Monday, August 24, 2015

कई सवालों के घेरे में है एक राष्ट्रराज्य के 69 सालों का सफर

किसी देश के इतिहास में उसके ठीक पहले के सौ या दो सौ साल वहां के लोगों के दिलोदिमाग और मस्तिष्क पटल में प्रमुखता से छाये रहते हैं। उस हिसाब से आज से ठीक उनहत्तर साल पूर्व भारत को साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से मिली मुक्ति हमारे लिये काफी मायने रखती है जो हमारे लिये आजादी का दिवस होने के साथ साथ एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवसर थी। मान्यताओ के इन व्यावहारिक संदर्भों में जिस तरह से दुनिया के उन सभी देशों ने जिसने इस उननिवेशवाद से मुक्ति पायी, वे सभी देश अपनी आजादी का दिवस मनाते हैं उसमें भारत भी एक है।
इसके साथ एक तथ्य यह भी है दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में यह आजादी का दिवस सिर्फ एक औपनिवेशिक आजादी का दिवस नहीं था, बल्कि 15 अगस्त, 1947 का दिन भारत के राजनीतिक रूप से एकीकृत और आधुनिक शासन प्रणाली तथा नये संविधानवाद की आशा से सुसज्जित होकर सभी नागरिकों के लिए एक नये देशज जीवन की शुरूआत थी। वह आजादी इसलिए भी ज्यादा स्मरणीय है कि हजारों सालों से भारत की समाज व्यवस्था को गांधीजी के नेतृत्व में एक नयी सामाजिक और आर्थिक दृष्टि प्राप्त हुई थी। छुआछूत उन्मूलन, दलितोद्धार, जातिगत समानता, ग्रामोद्धार ओर स्वावलंबन जैसे आंदोलन भी चले। इसी का नतीजा था कि आजादी के उपरांत संविधान में देश के कमजोर और निर्धन वर्ग के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक आरक्षण प्रदान किये गये।
15 अगस्त, 1947 को इस आजादी ने जहां देश में हजारों साल से चल रही सामाजिक व्यवस्था को बदल कर एक नये अध्याय की शुरूआत की वहीं उसी दिन इस देश ने पिछले एक हजार वर्षों की स्थापित धार्मिक राजनीतिक संस्कृति का बुरा हश्र भी अनुभूत किया। नतीजा सबके सामने था। पहली बार राजनीतिक रूप से एकीकृत हुआ भारत वर्ष का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन हो गया। पाकिस्तान नामक एक अलग इस्लामिक देश का उदय हो गया और आजादी के कर्णधारों ने आपसी सत्ता की खींचतान में इस विभाजन को एवमअस्तु कर दिया। यानी कि आजादी के उपरांत भारत को अपने जिस भूगोल का दिगदर्शन करना चाहिए था उसके बायीं और दायीं दोनों और विभाजन रेखाएं खिंची हुई थीं। ऐसे में 15 अगस्त 1947 का दिन दरअसल एक तरह से उपनिवेशवाद से मिली मुक्ति का ही एक दिवस नहीं था बल्कि भारत राष्ट्रराज्य के सांप्रदायिक आधार पर विभाजन का दिवस भी साबित हुआ।
तदंतर पांच हजार साल की सभ्यता वाले देश भारत ने एक ऐसे राष्ट्रीय जीवन की शुरूआत की थी जो समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के आधुनिक राजव्यवस्था के मॉडल को फॉलो कर रहा था। देश के अनेक देशी रियासत- रजवाड़े जो पिछले करीब एक हजार साल तक तमाम बाहरी ताकतों की प्रभुता के साये तले जैसे तैसे अपने अस्तित्व को बचाये हुए थे वह आजादी के बाद राजनीतिशास्त्र के आधुनिक सिद्धांतों की आधारभूमि पर अब खड़ा हुए थे। इस आलोक में भारत के अपने पांच हजार सालों के इतिहास मेंं 15 अगस्त 1947 का दिन एक नयी शुरूआत रही है। इस शुरूआत के सात दशक बीत चुके हैं। इस सफर में भारत  की राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति ने कई नयी करवटें ली हंै।
