Monday, August 3, 2015

एजेंडा हिंदू राष्ट्रवाद का पर आतंरिक सुधार की आहट नहीं
मनोहर मनोज , संपादक , इकोनॉमी इंडिया 

पिछले तीन दशक के दौरान भारत की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता, बहुसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकवाद के मुद्दे जिस तरह से उभरे उसमे देश में उपजे दोनों कथित राजनीतिक ध्रूवों सेकुलर राजनीतिक ध्रूव और कम्युनल राजनीतिक ध्रूव के सामने बेहद गंभीर सवाल खड़े हैं। वे सवाल जो देश के व्यापक राष्ट्रहित और समाजहित के मद्देनजर बने हैं। पहले हम सेकुलर राजनीतिक ध्रूव के नजरिये से बात करें तो हमे ये यह लगता है कि आजादी के बाद देश का संाप्रदायिक आधार पर हुआ विभाजन चाहे जिन एतिहासिक कारकों की वजह से हो या व्यक्तियों की सत्ता लिप्सा के हठ से हो, ऐसे कई सवाल छोड़ गया जो अभी भी प्रासंगिक हैं। पर महत्वपूर्ण बात ये रही कि भारत ने विभाजन के बावजूद अपने अस्तित्व को धर्मनिरपेक्ष बनाये रखा। पर  विभाजन से देश में उपजी सांप्रदायिक विभाजन रेखा अभी भी साफ तौर पर दिखायी पड़ती है। यह ठीक है कि मानवीय आधार पर सांप्रदायिक झगड़े-फ सादों को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। पर राजनीतिक आधार पर देश का विभाजन हो जाए और मुस्लिम राज्य के नाम पर एक अलग देश का निर्माण हो जाए तो फि र उसके बाद धर्मनिरपेक्षता स्वत: अपना नीतिगत  मायने खो बैठती है। 
हम यदि विभाजित देश में मौजूद अल्पसंख्यक या मुस्लिमों की जान माल और उनके अस्तित्व की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता की पैरोकारी करते हैं तो उसका माने समझ में आता है पर राजनीतिक रूप से उनके पहचान को बनाये रखने के लिए यदि धर्मनिरपेक्षता का उद्घोष किया जाता है तो इसका कोई औचित्यपरक मायने नहीं समझ में आता है।
आजादी के पहले स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस पार्टी सैद्धांतिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी थी, जिसमे कद्दावर मुस्लिम नेताओं की कमी नहीं थी। इसके बावजूद मुस्लिम लीग द्वारा कांग्रेस को हिंदू हितों को तरजीह देने वाली राजनीतिक पार्टी माना गया और आंदोलन के दौरान हीं एक अलग मुस्लिम देश की मांग कर दी गई। न सिर्फ मांग की गई बल्कि आजादी के बाद अलग मुस्लिम देश स्थापित भी हो गया। अब यदि आजादी के बाद कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की चैंपियन बनने की बात करती है तो फिर उसका अर्थ समझ में नहीं आता है। उसकी धर्मनिरपेक्षता आजादी के पहले ही फेल  हो चुकी है। आज इस विभाजित भारत में सांप्रदायिक मामलों पर बिना मानवीयता का हवाला दिये कुछ राजनीतिक दलों द्वारा यदि यह डर दिखाया जाता है कि क्या इस देश का और विभाजन होगा तो ऐसा कहने वाले एक दूसरे विभाजन को और हवा दे रहे हैं, वे उसी गलती को फिर दुहरा रहे हैं जो गलती आजादी के पहले कांग्रेस ने किया। ऐसा कह कर अलगाववादी तत्वों को एक नये रूप में नैतिक बल दिया जाता है। ऐसा कहने वाले पिछले 1947 के विभाजन को उसी तरह से उचित ठहरा रहे हैं। इसी तरह यदिकोई कट्टर हिंदुवादी ये कहता है कि विभाजन के दौरान देश में मौजूद सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान क्यों नहीं भेज दिया गया? ऐसा कहने वाले भी उस विभाजन को नैतिक रूप से सही ठहरा रहे हैं। जो मुस्लिम विभाजन के बाद भी इस देश में बने रहे और जिन्होंने अलग मस्लिम देश निर्मित होने की आलोचना की वे दरअसल देश भक्त हैं। वे दरअसल एक अविभाजित भारत के प्रतीक हैं। 
 सीधा सवाल तो यह है कि आजादी आंदोलन के दौरान फ्रं ट में रही कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता की मशाल लेकर भी इस देश के धार्मिक विभाजन को स्वीकार कैसे कर लिया? अत: आज उन्हें इस बात को कहने का नैतिक अधिकार नहीं है कि इस देश के सांप्रदायिक आधार पर कई टुकड़े हो जाएंगे। एक तो आपने पहले बहुत बड़ी कमजोरी दिखायी और अब उस फि र कमजोरी को दोबारा दिखाया जा रहा है। 
