरान आपदा प्रबंधन के फील्ड में जो सबसे बड़ा काम हुआ वह है एनडीआरएफ यानी राष्ट्रीय आपदा राहत कार्यबल का गठन जिसमे सेना व पुलिस के चुने हुए आपदा राहत की विशेषज्ञता हासिल जवान शामिल होते हैं जिनका अब हर आपदा की राहत गतिविधि में इस्तेमाल होता है तथा एनडीआरएम यानी राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान जहां आपदा नियंत्रण को लेकर देश हर स्तर के शोढ व विकास के काम हो रहे हैं।
 अंतत: हम यही कह सकते हैं कि अगर इस समय हमने अपने व्यापक संकल्प से आपदा प्रबंधन को लेकर उपरोक्त सभी बातों को अंजाम नहीं दिया तो हमारी मानवता इन अवशयमभावी  महाविनाशों  की हमेशा मोहताज बन कर अपना जीवन गुजारेगी।
लेखक इकोनॉमी इंडिया पत्रिका संपादक हैं 

Sunday, September 1, 2019

व्यस्था की विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम


व्यस्था की  विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम 
मनोहर मनोज 

हम किसी विशेष राजनीतिक खेमे के प्रति कैसे कैसे अपने आग्रहों , दुराग्रहों और  पूर्वाग्रहों की वजह से उनके मोहपाश में बढे रहते है , उसकी एक नहीं कई मिशाले पेश की जा सकती है।  हमें जब असलियत का पता चलेगा तो हम पाते हैं  की हम किसी दल और किसी सरकार र्विशेष के प्रति आसक्त और अनासक्त है , पर मूल समस्याएं तो व्यवस्था जनित है , जिसके प्रति व्यवस्था  के संचालकों और नियामकों का  ध्यान आकर्षित कितना होता है,  वही बात मौलिक है। 
मोदी सरकार की उन योजनाओ का हम हवाला दे जो वास्तव में गेम चेंजर प्रकृति की थीं , पर उन योजनाओ में भी  व्यस्था की विडंबना किस तरह से अन्तर्निहित थी और सत्ता में बैठे उन लोगो की नजर में भी वे ओझल हों गई जिन्होंने अपने आप पर रूटीन सरकार का टैग मानने से इनकार किया था । सबसे पहले हम उजाला योजना को लें जिसके तहत करोडो एलईडी बल्ब रियायती दर पर देश भर में वितरित किये गए। इस योजना  में 300 रुपये के एलईडी बल्ब 80 -90 रुपये में बेचे गए। इस योजना का मकसद इन बल्बों के प्रयोग के जरिये देश में बिजली के खपत में भा री बचत  कर  ऊर्जा संरक्षण मुहिम को बढ़ाने का था। इस योजना के तहत सरकारी दफ्तरों तथा विभिन्न  बिजली कार्यालयों  में बेचे जाने वाले बल्ब के बिल भी दिये  जाते थे  जिसमे बल्ब फ्यूज होने पर ३ साल की गारंटी भी दी गयी। हकीकत ये है इसमें ज्यादातर बल्ब ख़राब हो जाते है पर इनके वापसी के आउटलेट कही नहीं मिलते। इस बात की  पुष्टि अब जाकर इन रिपोर्टो से  हुई की इस योजना के तहत वितरित  80 प्रतिशत बल्ब की क्वालिटी ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड के मा नको को पूरा नहीं करती। इस योजना का अलबत्ता फायदा लोगो को यह मिला की इन बल्बों  की बाजार  कीमत करीब १०० रुपये के आस पास आ गयी है और अब  बल्ब ख़राब होने पर उस पर कम से कम गारंटी औरउसकी वापसी सुनिश्चित है। सवाल है की  सरकार ने इन बल्ब सप्लायरो के बल्ब की क्वालिटी के प्रति  नरमी क्यों दिखाई और बिजली संरक्षण की यह एक बेहतर योजन व्यव स्था की विरूपता की कैसे शिकार हो गयी। 