69 साल के इस मूल्यांकन में राजनीतिक रूप से लोकतंत्र की शुरूआत को हम  निश्चित रूप से एक बड़ी घटना मान सकते हैं। वह लोकतंत्र जो पश्चिमी देशों के नवजागरण काल की कोख से उत्पन्न हुआ और पूरी दुनिया में फैला। ऐसे कई उपनिवेश जो बीसवीं शताब्दी में साम्राज्यवादी ताकतों से मुक्त हो रहे थे उन्होंने लोकतंत्र को अपनाया। पर इनमें कई ऐसे देश भी थे जो इसे ढ़ो नहीं पाये। पर इनमे भारत का लोकतंत्र निर्बाध रूप से चलता रहा है। सिर्फ लोकतंत्र आधारित हमारा राजनीतिक तंत्र ही नहीं बल्कि देश की समूची व्यवस्था का हमारा तानाबाना जो स्वतंत्र्योत्तर काल में निर्मित हुआ वह कहीं न कहीं आधुनिक पश्चिमी सभ्यता से उत्पन्न होकर विश्व के बाकी हिस्सों में पसरी हुई व्यवस्था रही है। राजनीतिक रूप से चुनाव आधारित बहुदलीय लोकतंत्र, त्रिस्तरीय शासन प्रणाली, संघीय ढ़ांचे, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का पृथक्कीकरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इत्यादि इस देश में नये सिरे से शुरू हुए।
देश में नौकरशाही का ढ़ांचा, सैन्य तंत्र, न्याय तंत्र, बैंकिग व्यवस्था, सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना ये सभी नये सिरे से शुरू किये गए। यानी आधुनिक विकास की आधारशिला जो औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप के देशों में पनपी थी वह दुनिया के नवस्वतंत्र्य देशों के लिए रोल मॉडल बनी। भारत इसका एक प्रमुख वाहक देश बना।
पिछले करीब साठ सालों में भारत राष्ट्रराज्य ने एक गणतंत्र के रूप में सैद्धांतिक रूप से अनेक प्रगतिशील आयाम स्थापित किये हैं। इसमें समाज निर्माण से लेकर देश निर्माण तक के लिए लोकतांत्रिक तरीके से अनेकानेक उपायों की जमीन तैयार की गई है। पर प्रगति की इस नींव में कुछ ऐसे खंभे गड़े हुए थे जो पिछले साठ सालों के दौरान हटाये नहीं जा सके। आज भी भारतीय लोकतंत्र मध्ययुगीन सामंती परंपरा के मुताबिक वंशवाद, धनबल, बाहुबल की ताकत से पोषित और शासित होता आ रहा है। लोकतंत्र वास्तविकता के धरातल पर नहीं खानापूर्ति ज्यादा है। शासन व्यवस्था पर निहित स्वार्थी तत्व ही काबिज हैं। यह सही है कि कोई व्यवस्था ओर किसी समाज को पूर्ण रूप से मनोनुकूल बनाने में एक निश्चित समयावधि लगती है। उस दृष्टि से भारतीय लोकतंत्र पूर्णता की प्राप्ति के सफर के बीच रास्ते पर है जिसमें अभी और समय और अभी और सुधार के प्रयासों की दरकार है।
इस परोक्ष व दलीय लोकतंत्र में अभी भी ऐसी सामाजिक परिस्थितियां मौजूद हैं जिसमे एक परिवार की चार चार पीढ़ी सामंतशाही की तर्ज पर शासन कर रही हैं। एक बार शासन में आए लोगों की औलादें राजनीति की जमीन वैसे ही पा जाती हैं जैसे कि राजा के मरने के बाद बड़ी आसानी से युवराज को राजगद्दी सौंप दी जाती है।  प्रशासन की बात करें तो देश, राज्यों और स्थानीय स्वशासी इकायों के नियंत्रण में चल रहा एक विशाल प्रशासनिक तंत्र, भ्रष्टाचार के तंत्र के पर्याय बन कर खड़े हैं।
पिछले 69 सालों में भारतीय राजनीति में मौजूद लोकतंत्र, प्रशासन में मौजूद नौकरशाही, अर्थव्यवस्था में मौजूद पूंजीपति, समाज में मौजूद अभिजात वर्ग अभी अपने में सुधार के अनेक प्रश्रवाचक चिन्ह लिये खड़े हैं। देश के व्यापक सामाजिक आर्थिक उद्देश्यों मसलन गरीबी उन्मूलन, जनसंख्या नियंत्रण, पूर्ण रोजगार की प्राप्ति, मानव विकास की बेहतर सुविधायें, भ्रष्टाचार और कालेधन पर रोक, कमजोर तबकों  को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने को लेकर चुनौतियां आजादी के 69 साल बाद भी वैसे ही बनी हुई हंै ंजो पहले थीं। इस दिशा में सरकारें सही ट्रैक पर चली भी नहीं। क्योंकि निर्धनता उन्मूलन की योजनाएं निर्धनता हटाने के बजाए सफेदपोश प्रशासनिक अधिकारियों को और अमीर बनाने का काम करती आयी हैं।
