Monday, November 2, 2015

क्यों वंशवाद खतरनाक है लोकतांत्रिक राजनीति में

राजनीति में वंशवाद को लेकर हमारे पब्लिक डोमेन में अरसे से कई सारी चर्चा, परिचर्चां और विमर्श होती रही हैं जिनमे देश के विभिन्न राजनीतिक दलों और राजनेताओं पर वंशवादी होने का चस्पा लगता है। दूसरी तरफ वंशवाद का पोषण करने वाले इन दलों और इनके राजनेता इस चर्चा का अपने इस बड़े ही चिरपरिचित कथन से बचाव करते हैं कि समाज के हर पेशेवर डाक्टर, इंजीनियर, खिलाड़ी, अभिनेताओं की संतानें भी आम तौर वही पेशा अपनाती हैं तो ऐसे में राजनेताओं के बेटे बेटियों के राजनीति में प्रवेश पर हो हल्ला क्यों?
गौर करने लायक बात ये है कि ऐसे तर्क ना केवल कई राजनेता बल्कि कई राजनीतिक विश£ेषक भी उनके समर्थन में पेश करते रहते हैं। देखा जाए तो इस कथन का आशय आनुवांशिकी व तकनीकी तौर पर बड़ा सहज लगता है जिसे वंशवाद की वैध चासनी चढ़ाकर बड़ी होशियारी से पेश कर दिया गया हो। परंतु गहराई से गौर करें तो राजनीति में खानदानवाद या वंशवाद के समर्थन में दिया जाने वाला यह तर्क एक ऐसा खतरनाक तर्क है जो हमारे लोकतांत्रिक सिद्धांतों और उससे गढ़ी गयी राजनीतिक विचारधारा का अपनी सुविधा से इस्तेमाल कर उसे बेहद चालाकी से स्वार्थगत व अवसरवादी चिंतन का मुलम्मा चढ़ा देने की तरह है। ये लोग भूल जाते हैं या जानते हुए इस बात की अनदेखी करते हैं कि जिस प्राचीन व मध्युगीन राजव्यवस्थाओं और सत्ता केन्द्रों के रूप में चलायमान राजशाही, सामंतशाही, बुर्जआशाही, कुलीनशाही के तंत्र को शनै: शनै: ध्वस्त कर समूची दुनिया में लोकतांत्रिक राजव्यवस्थाओं की स्थापना की गई।  सैकड़ों सालों के अनवरत सुधारों, प्रयोगों, संघर्षों के बाद जिन आदर्शों और नैतिकताओं के आभूषणों से सुसज्जित कर इस लोकतंात्रिक राजव्यवस्था को दुनिया के भारत सहित तमाम देशों में सतत रूप से पहले से बेहतर बनाकर स्थापित किया गया, क्या आज उसी व्यवस्था में वंशवाद के रूप में कुलीन व सामंती स्वार्थो की नयी दीवारें नहीं खड़ी की जा रही हैं?
अन्य पेशे का हवाला देकर वंशवादी राजनीति को सही ठहराने वालों से पहला सवाल ये है कि हम राजनीति को तकनीकी रूप से भी एक पेशा कैसे कह सकते हैं और उसे तमाम पेशों की कतार में खड़ा कैसे कर सकते हैं? ऐसा ना तो हम संविधान की किसी परिभाषित शब्दावली के तहत और ना ही लोकतांत्रिक राजनीति की नैतिकता के तहत ही ऐसा कह सकते हैं। संविधान में भी किसी उम्मीदवार के लाभ के पद पर होने पर उसे चुनाव के लिये अर्हताहीन ठहराया है। दूसरी बात कि आप किसी भी नेता से बात कीजिए कि आपके लिये राजनीति क्या पेशा है? उनका जबाब यही होता कि हमारे लिये यह सामाजिक सेवा है। जब चुनाव के वक्त उम्मीदवार नामांकन पत्र भरते हैं तो उसमे पेशा कालम में कोई भी व्यक्ति अपना पेशा राजनीति नहीं लिखता बल्कि लोग पेशे मेें किसान, व्यवसायी, समाजसेवी, स्वतंत्र पत्रकार या सेवा निवृत कर्मचारी वगैरह लिखते हैं। फिर किस बिना पर हमारे विभिन्न दलों के स्थापित राजनेता अपने को पेशेवर बताकर अपने संतानों को भी विरासत के पेशे को अपनाये जाने को सही ठहराते हैं?
