Wednesday, November 15, 2017

व्यस्था की  विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम 
मनोहर मनोज 

हम किसी विशेष राजनीतिक खेमे के प्रति कैसे कैसे अपने आग्रहों , दुराग्रहों और  पूर्वाग्रहों की वजह से उनके मोहपाश में बढे रहते है , उसकी एक नहीं कई मिशाले पेश की जा सकती है।  हमें जब असलियत का पता चलेगा तो हम पाते हैं  की हम किसी दल और किसी सरकार र्विशेष के प्रति आसक्त और अनासक्त है , पर मूल समस्याएं तो व्यवस्था जनित है , जिसके प्रति व्यवस्था  के संचालकों और नियामकों का  ध्यान आकर्षित कितना होता है,  वही बात मौलिक है। 
मोदी सरकार की उन योजनाओ का हम हवाला दे जो वास्तव में गेम चेंजर प्रकृति की थीं , पर उन योजनाओ में भी  व्यस्था की विडंबना किस तरह से अन्तर्निहित थी और सत्ता में बैठे उन लोगो की नजर में भी वे ओझल हों गई जिन्होंने अपने आप पर रूटीन सरकार का टैग मानने से इनकार किया था । सबसे पहले हम उजाला योजना को लें जिसके तहत करोडो एलईडी बल्ब रियायती दर पर देश भर में वितरित किये गए। इस योजना  में 300 रुपये के एलईडी बल्ब 80 -90 रुपये में बेचे गए। इस योजना का मकसद इन बल्बों के प्रयोग के जरिये देश में बिजली के खपत में भा री बचत  कर  ऊर्जा संरक्षण मुहिम को बढ़ाने का था। इस योजना के तहत सरकारी दफ्तरों तथा विभिन्न  बिजली कार्यालयों  में बेचे जाने वाले बल्ब के बिल भी दिये  जाते थे  जिसमे बल्ब फ्यूज होने पर ३ साल की गारंटी भी दी गयी। हकीकत ये है इसमें ज्यादातर बल्ब ख़राब हो जाते है पर इनके वापसी के आउटलेट कही नहीं मिलते। इस बात की  पुष्टि अब जाकर इन रिपोर्टो से  हुई की इस योजना के तहत वितरित  80 प्रतिशत बल्ब की क्वालिटी ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड के मा नको को पूरा नहीं करती। इस योजना का अलबत्ता फायदा लोगो को यह मिला की इन बल्बों  की बाजार  कीमत करीब १०० रुपये के आस पास आ गयी है और अब  बल्ब ख़राब होने पर उस पर कम से कम गारंटी औरउसकी वापसी सुनिश्चित है। सवाल है की  सरकार ने इन बल्ब सप्लायरो के बल्ब की क्वालिटी के प्रति  नरमी क्यों दिखाई और बिजली संरक्षण की यह एक बेहतर योजन व्यव स्था की विरूपता की कैसे शिकार हो गयी। 
हमलोगो को इस बात की बड़ी गलफहमी रहती है की सरकार जनकल्याण को तवज्जो देती है और निजी क्षेत्र जनविरोधी कार्य करते है।  दरअसल ये दोनों संगठन परस्पर प्रतियोगिता और नियमन के अ भाव में जनता का गला काटने को तैयार रहते है। एक अपनी भ्रष्टाचार ,लापरवाही और कामचोरी का पोषण जनता का गला दबाकर करना चाहता है तो दूसरा मुनाफा कमाने के लालच में जनता को हर समय रौदने को तैयार रहता है। ठीक इसी तरह हम यह भी जान लें की कोई दल विशेष की सरकार ईमानदारी और जनता के हितों की कोई चैंपियन नहीं होती है। कोई भी सरकार यदि मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का सामना