हमलोगो को इस बात की बड़ी गलफहमी रहती है की सरकार जनकल्याण को तवज्जो देती है और निजी क्षेत्र जनविरोधी कार्य करते है।  दरअसल ये दोनों संगठन परस्पर प्रतियोगिता और नियमन के अ भाव में जनता का गला काटने को तैयार रहते है। एक अपनी भ्रष्टाचार ,लापरवाही और कामचोरी का पोषण जनता का गला दबाकर करना चाहता है तो दूसरा मुनाफा कमाने के लालच में जनता को हर समय रौदने को तैयार रहता है। ठीक इसी तरह हम यह भी जान लें की कोई दल विशेष की सरकार ईमानदारी और जनता के हितों की कोई चैंपियन नहीं होती है। कोई भी सरकार यदि मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का सामना नहीं करती तो वह भी निरंकुश होकर जनविरोधी, मनमानी और अतार्किक फैसले लेती है। पहला उदहारण तो हम दिल्ली मेट्रो के किराये में बेतरतीब बढ़ोतरी तथा भारत सरकार नियंत्रित एम्स द्वारा अपने शुल्क में बढ़ोत्तरी का ले। दिल्ली मेट्रो ने महज तीन महीने के दौरान अपने किराये में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है । जिस मेट्रो रेल का  एक आदर्श बुनियादी उपक्रम के रूप  हवाला दिया जाता था। जो उपक्रम पिछले आठ साल के दौरान बिना किराया बढ़ाये सरप्लस कमा रही थी। जो विदेश से लिए गए लोन को समय पर चुकता कर रही थी।  जो अपनी अधिकतर परियोजनाओं को समय पर या समय से पहले पूरा कर रही थी।  जिस उपक्रम को प्रौद्योगिकी से सुसज्जित भ्रष्टाचार मुक्त उपक्रम माना जाता था। वह उपक्रम अचानक दोगुना  किराया क्यों बढ़ा लेता है। केंद्र , दिल्ली प्रदेश सरकार के साझे में चलने वाले इस उपक्रम को अब अचानक अपनी लागतो में बढ़ोत्तरी का रोना क्यों रोना पड़ता है। हमारा मानना है की कोई भी उपक्रम चाहे वह घोषित रूप से जनकल्याणकारी क्यों न हो उसे सरकार की सब्सिडी पर आश्रित और पोषित नहीं होना चाहिए , उसे अपनी कार्यक्षमता और अपने उपलब्ध  संसाधनों के अधिकतम उपयोग के जरिये उसे अपने उपक्रम को चलाना  चाहिए। रेल हो , मेट्रो हो या सड़क परिवहन , इन्हे किराया बढा ने की छूट जरूर मिलनी चाहिए , पर ठीक उतनी ही जितना मुद्रा स्फीति की सालाना दर , यानि  यह  3 -4 फीसदी के बी च  ही होना होना चाहिए। पर दिल्ली मेट्रो ने तो अ पने अधिकतम किराये  को  32 रुपये से बढाकर 60 रुपये करने का एक बेहद कठोर कदम उठाया और हैरत  की बात ये है की जनता के कथित चौकीदार के चेहरे पर इससे थोड़ा उफ़ तक नहीं आया। इस मामले में दिल्ली सरकार का रवैया उचित था जिसने दिल्ली मेट्रो के आमदनी की फाइलों के जाँच की मांग की । 
ठीक इसी तरह दिल्ली एम्स की तर्ज़ पर  देश में 6 नए एम्स स्थापित किये जाने  को  एनडीए ने अपना यूएसपी बताती थी, उसमे से ऋषिकेश स्थित एम्स ने तो अपने विभिन्न  चिकित्सा शुल्क में निजी अस्पतालों की तर्ज़ पर कई गुनी बढ़ोत्तरी कर दी। जब अखबारों कदम की तीव्र आलोचना हुई तो उसने दर बढ़ोत्तरी वापस लेने का फैसला लिया। एम्स से जुड़ा दूसरा सवाल है आखिर देश के अन्य एम्स दिल्ली एम्स के बराबरी आने पर विफल क्यों हो रहे है की पटना स्थित मरीज को पटना एम्स छोड़कर दिल्ली एम्स में आना पड़ता है। तिस पर ऋषिकेश एम्स जैसा फैसला यही बताता है की सरकारें और सरकारी संस्थान परस्पर नकेल और स्व नैतिकता तथा जन संवेदनशीलता  के अभाव में  कैसे जनविरोधी हो जाते है।  