दूसरी बात यदि यह कहा जाता है कि लोकतंात्रिक शासन व्यवस्था का आधार और उसके गठन का निर्धारण बिंदू चुनाव प्रणाली है जिसके जरिये जो भी इसमे भागीदारी करना चाहता है वह कर सकता है और चुनाव प्रक्रिया में भाग लेकर उस लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का हिस्सेदार हो सकता है। इस प्रक्रिया में अन्य लोगों को भी उतना ही अधिकार है जितना उसमे स्थापित राजनेताओं की संतानों को। यह तर्क भी पहले तर्क की तरह बड़े सहज ढ़ंग से प्रस्तुत किया जाता है। परंतु इसका असल जबाब जानने के लिये हमें लोकतंत्र के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समझना होगा।
हम अच्छी तरह जानते हैं कि लोकतंात्रिक शासन व्यवस्था अपने आप में कोई फुल प्रूफ अल्टीमेट व्यवस्था नहीं है जो सदा के लिये बेहतरीन राजव्यवस्था बन चुकी हो। प्राथमिक तौर पर यह विगत की उस राजशाही और सामंतशाही व्यवस्था से थोड़ी बेहतर व्यवस्था है जिसमे युद्धों, लड़ाईयों, आक्रमणों, कब्जों और अनवरत मारकाटों तथा धर्म के आतंकों से हासिल किये गए राज पाट का दिगदर्शन नहीं होता बल्कि इसके बजाए शांति-सुरक्षा, संविधान व मतदान के जरिये राजव्यवस्था का गठन हो जाता है।
परंतु इसका यह भी मतलब नहीं कि लोकतंात्रिक शासन व्यवस्था वास्तव में कोई लोक का तंत्र होती है। लोकतंत्र का शाब्दिक अनुपालन तो केवल प्रत्यक्ष लोकतंत्र में संभव है। ऐसा लोकतंत्र तो दुनिया में केवल एक देश स्वीटरजरलैंड में है। बाकी सभी लोकतंात्रिक देशों में अप्रत्यक्ष लोकतंत्र है यानी जनता का तंत्र नहीं बल्कि जनता के प्रतिनिधियों का तंत्र। दरअसल यह लोकतंत्र नहीं बल्कि लोकप्रतिनिधि तांत्रिक व्यवस्था है जिसमे सारी लड़ाई और जद्दोजहद चुनावों के जरिये प्रतिनिधि बनने की होती है। दूसरा यह प्रतिनिधि भी किसी खुले समूह या जनता की भीड़ से सीधे चल कर नहीं आ जाता है। इस अप्रत्यक्ष लोकतंत्र और प्रतिनिधितंत्र का एक तीसरा आयाम भी है, वह है दलीय लोकतंत्र। यानी इस लोकतंात्रिक राजव्यवस्था के तहत बड़े बड़े जनसमूहों के जरिये राजनीतिक दलों या समूहों का आगमन होता है जो इस अप्रत्यक्ष लोकतंत्र को प्रतिनिधितंत्र के रूप में सार्थक बनाने के कार्य को अपने दलों या समूहों के माध्यम से चुनाव प्रणाली में शामिल होकर इसे अंजाम प्रदान करते हैं।
चूंकि लोकतंत्र का प्रादूर्भाव प्रत्यक्ष रूप से  लोक के तंत्र के रूप में नहीं बल्कि लोकसमूहों से गठित हुए राजनीतिक दलों के जरिये हमेशा प्रतिपादित होता रहा है। ऐसे में हर अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में चुनावी व्यवस्था का इतिहास उतना ही पुराना है जितना उसमे भागीदार राजनीतिक दलों का इतिहास। यही वजह है कि लोकतंत्र के पिछले 325 सालों के इतिहास में चुनावी व्यवस्था व राजनीतिक दलों का गठन और उनके क्रियाकलाप का इतिहास भी उसका अविभाज्य हिस्सा रहा है।