नहीं करती तो वह भी निरंकुश होकर जनविरोधी, मनमानी और अतार्किक फैसले लेती है। पहला उदहारण तो हम दिल्ली मेट्रो के किराये में बेतरतीब बढ़ोतरी तथा भारत सरकार नियंत्रित एम्स द्वारा अपने शुल्क में बढ़ोत्तरी का ले। दिल्ली मेट्रो ने महज तीन महीने के दौरान अपने किराये में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है । जिस मेट्रो रेल का  एक आदर्श बुनियादी उपक्रम के रूप  हवाला दिया जाता था। जो उपक्रम पिछले आठ साल के दौरान बिना किराया बढ़ाये सरप्लस कमा रही थी। जो विदेश से लिए गए लोन को समय पर चुकता कर रही थी।  जो अपनी अधिकतर परियोजनाओं को समय पर या समय से पहले पूरा कर रही थी।  जिस उपक्रम को प्रौद्योगिकी से सुसज्जित भ्रष्टाचार मुक्त उपक्रम माना जाता था। वह उपक्रम अचानक दोगुना  किराया क्यों बढ़ा लेता है। केंद्र , दिल्ली प्रदेश सरकार के साझे में चलने वाले इस उपक्रम को अब अचानक अपनी लागतो में बढ़ोत्तरी का रोना क्यों रोना पड़ता है। हमारा मानना है की कोई भी उपक्रम चाहे वह घोषित रूप से जनकल्याणकारी क्यों न हो उसे सरकार की सब्सिडी पर आश्रित और पोषित नहीं होना चाहिए , उसे अपनी कार्यक्षमता और अपने उपलब्ध  संसाधनों के अधिकतम उपयोग के जरिये उसे अपने उपक्रम को चलाना  चाहिए। रेल हो , मेट्रो हो या सड़क परिवहन , इन्हे किराया बढा ने की छूट जरूर मिलनी चाहिए , पर ठीक उतनी ही जितना मुद्रा स्फीति की सालाना दर , यानि  यह  3 -4 फीसदी के बी च  ही होना होना चाहिए। पर दिल्ली मेट्रो ने तो अ पने अधिकतम किराये  को  32 रुपये से बढाकर 60 रुपये करने का एक बेहद कठोर कदम उठाया और हैरत  की बात ये है की जनता के कथित चौकीदार के चेहरे पर इससे थोड़ा उफ़ तक नहीं आया। इस मामले में दिल्ली सरकार का रवैया उचित था जिसने दिल्ली मेट्रो के आमदनी की फाइलों के जाँच की मांग की । 
ठीक इसी तरह दिल्ली एम्स की तर्ज़ पर  देश में 6 नए एम्स स्थापित किये जाने  को  एनडीए ने अपना यूएसपी बताती थी, उसमे से ऋषिकेश स्थित एम्स ने तो अपने विभिन्न  चिकित्सा शुल्क में निजी अस्पतालों की तर्ज़ पर कई गुनी बढ़ोत्तरी कर दी। जब अखबारों कदम की तीव्र आलोचना हुई तो उसने दर बढ़ोत्तरी वापस लेने का फैसला लिया। एम्स से जुड़ा दूसरा सवाल है आखिर देश के अन्य एम्स दिल्ली एम्स के बराबरी आने पर विफल क्यों हो रहे है की पटना स्थित मरीज को पटना एम्स छोड़कर दिल्ली एम्स में आना पड़ता है। तिस पर ऋषिकेश एम्स जैसा फैसला यही बताता है की सरकारें और सरकारी संस्थान परस्पर नकेल और स्व नैतिकता तथा जन संवेदनशीलता  के अभाव में  कैसे जनविरोधी हो जाते है।  