Monday, August 3, 2015

उड़ान उच्च मध्य वर्ग के सपनों की

मनोहर मनोज
भा रतीय उच्च मध्य वर्ग का वर्तमान भौतिकतावाद एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। देश का उच्च-मध्य वर्ग जहां सुख-समृद्धि, ऐशो-आराम तथा विलासिता के विभिन्न मानदंडों पर अब अपने एक नये मुकाम को पा चुका है, वही भारतीय समाज का मध्य वर्ग उस दिशा में अपने को आगे बढ़ाने के लिए बेताब है और जी-तोड़ मेहनत किये जा रहा है। इसी का नतीजा है कि देश में पूर्व स्थापित धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ समाज में एक नवधनाढ्य वर्ग पैदा हुआ है, जो वर्तमान उपभोक्तावादी समाज को बड़ा आसरा देने वाला वर्ग है। यह वर्ग अपनी आय आमदनी ओर कमाई दिन-दुनी, रात-चौगुनी करने के न केवल ख्वाब बुन रहा है, बल्कि उसे पाने के लिए किसी भी दिशा में, किसी भी हद तक अपनी मेहनत, बुद्धि और कुशलता को दांव पर लगाने को तत्पर दिख रहा है।
देश का यह मध्य वर्ग, जिसकी संख्या अधिकतम चालीस करोड़ है और उच्च मध्य वर्ग, जिसकी संख्या अधिकतम पांच करोड़ के लगभग है, ये सभी देश के संगठित क्षेत्र के कर्मचारी अफसर हैं, कम्पनी के एक्सक्यूटिव हैं, बड़े जमीनदर किसान हैं, उद्योग क्षेत्र के मालिक और प्रबंधक हैं, राजनीतिक दलों के बड़े नेता हैं और विदेशों में बसे बड़े एनआरआई हैं आदि-इत्यादि। यह वर्ग अपनी कमाई को बढ़ाने के कई तरीके तलाश रहा है। इनकी अधिक से अधिक दौलतमंद बनाने की मनोवृति और प्रवृति ने देश के सरकारों, समाज और नियोक्ता वर्ग पर एक दबाव डालने का काम किया है। वह अपने तनख्वाह वेतन और लाभांश को गणितीय ढंग से बढ़ाना चाहता है। दूसरी तरफ देश के निम्र और निम्र मध्य वर्ग की आबादी जिसकी संख्या उच्च व मध्य वर्ग से कहीं ज्यादा है, जिसकी एकमात्र तमन्ना एक सामान्य ढंग के जीवन जीने तक ही सीमित पड़ी है।
देश का उच्च और मध्य वर्ग अपनी समृद्धि के वर्तमान स्तर से संतुष्ट नहीं है। वह अपनी मासिक आमदनी को बढ़ाना चाहता है। १९९० के दशक में देश की अर्थव्यवस्था में आये विभिन्न परिवर्तनों ने समाज में एक नयी प्रवृत्ति को दर्शाया है जो कारपोरेट मल्टीनेशनल संस्कृति का हामी है। इसमें कार्यरत एक्सक्यूटिव अपने तनख्वाह को लाख से करोड़ करना चाहते हैं। यानी करोड़पति शब्द अब केवल उद्योगपति या व्यवसायी के साथ न लगकर अब करोड़पति कर्मचारी के रूप में भी लगेगा। इनके तनख्वाह पर मंथ नहीं, ‘पर एनम’ लगने लगे हैं। इनका वेतन ‘सेलरी’ नहीं ‘पर्क’ के रूप में जाना जा रहा है। इस तरह इस भारतीय औद्योगिक सामाजिक व्यवस्था में उभर रही ये प्रवृतियां, कहीं न कहीं उस पश्चिमी समाज की पूर्व स्थापित प्रवृतियों  का फोकस उभार रही है जिसमें सहज पसंदीदा धन शक्ति के ग्लैमर और रोमांच का बिम्ब आभासित होता है।
