Wednesday, July 13, 2022

अग्रिपथ स्कीम व्यापक सुधारों से बवाल पर विराम संभव

 अग्रिपथ स्कीम

व्यापक सुधारों से बवाल पर विराम संभव
        मनोहर मनोज
सेना में जवानों की भर्ती की नयी अग्रिपथ स्कीम का विरोध देश केे युवाओं की उन अपेक्षाओं पर होने वाले कुठाराघात की वजह से हो रहा है जिन अपेक्षाओं की परंपरा अबतक सभी सरकारों द्वारा निर्मित की गई हैं। ये परंपराएं क्या हैं, ये हैं केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अपने कर्मिकों की सेवाओं को ज्यादा सुरक्षित, स्थायी, वाजिब वेतन और तमाम अनुकूल सेवा शर्तो व कानूनों से सुसज्जित रखे जाने की। यही वजह है कि सरकारी सेवाओं में चाहे वह सेना ही क्यों ना हो, नियुक्त होने का खवाब देश का हर शिक्षित बेरोजगार जिसकी संखया करीब पांच करोड़ है देखता है। सेना में भी जवानों की 17 साल की कार्यअवधि होने का परंपरापरस्त भारतीय नौजवान इसे चार साल कर दिया जाए तो उसे कैसे मान लेेगा? हकीकत में इस नयी नियुक्ति स्कीम ने भारत के नौजवानों के मन में बेरोजगारी को लेकर पल रही एक व्यापक संचयित टीस को एक नया आउटलेट प्रदान कर दिया।
नयी स्कीम से दो बातें प्रमुखता से स्पष्ट हो रही हैं। पहला सरकार के नजरिये से यह सेना में जवानों की भर्ती की एक ऐसी नयी प्रक्रिया शुरू करना चाहती है जो भारतीय सेना को ज्यादा नौजवान व प्रशिक्षित चेहरों से सुसज्जित बनाये साथ ही सरकार पर आर्थिक बोझ भी कम से कम डाले। दूसरी तरफ देश के नौजवानों को इससे यह लगा कि सरकार देश में बेरोजगारों नवयुवकों की विशाल आबादी को देखते हुए उन्हें मनमानी सेवा शर्र्तों पर भर्ती कर उनकी बदहाल परिस्थितियों का नाजायज फायदा उठा रही है। कहना होगा इन विरोधाभासी धारणाओं के बीच हमारी देश की केन्द्र व राज्य दोनो सरकारों के लिए यह बड़ा ही लाजिमी वक्त था कि  वे अपने यहाँ हर महकमे में नियुक्ति सुधारों को  सुविचारित तरीके से  ले आतीं और इसे अपने सभी विभागों के कर्मचारियों के लिए लागू कर समूचे देश की एक नयी कार्मिक नीति का निर्माण करतीं।  कहना होगा आज हमारे देश के रोजगार परिदृश्य में अनेकानेक विसंगतियां विराजमान हैं जिसे लेकर समूचा माहौल बेहद निराशाजनक है। कहीं मोटे पगाड़ पर बिना उत्पादकता प्रदर्शित किये लाखो लोग सरकार में नौकरी कर रहे हैं और आजीवन मोटी पेंशन पा रहें हैं तो कहीं संविदा, कहीं माहवारी तो कहीं दिहाड़ी पर बेहद अल्प वेतन पर करोड़ो लोग काम करते दिखायी देतेे हैं। समूचे देश में संगठित बनाम असंगठित, सरकार बनाम निजी, कारपोरेट बनाम एमएसएमई, कांट्रेक्युअल बनाम स्थायी का एक बेहद असमान रोजगार परिदृश्य है।  अग्रिपथ स्कीम के विरोध को भी इसी आलोक में देखा जा सकता है।
इस मामले के अलावा जो मूल सवाल हमारे सर पर मुंह बाये खड़ा हैैै वह ये कि देश में शैक्षिक बेरोजगारों की विशाल आबादी। इसे लेकर सरकार की तरफ से ये बयान भी दिये जाते हैं कि देश के सभी बेरोजगारों के लिए 
 स्थायी  सरकारी  नौकरियां मुहै्यया करा पाना संभव नहीं है, आप स्वरोजगार व उद्यमिता करें या स्टार्टअप बिजनेस करें।  