Wednesday, August 26, 2015

बिहार में लालू जनगणना में जाति ढूंढना चाह रहे थे परन्तु उनके माथे धर्मगणना आ गयी

लीजिये , बिहार में लालू जनगणना में जाति ढूंढना चाह रहे थे परन्तु उनके माथे धर्मगणना आ गयी। उनकी जातीय राजनीती की बिसात धर्मगणना की घोषणा की आंधी में बह गयी। ठीक इसी तरह जब उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद वी पी सिंह के मंडल अस्त्र को तेजी से फैलाया तो आडवाणी जी उसकी काट में अयोध्या रथ यात्रा के जरिये कमंडल लेकर आ गये. इससे वी पी सिंह की सरकार तो गिर गयी पर लालू बिहार में और मज़बूत हो गए। आज उसी मंडल के सुनहरे सपने को लालू अभी भी याद कर जातीय आंकड़ों को जारी करने की मांग कर रहे है। पर आज उनके जातीय अस्त्र की काट में एनडीए की सरकार ने सुनियोजित तरीके से धर्मगणना के आंकड़े पेश कर बिहार चुनाव में अपना सांप्रदायिक कार्ड फेक दिया। इसे ही कहते है पहचान की राजनीती की रस्साकशी। 
जाती, धर्म , भाषा , प्रान्त , संस्कृति , खानदान और भावुक जुमले हमारे लोकतंत्र को अभी तक सिंचित और पोषित करते आये हैं। मजे की बात ये है की जातीवादि अपने इस कृत्य को सामाजिक न्याय का सैद्धांतिक आवरण प्रदान करते है और उसकी ओट में परिवारवाद , कुनबावाड और जातियों के आरक्षण के बहाने उन्हें भावुक से रूप से गोलबंद करने की नीति अपनाते है और अपने राजनितिक विरोधिओं को सम्प्रदायवादी बताकर उन्हें धर्मनिरपेक्षता पर खतरा बताते है।
दूसरी तरफ धर्मवादी अपने कृत्य को राष्ट्रवादी बताते है तथा जातिवादिओं के कृत्य को हिन्दू धर्म के संगठित स्वरुप को नुकसान करने वाला बताते है तथा उनकी धर्मनिरपेक्षता को छदम बताते है। 
देखा जाये तो ये दोनों राजनीतिक गुट सामाजिक न्याय , धर्मनिरपेक्षता , राष्ट्रीय एकता जैसे शब्दों के साथ बलात्कार करते है। इनका मकसद पहचान की राजनीती जो करना आसान है , उसमे अपनी राजनीती के करीयर को आगे बढ़ाना है।
हकीकत ये है की सामाजिक न्याय आरक्षण की मृगतृष्णा में कैद है जो कुछ क्रीमी लोगो को बस गुदगुदा भर सकता है. व्यापक सामाजिक न्याय की परिकल्पना तो विराट सामाजिक सशक्तिकरण में छिपी है जो उच्च स्तर के गुड गवर्नेंस और अमूल चल व्यस्था परिवर्तन की मांग करती है , जिसके लिए परिवारवाद और भरष्टाचार से ग्रस्त जातिवादी तैयार नहीं हो सकते। सम्प्रदायवादी धर्म को संगठित करने की कुलाचे तो भरते है परन्तु संगठन के अंदर के घावों पर मरहम लगाने को तैयार नहीं। इन्हे धर्मनिरपेक्षता से डर लगता है। दूसरी तरफ जातिवादिओं को जाति निरपेक्षता से डर लगता है पर धर्मनिरपेक्षता पर भी ये सेलेक्टिव बनना चाहते है। 
भारतीय व्यस्था में धर्मनिरपेक्षता,सामाजिक न्याय और अवसर की समानता ये महान शब्द है पर पहचान की राजनीती करने वाले इसका जम कर दुरूपयोग करते है. अंत में मैं यही कहूँगा की भारत में कोई भी राजनितिक दल ना तो शुद्ध धर्मनिरपेक्षतावादी है , ना ही सामाजिक न्यायवादी है और इनकी पहचान की राजनीती राष्ट्रीय एकता पर हर समय खतरा ही है। इस स्थिति के लिए देश का सांप्रदायिक आधार पर हुआ विभाजन, संविधान में पहचान और खानदान की राजनीती पर अंकुश नहीं होना, राजनितिक दलों में क्वालिटी लीडरशिप की परंपरा स्थापित नहीं होना, गुड गवर्नेंस को लेटर एंड स्पिरिट में लागू नहीं होना तथा एक सामान नागरिक और शैक्षिक नीति और माहौल का नहीं होना जिम्मेवार है।

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