क्या केंद्र सरकार  इस मामले में अचानक निजी क्षेत्र सरीखी मुनाफाखोर हो गयी और उसे अपने कदम के विरोध में के विरोध में प्रयाप्त राजनीतिक दबाव नहीं झेलना पड़ा। इस मामले पर दो दृष्टांतों का हवाला देना मुफीद होगा। पहला 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए सरकार ने गैस मूल्यों में दोगुनी बढ़ोत्तरी का फैसला लिया। यह चुनाव का राजनितिक मुद्दा बना। उम्मीदी ये थी की नयी मोदी सरकार भी कॉर्पोरेट हितैषी होने के नाते इस  मूल्य बढ़ोत्तरी के निर्णय  को जारी रखेगी। पर मोदी सरकार ने जनदबाव और लोकलज्जा में इन गैस मूल्यों को बढाने का फैसला नहीं लिया। ठीक इसी तरह से मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन किया जिसे किसान विरोधी फैसला माना गया।  शुरू में मोदी सरकार ने इस फैसले पर टस से मस नहीं होने का संकेत दिया।  पर विपक्ष के दबाव तथा अपनी ही  पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के दबाव में वह अपना फैसला पलटने पर बाध्य हो ग ई। 
गौरतलब है की मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी करीब दो दर्जन योजनाए और स्कीम्स सैद्धांतिक रूप से बेहद  पुख्ता किस्म की मानी गयीं । इससे देश की अर्थव्यस्था में एक नयी शानदार शुरुआत हुई। पर भ्रष्टाचार और काले  धन जैसे देश की दिक् दिगंत समस्या पर जब एक व्यापक व्यस्था परिवर्तन मुहीम चलाने से कन्नी काट कर इस सरकार ने बिना व्यापक विचार मंथन के नोटबंदी का ऐसा फैसला लिया जो सिस्टम सुधार में सुधार लाने पर आश्रित नही होकर बचे खुचे अच्छी चीजों को ही गड्ड मड  कर दिया। नोटबबंदी के फायदे नुकसान पर तो देश में बहुत परिसंवाद हो चुका है ,पर अंतिम निष्कर्ष यही निकला की  इससे देश को जो फायदा हुआ उससे तो कई गुना ज्यादा नुकसान हो गया । इस फैसले के साथ जो कुछ पूरक उपाय मसलन डिजिटल  भुगतान को जैसे बढ़ावा देने  के लि ये गए वह बिना  नोटबंदी के भी लाया जा सकता था। फिर मामला वही बन गया  की चौबे गए छब्बे बनने , दुबे बनकर आ गए। 
इस सरकार ने आधार कार्ड से देश की करीब  पिचासी योजनाओ  को लिंक करने तथा करीब 330 तरह के भुगतान को डीबीटी के जरिये अनिवार्य करने का जो कार्य किया, वह बेहद सराहनीय है।  पर हम यह नहीं भूलें चाहिए की आधार कार्ड का  कांसेप्ट यूपीए सरकार द्वारा लाया  गया, पर मौजूदा मोदी सरकार  ने  उस पर और तेज दौड़ लगाकर करीब 50000 करोड़ के भ्रष्टा चा  र पर रोक लगाने सफल रही है । जीएसटी भी यूपीए के कार्यकाल में  परिकल्पित हुआ और अब यह  मोदी सरकार ने उसे  व्याहारिक रूप में परिवर्तित किया है । पर मौजूदा स्थिति तो यही दर्शा रही है की  सहज , सरल और पारदर्शी कर व्यस्था की जीएसटी के जरिये जो परिकल्पना की गयी, वह तो घोर गहमागहमी की शिकार हो गयी। पहले तो इस सरकार ने एक एकाधिकारी नियामक मार्फ़त ढेर सारी वस्तुओ को 28 प्रतिशत की सूची में डाल दिया।  सबसे पहले तो 28 प्रतिशत का  कर ब्रैकेट लाना ही नहीं चाहिए था जिसका सभी लोगोने विरोध किया। अब जब विपक्ष ने दबाव बनाया तो पचास वस्तुओ को छोड़ कर अब सभी को 18 प्रतिशत के नीचे स्लैब में डाला गया । 
