राष्ट्रवाद, धर्मनिरपेक्षता,
साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय ये सभी मुद्दे नेताओं के लिए जनता के लिए बनता है मुद्दा,सिर्फ गुड गवर्नेंस
मनोहर मनोज
नीतीश कुमार द्वारा बिहार में लि ये गए राजनीतिक यू टर्न के बाद हमारे अखबारों और अन्य तमाम मीडिया में पुनः सेकुलरिज्म बनाम कम्युनलिज्म की राजनीतिक बहस तीव्रता से छिड़ गयी है । पर यकीन मानिये यह बहस कहीं से भी और किसी कोने से देश का भला करने वाला नहीं है। ना समाज का और ना ही आम जनता का। उपरोक्त दोनों शब्दों के साथ सामाजिक न्याय शब्द को भी जोडा जा ना उचित होगा तभी इस मुद्दे की वास्तविक व वस्तुनिष्ठ विवेचना संभव होगी । जब जब धर्मनिरपेक्षता , साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय जैसे शब्द और अब जाकर राष्ट्रवाद जैसे शब्द हमारे देश के राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आएंगे तब तब हमारे देश में इससे पहचान की राजनीती को बल मिलेगा। अयोग्य, स्वार्थी, अवसरवादी, पेशेवर, ढकोसलाबाज राजनीतिबाजों को इससे शह मिलता रहेगा और इसके नतीजतन गुड गवर्नेंस की प्रतियोगी राजनीती का गला घुटेगा तथा अंत में इससे नेता की विजय होगी और जनता की पराजय होगी।
हमारे इस बहुदलीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के बीच परस्पर प्रतियोगिता का पैमाना केवल और केवल गुड गवर्नेंस ही होना चाहिए। गुड गवर्नेंस का पैमाना ही किसी भी सरकार का रियल टेस्ट और एसिड टेस्ट दोनों कर सकता है। सेकुलरिज्म , कम्युनलिज्म और सोशल जस्टिस का मुद्दा राजनीतिक दलों के बीच आपसी प्रतियोगिता का अबतक केवल वोट बैंक आधार का पैमाना ही बनता आया है और आगे भी बनता रहेगा। फिर हमारे बुद्धिजीवी इन नेताओं के इस सतत रणनीतिक चाल में उलझ कर क्यों इन पर होने वाले फालतू बहस में संलग्न हो जाते है। यदि ऐसा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हमें इस भारतीय लोकतंत्र को जातीय लोकतंत्र या वेरियस ट्रेडमार्क आईडेंटिटिज यानि विभिन्न पहचानों वाले लोकतंत्र में ही असल में तब्दील करना पड़ेगा ।
देखा जाये तो उपरोक्त तीनो राजनीतिक शब्द अपने आप में कोई साधारण शब्द नहीं हैं , बल्कि ये सभी के सभी महान शब्द हैं। पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इन सभी शब्दों के अर्थ अलग है और मायने अलग हैं ।
सबसे पहले हम धर्मनिरपेक्षता शब्द को हीं ले। यह शब्द भारतीय संवि धान की प्रस्तावना में है जिस पर हमें गर्व है। यह शब्द देश का सांप्रदायिक विभाजन करा ने वाले विगत के उन राजनीतिक जमातों पर एक करारा नैतिक प्रहार करता है और उन्हें इस बात के लिए लज्जित करता है, देखो! तुमने इस देश का इस्लामिक बटवारा कर एक बहुत बड़ा पाप किया और आने वाले भविष्य में यही शब्द इस विभाजित राष्ट्रज्य के देशो के पुनरएकीकरण का आधार भी बन सकता है । पर अब सवाल ये है क्या इस महान प्रस्तावना शब्द को लेटर एन्ड स्पिरिट यानि दस्तावेज और अमल दोनों में हमारे कौन कौन दल और उनकी सरकारें उल्लंघन करती रही हैं । तो इसका जबाब मिलेगा सभी राजनीतिक दलों ने। अब सवाल है की यदि ऐसा किया गया है तो हमारी व्यस्था ऐसा करने वाले को सीधे सीधे असंबैधानिक ठहराने की बात क्यों नहीं करती ? पर हमारे राजनीतिक दल और उनकी सरकारें ऐसा न कर इसे केवल अपनी राजनीति और चुनाव का एजेंडा बनाती हैं और मीडिया में इसे बहस का प्रतिपाद्य विषय बनाती है। क्यों भाई ? इसका जबाब ये है , ऐसा इसीलिए किया जाता है क्योकि यह सभी दलों को वोटबैंक बनाने और गढ़ने का अवसर प्रदान करता है। हमें मालूम है जब जब देश में सेकुलरिज्म का उल्लंघन होता है , तब तब हिन्दू कम्युनलिज्म , मुस्लिम कम्युनलिज्म दोनों का उदय होता है। सेकुलरिज्म का तो सीधा मतलब मतलब है की राजनीतिज्ञ ना तो रोजा इफ्तार पार्टी करेंगे और ना ही शिव प्रतिमा का सार्वजनिक रूप से अनावरण करेंगे।
