Wednesday, July 13, 2022

संविधान के उल्लंघन का आरोप ही अपने आप में एक झूठा आक्षेप

 अभी कुछ दिनों पहले हिंदूवादी संगठनों ने राजधानी दिल्ली में कन्हैयालाल की गलाकाट हत्या के विरोध में एक बड़ी रैली निकली थी। इस रैली में इस बात की तख्ती लिखी ज्यादा दिखाई पड़ी की देश संविधान से चलेगा, ना की शरीया से। हैरत इस बात से हुई की अधिकतर मुस्लिमवादी संगठन और बुद्धिजीवी जो इस बात की दुहाई देते है की देश संविधान से नहीं चलाया जा रहा है, संविधान को कुचला जा रहा है। पर यह आरोप जिनपर लगाया जाता था वह सवयं संविधान की मांग कर रहे है और मुस्लिमो की पसंद शरीया की मजम्मत कर रहे है।

दरअसल बात ये है की संविधान के उल्लंघन का आरोप ही अपने आप में एक झूठा आक्षेप है। क्योंकि भारत में कोई सरकार संविधान क्या विधान का भी उल्लंघन नहीं कर सकती। बल्कि इनमे संसोधन की भी लम्बी प्रक्रिया है। जहा तक मोदी की बात है तो उन्होंने संविधान को ज्यादा इज्जत दर्शाते हुए बजाप्ता संविधान दिवस 26 नवम्बर घोषित किया है। हाँ जिन दलों को अपने पहचान के कारको का या बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की तुष्टिकरण का काम करना होता है वे संविधान , विधान से इतर अपने प्रशासनिक आदेशों और फैसलों के जरिये इन्हे अंजाम देते है। दूसरा हिन्दुवादिओं के लिए कोई वैकल्पिक विधान है भी नहीं। जबकि इस्लाम दुनिया के अधिकतर देशो में संविधान के मुताबिक नहीं बल्कि शरीया और इस्लामिक कानून के जरिये चलता है। अब देखना ये है की भारत में संविधान के नाम पर कौन मिसलीड कर रहा है।
दरअसल भारत में मुस्लिम संविधान की ज्यादा दुहाई इसीलिए देते हैं क्योंकि भारत के विभाजन के बाद उन्हें भारत के सेक्युलर और सब धर्म के लिए जगह की नीति के प्रति आभार प्रकट करने और विभाजन करने वालो के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाने के बजाये उन्होंने अपनी परिस्थिति रोटी बेटी और जगह जमीं की खातिर भारत में ही बने रहने को भारत देश के प्रति उलटे अपना एहसान जताते रहे। दूसरा उन्होंने एक सेक्युलर देश भारत में भी संविधान सभा के जरिये अपने अलग मुस्लिम पहचान , मदरसा और शरीया के अस्तित्व के लिए पूरी ब्लैकमेलिंग और दबाव डालकर मौलिक अधिकारों के तहत धार्मिक शिक्षण संस्था का अधिकार लिया।
इसीलिए जब जब भारत्त की तमाम पहचानो से चलने वाली राजनीती में जब बहुसंख्यक संप्रदाय हिन्दुओं की राजनीती प्रखर होती है तब तब ये संविधान की दुहाई देते है। जबकि हमारी समस्या है की हमारा संविधान पहचान की राजनीती यानि असंख्य जाती , समुदाय , भाषा प्रान्त और लोकलुभावनवादी राजनीती को लोकतंत्र में पनपने नहीं देने का कोई बंधन नहीं लगाता है जो हमारे लोकतंत्र के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।
भारत के सांप्रदायिक विभाजन के बाद भी बहुसंख्यक सांप्रदायिक राजनीती के परवान चढ़ने में करीब 45 साल का समय लग गया। क्योंकि जातिवादी राजनीती के आगे वह पनप ही नहीं सकता था। आज सांप्रदायिक और जातिगत राजनीती दोनों में सांप्रदायिक राजनीती भारी पड़ रही है। मुस्लिमवादी अभी भी इस बात को मनाते है की भारत में जातिगत राजनीती चलती रहे जिससे हिन्दुओ में कभी एकता नहीं रहे। जबकि भारत के लिहाज से जातिगत राजनीती सांप्रदायिक राजनीती से ज्यादा विषैली है। हाँ यदि पाक बांग्ला भारत एक रहते तो हमारी एकता का सबसे बढ़ा आधार सेक्युलरवाद होता , सच्चा सेक्युलर जिसमे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की पूरी गुंजाइश होती। इस्लाम संस्कृति भी भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में करीब एक हज़ार साल से अपना योगदान दे रही है।

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