Wednesday, July 13, 2022

सफेद हाथी बन चुके हैं भारत के विश्वविद्यालय

 सफेद हाथी  बन चुके हैं  भारत के विश्वविद्यालय 

मनोहर मनोज
हमारे देश में सकल घरेलू उत्पाद में शिक्षा पर होने वाले व्यय की अपर्याप्तताओं  पर बार बार टिप्पणियां की जाती हैं। इसी के बरक् श इस बात का भी हवाला दिया जाता है कि भारत के कोई भी विश्वविद्यालय या उच्च तकनीकी या प्रौद्योगिकी संस्थान दुनिया के नामवर उत्कृष्ट संस्थानों की श्रेणी में नहीं आते। ये बातें सच हैं पर इससे भी बड़ा सच ये है कि भारत के सरकारी क्षेत्र के करीब 513 विश्वविद्यालय बरसों से पूरे तौर पर सफेद हाथी बन चुके हैं। भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों की उत्पादकता बिल्कुल नगण्य है, जिन पर जनता के करों से इकठ़ठा किया बेशुमार संसाधन खर्च होता है, जहां पर पढने वाले बच्चे सबसे पहले वहां आए दिन टीचिंग व नान टीचिंग कर्मचारियों की हड़ताल, कभी छुट्टी तो कभी आपदा से ना तो पूरी पढाई कर पाते है,जो यदि थोड़ी बहुत पढाई करते हैं तो वह उनके रोजगारों व कुशलता निर्माण से कोई वास्ता नहीं रखता है। भारत के इन विश्वविद्यालयों के तमाम विभागों और इनके मातहत संचालित करीब 25 हजार महाविद्यालयों में नियुक्त करीब दो लाख शिक्षकों व कर्मचारियों  के वेतन पर हर साल दो लाख करोड़ रुपये का व्यय किया जाता है। लेकिन यहां का कार्य परिवेश व शैक्षिक परिवेश बिल्कुल हैरान कर देना वाला है जहां पठन पाठन संबंधित तमाम उत्पादक गतिविधियां नहीं होने तथा राजनीतिक गतिविधियों में मशगूलियत का नजारा ज्यादा दिखायी पड़ता है। अगर इन सभी उच्च शिक्षा के प्राध्यापकों की उत्पादकता व सामाजिक रिटर्न पर गौर किया जाए तो यह भली भांति प्रतीत होगा कि भारत जैसे निर्धन देश का कितना बहुमूल्य संसाधन बिना किसी समुचित रिटर्न के बर्बाद हो रहा है।
बताते चलें अभी देश म सरकारी व निजी दोनों क्षेत्र मिलाकर देश में विश्वविद्यालयों की संखया एक हजार है जिसमे सरकारी क्षेत्र में राज्य सरकारों केे मातहत करीब 343 विश्वविद्यालय, राजकीय सहायता प्राप्त करीब 115 मानद विश्वविद्यालय और केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित करीब 46 विश्वविद्यालय अस्तित्व में हैं। राजनीतिक मांगों को ध्यान में रखकर विश्वविद्यालय की स्थापना कर दी जाती है जिसके सभी संकायों में पढने वाले छात्रों की संखया मुश्किल से एक हजार से भी ज्यादा नहीं होती है जिस पर न्यूनतम सालाना व्यय 100 करोड़ बनता है।
आज की तारीख में उच्चतर शिक्षकों का वेतनमान यूजीसी वेतनमानों के अधार पर जो दिया जाता है वह  दो से तीन तीन लाख मासिक होता है जितनी तनखवाह तो भारतीय आर्मी  के जेनरल की भी नहीं होती। सामान्य दिन में एक प्राध्यापक मुश्किल से एक से तीन  कक्षा लेता है। अभी तो कोरोना महामारी के दौर में पिछले दो सालों से विश्वविद्यालयीय विभागों व महाविद्यालयों में पढाई का काम बिल्कुुल ठप है। परंतु इस महामारी में इनकी मोटी तनटखवाहें  बंद 
 नहीं  हुर्इं। वैसे भी भारत में सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में हर वक्त कोरोना सरीखा ही माहौल होता है। अभी राजधानी दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय में कोरोना के पहले भी यदि पढाई का माहौल पता कर लें तो यह मालूम पड़ेगा कि एक साल में मुश्किल से तीन महीनें भी कक्षाएं नहीं चलीं।
बताते चलें अभी भारत में 
