जन से ज्यादा जनसेवक सरकारों की प्राथमिकता में क्यों
मनोहर मनोजयह कितनी बड़ी विडंबना है कि एक तरफ सरकारों ने कोरोना काल में उपजे राजस्व संकट का हवाला देकर पेट्रोलियम उत्पादों में भारी करारोपण के जरिये जनता पर तगड़ा बोझ डाला तो दूसरी तरफ केन्द्र सरकार तथा यूपी सहित कई राज्य सरकारों ने राजस्व संकटों के बावजूद अपने कर्मचारियों के महंगाई भत्ते व त्यौहारी बोनस पर हजारो करोड़ रकम खर्च की। पिछले डेढ वर्ष की कोरोना की चौतरफा मार से हम सबने देखा समाज का अधिकतर तबका अपने रोजगार, आमदनी और आजीविका के लिए बिलबिला रहा था वही इन सबके बीच समाज का एक तबका ऐसा था जिसे इस अभूतपूर्व व अप्रत्याशित आर्थिक संकट में भी फिक्र करने की दरकार नहीं थी। क्योंकि इस वर्ग की मोटी सैलरी बदस्तुर इनके बैंक खातों में जमा हो रही थी। सरकार द्वारा केवल इनका महंगाई भत्ता थोड़े दिन के लिए स्थगित कर दिया गया तो उनमे हाहाकर मच गया था। कोरोना की वजह से राजस्व की भयानक तंगी के बावजूद आखिरकार सरकारों को वर्ष 2020 में ही इस महंगाई भत्ते को भी देरसबेर देने के लिए विवश होना पड़ा था । यह वर्ग कौन है , यह वर्ग है हमारी श्रम शक्ति का करीब पंद्रह फीसदी हिस्सा जो संगठित क्षेत्र कहलाता है, जो सफेद कालर कर्मचारी वर्ग कहलाता है। इनमे सरकारी कर्मचारियों का करीब शत प्रतिशत हिस्सा व कुछ बड़े कारपोरेट समूहों के कर्मचारी शामिल हैं। कोरोना की मार में वे कारपोरेट समूह जिनके व्यवसाय चपेत में आ गए थे, उन्होंने तो अपने कर्मचारियों को बाय बाय करने या उनकी सेलरी में भी भारी कटौती करने में देर नहीं लगाई।
श्रम और ट्रेड यूनियन के मानक कानूनों का हवाला देकर हम कह सकते हैं कि कर्मचारियों के लिए पर्याप्त वेतन व महंगाई के मुताबिक उनमे निरंतर बढोत्तरी, रोजगार की सुरक्षा, छुट्टियां व तमाम सुविधाएं हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। परंतु सवाल ये है कि ये स्थितियां केवल चंद लोगों के लिए क्यों, सभी के लिए क्यों नहीं? लोकतंत्र के निजाम में भी लोक के बजाए लोकसेवक यदि उच्च प्राथमिकता में रखा जाए, जिसकी आमदनी व कार्यपरिस्थितियां किसी भी संकट में टस से मस ना हो और देश के बाकी लोगों के संकटों में भी इसे साझेदार ना बनाया जाए तो आखिर इस लोकतंत्र को कुलीन तंत्र क्यों ना माना जाए? वह कुलीन वर्ग जिसकी हर संकट में सरकारें सुध रखती हों और पिचासी फीसदी कामगारों को हर मामले में चाहे वेतन की पर्याप्तता हो, नौकरी की सुरक्षा हो या अन्य कार्यपरिस्थितियों को मुहैय्या करना हो, उन्हें उपेक्षित रखती हों तो आखिर किसी भी सरकार या शासन व्यवस्था की यह किस प्रणाली की ओर इशारा करता है? यानी सरकारों के कर्मचारी तो दुलारू पूत बनकर रहेंगे और बाकी लोग सौतेले पूत। शासन की नैतिकता तो यह कहती है कि संकट के दौर में सरकार की तरफ से समाज के हर वर्ग को एक बराबर ट्रीट किया जाना चाहिए। नौकरी की सुरक्षा या तो सबके लिए हो या किसी के लिए भी नहीं हो, वेतन की सुनिश्चितता सभी कामगारों के लिए हो या सभी के वेतन उसकी उत्पादकता व प्रदर्शन से जोड़ कर रखी जाए, वेतन आयोग का गठन सभी श्रेणी के कामगारों के लिए हो, यानी देश में एक बराबर श्रम नीति, एक बराबर रोजगार नीति और इन सभी के पूर्व एक समान शिक्षा नीति हो।