 इस दौरान इस अप्रत्यक्ष व जनप्रतिनिधितंत्र व्यवस्था के संचालन को लेकर हमारे लोकतंत्र में कई सिद्धांतों और प्रतिमानों को भी समय समय पर स्थापित किया गया, उसमे संशोधन किया गया और उसमे सुधार लाया गया। यही वजह है कि लोकतंत्र का मतलब केवल चुने हुए प्रतिनिधि का मनमानीवाद नहीं बल्कि इसमे कानून का शासन, त्रिस्तरीय लोकतंात्रिक स्वरूप, चौखंभा ढ़ांचा, शक्ति पृथक्कीकरण, संघीय व्यवस्था, संविधान निर्देशित सभी उपबंधों का अनुपालन, प्रतिरोध व संतुलन जैसे कई सिद्धांतों से यह लोकतंत्र संचालित होता रहा है जिससे इतर भी इसमें लगातार सुधारों और बदलाव की अलख जलती रही है।
अत: हमारे लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप कोई अंतिम आदर्शमूलक तंत्र नहीं है। इसमें तमाम लोकतांत्रिक उसूलों की उपस्थिति के बावजूद व्यवहारिकतावाद के अनेकों शाटकर्ट चलायमान है और कहना ना होगा राजनीति में वंशवाद में उसी शार्टकर्टिज्म की एक बहुत बड़ी मिसाल है। भारतीय लोकतंत्र को संचालित करने वाले भारतीय संविधान अपने नागरिकों को कई नागरिक व राजनीतिक अधिकार देता है। इसमे स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व के साथ साथ वंचितों के सामाजिक आर्थिक हितों के लिये उन्हेंं अवसर की समानता देता है। राजनीतिक व प्रशासनिक आरक्षण के जरिये वंचितों के अवसर की समानता की ही तो बात की जाती है। क्योंकि इस तंत्र में परस्पर स्वार्थी व मजबूत समूहों का काकस इस कदर पुख्ता है जिसमें कमजोरों के लिये जगह तलाशनी मुश्किल है। ठीक इसी तरह राजनीतिक दलों द्वारा शासित इस लोकतंत्र में सारी लड़ाई प्रतिनिधि बनने की है। इसका सबसे लोकप्रिय दृश्य हमें चुनावों के दौरान दिखायी देता है जब विभिन्न चुनावों में राजनीतिक दलों में चुनाव उम्मीदवारी लेने के लिये पार्टी में उसके समर्थकों में जूतमपैजर होती है। ऐसा क्यों होता है क्योंकि उम्मीदवारों के चयन की एक व्यापक, पारदर्शी, सर्वसमावेशी, अवसर की समानता और गुणवत्ता पूर्ण चयन प्रक्रिया पार्टियों द्वारा नहीं अपनायी जाती।
हमने उपर बात की है कि  पूरी दुनिया में लोकतंत्र या तो परिपक्वता के दौर में हैं या उसमें लगातार सुधारों के दायरें में कसा जा रहा है। जहां तक भारत के लोकतंत्र की बात है तो इसमे कई सुधार लाने के बावजूद इसमे कई और सुधारों की दरकार रही है। सुधारों के मिसाल के तौर पर मताधिकार की आयु सीमा पहले 21 थी जिसे घटाकर 18 की गई। विगत में भारत के लोकतंात्रिक राजनीतिक व्यवस्था में अवसरवाद चरम पर था। जब कभी कोई दल सत्ता पक्ष में होता था, पद लाभ के लालच में कई विपक्षी प्रतिनिधि दलबदल कर चले आते थे। इसको समाप्त करने को लेकर दलबदल विरोधी कानून लाया गया। चुनाव प्रणाली में एक समय धन शक्ति व बाहुबल का जबरदस्त प्रभाव था। नये कानूनों और चुनावी प्रक्रियाओं से इसे सुधारकर काफी हद तक इसपर काबू पाया गया।