आमतौर पर सरकारी सेवाओं, कारपोरेट उद्योग, शेयर बाजार कारोबारी, वाणिज्य व्यापार में लगे, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील इत्यादि  पेशे में रहने वाले लोग उच्च मध्य वर्ग या मध्य वर्ग के लोग माने जाते हैं। ये लोग देश के शहरों-महानगरों के बड़े तथा गांवों के पक्के मकानों में रहते हैं। ये हवाई-रेल यात्राएं करते हैं। इनके बच्चों की अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई-लिखाई सुनिश्चित होती है। ये मीडिया से जुड़े व्यक्ति होते हैं और इनके पास तमाम प्रकार की सुख सुविधाएं होती हैं। कुल मिलाकर ये समाज के चेतनशील और संगठित वर्ग के सदस्य हैं जो अपनी तमाम जरूरतों के लिए समाज, सरकार और मीडिया पर अपना दबाव बनाये रहते हैं। ध्यान देने योग्य बात ये है कि अब देश के अफसर, उद्योगपति, खिलाड़ी, कलाकार, तकनीशियन, राजनीतिज्ञ, मीडियाकर्मी, चिकित्सक और यहां तक कि लेखक भी अपने साथ प्रोफेशनल या पेशेवर शब्द को जोड़े बिना रहते। हालांकि प्रोफेशनलिज्म का असल मायने अपने पेशे के प्रति स्वयं को ज्यादा कुशल एवं कारगर सिद्ध करने से है, जिसका पारिश्रमिक किन्हीं वजहों से ज्यादा के बदले कम भी हो सकता है।
पर आज प्रोफेशनलिज्म का मतलब उस गाढ़ी कमाई की प्राप्ति से है चाहे जो योग्यता से मिले या अयोग्यता से मिले अथवा कुशलता से मिले या अकुशलता से। इसीलिए तो अब अमूल्य चीजें भी मूल्य के दायरे में, मिशन भी प्रोफेशन के दायरे में और सामाजिक सेवा भी अब सामाजिक व्यवसाय के रूप में अपने को धडल्ले से स्थापित कर रही हंै। क्योंकि अब तो हर चीजों का एक मार्केट विकसित हो गया है और जब मार्केट की बात होगी, तब उसकी परिधि में आने वाली सभी चीजें एक ‘वस्तु’ या ‘कमोडिटी’ के रूप में मानी जाएगी और उसका मूल्यांकन सद्विचार की कसौटी पर नहीं, मौद्रिक मूल्य की कसौटी पर होगा। इसीलिए तो ‘प्रोफेशन-प्रोफेशनलिज्म’, ‘लाभ-मुनाफा’, ‘सेलरी-पर्क’, ‘स्टैन्डर्ड ऑफ लिविंग’, ‘उपभोक्तावाद’, ‘ग्लैमर-फैशन’ और ‘सोशल स्टेट्स’ जैसे शब्द हमारे सामाजिक आदर्श की रूपायित करने वाले तथ्य बन गये हैं। इन सामाजिक-स्वीकृति प्राप्त शब्दों में छिपा हुआ है- समाज की मौज-मस्ती और सुख-सुविधा का आलम। यह कसौटी बनी है समाज के इस वर्ग द्वारा समाज के छोटे-बड़े अथवा श्रेणियों में वर्गीकरण।
आजादी के बाद से देश में राष्ट्र निर्माण, समाज निर्माण और व्यक्ति निर्माण के लिए नेहरूवादी दर्शन के आधार पर जिन व्यापक सामाजिक आर्थिक कार्यक्रमों को शुरू किया गया, उसने देश के मध्य वर्ग को प्रगति के नये सोपान देने का काम किया। उस दौर में देश की समूची व्यवस्था और तंत्र को नये सिरे से स्थापित करना या देश के केन्द्र व प्रांतीय सरकारों के सभी मंत्रालयों और उसके नीचे की संरचना में नौकरशाही के ढ़ांचे को स्थापित करना, समूची न्यायिक व्यवस्था, रक्षा व्यवस्था का नये सिरे से ढ़ांचा स्थापित करना था। देश में विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना हेतु विशाल मात्रा में तकनीकी-गैर तकनीकी कार्मचारियों की नियुक्ति, विभिन्न विकास परियोजनाओं, सार्वजनिक निर्माण के कार्यों, चिकित्सा, शिक्षा इत्यादि तमाम क्षेत्र में लोग जोड़े जाने थे।
