Wednesday, July 13, 2022

एमएसपी को कानूनी दर्जा भारतीय कृषि की सबसे बड़ी जरूरत

 एमएसपी को कानूनी दर्जा भारतीय कृषि की सबसे बड़ी जरूरत

                                                            मनोहर मनोज
हर बार की तरह इस बार भी खरीफ सीजन में किसानों को अपने उत् पाद बेचने के लिए दरबदर होना पड़ रहा है। उनकी खेती के लागत के आधार पर उनके फसलों का लिवैया नहीं मिल रहा है। कई  जगह से तो किसानों द्वारा धानो से लदे ट्राली को जलाये जाने की खबरे आ रही हैं। यह सिलसिला पहले भी चलता रहा है। कभी सीजन में औने पौने दाम की वजह से सडक़ों पर टनों की मात्रा में प्याज फेके जाते रहे हैं, कभी टमाटर फेके जाते रहे हैं तो कभी दूध बहाये जाते रहे हैं। उत्पादन सीजन के दौरान कई खेती उत्पादों की हैरान कर देने वाली बेहद कम कीमतें किसानों को अपने गमोगुस्से का आखिर इसी तरीके से इजहार करने का मौका देती रही हैं। सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा हैं और दूसरा क्या इस तरह के वाक्ये को  नहीं रोक ा जा सकता है? इस मामले का बिल्कुल रामबाण इलाज हमारे सामने मौजूद है वह ये है सभी जरूरी खेती उत्पादों की न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी का कानूनी निर्धारण।
यह कितनी हैरतनाक बात है कि लोककल्याणकारी राज्य  का दावा करने वाली सरकारें, देश की बहुसंखयक  किसान 
 आबादी   की हितैषी होने का दावा करने वाली सरकारें , खेतीहर अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने का दावा करने वाली सरकारें एम्एसपी को कानूनी दर्जा देने की बात को क्यों नहीं स्वीकार करती? सरकारों को यह बात या तो समझ में नहीं आ रही, या उनके जमीनी किसान हितों की समझ ना रखने वाले महानगरीय पृष्ठभूमि के सलाहकारों की वजह से उनके दिमाग पर ताले जड़ गए है कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने से बचो। कानूनी एमएसपी तो एक ऐसा फार्मूला है जो एक साथ भारतीय कृषि व भारतीय अर्थव्यवस्था की कम से कम तीन बड़ी समस्या का एकसाथ समाधान कर सकती हैं। सबसे पहले तो यह खेती के सीजन में उत्पादों की एकाएक बड़ी आवग यानी ओवरसप्लाई की वजह से इसके बाजार कीमतें गिरने से बचाती है। इस वजह से किसानों की आमदनी की सुरक्षा जो उनके सीजनल पेशे की वजह से मारी जाती है उसे एक ऐसा ढाल मिलता है, जो उन्हें अगले सीजन में भी खेती के लिए प्रेरित करती है जिससे अगली बार बाजार में खेती उत्पादों की सप्लाई की किल्लत नहीं हो पाती है। क्योंकि जब जब एक सीजन में ओवर सप्लाई की वजह से फसल उत्पादों की कीमत गिरी हैं और उन्हें एमएसपी द्वारा गिरने से नहीं बचाया गया तबतब आगामी सीजन में उन उत्पादों की किल्लत और फिर उसकी आकाश छूती महंगाई होनी तय सी रही हैं। क्योंकि अगली बार किसान बेहतर दाम नहीं मिलने की वजह से उन उत्पादों की खेती नहीं करता या उसका रकबा घटा देता है। ऐसा कई बार हुआ है जब आलू ,प्याज, टमाटर, गन्ना, तिलहन की कीमतें गिरी और अगले सीजन में इनकी भयानक किल्लत हुई हैं। ऐसे में एमएसपी की व्यवस्था अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति को रोकने का एक बड़ा ढाल का काम करती हैं। बताते चलें इस ढाल का एक बार नहीं बल्कि कई बार यही फार्मूला मोदी सरकार द्वारा भी अपनाया गया । पिछली बार जब दलहन की कीमतें आसमान छूने लगीं तो उसके एमएसपी में भारी बढोत्तरी की गई और एफसीआई में दलहन के खरीद की व्यवस्था नहीं होने के बावजूद उसकी एक सीमा तक खरीददारी की गई तो देश में दलहन का उत्पादन बढ गया और लोगों को दाल की कीमतों से राहत मिली। इस बार मोदी सरकार ने तिलहन को लेकर भी यही फार्मूला अपनाया है और इस बार इ नकी एमएसपी कीमतों में भारी बढोत्तरी की गई है। एमएसपी को कानूनी दर्जा देने का जो तीसरा फायदा है कि सरकार को किसानों से हर जगह उनके उत्पाद स्वयं खरीदने की बाध्यता नहीं होगी। बताते चलें हर वर्ष गेहूं व चावल की खरीद को लेकर सरकार को अलग से भारी भरकम विशाल वित्त की व्यवस्था करनी पड़ती है जिसके लिए सरकारों को बैंकों को अरबों की राशि बतौर ब्याज देना पड़ता है।  