पिछले दो दशक से हमारी चुनावी प्रक्रिया कुछ साफ सुथरी हुई है। परंतु इसके इतर हमारे इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में पहचान की राजनीति जिसमे जाति, धर्म, भाषा, प्रांत और संस्कृति जैसे तत्व प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से जबरदस्त हावी हैं, जिसे रोकने में हमारा जनप्रतिनिधित्व कानून बिल्कुल बेअसर रहा है। चुनावों में उम्मीदवार तय करने से लेकर, चुनावी नारे गढऩे, वोट बैंक का जातीय समीकरण तय करने और लोकलुभावन राजनीति का जबरदस्त बोलबाला है। राजसत्ता हासिल करने के लिये जनता को ललचाने के लिये राजखजाना को किसी भी हद तक लूटाने के लिये राजनीतिक दल उतावले देखे जा रहे हैं। उपरोक्त दोनों तत्व हमारे लोकतंत्र और उसकी चुनावी व्यवस्था पर अभी भी बहुत बड़े प्रश्र चिन्ह बनकर खड़े हैं।
विडंबना ये है कि हम चुनाव प्रणाली में सुधार को ही लोकतंात्रिक सुधारों का एकमात्र एजेंडा माने बैठे हैं जबकि लोकतांत्रिक सुधारों का व्यापक अर्थ इस बात में निहित है कि हम राजनीतिक सुधारों का कितना व्यापक एजेंडा इसके साथ लेकर चलते हैं। चुनाव संचालन करने वाली संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग केवल चुनाव संचालन करने वाले सुधारों को अंजाम दे सकता है। देश में लोकतांत्रिक राजनीति के स्टेक होल्डर तो तमाम राजनीतिक दल हैं। इन राजनीतिक दलों की स्थापना, इनके स्वरूप, , इनके उद्देश्य, इनकी कार्यप्रणाली, इनकी सांगठनिक संरचना, इनके कार्यकर्ताओं की हायरआरकी, इनके उम्मीदवारों की स्क्रीनिंग, इनका थिंकटैंक, इनकी शासन नीति, इनके सामाजिक आर्थिक कार्यक्रम, इनकी समाज व राष्ट्र नीति तथा अपने को पहचान, भावुकता, लालच और लोकलुभावन तौर तरीके इत्यादि अस्वस्थ राजनीतिक प्रवृतियों से मुक्त रखने तथा अपने संगठन की आमदनी व खर्चे जैसे अनेकों बिंदुओं पर विस्तृत गाइडलाइन और एक व्यापक नीति सूत्र तो होने चाहिए जिन पर हमारे समूचेे राजनीतिक सुधार अवलंबित है।
राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार दायरे में लाने, अपराधियों व नाकाबिलों से संगठन व चुनावी राजनीति दोनों को मुक्तरखने, जातीय व पहचान की राजनीति से जुड़ी राजनीतिक गतिविधियों से दलों को प्रतिबंधित करने, चुनावी उम्मीदवारों के चयन को लेकर एक स्टैंडर्ड प्रक्रिया का पालन करने तथा स्थानीय मसलों से लेकर राष्ट्रीय मसलों तथा समूचे गवर्नेन्स को लेकर पालिसी रिसर्च से लेकर तमाम जनसमस्याओं को लेकर दृष्टिकोण इत्यादि सभी हमारे राजनीतिक सुधार के महत्वपूर्ण पहलू हैं।
हम सब जानते हैं कि भारत में राजनीतिक दलों  की गतिविधियों को नियंत्रित करने का अधिकार चुनाव आयोग के पास है। परंतु उपरोक्त राजनीतिक सुधार के समूचे एजेंडों को लागू करने के लिये हमे सभी राजनीतिक दलों को ही बाध्य करना पड़ेगा और यदि वह बाध्य नहीं होते हैं तो उन्हें संवैधानिक तरीके से बाध्य करने की व्यवस्था करनी होगी। इन सब एजेंडों के अभाव में हमारे सभी राजनीतिक दलों चाहे वह पुराने व बड़े राजनीतिक दल हों या छोटे व नये राजनीतिक दल, ये सभी बहुत हद तक लोकतंत्र के संचालक संस्था होने के बजाए एक तरह से मठों के रूप में काम कर रहे हंै जिनके बड़े बड़े नेताओं का इनपर मठाधीश के रूप में कब्जा है। इन मठों में लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ खानापूर्तिवाद चलता है और दलीय प्रणाली का एक ऐसा मठ तंत्र चलता है जिसमें यदि बड़ी पार्टी है जो कुछ दर्जन भर मठाधिकारी एक मठाधीश के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सत्ता हासिल करने का सारा खेल खेलते हैं। यदि पार्टी क्षेत्रीय या छोटे स्तर की है तो इसके  मठ में कुछ चंद मठाधिकारी और मुख्य मठाधीश होते हैं।