कहना होगा भारत में जहां पर दुनिया में विषमता व असमानता की सबसे गहरी खाई दिखाई पड़ती है, वह खाई इस कारोना की लंबी अवधि के दौरान और भी गहरा गई। वजह साफ थी समाज के एक वर्ग के लिए आय सुरक्षा का माहौल था तो बाकियों के लिए घोर असुरक्षा। इस दौरान शेयर बाजार पर नजर डालें तो अमीर तो बेशुमार अमीर बन गए और गरीब और कंगाल बन गए। कोरोना के दौरान सरकारों के पे रौल पर चलने वाले कर्मचारियों में कुछ वर्ग तो आफिसों में जाने की जोखिमें भी ले रहा था और कुछ दफतरों में आने जाने की खानापूर्ति भी कर रहा था पर कई ऐसे थे जो पूरे डेढ साल अपने कार्यस्थल नहीं गए पर उनकी तनखवाहें उनके तन की खवाहिशें पूरी करने बेरोकटोक जारी थीं। विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में पूरी पढाई बंद थी पर लाखों प्राध्यापक लाखों रुपये की सैलरी ले रहे थे । वैसे भारत के उच्च शिक्षा परिसरों में तो पढाई का ये आलम है कि वह किसी न किसी वजह से हर समय अघोषित कोरोना काल होता है। करोड़ो स्वरोजगारी, कारोबारी व असंखय उद्योगों पर निर्भर करने वाले करोड़ो लोगों के पास संकट काल में अपने को बचाने का कोई उपाय नहीं था। ऐसे में सवाल है कि जब संकट काल आता है तो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सभी वर्गों को संकट का एक बराबर हिस्सेदार क्यों नहीं बनाया जाता और दूसरी तरफ राहतों के मामले में सबका एक बराबर क्यों नहीं ध्यान रखा जाता। ऐसा नहीं हो सकता कि एक वर्ग को हर हाल मे सरकार की तरफ से सुरक्षित बनाया रखा जाए और बाकियों को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया जाए।
नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोरोना के मद्देनजर सभी सांसदों व मंत्रियों के वेतन में पच्चीस फीसदी की कटौती की और उनकी सांसद निधि योजना स्थगित कर दी जो एक सराहनीय कदम था, परंतु यही कटौती सभी शासकीय कर्मचारियों के वेतन में भी क्यों नहीं लागू की गई? मतलब ये है कि संगठित समूह के कामगारों के वेतन में आधी भी कटौती कर दी जाए तब भी इनके चूल्हें पर संकट नहीं होता लेकिन वे लोग जो एक दिन काम नहीं करेंगे उनके शाम का चूल्हा नहीं जलता। हमारे यहाँ दो लाख माहवारी पेंशन पाने वाले है और दो सौ वाले भी, पर दो सौ वालो को पेंशन अनियमित है और दो लाख वालों का नियमित।
कहना होगा अपने कर्मचारियों के हितों को पहली प्राथमिकता में रखे जाने की यह शासकीय संस्कृति कोई मौजूदा नरेन्द्र मोदी की सरकार में नहीं उपजी है, बल्कि यह पहले से ही कायम है। पर विडंबना ये है कि नये तरीके से सोचने व काम करने वाली सरकारें भी इस बेहद अहम पहलू पर अपना सेकेन्ड थौट नहीं दर्शा पातीं। आखिर ऐसा क्यों है? हम लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते हैं, एक दल दूसरे दल पर हमले करने और उसे नंगा करने में अपनी सारी शक्ति व समय लगा देते हैं, मीडिया भी अपने विशलेषण में सरकारों के पालीटिकल आइडियोलाजी से इतर अन्यत्र ध्यान नहीं देती। इनका ध्यान उस ढांचे पर नहीं जाता जिसका निजाम किसी भी दल की सरकार हो वह हमेशा कायम रहता है। यह वर्ग किसी भी सूरत में अपने हित