क्या केंद्र सरकार  इस मामले में अचानक निजी क्षेत्र सरीखी मुनाफाखोर हो गयी और उसे अपने कदम के विरोध में के विरोध में प्रयाप्त राजनीतिक दबाव नहीं झेलना पड़ा। इस मामले पर दो दृष्टांतों का हवाला देना मुफीद होगा। पहला 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए सरकार ने गैस मूल्यों में दोगुनी बढ़ोत्तरी का फैसला लिया। यह चुनाव का राजनितिक मुद्दा बना। उम्मीदी ये थी की नयी मोदी सरकार भी कॉर्पोरेट हितैषी होने के नाते इस  मूल्य बढ़ोत्तरी के निर्णय  को जारी रखेगी। पर मोदी सरकार ने जनदबाव और लोकलज्जा में इन गैस मूल्यों को बढाने का फैसला नहीं लिया। ठीक इसी तरह से मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन किया जिसे किसान विरोधी फैसला माना गया।  शुरू में मोदी सरकार ने इस फैसले पर टस से मस नहीं होने का संकेत दिया।  पर विपक्ष के दबाव तथा अपनी ही  पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के दबाव में वह अपना फैसला पलटने पर बाध्य हो ग ई। 
गौरतलब है की मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी करीब दो दर्जन योजनाए और स्कीम्स सैद्धांतिक रूप से बेहद  पुख्ता किस्म की मानी गयीं । इससे देश की अर्थव्यस्था में एक नयी शानदार शुरुआत हुई। पर भ्रष्टाचार और काले  धन जैसे देश की दिक् दिगंत समस्या पर जब एक व्यापक व्यस्था परिवर्तन मुहीम चलाने से कन्नी काट कर इस सरकार ने बिना व्यापक विचार मंथन के नोटबंदी का ऐसा फैसला लिया जो सिस्टम सुधार में सुधार लाने पर आश्रित नही होकर बचे खुचे अच्छी चीजों को ही गड्ड मड  कर दिया। नोटबबंदी के फायदे नुकसान पर तो देश में बहुत परिसंवाद हो चुका है ,पर अंतिम निष्कर्ष यही निकला की  इससे देश को जो फायदा हुआ उससे तो कई गुना ज्यादा नुकसान हो गया । इस फैसले के साथ जो कुछ पूरक उपाय मसलन डिजिटल  भुगतान को जैसे बढ़ावा देने  के लि ये गए वह बिना  नोटबंदी के भी लाया जा सकता था। फिर मामला वही बन गया  की चौबे गए छब्बे बनने , दुबे बनकर आ गए। 
इस सरकार ने आधार कार्ड से देश की करीब  पिचासी योजनाओ  को लिंक करने तथा करीब 330 तरह के भुगतान को डीबीटी के जरिये अनिवार्य करने का जो कार्य किया, वह बेहद सराहनीय है।  पर हम यह नहीं भूलें चाहिए की आधार कार्ड का  कांसेप्ट यूपीए सरकार द्वारा लाया  गया, पर मौजूदा मोदी सरकार  ने  उस पर और तेज दौड़ लगाकर करीब 50000 करोड़ के भ्रष्टा चा  र पर रोक लगाने सफल रही है । जीएसटी भी यूपीए के कार्यकाल में  परिकल्पित हुआ और अब यह  मोदी सरकार ने उसे  व्याहारिक रूप में परिवर्तित किया है । पर मौजूदा स्थिति तो यही दर्शा रही है की  सहज , सरल और पारदर्शी कर व्यस्था की जीएसटी के जरिये जो परिकल्पना की गयी, वह तो घोर गहमागहमी की शिकार हो गयी। पहले तो इस सरकार ने एक एकाधिकारी नियामक मार्फ़त ढेर सारी वस्तुओ को 28 प्रतिशत की सूची में डाल दिया।  सबसे पहले तो 28 प्रतिशत का  कर ब्रैकेट लाना ही नहीं चाहिए था जिसका सभी लोगोने विरोध किया। अब जब विपक्ष ने दबाव बनाया तो पचास वस्तुओ को छोड़ कर अब सभी को 18 प्रतिशत के नीचे स्लैब में डाला गया । 