इन दलों के मुख्य मठाधीश की मनमर्जी बड़ी पार्टियों से ज्यादा चलती है और वह लोकतंत्र के इस मठ में अपने कुनबे, रिश्तेदारों और अपने संतानों को मनचाहे ढ़ंग से भर देते हैं। फिर यही से पार्टियों में वंशवाद शुरू हो जाता है।
 सारी बातों की एक बात ये है कि इस लोकतंत्र में लोक का तंत्र नहीं पार्टी तंत्र चलता है। और पार्टी तंत्र इसके मठाधीश के कब्जे में होता है। इस मठाधीश को जो अपने हित का लगेगा वहीं संगठन, चुनाव और उम्मीदवार निर्धारित होगा। गनीमत है कि इस मठाधीशी व्यवस्था को यदि कुछ लोकतांत्रिक बाध्यताएं और चुनावी दिशा निर्देश का पालन करना पड़ता है अन्यथा यह व्यवस्था तो मध्य युगीन सांमतशाही व्यवस्था की अक्षरश: प्रतीक होती और मौजूदा लोकतंत्र की धज्जी उड़ रही होती। इनमे कई दिशा निर्देशों का अनुपालन तो पार्टियां और इनके मठाधीश सिर्फ खानापूर्ति कर पूरा कर लेते है और राजनीतिक सुधारों के आधे अधूरे एजेंडों को अच्छे से धता बता देते हैं। अगर लोकतंत्र के कुछ सिद्धांत इनके लिये बाध्यकारी ना हो तो इस लोकतंत्र में अनैतिकता का बोलबाल कुछ ज्यादा ही होता। परंतु हमें तो इस लोकतंत्र को हर हाल में पहले से बेहतर बनाते जाना है। इसे ज्यादा गुणकारी, समावेशी, वैज्ञानिक, सुशासनोन्मुखी बनाना है तो इसमे कई बाकी पड़े सुधारों को अंजाम तो देना ही पड़ेगा।
इस मठाधीशी राजनीतिक दलीय व्यवस्था ने हमारे भारतीय समाज के मध्ययुगीन स्वरूपों मसलन सामंतशाही,महंतशाही,ठाकुरशाही को बड़ी ही होशियारी से आधुनिक रूप में भी लोकतांत्रिक पैकेजिंग कर इस्तेमाल कर रही है। और ऐसे ही लोग राजनीति में वंशवाद को वैध बनाने के लिये तमाम पेशों का उदाहरण पेश करते हैं। यदि हम राजनीति को भी चिकित्सा, इंजीनियरिंग, अभिनय, खेल की तरह एक पेशा मान भी लें तो सवाल ये है कि इन सभी पेशों की तरह राजनीति का पाठ्यक्रम, प्रशिक्षण, इंटर्नशिप, कोर्स क्यों नहीं निर्धारित होता है और इसके आधार पर सभी पार्टी जनों की परीक्षा क्यों नहीं होती है? हालांकि, मेरा हमेशा से यह मानना है कि राजनीति को सामाजिक सेवा बताने की हिपोक्रेसी बंद होनी चाहिए और इसे अन्य क्षेत्र की तरह पेशा तो नहीं बल्कि अन्य कैरियर की तरह का एक अलग कैरियर जरूर बताना चाहिए।
परंतु राजनीति का कैरियर अन्य पेशेवर कैरियरों से एक मामले में बिल्कुल अलग माना जाना चाहिए। राजनीति को छोडकऱ सभी कैरियर में लोगों के लिये कार्य करते हैं पर उसमे निजी हितों के वास्ते भी होते हैं जबकि राजनीति का कैरियर केवल सार्वजनिक हितों के लिये होता है जिसमे हासिल सता व शक्ति केवल सार्वजनिक मकसद के लिये उपयोग की जाती है, निजी मकसद के लिये नहीं। इस वजह से इसमें शामिल व्यक्ति के लिये यह पेशा है भी तो वह पब्लिक लीडरशिप का है जिसमें समाज व देश की समूची व्यवस्था का ज्ञान, संविधान कानून और प्रशासन की पूरी समझ, जनसमस्याओं की त्वरित परख व समाधान, ईमानदारी, समर्पण, नि:स्वार्थ और अपने आजीविका पेशे से इसकी दूरी निर्धारित होना अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। क्योंकि यह कैरियर निजी जीवन के लिये नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन के लिये तय किया गया है।