यह सही है कि हमने आधुनिक शासन व्यवस्थाओं को सैद्धांतिक रूप से अपना लिया पर वास्तविक धरातल पर सुशासन, प्रगति, समानता, न्याय और सभी तरह के अवसरों की हर तबके के लिए उपलब्धता मौजूद नहीं है। देश की नौकरशाही आजाद भारत की जनभावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती। यह तो नौकरशाही नहीं स्वामीशाही है जिसमें नौकर मालिक की भूमिका में और मालिक नौकर की भूमिका में दिखाई देता है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिवर्तनों की घटनाशीलता के आधार पर आजादी के बाद के काल को दो भागों में बांटा जा सकता है। एक 1990 के दशक के पूर्व के काल और दूसरा 1990 के दशक के बाद का काल। आजादी के बाद के इस काल खंड को समाजवादी विचारधारा के लोग सरकारीकरण का काल और भूमंडलीकरण के काल के रूप में मानते हैं। पर इन दोनों कालों में बहुत अच्छे तत्व भी रहे और खराब तत्व भी रहे। मसलन आजादी के उपरांत समाजिक सुधार के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण पहल हुए। मसलन छुआछूत पर रोक लगाना, समाज के कमजोर वर्ग के लिए अवसरों की बहुलता, उच्च स्तर पर एक नैतिकता आधारित ईमानदार राजनीति की शुरूआत। राजनीतिक स्तर पर यह काल जहां लोकतंत्र की स्थापना, नये प्रान्तों का निर्माण, सामाजिक आर्थिक विकास के नये कार्यक्रम को लेकर भी जाना जाएगा।
इसमें कोई शक नहीं कि आजादी के बाद भारत की सरकारों ने समाजवादी और लोककल्याणकारी भावना से सरकारों की भूमिका का काफी विस्तार किया। इसके तहत बुनियादी क्षेत्र से लेकर मनोरंजन तक, होटल से बस तक, हवाई जहाज से लेकर रेलवे तक, स्कूल से लेकर अस्पताल, बैंक से लेकर बीमा करवाने तक सभी कुछ स्थापित करने का काम सरकार करने लगी। अगर कोई कारखाना घाटे पर चल रहा हो तो उसका भी सरकारीकरण हो जाता था। अगर किसान के लिए उर्वरक प्रदान करना है तो सरकार उसका भी कारखाना बनाने लगती थी। समाजवादी भावना के साथ निश्चित रूप से सरकारीकरण की नीति पर चली सरकार यह भूल गई कि जिस तरह निजी क्षेत्र की अतिवादिता वीभत्स पूंजीवाद का शक्ल ले लेती है जो शोषण व अन्याय को जन्म देती है उसी तरह से अति सरकारीकरण एक भ्रष्ट अफसरशाही तंत्र को पैदा करती है। मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढ़ांचे पर चल रही हमारी अर्थव्यवस्था एक तरफ निजी क्षेत्र के पूंजीवाद के विकृत रूप का दीदार कर रही थी तो दूसरी तरफ सार्वजनिक अर्थव्यवस्था भ्रष्ट अफसरशाही से भी दो चार हो रही थी।
निजीकरण और सरकारीकरण की नीति दरअसल विवेक, सुनिर्णय और समय सापेक्ष परिस्थितियों के अनुरूप न होकर महज सैद्धांतिक ढर्ऱे पर हुआ। दूसरी तरफ नीतियों के निर्माण पर देश के राजनीतिज्ञों और योजनाकारों ने ध्यान ज्यादा दिया पर नीतियों के क्रियान्वयन जो उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण चीज है उसकी घोर उपेक्षा कर दी गई। सरकार ने हर गतिविधियों का सरकारीकरण तो कर दिया पर इसमें उत्पन्न होने वाली खामियों, लचरपन, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार, जनसेवा के कार्यों की उपेक्षा पर अंकुश लगाने के लिए  सरकार के पास हर समय सक्रिय रहने वाला कोई समानांतर तंत्र नहीं था। नतीजा ये हुआ कि तमाम लोककल्याणकारी कामों की प्रगति अवरूद्ध रही। विकास और निर्धनता उन्मूलन के कार्यक्रम अपने लक्ष्यों को पाने में कामयाब नहीं हुए। सरकार के पैसे की भयानक बर्बादी हुई। सरकार की आमदनी कम और खर्चे ज्यादा बढ़े। शहरों और गांवों के विकास में असंतुलन की स्थिति वैसे ही पनपी जो स्थिति कृषि और उद्योग के बीच दिखाई पड़ती है।