मोदी सरकार ने यह नारा दिया था की वह एक सरल सरकार होगी। पर इस सरकार ने एलपीजी की कीमतों को लेकर यूपीए द्वारा शुरू की गई दोहरी मूल्य नीति को ना केवल जारी  रखा बल्कि उस पर और ज्यादा  तेज दौड़ लगा दिया। मोदी ने अपने प्रभाव के जरिये करीब एक करोड़ लोगो से सब्सिडी लेकर ग्रामीण महिलाओ के लिए  ज्योत्सना  योजना लेकर वाहवाही तो लूट ली। पर यह कोई बुनि यादी सुधार  तो साबित नहीं हुआ। अभी देश के सभी शहरों में रहने वाले करीब 10 करोड़ मजदूर और किराये में रहने वाले लोग एलपीजी की इसी दोहरी मूल्य नीति की वजह से ब्लैक में 100 रुपये किलो गैस खरीद कर अपना भोजन बना पाते है। अगर बिना सब्सिडी दिए आप छोटू सिलिन्डर को खुले बाजार में उपलब्ध कराये तो सरकार को ना तो तो सब्सिडी वहन  करनी पड़ेगी और ना ही यह  ब्लैक में बिकेगी । 
अंत में अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतो  में आयी कमी को मौजूदा सरकार ने  जनता को पास ऑन करने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर  कर अपने ख़ज़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की  अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में  संतुलन स्थापित किया।  तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों , शराब , रियल एस्टेट जैसे कमाऊ मदों को जीएसटी में नहीं डाला गया जिससे जनता को ज्यादा राहतों की उम्मीद थी । फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए  विन विन स्टेप क्यों  माने।  चिंता की बात ये है जिस जीएसटी से हम देश में कर क्रांति के आगमन की कल्पना कर रहे थे वह  असल में अब तो देश में व्यावसायिक अराजकता का परिदृश्य झलका रही है। चिंता इस बात की ज्यादा है की सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व की चपत इससे ना पड़ जाये। क्योंकि देश में बिक्रीजनित सभी  उत्पाद सबसे पहले तो लेबल लगे  नहीं होते है, सब पर नए स्टॉक  मूल्य प्रिंट नहीं हुए है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी  रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। 
ऐसे  में मोदी सरकार को हम कैसे भिन्न सरकार माने, क्योकि इसने व्यस्था की विरुपताओं के असली बिन्दुओ पर हमला किया हीं  नहीं , अगर थोड़ा बहुत किया भी तो वह सेलेक्टिव तरीके से और अपने पोलिटिकल पैकेजिंग के साथ। 

पुनश्च --मुझे लगता है भ्रष्टाचार और काला धन पर कोई  प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के बाद मोदी सरकार ने नोटेबंदी के जरिये महज एक हलचल मचाने के लिए और अपनी  पीठ खुद  थपथपाने जैसे बचकाने सरीखी हरकत की।  इस फैसले से यह बात भी साबित हुई की कोई सरकार  अपने दुलारी नौकरशाही को तंग नहीं करना चाहती और इसी वजह से मोदी सरकार  ने 100 करोड़ लोगो को पचास दिनों के लिए मौद्रिक आपातकाल में ला दिया  कई दूरगामी नकारात्मक असर पैदा कर दिए । ठीक वैसे ही जैसे कुछ दर्ज़न आतंकवादी को पकड़ने के लिए बिना इंटेलिजेंस और टारगेट शूटर के दिल्ली के समूचे एक करोड़ लोगो को घर खाली करने को कह दिया जाये। 