परंतु आज की तारीख में भारत एक ऐसा लोकतंत्र बन गया है जिसमे कमोबेश सभी राजनीतिक दल और इनके स्थापित राजनेता अपने रिश्तेदारों और संतानों को अपना वारिश बनाते हैं ठीक जैसे कि मध्युगीन परंपरा में सबकुछ जन्म के आधार पर होता था। आजकल वही कार्य पार्टी के संगठन तंत्र को नियंत्रित कर किया जा रहा है। यदि लोकतंत्र और चुनाव के आधार पर लोग इसे वैध ठहराते है। इसका जबाब ये है कि यदि सवाल जनता के चयन का है तो फिर हमारी समूची लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था और चुनाव प्रणाली के लिये संविधान, कानून, संस्थाएं और तमाम सिद्धांत कयों गढ़े गये हैं? सब कुछ जनता के चयन से निर्धारित क्यों नहीं हो जाता। यदि ऐसा था तो दलबदल कानून क्यों लाया गया, दलबदल भी तो चुनावी लोकतंत्र के नाम पर सही था। चुनावी खर्च की सीमाएं और प्रचार की रुपरेखा क्यों तय की गयी, यह भी तो संपत्ति और उसके व्यय के अधिकार के तहत जायज था?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे लोकतंत्र को संवैधानिक दायरे के तहत कई और चीजों का अनुपालन करना पड़ता है। मसलन धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, मौलिक अधिकारों, शोषण और गैरबराबरी के खिलाफ तथा अवसर की समानता इन सबको ध्यान में रखना पड़ता है। इन्हीं वजह से कमजोर तबकों को राजनीतिक आरक्षण दिया गया? पहले महिलाओं को, युवाओं को, दलितों को दुनिया के कई लोकतंत्र में मतदान का अधिकार नहीं था उसे अब क्यों प्रदान किया गया क्योंकि यह लोकतंत्र के सतत सुधारों की मांग थी।
आज जब हम अपराध व धन से लोकतंत्र को विलग रखने के लिये तैयार हो गए हैं तो फिर इसे पहचान और लोकलुभावन राजनीति के साथ वंशवाद को मिल रहे प्रोत्साहन से क्यों ना विलग ना करें  ऐसा इसलिये कि इससे अवसर की समानता तथा अप्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रतिनिधिमूलक व्यवस्था की भावना को गहरी चोट पहुंचती है।
दलीय मठाधीशी व्यवस्था के जरिये चुनावी उम्मीदवार तय करने की एक निर्धारित व पारदर्शी व्यवस्था स्थापित करने के लिये वंशवाद का भी समूल नाश जरूरी है। चूंकि राजनीति में पेशेवर दक्षता के मापने का कोई पैमाना निर्धारित नहीं हैं और यह पैमाना यदि निर्धारित किया जाता है तो वह भी लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के तहत जरूर आरोपित होना चाहिए जिससे कि इस अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में ज्यादा से ज्यादा लोगों को और ज्यादा काबिल पब्लिक लीडर के लिये मौका सुनिश्चित हो, जिसमे कम से एक जेनरेशन का नेता अपने जीते जी या कम से कम अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन में अपने बच्चे या रिश्तेदारों को राजनीतिक अवसर देने से प्रतिबंधित हो।