  मिसाल के तौर पर कश्मीर को लें। चाहे जिन एतिहासिक कारणों से कश्मीर भारत राष्ट्रराज्य के साथ जुड़ा हो, वहां अभी अलग देश बनाने की मांग कुछ लोग क्यों कर रहे हैं ? क्योंकि वह भारत का अल्पसंख्यक मुस्लिम बहुल एक मात्र राज्य है। जब भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में एक मुस्लिम बहुल सुबा एक अलग देश बनने की बात करता है तो फि र देश की धर्मनिरपेक्षता के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह खड़ा होता है। आखिर 1947 में भी अविभाजित भारत में पंजाब और बंगाल जैसे मुस्लिम बहुल राज्यों के बेस पर ही अलग पाकिस्तान का निर्माण हुआ। हम भारत में सांप्रदायिक राजनीति और सांप्रदायिकता को मानवीयता के तराजू पर खारिज कर सकते हैं कि सब इंसान एक हैं। सबके साथ एक बराबर इंसाफ होना चाहिए और उन्हें एक बराबर अवसर मिलने चाहिए। इस दृष्टि से हम सांप्रदायिकता को मानव सभ्यता के खिलाफ  बता सकते हैं, इसे देश की सामूहिक प्रगति में बाधक बता सकते हैं। पर राजनीतिक आधार पर इसे गलत बताने का काम एक तरह से पंडारा बौक्स खोलने का काम करेगा। 
आज पाकिस्तान जो संवैधानिक रूप से अपने को मुस्लिम राष्ट्र घोषित कर चुका है वह भी अपने आप को धर्मनिरपेक्ष देश होने का दावा करता है और भारत को सांप्रदायिक देश बताता है। इस बात का भारतीय हुकूमरानों के पास क्या जबाब है? बांग्लादेश पाकिस्तान से 1971 में अलग होकर एक अलग संप्रभु देश बना तो वह एक धर्मनिरपेक्ष देश बना जहां गैर मुस्लिम आबादी का अनुपात दस फीसदी तक था। इसके बावजूद इतिहास के कालक्रम में वह देश मुस्लिम सांप्रदायियों की गिरफ्त में आ गया। वहां न केवल संविधान से धर्मनिरपेक्ष शब्द को बाहर कर दिया गया। बल्कि वहां अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने वाले संस्थाओं को नेस्तनाबूद किया जा चुका है। भारत में पीडि़त अल्पसंख्यक अपनी व्यथा को अभिव्यक्त करने के लिए भारत में हीं अपना मंच खोज सकते हैं पर पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों को अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए मंच नहीं है। खुशी की बात ये है कि अभी शेख हसीना के नेतृत्व में वह देश अपनी धर्मनिरपेक्ष संस्थाओं को तेजी से मजबूत कर रहा है। इसके विपरीत भारत में अल्पसंख्यकों के हितों के लिए कई संस्थायें अस्तित्व में हैं। इन सारे सवालों के वजह कहीं न कहीं इस देश के सांपद्रायिक विभाजन में ही छुपे हुए हैं। पाकिस्तान बना तो करीब पांच लाख लोग दंगे की भेंट चढ़ गए। जब बांगलादेश की आजादी के दौरान वहां करीब 20 लाख बंगालियों का कत्ल हुआ। इन सबकी वजहें सांप्रदायिक विभाजन ही रही हैं।
अब बात उन राष्ट्रवादियों की की जाए जो राष्ट्रवाद को हिंदुत्व का हीं पर्याय मानकर चलते हैं। दरअसल यह हिंदू राष्ट्रवाद संपूर्ण हिंदू धर्म के तानेबाने का कोई मजबूत प्रतिनिधित्व नहीं करता, यह सिर्फ मुस्लिम धर्म के उस विरोध पर खड़ा है जो न सिर्फ अमानवीय है बल्कि अवैज्ञानिक और घृणा पर आधारित है। भारत में अपने को हिंदू राष्ट्रवाद की चैंपियन मानने वाली राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनकी राजनीतिक संस्था बीजेपी को मुस्लिमों के विरोध से पहले अपने धर्म में सदियों से चले आ रहे अंतरविरोध और इसके ताने बाने में मौजूद तमाम विभाजनरेखाओं का अध्ययन करना चाहिए। आज इन संगठनों को इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म या पंथ जो भी हो वह सिर्फ एक देश में सिमट कर क्यों रह गया? वह धर्म इतनी जातियों और बिरादरियों में क्यों बंटा हुआ है? इस धर्म के प्रतिनिधि देश भारत को हजारों साल तक गुलाम क्यों रहना पड़ा? यह धर्म इतने खंडों और गांठों को अपने आप में धारण क्यों किया हुआ है? इस धर्म के करोड़ों लोगों का धर्म परिवर्तन कैसे हो गया?
