Wednesday, July 13, 2022

रुपये की गिरावट, मुद्रा स्फीति व सस्ती मुद्रा नीति

 रुपये की गिरावट, मुद्रा स्फीति व सस्ती मुद्रा नीति

                                             मनोहर मनोज
भाजपा के अपने दौर के हैवीवेट नेता प्रमोद महाजन से एक बार यह पूछा गया कि समूची दुनिया में उन्हें भारत को लेकर किस बात से सर्वाधिक गौरव महसूस होगा तो उन्होंने कहा कि जब दुनिया के लोग दुनिया की तमाम बड़ी मुद्राओं डालर, पौंड, यूरो और युआन की तुलना में सबसे ज्यादा तरजीह भारतीय रुपये को देंगे। आज उन्हीं की पार्टी भाजपा की केन्द्र में पिछले आठ सालों से सरकार है और भारतीय रुपया अभी अमेरिकी डालर की तुलना में अपने इतिहास के सबसे निम्र स्तर करीब 78 रुपये प्रति डालर पर पहुंचा है। बताते चलें 1980 में एक अमेरिकी डालर की कीमत करीब दस रुपये थी और  करीब चालीस साल के बाद वह करीब आठ गुने निचले स्तर पर जा चुकी है।
देखा जाए तो यह विडंबना केवल भारत की नहीं है बल्कि भारत सरीखे दुनिया के उन तमाम विकासशील देशों की है जिन्होंने सम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और दासता की बेडिय़ों से निकलने के उपरांत अपने आर्थिक विकास को गति देने के लिए घाटे का बजट और सस्ती मुद्रा की आर्थिक नीति को लगातार अपनाया। मतलब ये है कि विकास को गति देने के लिए इन देशों की सरकारें अपनी आमदनी से ज्यादा खर्चें करती हैं और खर्चे और आमदनी के बीच के अंतर को पाटने के लिए देश के भीतर और बाहर से कर्जे लेती हैं, दूसरा अपने केन्द्रीय बैंक  के मार्फत नयी मुद्राएं जारी करवाती हैं और तीसरा जनता पर करारोपण की मात्रा बढाती हैं। इस क्रम में इन विकासशील देशों में वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन की तुलना में मुद्रा प्रसार की मात्रा ज्यादा बढ जाने से जहां आंतरिक स्तर पर मुद्रा स्फीति और महंगाई का खतरा तो बढता ही रहा है तो दूसरी तरफ विदेशी कर्ज, उत्पादन की तकनीक व मशीनरी की विदेशों से आयात पर निर्भरता बढने से इन देशों की मुद्राओं का विदेशी विनिमय मूल्य भी लगातार घटता रहा है। इसके विपरीत विकसित देशों की बात की जाए तो वहां की सरकारें घाटे के बजट के बजाए अपने बढते खर्चे को पूरा करने के लिए अपने निवासियों पर करारोपण पर निर्भर करना ज्यादा पसंद करती हैं। इसका नतीजा ये है कि विकसित देशों में करों का उनकी जीडीपी में अनुपात 15 से 20 फीसदी तक होता है वही भारत जैसे विकासशील देशों में यह अनुपात मुश्किल से 10 से 12 फीसदी के बीच देखा जाता है।
पिछले पिचहत्तर साल की भारत की अर्थव्यवस्था पर गौर करें तो घाटे के बजट लगातार बनाये जाने से यहां बाह्य व आंतरिक दोनो स्तर पर सस्ती मुद्रा नीति के चलन को काफी प्रमुखता दी गई। इससे एक तरफ हमारा व्यापार घाटा यानी चालू खाते का घाटा लगातार बढता गया तो दूसरी तरफ आंतरिक स्तर पर मुद्रा स्फीति में भी लगातार बढोत्तरी होतीगई। इन परिस्थितियों में हमारी मुद्रा रुपये का दुनिया की सभी बड़ी विदेशी मुद्रा की तुलना में विनिमय मूल्य स्थिर होना तो दूर उसमे गिरावट का मंजर ही बराबर दिखायी देता रहा है। मजे की बात ये है कि भारत  अभी दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर उस हिसाब से हमारी मुद्रा दुनिया की सबसे छठी मजबूत मुद्रा नहीं है बल्कि हमारा रुपया विनिमय मूल्य के हिसाब से दुनिया में पचासवें स्थान के भीतर भी नहीं आता है। पिछले  दो  दशक  से भारत में विदेशी मुद्रा कोष की रिकार्ड मात्रा कायम रही पर जैसे ही यह कोष अभी छह खरब डालर से थोड़ा नीचे आया तो डालर के मुकाबले रुपये की कमजोरी उजागर हो गई। यह स्थिति इस बात को दर्शाती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को आंतरिक व बाह्य दोनो मोर्र्चे पर अभी परिपक्वता की स्थिति प्राप्त नहीं है।