बात सही है पर इसी के साथ जो दूसरा सच है जिसे देश की सरकारें स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि उनके यहां लाखों पद जो खाली हैं उनपर नियुक्तियों से उन्हें गुरेज क्यों हैं? अनुमान के मुताबिक केन्द्र सरकार के अलग अलग विभागों में करीब आठ लाख पद खाली हैं। दूसरी तरफ देश के सभी राज्य सरकारों के यहां कुल मिलाकर पचास लाख पद खाली हैं। इन पदों के खाली रहने से केन्द्र व तमाम राज्य सरकारों की अनेकानेका योजनाओं के क्रियान्वन में देरी व लेटलतीफी हो रही है, उनकी उत्पादकता का ह्लास तथा उनकी कई लोककल्याणकारी योजनाएं प्रभावित हो रही हैं। इसके बावजूद ये इसलिए नयी भर्ती नहीं करना चाहतीं क्योंकि मौजूदा कार्मिक कानूनों व सेवा शर्तों के हिसाब से इन्हें इतनी ज्यादा संखया में अपना दामाद बनाना गंवारा नही हैं और जैसे तैसे ये  अपना काम निपटवा लेना चाहती हैं। कभी कभार ज्यादा ज्यादा दिक्क्तत होने पर केन्द्र व राज्य दोनो सरकारों के विभाग कुछ कांट्रेक्चुअल नौकरियां दे देती हैं क्योंकि इसकी सेवा शर्तेँ सरकारों को ज्यादा बोझिल नहीं लगती।  रिक्तियों के बावजूद पक्की सेवा शर्तें पर भर्ती नहीं करने के मामले में केन्द्र व राज्य सरकारों दोनों की मंशा एक बराबर दिखायी देती है।  मौजूदा मोदी सरकार ने 2019 में भारतीय रेलवे में डेढ लाख नौकरियों की बहाली की घोषणा की परंतु उसे वह पूरा नहीं कर पाई। इनमे केवल कुछ पदों पर नियुक्तियां की गईं जिनकी सेवा शर्ते बिल्कुल अलग थीं। कहना होगा कि सरकार अपने विभाग में कांट्रेक्चुअल नौकरियों के लिए भी जो सेवा शर्तें आरोपित करती है वह निजी क्षेत्र की तुलना में कहीं जयादा श्रम हितैषी होता है। ऐसे में यह बड़ा बेहतर वक्त था कि सरकार एक व्यापक भर्ती नीति, नियुक्ति नीति, श्रम नीति, मजदूरी नीति व कुल मिलाकर एक व्यापक कार्मिक नीति लाती तो फिर मौजूदा विरोधों को कोर्ई हवा नही मिलती। क्योंकि नौजवानों को लगता कि रोजगार मार्केट में एक इक्वेल लेवल प्लेयिंग फील्ड निर्मित हो गया है।
 देश में बेरोजगारी दूर करने की दृष्टि से  देखें तो इस सुधार की आवश्यकता सबसे पहले दिख रही है क्योंकि इससे सरकार में खाली पदों की भर्ती शुरू हो जाती।  इससे नवजवान शिक्षित बेरोजगारों में एक बेहद अच्छा संदेश जाता कि मिहनत, कौशल व उत्पा दकता प्रदर्शित करने वालों के लिए काम की कमी नहीं है, कमी उनके लिए है जो स्थायी नौकरी पाकर अनुत्पादक बनना चाहते हैं। इस आधार पर सरकार में पहले से कार्यरत अनुत्पादक कार्मिकों के लिए छंटनी या स्थानापन्न का भी रास्ता खुलता। इससे देश की अर्थव्यवस्था को एक नयी कार्यशील व उत्पादकता आधारित दिशा व दिशा मिलती।
हमे मानना होगा कि कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह कितना भी बाजार केन्द्रित क्यों न हों, वहां भी राज्य ही सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता होता है। सरकार बाजार में ज्यादा से ज्यादा रोजगार अवसर सृजित करने वाली आर्थिक नीतियों का निरूपण जरूर करे परंतु अपने तई की रोजगार जिममेवारियों का भी जरूर निर्वाह करे। इस दिशा में मोदी सरकार को चाहिए कि वह एक रोजगार मंत्रालय का गठन कर सभी महकमों में रिक्तियोंं व भर्तियों का  आडिट सर्वेक्षण कर अधिकाधिक उत्पादकतापरक रोजगार सृजित करें। जरूरत है एक तरफ देश के सरकारी क्षेत्र में निजी क्षेत्र की तर्ज पर बेहतर उत्पादक माहौल निर्मित हो तो दूसरी तरफ सरकार के  नये श्रम कानूनों और उसकी सेवा शर्तों को निजी क्षेत्र पर भी थोपा जाए, जहां कामगारों के शोषण की ज्यादा संभावना होती है। यह आवश्यक है की  सरकार के सभी महकमों में सुधार की प्रक्रिया को पुराने व नये सभी पर एक बराबर रूप से लाया जाए। हम केवल नौजवान बेरोजगारों पर नये प्रयोग करेंगे तो फिर बनी बनायी परंपराओं के आलोक में नौजवानों में असंतोष उभरना लाजिमी है। मोदी सरकार एक नया व्यापक कार्मिक  सुधार लाती है तो वह एक लाठी से कई विरूपताओं बेरोजगारी, कामचोरी, भ्रष्टाचार, कामगारों के शोषण, अनुत्पादकता तथा नौकरशाही की लेटलतीफी व लालफीताशाही को भी निर्मूल कर सकेगी।  

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