Monday, November 13, 2017

व्यस्था की  विरूपता, विद्रूपता , विपर्यय और व्यतिक्रम 
मनोहर मनोज 

हम किसी विशेष राजनीतिक खेमे के प्रति कैसे कैसे अपने आग्रहों , दुराग्रहों और  पूर्वाग्रहों की वजह से उनके मोहपाश में बढे रहते है , उसकी एक नहीं कई मिशाले पेश की जा सकती है।  हमें जब असलियत का पता चलेगा तो हम पाते हैं  की हम किसी दल और किसी सरकार र्विशेष के प्रति आसक्त और अनासक्त है , पर मूल समस्याएं तो व्यवस्था जनित है , जिसके प्रति व्यवस्था  के संचालकों और नियामकों का  ध्यान आकर्षित कितना होता है,  वही बात मौलिक है। 
मोदी सरकार की उन योजनाओ का हम हवाला दे जो वास्तव में गेम चेंजर प्रकृति की थीं , पर उन योजनाओ में भी  व्यस्था की विडंबना किस तरह से अन्तर्निहित थी और सत्ता में बैठे उन लोगो की नजर में भी वे ओझल हों गई जिन्होंने अपने आप पर रूटीन सरकार का टैग मानने से इनकार किया था । सबसे पहले हम उजाला योजना को लें जिसके तहत करोडो एलईडी बल्ब रियायती दर पर देश भर में वितरित किये गए। इस योजना  में 300 रुपये के एलईडी बल्ब 80 -90 रुपये में बेचे गए। इस योजना का मकसद इन बल्बों के प्रयोग के जरिये देश में बिजली के खपत में भा री बचत  कर  ऊर्जा संरक्षण मुहिम को बढ़ाने का था। इस योजना के तहत सरकारी दफ्तरों तथा विभिन्न  बिजली कार्यालयों  में बेचे जाने वाले बल्ब के बिल भी दिये  जाते थे  जिसमे बल्ब फ्यूज होने पर ३ साल की गारंटी भी दी गयी। हकीकत ये है इसमें ज्यादातर बल्ब ख़राब हो जाते है पर इनके वापसी के आउटलेट कही नहीं मिलते। इस बात की  पुष्टि अब जाकर इन रिपोर्टो से  हुई की इस योजना के तहत वितरित  80 प्रतिशत बल्ब की क्वालिटी ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैण्डर्ड के मा नको को पूरा नहीं करती। इस योजना का अलबत्ता फायदा लोगो को यह मिला की इन बल्बों  की बाजार  कीमत करीब १०० रुपये के आस पास आ गयी है और अब  बल्ब ख़राब होने पर उस पर कम से कम गारंटी औरउसकी वापसी सुनिश्चित है। सवाल है की  सरकार ने इन बल्ब सप्लायरो के बल्ब की क्वालिटी के प्रति  नरमी क्यों दिखाई और बिजली संरक्षण की यह एक बेहतर योजन व्यव स्था की विरूपता की कैसे शिकार हो गयी। 
हमलोगो को इस बात की बड़ी गलफहमी रहती है की सरकार जनकल्याण को तवज्जो देती है और निजी क्षेत्र जनविरोधी कार्य करते है।  