 धर्म के संगठन की दृष्टि से देंखे तो दुनिया के सारे धर्म हिंदू धर्म की तुलना में ज्यादा संगठित और एकीकृत हैं। पर यह हिंदू धर्म तमाम तरह के उंच-नींच, छुआछूत, आडंबर और अवरोधों से भरा हुआ है। हिंदू राष्ट्रवाद के चैंपियन यदि हिंदू धर्म को हीं भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक मानकर चलते हैं तो उन्हें इस विशाल हिंदू धर्म में घोषित-अघोषित रूप से, प्रमुख और गैर प्रमुख रूप से शामिल सभी जाति और उपजाति के लोगों को एक धर्म की धारा में समान रूप से ढ़ालने का महाप्रयास करना चाहिए। किसी दूसरे धर्म के विरोध के जरिये अपने धर्म को मजबूती नहीं मिल सकती। पहले तो अपने धर्म की विकृतियों को दूर कर चलना होगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यदि अपने आप को सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन मानती है तो उनका यह पुनीत कर्तव्य होगा कि वह हिंदू धर्म में हजारों साल से कायम तमाम विकृतियों को दूर करने का महाउद्घोष करे। संघ के हिंदू पुनरूत्थानवाद  का नया अध्याय तब तक शुरू नहीं हो सकता जब तक वह ब्राह्मणवाद के पर्याय के रूप चलती रहेगी। यह ब्राह्मणवाद ब्राह्रमण जाति नहीं बल्कि वह कर्मकांडी ब्राह्मणवाद जो हिंदू धर्म में एडोप्शन नहीं रिजेक्शन की नीति पर चलता रहा। नतीजतन हिंदू धर्म में व्यापक रूप से धर्मान्तरण हुआ। राजाराम मोहन राय, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी जैसे शख्सियत तो अपने को हिंदुत्व का चैंपियन नहीं कहते थे पर उन्होंने इस धर्म को इसकी जकड़ी हुई तमाम बीमारियों से मुक्ति दिलायी और इस धर्म की एक तरह से महारक्षा की।
लेकिन संघ के हिंदूत्व पुनरूत्थानवाद के एजेंडे में हिंदू धर्म में रचनात्मक सुधार और इसके प्रसार संबंधित सारी बातें गौण हैं। अपने को हिंदू धर्म के चैंपियन मानने वाले इस संगठन के पास इस बात का क्या जबाब है कि जो लोग आज मुस्लिम धर्म से घृणा करते हैं उससे कम घृणा वे हिंदू दलित जाति से नहीं करते। आज हिंदू धर्म के नाम पर राष्ट्रवादी आख्यान देने वाले ऐसे कितने लोग हैं जो हिंदू समाज में मौजूद पचास फ ीसदी दलित और अछूत तबकों को हिंदू धर्म की मुख्यधारा में लाकर उन्हे इस अभियान का नेतृत्व प्रदान करने की बात कह सकें। यह काहे का बहुसंख्यकवाद है जिसमें हजारों जातियों का कुनबावाद भरा पड़ा हैं। आज  हिंदू धर्म को कमजोर करने वाले तत्व की संघ विवेचना नहीं करता बल्कि दूसरे धर्म के विरोध के जरिये उसी कट्टरता को अपने धर्म में हवा दे रहा है जिस कट्टरता के विरोध में वह किसी धर्म विशेष के विरूद्ध खड़ा है। 
यह ठीक है इस देश में आजादी के बाद हिंदू समाज में मौजूद तमाम कुरीतियों मसलन छुआछूत वगैरह की समाप्ति के लिए छुआछूत निवारण कानून और हिंदू कोड बिल जैसे तमाम उपाय लाये गए। आज छुआछूत कानूनन अपराध है। पर इसका मतलब यह नहीं है कि भारतीय समाज से छुआछूत समाप्त हो गई है। शारीरिक रूप से यह भले समाप्त हो गई हो, मानसिक रूप से अभी भी यह समाप्त नहीं हुई है। हिंदू धर्म में हजारों साल से चल रही विकृतियां अभी भी मौजूद हैं। यह