 शिक्षा पर  हर साल साढे छह लाख करोड़ रुपये  व्यय किया जाता है। इसका करीब दो तिहाई हिस्सा प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा पर व्यय होता है जो किसी भी सरकार की प्राथमिकता में शामिल होने वाला क्षेत्र हो ता है बाकी एक तिहाई हिस्सा उस उच्च शिक्षा पर किया जाता है जहां उच्च शिक्षा की महज एक खानापूर्ति की जाती है। गौरतलब है कि शिक्षा पर होने वाले इस कुल व्यय में करीब एक लाख करोड़ रुपये व्यय के न्द्र सरकार करती है। केन्द्र सरकार इस रकम में से करीब साठ हजार करोड़ रुपये स्कूली शिक्षा पर और बाकी राशि वह उच्च शिक्षा पर करती है। बाकी राज्य सरकारों द्वारा वहन किया जाता है।
अब सवाल ये है कि भारत में शिक्षा पर होने वाला व्यय जो मानव विकास की सबसे बड़ी मद होती है, उसकी जीडीपी हिस्सेदारी जरूर बढे लेकिन फिलवक्त उस पर जितनी राशि खर्च हो रही है उससे हासिल होने वाली उत्पादकता का भी तो निर्धारण हो।
अभी कोरोना काल में देश की समूची प्राथमिक ,माध्यमिक  व उच्च शिक्षा करीब करीब  ठप्प रही है। निजी क्षेत्र में चालित शिक्षण संस्थानों ने  इस अवधि में दूरस्थ या आनलाइन शिक्षा हेतू अपने आप को 
 तुरंत  समायोजित कर लिया पर सरकारी क्षेत्र के करीब दस लाख स्कूलों व कालेजों में अधिकतर जगह पढाई इसलिए ठप्प रही क्योंकि वहां ब्राडबैंड नेटवर्क नहीं होने से वे आनलाइन मोड में नहीं आ सके। इससे  देश के करोड़ों नौनिहालों का भविष्य खराब हुआ परंतु पब्लिक डोमेन में इस मसले पर उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी अर्थव्यवस्था व बेरोजगारी को लेकर हुई।
कहना होगा कि देश के अधिकतर उच्च शिक्षा संस्थानों में क्या कोरोना काल हो या सामान्य काल हो, वहां शैक्षिक माहौल हमेशा से बदहाल रहा है जो अब और बदतर हो गया है। उच्च शिक्षण संस्थानों के प्राध्यापकों को राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की छूट ने उन्हें अपने मूल दायित्वोंं से विमूख करने के साथ उन्हें अपनी उत्पादकता के प्र्र्रति लापरवाह बनाया है। विश्वविद्यालयों  कुलपतियों की  नियुक्ति में राजनितिक लॉबी और भ्रष्टाचार  चरम  पर है जबकि निजी क्षेत्र में तो स्थिातियां उलट है, वहां शिक्षकों को अपने काम के बराबर उचित पारिश्रमिक नहीं मिलता। इन परिस्थितियों में भारत के शिक्षा या स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय की बढोत्तरी का सवाल बाद में आता है इससे पहले तो वहां की कार्यपरिस्थितियां को पेशेवर, उत्पादक, गुणवत्ता परक, लागत संवेदनशील बनाये जाने की जरूरत है। इसीलिए अब ये सवाल बेहद मौजू है कि देश में शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपस्थित निजी व सार्वजनिक दोनों के लिए एक नियमन प्राधिकरण बनाये जायें जिससे अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र की भांति यहां भी लेवल प्लेयिंग की स्थिति उत्पन्न हो। जबतक निजी क्षेत्र द्वारा छात्रों से एक निर्धारित व वाजिब शुल्क लेने की परिपार्टी नहीं बनती तथा सरकारी क्षेत्र द्वारा चालित हमारे युनिवर्सिटी कैंपस उत्पादक नहीं बनते, तबतक वे दुनिया में सेंटर फार एक्सीलेंस नहीं बन सकते ।
भारत में नयी शिक्षा नीति के तहत शिक्षा के भाषाई माध्यमों को लेकर एक सुस्पष्ट नीति बेशक अख्तियार की गई है। लेकिन इसके अलावा देश में हर तरह की शिक्षा में एक अधिमानक सिलेबस बनाने और फिर शिक्षा के  अर्थशास्त्र को लेकर  इसे  एक नियमन प्राधिकरण के गठन के जरिये उसे सुलझाए जाने की जरूरत है। देश के सभी शैक्षिक संस्थानों की अलग अलग गुणवत्ता रैंकिंग के बनाने के बजाए क्यों नहीं हम इन सभी को एक बराबर निर्धारित उच्च मानक स्तर पर लाते? हमे कहना होगा कि भारत जैसे घोर विषमता मूलक देश में यदि हम शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम और रोजगार को लेकर एक देशव्यापी, सर्वग्राही और एक समान बुनियादी,नीतिगत'क़ानूनगत  व वित्तीय संरचना गठित नहीं करते तबतब भारत में इस विषमता की तेजी से बढ रही
  खाई को    हम  नहीं पाट सकते ।

No comments:

Post a Comment