को बनाये रखता है क्योंकि सरकार के भीतर प्रमुख फैसले लेने वाला वर्ग यही है। यही सरकार है। यह कहने के लिए लोकसेवक है पर है यह लोकस्वामी जिनके हितों पर किसी भी तरह की आंच नहीं पड़ती। असल बात ये है कि लोकतांत्रिक सरकारें देश के संगठित कामगार वर्ग और उसमे शामिल क रीब तीन करोड़ सरकारी कर्मचारियों को एक मजबूत दबाव समूह व एक बड़ा वोट बैंक समझकर इन्हें छेडऩे का जहमत नहीं उठातीं और लोकतंत्र के अधीन एक अलोकतांत्रिक व कुलीन तंत्र को पोषित कर रही होती हैं। ऐसे में यह सवाल बड़ा लाजिमी बन जाता है कि इन्हें अमेरिकी व्यवस्था की तरह पालीटिकल रिजीम के बदलाव के साथ ब्यूरोक्रेटिक रिजीम के बदलाव के दायरे में लाया जाए या फिर इन्हें आम लोगों के मतदान के अधिकार दायरे से वंचित रखा जाए । यदि उपरोक्त में से कोई एक स्थिति नहीं लायी जाएगी तो ऐसे में यह वर्ग पालीटिकल समूह को अपने ब्लैकमेलिंग के दायरे में रखने में हमेशा सफल होता रहेगा और जनतंत्र में जन के बजाए जनसेवकों का ही तंत्र चलता रहेगा। तीसरा विकल्प ये बचता है कि इन्हें कारपोरेट तंत्र की तरह काम नहीं तो दाम नहीं की नीति पर लाया जाये ।
कहना होगा अपने कर्मचारियों के हितों को पहली प्राथमिकता में रखे जाने की यह शासकीय संस्कृति कोई मौजूदा नरेन्द्र मोदी की सरकार में नहीं उपजी है, बल्कि यह पहले से ही कायम है। पर विडंबना ये है कि नये तरीके से सोचने व काम करने वाली सरकारें भी इस बेहद अहम पहलू पर अपना सेकेन्ड थौट नहीं दर्शा पातीं। आखिर ऐसा क्यों है? हम लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते हैं, एक दल दूसरे दल पर हमले करने और उसे नंगा करने में अपनी सारी शक्ति व समय लगा देते हैं, मीडिया भी अपने विशलेषण में सरकारों के पालीटिकल आइडियोलाजी से इतर अन्यत्र ध्यान नहीं देती। इनका ध्यान उस ढांचे पर नहीं जाता जिसका निजाम किसी भी दल की सरकार हो वह हमेशा कायम रहता है। यह वर्ग किसी भी सूरत में अपने हित को बनाये रखता है क्योंकि सरकार के भीतर प्रमुख फैसले लेने वाला वर्ग यही है। यही सरकार है। यह कहने के लिए लोकसेवक है पर है यह लोकस्वामी जिनके हितों पर किसी भी तरह की आंच नहीं पड़ती। असल बात ये है कि लोकतांत्रिक सरकारें देश के संगठित कामगार वर्ग और उसमे शामिल क रीब तीन करोड़ सरकारी कर्मचारियों को एक मजबूत दबाव समूह व एक बड़ा वोट बैंक समझकर इन्हें छेडऩे का जहमत नहीं उठातीं और लोकतंत्र के अधीन एक अलोकतांत्रिक व कुलीन तंत्र को पोषित कर रही होती हैं। ऐसे में यह सवाल बड़ा लाजिमी बन जाता है कि इन्हें अमेरिकी व्यवस्था की तरह पालीटिकल रिजीम के बदलाव के साथ ब्यूरोक्रेटिक रिजीम के बदलाव के दायरे में लाया जाए या फिर इन्हें आम लोगों के मतदान के अधिकार दायरे से वंचित रखा जाए । यदि उपरोक्त में से कोई एक स्थिति नहीं लायी जाएगी तो ऐसे में यह वर्ग पालीटिकल समूह को अपने ब्लैकमेलिंग के दायरे में रखने में हमेशा सफल होता रहेगा और जनतंत्र में जन के बजाए जनसेवकों का ही तंत्र चलता रहेगा। तीसरा विकल्प ये बचता है कि इन्हें कारपोरेट तंत्र की तरह काम नहीं तो दाम नहीं की नीति पर लाया जाये ।
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