ठीक है ये विकृतियां अन्य धर्मों में भी मौजूद हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम धर्म में भी सुधार की ढ़ेर सारी गुंजाइश है। पर कोई धर्म सिर्फ  अपने में सुधार की बात करें तो ज्यादा ठीक है बजाए कि दूसरे धर्म की आलोचना कर धार्मिक तनाव का माहौल पैदा करे। धर्म के संगठन के विस्तार और मजबूती की दृष्टि से हिंदूत्व के कर्णधारों और कथित ठेकेदारों को ज्यादा काम करने की जरूरत हैं। आज हिंदू धर्म की उंची जातियों  को जिन्हें हिंदू धर्म के अस्तित्व को लेकर राजनीतिक रूप से ज्यादा चिंता हैं उनमे कितने ऐसे हैं जो दिल से इस धर्म के दायरे में आने वाले विशाल दलित तबकों को सामाजिक रूप से सम्मान और समानता का दजाज़् देने को तैयार हंै। 
सवाल ये नहीं कि मायावती के साथ सत्ता की साझेदारी हो रही है। सवाल ये है कि देश के  समाज का तानाबाना हर तरह से एक बराबर भाव से गुंठा हैं या नहीं। आज संघ ने इस बात पर कभी आंदोलन नहीं छेड़ा कि हिंदुओं में अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देकर इस धर्म को भेदभाव से मुक्त किया जाए। संघ ने यह बात कभी नहीं की कि ब्राह्मण नहीं बल्कि दलित हीं इसके अगुआ होंगे क्योंकि हजारों साल तक उन्होंने इस धर्म में जलालत की स्थिति देखी है। उस सदियों से मिले तिरस्कार को इस नये पुरस्कार के जरिये धो दिया जाए।
 वह तबका जिनके बाल बच्चों के नाम हिंदू धर्म के देवी देवताओं पर ज्यादा रखे होते हैं। जिनकी हिंदू देवी देवताओं में ज्यादा आस्था है। इसके विपरीत उंची जाति के हिंदुओं में जिन्हें धर्म में कम, धर्म की राजनीति में आस्था ज्यादा है। हमें तो शुक्र मनाना चाहिए वह तबका जो इतने अन्याय और शोषण के बावजूद इस धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ  बगावत नहीं की। हिंदू धर्म के चैंपियनों को तो गांधी को इस बात के लिए आभार मानना चाहिए कि जिन्होंने इस देश की  विशाल आबादी को ‘हरि के जन’ की संज्ञा देकर सीधे सीधे हिंदू धर्म के अस्तित्व की रक्षा की। पर संघ इस हिंदू धर्म के एतिहासिक स्वरूप की विवेचना कर इसे और सुदृढ़ बनाने का कोई अभियान नहीं चलाता बल्कि वह दूसरे धर्म की खामियों के उधेड़बुन में रहता है। उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि यदि आपका घर ठीक है तो फिर दूसरे की क्या मजाल है वह आपको छेड़ सके। इतिहास में इन्हीं कमजोरियों की वजह से हिंदू धर्म के अस्तित्व पर संकट पैदा हुए। आज उन कमजोरियों को दूर करने के बजाए संघ पुराने गड़े मुर्दे उखाड़ रहा है जिसके निशाने में उन निर्दोष व्यक्तियों की भावनाएं आहत हो रही हैं और भय व्याप्त हो रहा है जो उस एतिहासिक क्षण में मौजूद नहीं थे। ठीक है अगर इतिहास ने गलती की है तो वर्तमान उसकों क्यों भुगते? देश के विभाजन के मद्देनजर इस भारत देश की आत्मा को मिले धक्के को धर्मनिरपेक्षता के बहाने मिटाने का औचित्य नहीं बनता लेकिन दूसरे धर्म के विरोध में खड़े होकर उसी कट्टरता को अपनाने की बात भी किसी तरह से जायज नहीं कहा जा सकता।

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