Monday, August 28, 2017

आज़ादी के आंदोलन में भागीदारी पर हो रही राजनीति
मनोहर मनोज 

कांग्रेस का बीजेपी और आरएसएस पर बार बार यह आरोप लगाना की उनके नेता आज़ादी आंदोलन के दौरान कभी जेल नहीं गए। उन्होंने आज़ादी आंदोलन का समर्थन नहीं किया। उनका यहाँ तक आरोप की उन्होंने अंग्रेजो की मुखबिरी भी की। कांग्रेस के ये सभी आरोप एक ऐसे अप्रासंगिक, अनर्गल और बेतुके आरोप है जो आज की इस प्रतियोगी राजनीती में उनके किसी भी हद तक जाकर अनाप शनाप उद्धरनो के प्रदर्शन, अपरिपक्वता तथा उनकी राजनीतिक हताशा भरी हरकत को दर्शाते है।
कांग्रेस का सबसे पहले यह आक्षेप इस मामले में बेमानी है की 1925 में स्थापित आरएसएस ना तो कोई राजनीतिक दल था , ना ही इसकी स्थापना फकत स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ने के लिए की गयी थी और ना ही उस समय यह कांग्रेस के समानांतर कोई प्रतियोगी राजनीतिक जमात थी। उस समय कांग्रेस की यदि थोडी बहुत कुछ प्रतियोगी जमातें थीं भी तो वे सोशलिस्ट , कम्युनिस्ट वगैरह थीं। पर कांग्रेस की सबसे बड़ी राजनीतिक विरोधी तो मुस्लिम लीग थी। मुस्लिम लीग तो कांग्रेस के राष्ट्रवाद की कचूमर निकालने वाली राजनीतिक धड़े के रूप में काम कर रही थी। कांग्रेस जो आरोप अभी आज़ादी के दौरान की आरएसएस पर लगा रही है, वह आरोप तो दरअसल उस समय मुस्लिम लीग पर लगाया जाता था की यह दल अंग्रेजो द्वारा कांग्रेस को कमजोर करने के लिए स्थापित किया गया था। ढाका के नवाब को राजकीय संरक्षण देकर ब्रिटिश हुकूमत द्वारा 1905 में पहले बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन कराया गया और फिर मुस्लिम लीग का गठन करवाया गया। फुट डालो और राज करो की पुरानी नीति के मातहत इस दल को खुश करने के लिए अंग्रेजो द्वारा इनके लिए गवर्निंग काउंसिल से लेकर प्रांतीय काउंसिल में अलग साम्प्रदायिक निर्वाचक प्रणाली का प्रावधान किया गया। इनके कोई नेता जेल में नहीं डाले गए। इस बात का तो सबसे प्रमुखता से खुलासा मौलाना आज़ाद ने अपनी पुस्तक इंडिया विंस फ्रीडम में किया है।
इतिहास गवाह है कैसे कैसे मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद और सेकुलरिज्म दोनों मूलभूत सिद्धांतों का जनाजा निकाल कर अंततः अलग पाकिस्तान का निर्माण किया।
आरएसएस और हिन्दू महासभा जैसे संगठन हिन्दू आधारित विचारधारा का जरूर पोषण कर रहे थे , पर उनकी राजनीतिक शक्ति कांग्रेस के सामने बिलकुल गौण थी। देश का बहुसंख्य हिन्दू जनमानस कांग्रेस के साथ था। आरएसएस तो इस फॉर्मूले पर काम कर रहा था की हिन्दू धर्म एक संगठित धर्म नहीं है जबकि इसके मुकाबले मुस्लिम और ईसाई धर्म पूरी दुनिया में एक संगठित धर्म के रूप में काम कर रहे है। इनकी मुख्य दर्शन यह था की देश में हिन्दुओ का भी एक विशाल स्वयंसेवी जथ्था होना चाहिए जो हिन्दुओ की आन बान शान की रक्षा करे। यह संगठन बहुत हद तक एक मिलिटेंट स्वंयसेवी संस्था के रूप में काम कर रही थी। इतिहास के तथ्यों को देखे तो इस संगठन ने कभी नहीं कहा की देश का बटवारा करो। बल्कि मुस्लिम लीग द्वारा आयोजित डायरेक्ट एक्शन डे के दिन इनके द्वारा देशभर में की गई हिंसा में यह संगठन प्रतिक्रियात्मक हिंसा में संलग्न हुआ फ्रीडम एट मिडनाइट किताब की माने तो 14 अगस्त 1947 के दिन कराची में जिन्ना के माउंटबैटन के साथ पाकिस्तान के गवर्नर जनरल की शपथ लेते समय इस संगठन द्वारा हिंसा किये जाने की ख़ुफ़िया सुचना जरूर दर्ज़ हुई थी ,पर इनका वो प्लाट सफल नहीं हो पाया था
अब इस मामले के दूसरे पक्ष पर गौर करें। कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली संगठन थी। पर आज़ादी के बाद देश में स्थापित लोकतंत्र के तहत बहुदलीय व्यस्था के अधीन शामिल राजनीतिक दलों के बीच प्रतियोगिता हो , इसके लिए जरूरी था की देश में लोकतान्त्रिक शासन चलाने वाली राजनितिक दलों का नए सिरे से गठन हो। कही कही गाँधी जी द्वारा आज़ादी के पूर्व की करता धर्ता कांग्रेस को भंग करने का सुझाव का इशारा भी इसी तरफ था। अन्यथा पुरानी पार्टी होने के नाते और देश भर में अपने नेटवर्क होने की वजह से कांग्रेस का इस लोकतान्त्रिक भारत के शासन में हमेशा एकदलीय व्यस्था में एक तरह से चलना तय था। और ठीक ऐसा हुआ भी। देश की बाकी पार्टियों को नए सिरे से अपना अखिल भारतीय स्वरुप बनाने में लम्बा वक्त लगा। आरएसएस ने तो अपना राजनितिक दल 1950 में जाकर जनसंघ के रूप में बनाया। जनसंघ करीब 30 साल बाद जनता पार्टी के साझीदार के रूप में, 1998 में बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए 1 और 2014 में एनडीए 2 के रूप में शासन में पाया।
ऐसे में कांग्रेस अब यदि यह सोचती है की आज़ादी के लड़ाई में शामिल होने वाले दल ही भारतीय लोकतंत्र की दलीय प्रतियोगिता में शामिल होने की अर्हता रखते है तो उनका सोचना बिलकुल अनुचित है और दूसरा उन्हें ऐसा कहने का नैतिक आधार भी नहीं बनता। तीसरा आज की कांग्रेस तो आज़ादी वाली कांग्रेस है भी नहीं जो भारतीय समाज के विशाल समागम का प्रतिनिधितत्व करती थी जिसके अंदर कई सामाजिक धाराए समाहित थी। आज़ादी के बाद की कांग्रेस तो दरअसल नेहरू गाँधी परिवार की लिमिटेड कमपनी है। ऐसे में इस कांग्रेस को आज़ादी की लड़ाई वाली कांग्रेस को अपनी लिगेसी मानने की कोई नैतिकता नहीं बनती है। जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री तक कांग्रेस का एक आदर्श झलकता था। बाद में यह कांग्रेस देश के बजाये एक परिवार का प्रतिनिधित्व करती है।
वैसे भी कांग्रेस को इतिहास से सबक लेनी चाहिए की आखिर उनकी धर्मनिर्पेक्षता और राष्ट्रवाद का पलीता किसने लगाया ? आपने किसी भी सूरत में देश के विभाजन को रोकने का क्यों नहीं प्रयास किया? आप यह क्यों नहीं मानते की 15 अगस्त देश की आज़ादी का नहीं बल्कि देश के विभाजन का दिवस साबित हुआ ? गाँधी महात्मा ने उस आज़ादी दिवस का जश्न नहीं मनाया बल्कि उस विभाजन का शोक दिवस मनाया। इस मौके पर उन्होंने अपना राजनीतिक चेहरा छोड़कर एक मानवीय चेहरा ग्रहण कर कलकत्ते के हिन्दू मुस्लिम दंगों को रोकने में अपना सर्वस्व झोक दिया। बल्कि उनके इस मानवीय स्वरुप में कई बेवकूफ हिन्दुओ को मुस्लिम और पाकिस्तानपरस्ती चेहरा दिख गया और उन्हीं में से एक सिरफिरे ने गाँधी की हत्या कर दी। पर हमारी कांग्रेस पार्टी इस मामले के पुरे परिप्रेक्ष्य को उजागर ना कर इस पर आरएसएस विरोध की राजनीती की और आज भी कर रही है