दरअसल ये दोनों संगठन परस्पर प्रतियोगिता और नियमन के अ भाव में जनता का गला काटने को तैयार रहते है। एक अपनी भ्रष्टाचार ,लापरवाही और कामचोरी का पोषण जनता का गला दबाकर करना चाहता है तो दूसरा मुनाफा कमाने के लालच में जनता को हर समय रौदने को तैयार रहता है। ठीक इसी तरह हम यह भी जान लें की कोई दल विशेष की सरकार ईमानदारी और जनता के हितों की कोई चैंपियन नहीं होती है। कोई भी सरकार यदि मजबूत विपक्ष और निष्पक्ष मीडिया का सामना नहीं करती तो वह भी निरंकुश होकर जनविरोधी, मनमानी और अतार्किक फैसले लेती है। पहला उदहारण तो हम दिल्ली मेट्रो के किराये में बेतरतीब बढ़ोतरी तथा भारत सरकार नियंत्रित एम्स द्वारा अपने शुल्क में बढ़ोत्तरी का ले। दिल्ली मेट्रो ने महज तीन महीने के दौरान अपने किराये में दोगुनी बढ़ोतरी कर चुकी है । जिस मेट्रो रेल का  एक आदर्श बुनियादी उपक्रम के रूप  हवाला दिया जाता था। जो उपक्रम पिछले आठ साल के दौरान बिना किराया बढ़ाये सरप्लस कमा रही थी। जो विदेश से लिए गए लोन को समय पर चुकता कर रही थी।  जो अपनी अधिकतर परियोजनाओं को समय पर या समय से पहले पूरा कर रही थी।  जिस उपक्रम को प्रौद्योगिकी से सुसज्जित भ्रष्टाचार मुक्त उपक्रम माना जाता था। वह उपक्रम अचानक दोगुना  किराया क्यों बढ़ा लेता है। केंद्र , दिल्ली प्रदेश सरकार के साझे में चलने वाले इस उपक्रम को अब अचानक अपनी लागतो में बढ़ोत्तरी का रोना क्यों रोना पड़ता है। हमारा मानना है की कोई भी उपक्रम चाहे वह घोषित रूप से जनकल्याणकारी क्यों न हो उसे सरकार की सब्सिडी पर आश्रित और पोषित नहीं होना चाहिए , उसे अपनी कार्यक्षमता और अपने उपलब्ध  संसाधनों के अधिकतम उपयोग के जरिये उसे अपने उपक्रम को चलाना  चाहिए। रेल हो , मेट्रो हो या सड़क परिवहन , इन्हे किराया बढा ने की छूट जरूर मिलनी चाहिए , पर ठीक उतनी ही जितना मुद्रा स्फीति की सालाना दर , यानि  यह  3 -4 फीसदी के बी च  ही होना होना चाहिए। पर दिल्ली मेट्रो ने तो अ पने अधिकतम किराये  को  32 रुपये से बढाकर 60 रुपये करने का एक बेहद कठोर कदम उठाया और हैरत  की बात ये है की जनता के कथित चौकीदार के चेहरे पर इससे थोड़ा उफ़ तक नहीं आया। इस मामले में दिल्ली सरकार का रवैया उचित था जिसने दिल्ली मेट्रो के आमदनी की फाइलों के जाँच की मांग की । 
ठीक इसी तरह दिल्ली एम्स की तर्ज़ पर  देश में 6 नए एम्स स्थापित किये जाने  को  एनडीए ने अपना यूएसपी बताती थी, उसमे से ऋषिकेश स्थित एम्स ने तो अपने विभिन्न  चिकित्सा शुल्क में निजी अस्पतालों की तर्ज़ पर कई गुनी बढ़ोत्तरी कर दी। जब अखबारों कदम की तीव्र आलोचना हुई तो उसने दर बढ़ोत्तरी वापस लेने का फैसला लिया। एम्स से जुड़ा दूसरा सवाल है आखिर देश के अन्य एम्स दिल्ली एम्स के बराबरी आने पर विफल क्यों हो रहे है की पटना स्थित मरीज को पटना एम्स छोड़कर दिल्ली एम्स में आना पड़ता है। तिस पर ऋषिकेश एम्स जैसा फैसला यही बताता है की सरकारें और सरकारी संस्थान परस्पर नकेल और स्व नैतिकता तथा जन संवेदनशीलता  के अभाव में  कैसे जनविरोधी हो जाते है।  