Monday, November 2, 2015

आरक्षण नहीं सशक्तिकरण है सामाजिक न्याय का असली मुद्दा

वंचित वर्ग की राजनीति के परिसंवाद यानी पालीटिकल डिस्कोर्स में आरक्षण का मुद्दा पुन: तीव्रता से चर्चाएमान हुआ है। पिछले 1970 के दशक से लेकर अभी 2010 के दशक तक भी आरक्षण पर होने वाले समर्थन और विरोध के समूचे साहित्य और उनमें प्रयुक्त शाब्दिक टर्मों, दृष्टांतों, उद्धरणों और आख्यानों पर यदि नजर डाली जाए तो पता चलेगा कि इसके समर्थक और विरोधी दोनों अपने स्वार्थगत जुमलों से उपर नहीं जा पाए हैं। इनमें कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका जबाब किसी भी पक्ष के पास नहीं हेै।
पहला सवाल ये है कि देश में आरक्षण के जरिये हो या किसी भी तरीके से हो, वंचित वर्ग का सतत उत्थान हमारी उच्च प्राथमिकता में क्यों नहीं है? दूसरा  सवाल ये है कि देश का गैर आरक्षित वर्ग आरक्षण के विरोध से पहले वंचित वर्ग के प्रति अपनी संवेदनशीलता दर्शाते हुए उनके उत्थान का एक बेहतर फार्मूला और क्रियान्वन एजेेंडा लाने की मांग क्यों नहीं करता? दूसरी तरफ आरक्षित वर्ग को यदि यह लगता है कि हजारों साल से जुल्म सहने की वजह से उसेे मिलने वाला आरक्षण दरअसल उसका मौलिक अधिकार है। ऐसे में उनसे सवाल ये है कि हजारों साल जुल्म सहने वाले में से 95 फीसदी आबादी इस मौलिक अधिकार का उपभोग क्यों नहीं कर पा रही है?
केवल पांच फीसदी वंचित लोग कई पीढ़ीयों से इस मौलिक अधिकार का उपभोग कर जो मोटे असामी हो गए हैं, वंचित वर्ग के क्रीमी लेयर हो गए हैं वहीं केवल इसका फायदा क्यों उठा रहे हैं और यही वह वर्ग है जो इस वंचित वर्ग के पालीटिकल डिस्कोर्स को भी जगाए हुए है। इस स्थिति से वंचित वर्ग और उंची जाति के बीच वर्ग मित्र और वर्ग शत्रु का एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार हुआ है जो वंचित वर्ग की राजनीति को जगाये रखने के लिये उसे खाद पानी तो प्रदान कर देता है पर बहुसंख्यक वंचित वर्ग के सामाजिक आर्थिक उत्थान के एजेंडों को सदा की भांति बियावान में ही फेंके रहता है।
वस्तुस्थिति ये है कि आरक्षण की अर्हता प्राप्तिके लिये जो कार्यक्रम होने या चलने चाहिए,जो राष्ट्रीय अभियान चलाए जाने चाहिए वह वंचित वर्ग के पालीटिकल डिस्कोर्स में शामिल क्यों नहीं हैं। यदि ऐसा है तो फिर हम आरक्षण को एक ऐसा राजनीतिक एजेंडा क्यों ना माने जो पांच फीसदी कथित वंचित हितों को ही पिचानवे फीसदी वास्तविक पिछड़े के व्यापक कल्याण के एजेंडों के व्यापक मंथन पर तरजीह दिये जा रहा है।
इस तथ्य को मानने में किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि भारत में जाति एक वर्ग की तरह है। इसमे सामाजिक पिरामिड पर आसीन उंची जाति से लेकर निचले पायदान पर स्थित निम्र जातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति उसी पिरामिड की ही भांति है। यानी विकास के तमाम मानकों मसलन भू स्वामित्व की स्थिति, आवास की स्थिति, प्रति व्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपभोग, शिक्षा का स्तर, स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता, परिवार नियोजन, संगठित श्रमिक वर्ग में हिस्सेदारी, औद्योगीकरण, शहरी