दूसरा सवाल यह उभर कर सामने आता है की इस प्रतियोगी लोकतंत्र में आपको देश के दूसरे दलों द्वारा शासन करना क्यों नहीं मंजूर? तीसरा आपने अपने देश में सभी तरह की पहचान की राजनीती को लोकंतंत्र के तकाजे को देखते हुए से शुरू में ही क्यों नहीं प्रतिबंधित कर दिया ? यदि आप यह सोचते है हिन्दू बहुसंख्यक देश भारत में हिंदुत्व की राजनीती बीजेपी के पावर गेम को आसान बना देती है तो इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता पर इसके लिए जरूरी था की पिछले साथ सत्तर सालो में आपने देश में तमाम पहचानो वाली राजनीती को जड़ मूल से प्रतिबंधित किया जाता परन्तु देश में इतने वर्षो तक जाती, विरादरी और खानदान की राजनीती को पनपाया गया जिसका अंतिम फलसफा समुदाय की राजनीती में तब्दील हो गया है। ऐसे में सवाल यही है अपने क्यों नहीं भारतीय राजनीती का डिस्कोर्स शुरू से ही गुड गवर्नेंस के मानकों पर कसने का काम किया? हकीकत यह है कि समय ,सुविधा के हिसाब से आपने उन सभी तत्वों का अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ में इस्तेमाल किया।

No comments:

Post a Comment