इन सभी क्षेत्रों में शुरू हुई संस्थाना के दो दशक बाद देश में एक नये वर्ग का अभ्युदय हुआ जो तदंतर भारतीय समाज में मध्य वर्ग के रूप में स्थापित हुआ। इस वर्ग के तमाम हितों की सरकार ने पूर्ति की। विभिन्न सरकारी विभागों के कर्मचारियों, संगठित उद्योग के कर्मचारियों, सेना अधिकारियों, तकनीकी विशेषज्ञों इत्यादि के जीवन-स्तर को उठाने के लिए वह वेतन आयोग गठित किये गये हैं। पिछले पैंसठ वर्षों में अब तक सात वेतन आयोग गठित हो चुके हैं। नयी आर्थिक नीति के बाद से भारतीय समाज में व्यवसायी, उद्योगपति और प्रोफेशनल का एक नया वर्ग उभर रहा है जो समाज के एक मॉडल का रूप ग्रहण करने वाला है। जबकि पहले यह वर्ग समाज का मॉडल नहीं था। पहले समाज का मॉडल आई.ए.एस. यानी प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, राजनीतिक दलों के नेता इत्यादि हुआ करते थे।
नयी आर्थिक नीति के बाद का एक दूसरा अन्तर्विरोधी सच यह है कि देश में एक तरफ बेरोजगारों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, विशेषकर शिक्षित बेरोजगारों का तो देश में एक अम्बार ही लग गया है। यह वर्ग कोई उद्यम न कर एक स्थायी सरकारी नौकरी की तलाश में है तो दूसरी तरफ कारपोरेट मैनेजर एवं एक्सक्यूटिव एक फर्म को छोडक़र दूसरे फर्म में ज्यादा तनख्वाह पाने के लिए चले जा रहे हैं। आज देश में कुशल मैनेजरों का अभाव है।
वर्तमान में देश में संगठित क्षेत्र में नौकरी प्राप्त लोगों की कुल संख्या तीन करोड़ है, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख कर्मचारी केन्द्र व राज्य सरकारों के अधीन हैं तथा शेष १२० लाख कर्मचारी निजी क्षेत्र के संगठित उद्योगों में कार्यरत हैं। गौरतलब बात यह है कि संगठित क्षेत्र जो देश की कुल श्रमशक्ति का दस प्रतिशत है, वही देश के श्रम-श्रमिक संबंध एवं ट्रेड-यूनियन आंदोलन का केन्द्र बिन्दु है। शेष नब्बे प्रतिशत श्रमशक्ति असंगठित है, जिनके लिए सरकार के एकमात्र ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ के अलावा सरकार का और कोई भी मंत्रालय या संस्था अपने ध्यान में उसे रखने की हिम्मत नहीं करता है। देश का संगठित सेवा क्षेत्र, संगठित उद्योग क्षेत्र और अब जाकर संगठित कृषि क्षेत्र ही भारतीय समाज के मध्यवर्ग का मुख्य आधारस्तंभ है। इन सभी के लिए सरकार द्वारा हर जरूरत पूरी की गयी और पूरी की जा रही है। इस वर्ग के और विकसित और समृद्ध होने के आगे का रास्ता भी बिल्कुल साफ रखा गया है और उनके अनुकूल की सारी परिस्थितियां भी निर्मित की गयी हैं।
अत: अब वह दिन दूर गये जब धन की देवी लक्ष्मी भारतीय समाज में मर्यादा व गरिमाविहीन तथा संकुचित अर्थों में अभिप्रायित होतीं थी। अब इस दौर में सांसारिकता के नये मानदंड और नयी आधार भूमि विकसित हुई है, जिसमें भौतिकतावाद के लिए पहले से कहीं ज्यादा जगह है। आज सादा जीवन-उच्च विचार एवं अल्प आवश्यकता वाले दर्शन अर्थहीन और बेमानी हो चले हैं। अब तो व्यवहार, बड़प्पन, सदविचार और व्यक्तित्व जो अमूल्य चीजें मानी जाती थीं, वे भी अब व्यावसायिक मूल्य की परिधि में आने लगी हैं। अब तो इनका भी मूल्य और ‘प्रोफेशनल वैल्यू’ लगाया जाने लगा है। अत: आज हमारे विचार हमारे मूल्य नहीं, बल्कि मुल्य ही मूल्य बन गये हैं। 1

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