आबादी का अनुपात और व्हाइट कालर नौकरियों में इनकी आबादी का अनुपात, इन सभी दृष्टियों से वंचित वर्ग की स्थिति आज भी उसी पिरामिड के समान है। परंतु दूर्भाग्यजनक पहलू ये है कि वंचित वर्ग के कथित नेतृत्व ने इस पिरामिड की पीड़ा हरने का बस एक ही फार्मूला तय किया है वह है आरक्षण का। आज वंचित वर्ग के सतत उत्थान के अनेकानेक मसले जो उनके व्यापक सशक्तीकरण के एजेंडे की तरफ ले जाते हैं उसकी चर्चा हमारे पब्लिक डोमेन में नदारद है। ऐसा कर कथित वचित नेतृत्व स्वार्थी अगड़े जातियों का ही भला कर रहे हैं। यही वजह है कि सामाजिक पिरामिड का आकार जस का तस है। पिछड़ों का थोड़ा बहुत उत्थान जरूर हो रहा है पर सामाजिक पिरामिड पर आसीन उंची जातियां दिन दूनी रात चौगुनी तरीके से बढ़ रही हैं।
राजनीतिक और प्रशासनिक आरक्षण से कुछ सौ लोग एमपी, एमएलए और मंत्री बन जाते हैं और कुछ हजार वंचित पहचान के लोग सरकारी नौकरियों में चले जाते हैं पर ये भी लोग वही हैं जिनका आर्थिक व शैक्षणिक आधार पहले से मजबूत है। पर वंचित जमात के करोड़ों करोड़ लोगों में से सभी एमपी एमएलए और सरकारी अफसर तो नहीं बन सकते हैं, उन्हें तो उसकी अर्हता पाने में ही मौजूदा चाल से तो सदियों का रास्ता अभी सफर करना होगा।
वचित जमात के सशक्तीकरण के अनेकानेक एजेंडे हैं। मसलन इस बात की हर साल समीक्षा होनी चाहिए कि देश में कितने प्रतिशत वंचित परिवार भूमिहीन हैं और कितने वंचित परिवारों को प्रति वर्ष भूमि के पट्टे दिये गए? कितने वंचित परिवार आवास हीन हैं और उनमे कितनों को आवासीय पट़्टे प्रदान किये गए? कितने प्रतिशत वंचित परिवार को पक्के मकान दिये गए ? इस बात की सालाना समीक्षा होनी चाहिए। वंचितों के कितने प्रतिशत बच्चे स्कूलों में नामंाकित हैं और इनके ड्रापआउट का प्रतिशत कितना है और इसकी रोकथाम के लिये हर साल की प्रगति रिपोर्ट क्या है? यदि इस देश में एकसमान शिक्षा नीति नहीं अपनायी जाती है तो वंचित जमात की शिक्षा का एक पैमाना यह भी होना चाहिए कि कितने प्रतिशत वंचित वर्ग के बच्चे अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में नामंाकित हैं?
वंचित वर्ग के कितने बच्चों को टीकाकरण अभियान में शामिल किया गया है? उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और पेशेवर शिक्षा में वंचित वर्ग की कितनी भागीदारी है और उसकी सालाना प्रगति दर कैसी है? वंचित वर्ग में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिये सभी आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता कैसी है? वचित वर्ग के गरीब छात्रों में कितने प्रतिशत को वजीफे के दायरे में लाया गया है और उसकी सालाना प्रगति रिपोर्ट क्या है? वंचित वर्ग को सस्ता, त्वरित व पक्षपातरहित न्याय उपलब्ध हो पा रहा है या नहीं। ये सारे एजेंडे वंचित वर्ग के सशक्तीकरण के मार्ग के कदम हैं। सही है कि ये सारे कदम हमारे त्रिस्तरीय लोकतांत्रिक सरकारों के विभिन्न मंत्रालयों के विभिन्न कार्यक्रमों के मार्फत उठाये भी गए हैं। हो सकता है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के द्वारा इसकी सालाना औपचारिक समीक्षा भी की जाती होगी पर सवाल ये है कि क्या ये सारी बातें हमारी सरकारों व सार्वजनिक चर्चाओं की उच्च प्राथमिकता में शामिल हैं? इसका जबाब नहीं में ही आएगा। विडंबना ये है कि वंचित वर्ग के राजनीतिक डिस्कोर्स में तो ये बातें बिल्कुल शामिल ही नहीं की जाती हेंै। यही वजह है कि उपरोक्त सारे कदमों को इस मौजूदा व्यवस्था में एक खानापूर्ति तरीके से चलाया जा रहा है जिसके पीछे ना तो राजनीतिक इच्छाशक्ति है और ना ही पब्लिक डोमेन में इसकी प्राथमिकता।