क्या केंद्र सरकार  इस मामले में अचानक निजी क्षेत्र सरीखी मुनाफाखोर हो गयी और उसे अपने कदम के विरोध में के विरोध में प्रयाप्त राजनीतिक दबाव नहीं झेलना पड़ा। इस मामले पर दो दृष्टांतों का हवाला देना मुफीद होगा। पहला 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान यूपीए सरकार ने गैस मूल्यों में दोगुनी बढ़ोत्तरी का फैसला लिया। यह चुनाव का राजनितिक मुद्दा बना। उम्मीदी ये थी की नयी मोदी सरकार भी कॉर्पोरेट हितैषी होने के नाते इस  मूल्य बढ़ोत्तरी के निर्णय  को जारी रखेगी। पर मोदी सरकार ने जनदबाव और लोकलज्जा में इन गैस मूल्यों को बढाने का फैसला नहीं लिया। ठीक इसी तरह से मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन किया जिसे किसान विरोधी फैसला माना गया।  शुरू में मोदी सरकार ने इस फैसले पर टस से मस नहीं होने का संकेत दिया।  पर विपक्ष के दबाव तथा अपनी ही  पार्टी के किसान प्रकोष्ठ के दबाव में वह अपना फैसला पलटने पर बाध्य हो ग ई। 
गौरतलब है की मोदी सरकार द्वारा शुरू की गयी करीब दो दर्जन योजनाए और स्कीम्स सैद्धांतिक रूप से बेहद  पुख्ता किस्म की मानी गयीं । इससे देश की अर्थव्यस्था में एक नयी शानदार शुरुआत हुई। पर भ्रष्टाचार और काले  धन जैसे देश की दिक् दिगंत समस्या पर जब एक व्यापक व्यस्था परिवर्तन मुहीम चलाने से कन्नी काट कर इस सरकार ने बिना व्यापक विचार मंथन के नोटबंदी का ऐसा फैसला लिया जो सिस्टम सुधार में सुधार लाने पर आश्रित नही होकर बचे खुचे अच्छी चीजों को ही गड्ड मड  कर दिया। नोटबबंदी के फायदे नुकसान पर तो देश में बहुत परिसंवाद हो चुका है ,पर अंतिम निष्कर्ष यही निकला की  इससे देश को जो फायदा हुआ उससे तो कई गुना ज्यादा नुकसान हो गया । इस फैसले के साथ जो कुछ पूरक उपाय मसलन डिजिटल  भुगतान को जैसे बढ़ावा देने  के लि ये गए वह बिना  नोटबंदी के भी लाया जा सकता था। फिर मामला वही बन गया  की चौबे गए छब्बे बनने , दुबे बनकर आ गए। 
इस सरकार ने आधार कार्ड से देश की करीब  पिचासी योजनाओ  को लिंक करने तथा करीब 330 तरह के भुगतान को डीबीटी के जरिये अनिवार्य करने का जो कार्य किया, वह बेहद सराहनीय है।  पर हम यह नहीं भूलें चाहिए की आधार कार्ड का  कांसेप्ट यूपीए सरकार द्वारा लाया  गया, पर मौजूदा मोदी सरकार  ने  उस पर और तेज दौड़ लगाकर करीब 50000 करोड़ के भ्रष्टा चा  र पर रोक लगाने सफल रही है । जीएसटी भी यूपीए के कार्यकाल में  परिकल्पित हुआ और अब यह  मोदी सरकार ने उसे  व्याहारिक रूप में परिवर्तित किया है । पर मौजूदा स्थिति तो यही दर्शा रही है की  सहज , सरल और पारदर्शी कर व्यस्था की जीएसटी के जरिये जो परिकल्पना की गयी, वह तो घोर गहमागहमी की शिकार हो गयी। पहले तो इस सरकार ने एक एकाधिकारी नियामक मार्फ़त ढेर सारी वस्तुओ को 28 प्रतिशत की सूची में डाल दिया।  सबसे पहले तो 28 प्रतिशत का  कर ब्रैकेट लाना ही नहीं चाहिए था जिसका सभी लोगोने विरोध किया। अब जब विपक्ष ने दबाव बनाया तो पचास वस्तुओ को छोड़ कर अब सभी को 18 प्रतिशत के नीचे स्लैब में डाला गया । 