ऐसे में सारे दल अपने अपने को नाप लें की वे इस मुद्दे पर अपने आप को कहाँ पाते हैं ? इसी तरह सभी राजनीतिक दल अब ये बतायें की आप में से कौन कौन जातीय रैली करते हैं ? कौन भाषा संस्कृति के आधार अलग प्रान्त की मांग करते हैं ? आप में से कौन खज़ाना खाली कर पॉपुलिज्म की राजनीती करने का प्रयास करते हैं ? कौन कौन दल हैं जिनका नेतृत्व अभी भी मध्युगीन सामंती प्रवृत्तयों से लबरेज होकर व्यक्तिवाद के प्रतीक बने हुए है। इसका जबाब है की इसमें तो सभी संलग्न हैं । जाहिर है इन सभी कारकों से इस भारतीय लोकतंत्र की प्रतियोगी राजनीति आसान हो जाती है।
हमारे राजनी तिक डोमेन में आजकल राष्ट्रवाद शब्द खूब चल रहा है। पर क्या यह सचमुच राष्ट्रवाद है क्या ? यह राष्ट्रवाद नहीं, यह तो फालतुवाद है, जिसके जरिये सिर्फ जनता में भावनाओ का उबाल लाकर सिर्फ अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि करना है और असल जनहित की अवहेलना करना है। भई जब जनता सुखी होगी तो राष्ट्रवाद का अपने आप ही एक दिव्य रूप हासिल होगा। जो लोग राजद्रोह करते हैं उन्हें दंड देने ले लिए लिए बैलेट बॉक्स की राजनीति करने की जरूरत नहीं , इसके लिए हमारे पास , कानून , पुलिस और सेना बनी हुई है।
बात करें अब सामाजिक न्याय की। प्रश्न है की क्या यह एजेंडा भारत में व्यापक और चौमुखी सामाजिक सशक्तिकरण को लेकर क्या वास्तव में फलदायी साबित हुआ है। जबाब ये है की यह तो उससे बिलकुल सरोकार नहीं रखता, बल्कि यह शब्द तो हमारे पोली टिकल डोमेन में केवल आरक्षण के प्रयाय के रूप में प्रयुक्त होता आया है। यह एजेंडा देश में अब तक पिछड़ी और दलित जातियों के केवल सम्पन्न तबके को समुन्नत करता रहा है। देश में जब चौमुखी सामाजिक सशक्तिकरण के एजेंडे की बात होगी, तब तब मुद्दा आरक्षण की वैसाखी का नहीं बल्कि इसके वास्तविक अनुपालन में यहाँ भी मुद्दा केवल गुड गवर्नेंस का ही उल्लखित होगा।
पर सवाल ये है गुड गवर्नेंस है क्या बला?" यह इतना आसान नहीं। जब जब सरकारें इसमें फ़ैल होती हैं , पहचान के मुद्दों का तुरत सहारा लिया जाता है। भावनात्मक मुद्दे या अनर्गल बयानों को उछाल जाता है. यहाँ भी नेता जीतता है और जनता हारती है।
गुड गवर्नेंस का मतलब इस पोली टिकल और ब्यूरोक्रेटिक कॉम्बो सिस्टम यानी राजनीतिज्ञ नौकरशाह के संयुक्त व्यस्था को महज रूटीनपूर्वक चला लेना नहीं है। बल्कि इसका मतलब देश में एक साथ सैकड़ो राजनीतिक सुधार , प्रशासनिक सुधार , न्यायिक सुधार , संस्थागत सुधारों को अ मली जामा पहनाना है। समूची सार्वजानिक कार्य संस्कृति को एक विलक्षण चेहरा प्रदान करना है । इसका मतलब है जीरो लीकेज के साथ अधिकतम लोगों का अधिकतम कल्याण। यह लक्ष्य देश में एक साथ अनगिनत बुनियादी मुद्दों पर एक मिशन मोड एक्शन मांगता है। दुर्भाग्य से देश में अभी भी यह माहौल प्राप्त नहीं हो पाया है और इसके लिए हमें अभी भी एक होलिस्टिक रिजीम यानि एक सम्यक शासन व्यस्था की तलाश है ।
No comments:
Post a Comment