जिस आरक्षण के मसले को दलित वंचित वर्ग की पालीटिक्स के डिस्कोर्स में इतना तवज्जो मिला हैं क्या उसका बेहतर विकल्प ये नहीं है कि देश में आम तौर पर सभी गरीब वंचित वर्ग के लोगों के लिये प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग और ट्रेनिंग के लिये एक राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम चलाया जाए? देश के हर शहर में सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा वंचित वर्ग के छात्रों के कोचिंग व प्रशिक्षण के जरिये यदि उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं में उत्तीर्ण कराया जाता तो कितना बेहतर होता? हम आरक्षण की वैशाखी के जरिये किसी वंचित को प्रशासनिक संरचना में शामिल करने के बजाए यदि हम उसे पहले ही काबिल बनाकर उस संरचना में शामिल करें तो वंचित वर्ग के सशक्तीकरण की दिशा में कितना बड़ा कार्य होता? सुप्रसिद्ध कोचिंग संस्था सुपर थर्टी के संचालक आनंद कुमार तो स्वर्य वंचित वर्ग के हैं और वह कई वंचितों की प्रतिभा को प्रशिक्षण और कोचिंग प्रदान कर तराशते हैं। उनका कार्य असल मायने में वंचितों के सशक्तीकरण का है ना कि वंचितों के आरक्षण की डुगडुगी बजाने का।
जो लोग वंचित वर्ग को अयोगयता का प्रतीक बताते हैं वह इस मसले पर अपनी गहरी दृष्टि नहीं दर्शाते। हर व्यक्ति योग्य बनाया जा सकता हेै जिसके लिये आरक्षण नहीं संरक्षण और सबसे उपर सशक्तीकरण ही कारगर होता है। वंचित वर्ग की राजनीति करने वालों के लिये आरक्षण सबसे आसान मोहरा बन गया है जो भोले भाले अशिक्षित, अनजान, गंवार और सुसुप्तावस्था में पड़ी 95 फीसदी वंचित आबादी को भावुक रूप से गोलबंद तो कर देती है पर इन्हें वास्तव में कोई फायदा नहीं होता।
बात जब वंचित वर्ग के सशक्तीकरण की आती है तो गुड गवर्नेन्स यानी सुशासन का एजेंडा काफी अहम हो जाता है। कुछ दिनों पहले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौर में कुछ दलितवादियों ने उस आंदोलन का यह कहकर विरोध किया कि भ्रष्टाचार विरोध के बहाने दलित और आरक्षण व्यवस्था का विरोध किया जा रहा है। भ्रष्ट दलित नेताओं ने इस आंदोलन को अपने हितों पर चोट पहुंचते देख यह अनर्गल बयान तो दे दिया पर यह बहुत बड़ा हकीकत है कि भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था व गुड गवर्नेन्स से गरीबों और कमजोरों को ही सबसे ज्यादा सुरक्षा ढ़ाल प्राप्त होती है। वास्तविकता ये है कि देश में सभी वंचित वर्ग जिसमे अनुसूचित जाति, अनूसूचित जनजाति, अति पिछड़े और उंची जाति के निर्धन लोग सभी शामिल हैं, के वास्तविक और समवेत उत्थान का मार्ग आरक्षण से कभी भी नहीं प्राप्त होगा, यह केवल उनके संरक्षण और सशक्तीकरण से प्राप्त होगा और यह मार्ग गुड गवर्नेन्स से संभव है। परंतु दूर्भाग्य से इस मार्ग को कंटकाकीर्ण बनाये रखने के पीछे समाज की अगड़ी जातियों के कुछ निहित स्वार्थी तत्वों और वंचित वर्ग के कुछ चंद नेतृत्व वर्ग जो पिछड़ों को आरक्षण के बेवकुफी भरे तिलिस्म में फंसाये हुए हैं,मुख्य रूप से जिम्मेवार हैं।