मोदी सरकार ने यह नारा दिया था की वह एक सरल सरकार होगी। पर इस सरकार ने एलपीजी की कीमतों को लेकर यूपीए द्वारा शुरू की गई दोहरी मूल्य नीति को ना केवल जारी  रखा बल्कि उस पर और ज्यादा  तेज दौड़ लगा दिया। मोदी ने अपने प्रभाव के जरिये करीब एक करोड़ लोगो से सब्सिडी लेकर ग्रामीण महिलाओ के लिए  ज्योत्सना  योजना लेकर वाहवाही तो लूट ली। पर यह कोई बुनि यादी सुधार  तो साबित नहीं हुआ। अभी देश के सभी शहरों में रहने वाले करीब 10 करोड़ मजदूर और किराये में रहने वाले लोग एलपीजी की इसी दोहरी मूल्य नीति की वजह से ब्लैक में 100 रुपये किलो गैस खरीद कर अपना भोजन बना पाते है। अगर बिना सब्सिडी दिए आप छोटू सिलिन्डर को खुले बाजार में उपलब्ध कराये तो सरकार को ना तो तो सब्सिडी वहन  करनी पड़ेगी और ना ही यह  ब्लैक में बिकेगी । 
अंत में अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतो  में आयी कमी को मौजूदा सरकार ने  जनता को पास ऑन करने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर  कर अपने ख़ज़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की  अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में  संतुलन स्थापित किया।  तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों , शराब , रियल एस्टेट जैसे कमाऊ मदों को जीएसटी में नहीं डाला गया जिससे जनता को ज्यादा राहतों की उम्मीद थी । फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए  विन विन स्टेप क्यों  माने।  चिंता की बात ये है जिस जीएसटी से हम देश में कर क्रांति के आगमन की कल्पना कर रहे थे वह  असल में अब तो देश में व्यावसायिक अराजकता का परिदृश्य झलका रही है। चिंता इस बात की ज्यादा है की सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व की चपत इससे ना पड़ जाये। क्योंकि देश में बिक्रीजनित सभी  उत्पाद सबसे पहले तो लेबल लगे  नहीं होते है, सब पर नए स्टॉक  मूल्य प्रिंट नहीं हुए है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी  रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। 
ऐसे  में मोदी सरकार को हम कैसे भिन्न सरकार माने, क्योकि इसने व्यस्था की विरुपताओं के असली बिन्दुओ पर हमला किया हीं  नहीं , अगर थोड़ा बहुत किया भी तो वह सेलेक्टिव तरीके से और अपने पोलिटिकल पैकेजिंग के साथ। 

पुनश्च --मुझे लगता है भ्रष्टाचार और काला धन पर कोई  प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के बाद मोदी सरकार ने नोटेबंदी के जरिये महज एक हलचल मचाने के लिए और अपनी  पीठ खुद  थपथपाने जैसे बचकाने सरीखी हरकत की।  इस फैसले से यह बात भी साबित हुई की कोई सरकार  अपने दुलारी नौकरशाही को तंग नहीं करना चाहती और इसी वजह से मोदी सरकार  ने 100 करोड़ लोगो को पचास दिनों के लिए मौद्रिक आपातकाल में ला दिया  कई दूरगामी नकारात्मक असर पैदा कर दिए । ठीक वैसे ही जैसे कुछ दर्ज़न आतंकवादी को पकड़ने के लिए बिना इंटेलिजेंस और टारगेट शूटर के दिल्ली के समूचे एक करोड़ लोगो को घर खाली करने को कह दिया जाये।