Thursday, October 8, 2015

कांग्रेस आज़ादी लड़ने वाली पार्टी थी उसे आज़ाद भारत की हुकूमत चलाने का ज़िम्मा दिया जाना बहुदलीय लोकतंत्र की भावना के प्रतिकूल था। औचित्य तो यह बनता था की बहुदलीय लोकतंत्र के लिए एक नया समतल मैदान बनाना चाहिए था। यह प्रक्रिया १० सालो के लिए राष्ट्रीय सरकार गठित कर पूरी की जा सकती थी परन्तु मुस्लिम लीग के साथ मिलकर कांग्रेस ने देश का विभाजन कर सत्ता अलोकतांत्रिक तरीके से प्राप्त कर ली। गांधी का कांग्रेस को आज़ादी के बाद भंग करने की सलाह बेहद महत्वपूर्ण सलाह थी। अगर सलाह मानी गयी होती तो देश का विभाजन , फिर कांग्रेस का एकाधिकार और उसके तदन्तर नेहरू गांधी परिवार का एकाधिकार नहीं होता जो कि राजनीतिशास्त्र की भावना के अनुरूप लोकतंत्र का यह असली अक्स नहीं था। 
अब आईये विपक्ष पर। जिस तरह से 63 साल पुरानी और व्यापक काडर वाली कांग्रेस पार्टी को सत्ता का हस्तांतरण हो गया उन्हें टक्कर देने के लिए जाहिर है विपक्षी दलों को अपनी स्थापना , विस्तार और प्रतियोगी बनाने में नाको चने चबाने थी। समाजवादी लोगों की जमात बेशक उस समय विचार और संगठन दोनों दृष्टि से नंबर एक विपक्षी थे। 1990 तक विपक्ष के रूप में समाजवादीओ के तमाम धड़ो को ही हर बार राजनितिक अवसर मिले। इस दौरान हमें क्या देखने को मिला की इनके महान विचार संगठन की दृष्टि से मज़बूत नहीं हो पाये। नेतृत्व में ईगो बराबर हावी रहा। तीसरा समाजवाद के तमाम उसूल हिपोक्रेसी की भेट चढ़ गए। यह मैं नहीं भारत का राजनितिक इतिहास बोल रहा है। 

समाज़वाद का आकर्षक शब्द केवल नारों और भासणो तक यानि ज़मीं पर थोड़ी विकास द र और उसे गाव और गरीबो में वितरण का काम नौकरशाही की भेट चढ़ गयी। पहले गावो में सरकार की उपस्थिति पुलिस के ज़ुल्म के रूप में दिखती थी बल्कि अब तो आपके पूंजीवाद के इस दौर में भी गावो में हर व्यक्ति कम से कम किसी न किसी योजना में संलग्न हो गया। यह इसीलिए नही हुआ की 2000 के बाद कुछ दिनों के लिए बाजपेई और १० सालो के लिए मनमोहन कोई नवसमाजवाद लेकर आ गये। हुआ यह की नयी आर्थिक नीतियों से सरकार के राजस्व में भरी बढ़ोतरी हुई और गावो में हस्तांतरित होने वाला पैसा पिछले दो दशक में 9 हज़ार करोंण से बढ़कर 120 हज़ार करोण हो गया। इससे सिस्टम में भ्रष्टाचार के बावजूद लोगों का मौद्रिक एम्पावरमेंट बढ़ गया तो इसे पूर्व समाजवाद की विफलता नहीं कहेंगे?
अब आप भाजपा के एक दल के रूप में उदय पर आइये। अपने फ़रमाया की वह अछूत थी और उसे कोई भाव नहीं देता था। कोई भी संस्था या व्यक्ति यदि आज शिखर पर है तो इसका यह मतलब नहीं की वह कभी शून्य पर नहीं रहा होगा। भाजपा के विचारो से मैं सहमत नहीं परन्तु एक वैकल्पिक राजनितिक संगठन के रूप में उसकी सक्सेस स्टोरी महत्वपूर्ण तो है ही। आखिर समाजवादी क्यों मत्तिमेट हो गये। क्यों जनता परिवार फिर भंग हो गया। ऐसा एक बार नहीं कई बार हो चूका है और इसिलए कांग्रेस को एकाधिकारी पार्टी के रूप में बारबार रहने का मौका मिला। 
आज देश में लोकतनत्र को असल में मज़बूत बनाने,सामाजिक न्याय को व्यापक करने और धर्मनिरपेक्षता को मज़बूत बनाने के लिए कुछ बुनियादी सुधारों की जरूरत है जिसके लिए कोई पार्टी तैयार नहीं है

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