गौरतलब है देश में जबतक छोटे उद्योग को आरक्षण प्रदान किया गया तबतक वह बड़े उद्योगों के सामने निरीह बने रहे पर जब नयी आर्थिक नीति के दौरान इन्हें आरक्षित सूची से बाहर किया गया इन्होंने बड़े उद्योगों को हर मामले में पटकनी दी। वजह है कि उनमे व्यवस्था से जूझने और संघर्ष करने का जज्बा आ गया। वही स्थिति हमे वंचित वर्गों में लानी होगी परंतु इसके लिये उन्हें सारी सुविधाएं और संरक्षण जरूर मुहैय्या करानी होंगी।
आरक्षण से राजनीतिक तौर पर वंचितों के कुछ प्रतिनिधि एमपी एमएलए बन गए, सरकारी नौकरियों में इनकी कुछ संख्या आ गयी जो आम तौर पर वंचित वर्ग के अभिजात वर्ग से ताल्लुक रखने वाले लोग थे। परंतु डिप्राव्ड मासेज अभी भी सशक्तिकरण की बाट जोह रहा है। इसकी वजह ये है कि पालीटिकल डिस्कोर्स में केवल आरक्षण शामिल है,सशक्तीकरण नहीं।
अब तो कई समाजविज्ञानी इस बात को भली भांति जान गये हैं कि आरक्षण का नारा एक छलावा है जिसका वंचित मासेज के हितों से कोई लेना देना नहीं। न्यायालय की बनायी व्यवस्था के तहत आरक्षण की सीमा पचास फीसदी निर्धारित है पर इसे पाने की होड़ में विभिन्न जातियों की करीब 85 फीसदी आबादी शामिल हो गयी है। ऐसे में अगर देश में तीन करोड़ के बजाए तीस करोड़ सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ायी जाएगी तभी सरकारी नौकरियों में सभी की भागीदारी संभव होगी। साल में केन्द्र सरकार मुश्किल से एक लाख कर्मचारियों की भर्ती करती है जिसमे पसास करोड़ की वंचित आबादी में से केवल पचास हजार लोगों को नौकरी प्राप्त हो पाती है। ऐसा में क्या यह बेहतर नहीं होगा कि देश का 85 फीसदी वंचित वर्ग सरकार के सभी काम काज जिसमे योजना, कार्यक्रम, परिसंपत्ति, बजट और क्रियान्वन सभी शामिल है, उसमें अपनी 85 फीसदी भागीदारी की बात करे।
वह यह सोचे कि बिना आरक्षण के ही अपने सामथ्र्य की बदौलत सभी नौकरियों में 85 फीसदी का आंकड़ा प्राप्त करे। काश ऐसा ही होता। यही तभी संभव है जब वंचित वर्ग के सशक्तीकरण के एजेंडों को पब्लिक डोमेन में ज्यादा चर्चित करेें और हमारे पालीटिकल डिस्कोर्स में उसे अहम स्थान हासिल हो। फिर यह सामाजिक न्याय नहीं बल्कि विराट सामाजिक न्याय होगा और इसका विरोध करने वाले गैर आरक्षित तबकों को शर्मसार होना पड़ेगा क्योंकि सार्वजनिक व्यवस्था को हमेशा हीं मजलूमों, निर्धनों, कमजोरों, पीडि़तों और असहायों के प्रति  प्राथमिक रूप से ज्यादा संवेदनशील होना पड़ता है। अत: ऐसे में मौजूदा आरक्षण व्यवस्था जारी रहे,पर यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उनके व्याापक सशक्तिकरण का एजेंडा। आरक्षण के नारे केवल वंचित जमात के अभिजात वर्ग को अपनी राजनीति करने का झुनझुना तो दे सकता है पर करोड़ों वास्तविक वंचित लोगों को जीवन की मुख्यधारा से महरूम ही रखेगा।

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