अभी देश में रुपये की गिरावट के साथ साथ मुद्रा स्फीति की मौजूदा दर करीब 8 फीसदी पर पहुंच चुकी है जो नरेन्द्र मोदी सरकार के अबतक के कार्यकाल की सबसे उंची दर है। इसकी वजह भी साफ है। पिछले कुछ सालों से भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी का आलम होने, कोविड की महामारी तथा देशबंदी की परिस्थिति में अर्थव्यवस्था के बिल्कुल शिथिल हालत में पहुच जाने की वजह से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा लगातार सस्ती मुद्रा की नीति अपनायी जाती रही। इससे अंतत: मुद्रा स्फीति को बढावा मिलना शुरू हो गया तो दूसरी तरफ बाह्य स्तर पर रूस-यूके्रन युद्ध ने अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल के मूल्यों में भारी बढोत्तरी ला दी है। पेट्रोलियम उत्पादों की महंगाई वैसे भी भारत में मुद्रा स्फीति व महंगाई के एक बड़े कारक के रूप में कायम रही है।  फिलवक्त सस्ती मुद्रा नीति को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक ने नोटबंदी के बाद से पहली बार अपने बैंक दरों व रेपो दरों में बढोत्तरी का फैसला लिया । अब इसका असर ये होगा कि बैंकों से मिलने वाला कर्ज थोड़ा महंगा हो जाएगा जिससे मुद्रा प्रसार पर थोड़ा अंकुश लगेगा।
भारत में अभी महंगाई के पीछे बंद पड़ी अर्थव्यवस्था में अचानक आई मांग खासकर बुनियादी उद्योगों के लागतोंं के मामले में  ज्यादा जिममेदार रही है जिससे थोक मूल्य सूचकांक को भी बढावा मिला है। दूसरी तरफ खाद्यान्नों के उत्पादन में आई कमी की वजह से जो आपूर्ति प्रभावित हुई है उससे खुदरा मूल्य सूचकांक में बढोत्तरी हुई है। पहली बार एमएसपी से खुले बाजार की दर ज्यादा दिख रही है जो स्थिति अति उत्पादन की स्थिति में देखा जाता तो भारतीय किसानों के लिए एक बड़ी अनुकूल स्थिति मानी जाती।
कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था में दीर्घकालीन तरीके से अपनाया जाने वाला घाटे का बजट जो अभी कोविड के दौर में पहले के चार फीसदी से बढाकर बजट लक्ष्य में छह फीसदी कर दिये जाने तथा सरकारी व्यय के लिए आंतरिक व बाह्य कर्जे पर बढती निर्भरता की वजह से सार्वजनिक ऋण के सकल घरेलू उत्पाद के पिचासी फीसदी तक पहुंच जाने का नतीजा आंतरिक व बाह्य स्तर दोनो स्तरों पर दिखायी दे रहा है। इस वजह से रुपये का मूल्य भी गिरा है तो दूसरी तरफ मुद्रा स्फीति भी बढ रही है। ऐसे में सस्ती मुद्रा नीति पर रिजर्व बैंक द्वारा लगाया गया आंशिक लगाम भी आंशिक ही राहत देगा क्योंकि देश में खाद्य जिंसों के उत्पादन में आई कमी से सप्लाई चेन प्रभावित हो चुका है। इस एवज में सरकार ने गेहूं व अन्य अनाजों के निर्यातों पर भी रोक लगा दी है। कुल मिलाकर इस मामले का लब्बोलुआब यही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वास्तविक मजबूती हासिल करने की राह अभी आसान नहीं है, इसमे बड़े सूझ बूझ से लंबी रेस की तैयारी करनी पड़ेगी तभी भारतीय रुपये को भी दुनिया के पटल पर सममान हासिल हो सकेगा।

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