मोदी सरकार ने यह नारा दिया था की वह एक सरल सरकार होगी। पर इस सरकार ने एलपीजी की कीमतों को लेकर यूपीए द्वारा शुरू की गई दोहरी मूल्य नीति को ना केवल जारी  रखा बल्कि उस पर और ज्यादा  तेज दौड़ लगा दिया। मोदी ने अपने प्रभाव के जरिये करीब एक करोड़ लोगो से सब्सिडी लेकर ग्रामीण महिलाओ के लिए  ज्योत्सना  योजना लेकर वाहवाही तो लूट ली। पर यह कोई बुनि यादी सुधार  तो साबित नहीं हुआ। अभी देश के सभी शहरों में रहने वाले करीब 10 करोड़ मजदूर और किराये में रहने वाले लोग एलपीजी की इसी दोहरी मूल्य नीति की वजह से ब्लैक में 100 रुपये किलो गैस खरीद कर अपना भोजन बना पाते है। अगर बिना सब्सिडी दिए आप छोटू सिलिन्डर को खुले बाजार में उपलब्ध कराये तो सरकार को ना तो तो सब्सिडी वहन  करनी पड़ेगी और ना ही यह  ब्लैक में बिकेगी । 
अंत में अंतराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतो  में आयी कमी को मौजूदा सरकार ने  जनता को पास ऑन करने नहीं दिया और इसकी एवज में इस पर कस्टम और एक्साइज टैक्स बढाकर  कर अपने ख़ज़ाने को भरा और अपने सरकारी तंत्र की  अक्षमताओं से उपजने वाले वित्तीय घाटे में  संतुलन स्थापित किया।  तिस पर पेट्रोलियम उत्पादों , शराब , रियल एस्टेट जैसे कमाऊ मदों को जीएसटी में नहीं डाला गया जिससे जनता को ज्यादा राहतों की उम्मीद थी । फिर जीएसटी को हम उपभोक्ताओ के लिए  विन विन स्टेप क्यों  माने।  चिंता की बात ये है जिस जीएसटी से हम देश में कर क्रांति के आगमन की कल्पना कर रहे थे वह  असल में अब तो देश में व्यावसायिक अराजकता का परिदृश्य झलका रही है। चिंता इस बात की ज्यादा है की सरकार को प्राप्त होने वाले राजस्व की चपत इससे ना पड़ जाये। क्योंकि देश में बिक्रीजनित सभी  उत्पाद सबसे पहले तो लेबल लगे  नहीं होते है, सब पर नए स्टॉक  मूल्य प्रिंट नहीं हुए है। सब जगह कंप्यूटर और इंटरनेट नहीं है। हर मास और अब हर तिमाही जीएसटी  रिटर्न दाखिल करने का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध नहीं है। 
ऐसे  में मोदी सरकार को हम कैसे भिन्न सरकार माने, क्योकि इसने व्यस्था की विरुपताओं के असली बिन्दुओ पर हमला किया हीं  नहीं , अगर थोड़ा बहुत किया भी तो वह सेलेक्टिव तरीके से और अपने पोलिटिकल पैकेजिंग के साथ। 

पुनश्च --मुझे लगता है भ्रष्टाचार और काला धन पर कोई  प्रभावी रोक नहीं लगा पाने के बाद मोदी सरकार ने नोटेबंदी के जरिये महज एक हलचल मचाने के लिए और अपनी  पीठ खुद  थपथपाने जैसे बचकाने सरीखी हरकत की।  इस फैसले से यह बात भी साबित हुई की कोई सरकार  अपने दुलारी नौकरशाही को तंग नहीं करना चाहती और इसी वजह से मोदी सरकार  ने 100 करोड़ लोगो को पचास दिनों के लिए मौद्रिक आपातकाल में ला दिया  कई दूरगामी नकारात्मक असर पैदा कर दिए । ठीक वैसे ही जैसे कुछ दर्ज़न आतंकवादी को पकड़ने के लिए बिना इंटेलिजेंस और टारगेट शूटर के दिल्ली के समूचे एक करोड़ लोगो को घर खाली करने को कह दिया जाये।