Saturday, August 1, 2015



कल महान लेखक प्रेमचंद की जनम तिथि 31 जुलाई पर मनाई जाने वाली हंस गोष्ठी में पहली बार मैंने शिरकत की जिसका विषय था राजनीती की सांस्कृतिक चेतना। गोष्ठी में तमाम प्रबुद्ध प्रखर और चेतनशील लोगों की उपस्थिति से माहौल काफी उत्साहजनक था, पर गोष्ठी के निर्धारित विषय राजनीती की सांस्कृतिक चेतना पर गोष्ठी के उद्बोधनकर्ताओं और प्रश्नकर्ताओं का भटकाव अफसोसनाक था जो महान लेखक प्रेमचंद की स्मृति और इस गोष्ठी के विषय वस्तु से खिलवाड़ था। लोग अपने संवाद के दौरान अपने आग्रहों , दुराग्रहों और अपनी विचारधाराओं की गिरफ्त में बनी परंपरागत अवधारणाओं के मोह तथा अपने निजी राजनितिक झुकाओ से अपनी मनीषा को मुक्त नहीं कर पाएं। इस संगोष्ठी की विषयवस्तु जहाँ इस बात को प्रतिपादित करती थी की तमाम धर्मों के रीति रिवाज , पर्व त्यौहार और जीवन शैली हमारी विशाल और समृध संस्कृति की संरचना की निमित्त और अवयव है जो अपनी खूबसूरती से सभी सामान्य लोगों को आकर्षित करती हैं जो अनादि काल पहले शुरू होकर अगले अनंत काल तक संचयात्मक तरीके से चलती रहेगी। वह संस्कृति एक निरपेक्ष संस्कृति के रूप में पुष्पवित और पल्लवित होती रहेगी। पर जब यह संस्कृति हमारे अलग अलग संगठित धर्मो की अपनी खास पहचान और उनके आइडेंटिटी की ट्रेडमार्क बन जाएगी तब वह चेतना एक विशुद्ध सांस्कृतिक चेतना ना होकर वह तो फिर एक संगठित धार्मिक चेतना बन जाएगी। और ऐसी सूरत में राजनीती में खींची जातीय विभाजन रेखा बौद्धिक बिभाजन की भी लकीर खींचेगी। इसी सांस्कृतिक चेतना के धार्मिक चेतना में बदल जाने की वजह से राजनीती को इससे निरपेक्ष रखने का धर्मनिरपेक्षता का महान विचार प्रासंगिक हो उठता है। पर विडंबना ये है की इस धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा के मूल और उसकी वैज्ञानिकता के साथ सबसे छेड़छाड़ तो वो लोग करते रहे है जो धर्मनिरपेक्षतावाद का डंका पीटते है और जि नके अंदर की मानसिक व्यूहरचना साम्प्रदियकता से ओतप्रोत है। वही दूसरा वर्ग ऐसा है जो धर्म के संगठित स्वरुप पाने की रेस में अकल के अभाव में नक़ल करने पर आमादा है। वैज्ञानिक बौद्धिकतावाद और सामाजिक समूहों को एकत्रित न रख पाने और उनमे तमाम विभाजन रेखाओं के बीज बोने सम्बन्धी इतिहास बोध के अभाव में यह वर्ग धर्मनिरपेक्षता से भयभीत हैं जो आजतक उसकी सबसे बड़ी ताकत रही है। और इन्ही बातो का नतीजा है की हम गरीबी जैसे विषय पर भी प्रेमचंद के लेखन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय था इस पर या तो हम भाषा और नारों की जुमलेबाजी करते है या इनकी गुटीय राजनीती करते है या फिर इसकी ग्लोबल मार्केटिंग करते है , इसके रोक का बेहतर सिद्ध समाधान नहीं निकालते।

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