हमारे साथ के दुनिया के और देश जहां विकास के मामले में नई ऊंचाईयों को प्राप्त किया उसके मुकाबले हमारी रफ्तार तुलनात्मक रूप से पीछे रही। यही वजह है कि आज भी हमारा  प्रति व्यक्ति आय दुनिया के निचले कतार के देशों में खड़ा करता है। इन सब परिस्थितियों पर निजात पाने के लिए किसी सुधार प्रक्रिया को न लाकर 1990 के दौरान करीब चालीस साल पुराने हो चुके स्वाधीन भारत के हमारे कर्णधारों ने यह एहसास किया कि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी, की नीति अपनाई जाए। उन्होंने देश के सार्वजनिक क्षेत्र का आत्मसर्मपण करवा दिया। सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार के बजाए उनका या तो निजीकरण कर दिया गया फिर भुमंडलीकरण के हवाले कर दिया। मजे की बात ये है कि इस समर्पण और जिम्मेदारियों के हस्तानांतरण को सुधार की संज्ञा दे दी गई।
1990 के दशक में नई आर्थिक नीति के जरिए इसी नई आर्थिक संस्कृति की शुरूआत की गई। इस आर्थिक नीति के नि:संदेह कुछ अच्छे पहलू थे। मसलन, अर्थव्यवस्था के तमाम गतिविधियों में प्रतियोगिता की शुरूआत हुई। अपने उद्देश्यों की पुर्ति में विफल सार्वजनिक उपक्रमों को सरकार के स्वामित्व से बाहर कर दिया गया। फोन, बिजली, गैस जैसी सार्वजनिक सेवाओं और जरूरतों की आपूर्ति नये नीतिगत उपायों से ज्यादा बेहतर हुई। बल्कि 1990 के दशक के उत्तराद्र्ध में महगाई पर एक तरह से काबू की स्थिति देखी गई। टी एन शेषन की नेतृत्व में शुरू हुई चुनाव सुधार की प्रक्रिया 1990 के दशक की एक महत्वपूर्ण घटना थी। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। आज देश मेें चुनाव का आयोजन ज्यादा स्वच्छ हो रहा है। पर 1990 के दशक में जिस सार्वजनिक क्षेत्र की अतिशयता और उससे उत्पन्न अफसरशाही की भ्रष्टता तथा इससे मिली विफलताओं से निजात दिलाने के लिए निजीकरण आधारित नई आर्थिक नीति की शुरूआत हुई वह भी भ्रष्टाचार से ओतप्रोत थी। जिस तरह से हर वर्ष हमारे बजट का आकार बढ़ता गया उसी तरह से हमारे भ्रष्टाचार का भी कारोबार बढ़ा। 1990 के दशक में भ्रष्टाचार के नये नये आयाम स्थापित हुए।
निचले स्तर पर तमाम तरह के भ्रष्टाचार के अलावा उपरी स्तर पर कमीशन, विनिवेश सौदेबाजी, हवाला, कर वंचना के जरिये नये तरह के भ्रष्टाचार उत्पन्न किये गये। राजनीतिक स्तर पर जहां सशक्त विपक्षी दल का अभाव और राजनीतिक भ्रष्टाचार जहां आजादी के बाद हमारी प्रमुख विफलताएं थी वहीं लोकतंत्र का पंचायत से लेकर राज्य तक और राज्य से लेकर केंद्र तक बरकरार अस्तित्व भले बुरे तरीके से जैसे भी हो, हमारी सफलता रही है। आर्थिक क्षेत्र में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, हरित क्रांति ,श्वेत क्रांति, सेवा क्षेत्र के विकास, सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति, पोलियो उन्मूलन, संचार और  जहां हमारे अच्छे घटनाक्रम रहे वहीं ग्रामीण पिछड़ापन, शहरी अप्रावासन और निर्धनता, पहचान की राजनीति तथा भ्रष्टाचार की विकरालता अभी भी जारी है।

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