इस कार्य के पीछे  हालांकि  भारत सरकार का उद्देश्य खेती के उत्पादों की कीमतें में गिरावट को रोकना प्रमुख नहीं  है, उनका मुखय उद्देश्य देश मे सार्वजनिक वितरण प्रणाली का संचालन करना है। एक ऐसी व्यवस्था है जिसे विगत से सभी सरकारें सर्वोच्च प्राथमिकता में रखती आई और इसके लिए सरकार अपने जीडीपी का करीब एक फीसदी यानी डेढ लाख करोड़ की सब्सिडी वहन करती है। इसी प्रणाली का उपयोग कर इस बार कोविड की आपदा में मोदी सरकार ने मुफत अनाज बाटकर राजनीतिक लोकप्रियता भी हासिल की । लेकिन यदि इसी एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दिया जाए तो सरकार के बफर स्टाक यानी चार करोड़ टन के अलावा किसानों के बाकी अतिरेक उत्पादों की भी निजी संस्थाएं एक तय मूल्य पर खरीदने को बाध्य होंगी। सरकार को इसके लिए हर जगह अपना खरीद नेटवर्क, भंडारण गोदाम, वित्त व मानव संसाधन पर भारी निवेश करने की जरूरत नहीं होगी।  कहना होगा कि जबसे किसानों का आंदालन चल रहा है मोदी सरकार गला फाड़ फाडक़र कहे जा रही है कि वह किसानों से अनाज एमएसपी पर खरीदती रहेगी। सवाल ये है कि सरकार क्या खरीदकर अहसान जतायेगी? उसे पीडीएस चलाना है तो वह ऐसा जरूर करेगी। क्या  सरकार को यह बात मालूम नहीं है कि उसके एफसीआई की खरीद एजेंसियों का नेटवर्क पंजाब, हरियाणा व पं यूपी के अलावा  देश के बाकी हिस्सों में केवल छिटपुट तरीके से चलती है? सरकार यदि एमएसपी पर स्वयं खरीदना चाहती है तो वह फिर समूचे देश के सभी छह लाखों गांवों में एफसीआई की खरीद नेटवर्क स्थापित करे? जाहिर है सरकार को इसके लिए विशाल संसाधन खरचना पड़ेगा। इससे बचने का सरकार के पास बड़ा आसान उपाय है कि वह एमएसपी को कानूनी दर्जा दे दे और देश के तमाम निजी कंपनियों को किसानों के उत्पाद खरीद में भागीदार बनाये। 
सबसे बड़ी हैरत तो तब होती  है कि जब  सरकार आर्थिक गतिविधियों में निजी क्षेत्र को हिस्सेदार बनाने की पूरजोर वकालतें करती है। अर्थव्यवस्था के अनेकानेक क्षेत्रों में निजी निवेश का रोडमैप बनाती है। निजी व विदेशी क्षेत्र के लिए सरकारी उपक्रमों व गतिविधियों में हिस्सेदारी प्रदान करती हैं, फिर किसानों के उत्पादों की खरीददारी में उन्हें हिस्सेदारी देने में क्यों गुरेज हो रहा है। ये बात जरूर है कि यह  हिस्सेदारी बिना कानूनी दर्जा के नहीं दिया जा सकता? क्योंकि सबको मालूम है कि खेती रोजरोज नहीं सीजन में होता है और तब अचानक आवग से इसकी कीमतें गिरनी तय होती है। ऐसे में जब सरकार इन उत्पादों को एक निर्धारित दर से कम पर यानी बाजार दर पर नहीं खरीद सकती तब हम निजी क्षेत्र को कम दर पर क्यों खरीदने दें?
 आखिर सरकार नयी आर्थिक नीति के तहत लेवल प्लेयिंग फील्ड की बात करती है तो उसे निजी क्षेत्र को भी मलह सरकारी एमएसपी दर पर खरीदने को क्यों नहीं बाध्य करनी चाहिए।

यह ठीक है कि मोदी सरकार से पूर्व की सरकारों ने भी एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की पहल नहीं की। लेकिन तीन नये कृषि कानून के विरोध में यदि किसानोंं ने इस पुराने मुद्दे को यदि जीवंत कर दिया है तो मोदी सरकार को इसे अपने अहं और प्रतिष्ठा का प्रश्र ना बनाकर इस मांग को मानकर इसका श्रेय  लेना चाहिए।  यदि मोदी सरकार ऐसा नहीं करती तो इसका मतलब साफ है कि वह निजी क्षेत्र को खेती उत्पादों के  सीजन में गिरे मूल्यों पर खरीदने के  लूट की छूट देना चाहती है।

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