अगर ऐसा होता है तो यह भी लोकतंत्र का एक आदर्श पैमाना होगा। इस मामले में ज्यादा से ज्यादा छूट यही दी जानी चाहिए कि किसी राजनेता की मृत्यु के बाद ही उसके बच्चे या रिश्तेदारों को इंट्री मिले। जो लोग पेशेवर विरासत का हवाला देते हैं उन्हें यह मानना चाहिए कि ऐसा कर वह विशाल आबादी वाले अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में अवसर की समानता का हनन करते हैं। दूसरा कि ऐसे स्थापित राजनेता हमेशा अपनी रसूख और स्टेटस का दूरूपयोग करते हैं। पार्टी में राजनेता बनने की कोई पेशेवर परीक्षा नहंी होती बल्कि यह सारा खेल प्रोजेक् शन का होता है।
आखिर अभी किसी राजनेता की संतान और एक आम कार्यकर्ता में नेता बनने या किसी चुनाव में उम्मीदवार बनने के संघर्ष में समानता क्यों नहीं होती? भारतीय लोकतंत्र में ऐसी एक भी मिसाल नहंी होगी जब किसी स्थापित राजनेता का पुत्र आजीवन सक्रिय कार्यकर्ता बन कर बैठा रह गया हो। वंश के आधार पर कार्यकर्ता तो दूर की बात सालभर के भीतर ही वह चुनावी उम्मीदवार बन जाता है, मंत्री बन जाते हैं बल्कि प्रधानमंत्री तक बन जाते हैं। ऐसे जबकि असंख्य कार्यकर्ता हर पार्टी में मिल जाएंगे जिन्हें तो ताउम्र कारपोरेटर तक का भी टिकट नहीं मिलता है।
जहां तक अन्य पेशों की बात है तो उसमें प्रतियोगिता इतनी प्रबल है कि उसमें पेशेवर दक्षता हमेशा ज्यादा मायने रखती है, प्रोजेक्शन से उसे कुछ फायदा नहीं होता। बड़े क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर के पुत्र रोहन गावस्कर को मौके जरूर मिले पर खिलाड़ी के रूप में स्थापित नहीं हो पाए। इसलिये अन्य पेशों में विरासत संभालने से समाज में अवसर और प्रतिभा के कुं द होने की संभावना नहीं होती परंतु राजनीति में वंशवाद से समाज में अवसर की समानता तथा अप्रत्यक्ष लोकतंक की आधुनिक संकल्पनाओं को भारी नुकसान पहुंचता है।
दूसरा सवाल ये है कि अगर राजनीति सचमुच में समाज सेवा है और सैद्धांतिक रूप से इसमे ईमानदारी और जनसमस्याओं का गुणवत्ता पूर्ण समाधान अहम है तो आखिर किस स्वार्थ में अपने पिता की विरासत लेने की लोलुपता है। हमारी समझ से राजनीति में शामिल लोगों की यह हिपोक्रेसी है जो इस बात को जाहिर नही करते कि राजनीति के जरिये वह धन, मान, सम्मान, रसूख, रूतबा और आधुनिक अभिजात्य होने के सारे अवसर हासिल करते हैं। फिर यह कौन सा लोकतंत्र है?
 शुक्र है कि राजनीति में सादगी की बात उठती रही है, कुछ लोगों ने इसका पालन भी किया। हमारे 70 सालों के लोकतंत्र के इतिहास में कई दलों में ऐसा स्थापित राजनेता हुए जो अपनी सादगी, ईमानदारी, योग्यता और अपने सामाजिक व राष्ट्रीय विजन के लिये जाने गए। इन्होंने सार्वजनिक जीवन में हासिल अपने प्रभाव का दुरूपयोग ना तो पैसा व निजी संपत्ति बनाने के लिये किया और ना ही अपने जीते जी अपने पुत्रों को अपना बारिश बनाया। तो फिर इस कार्य को हम अपने राजनीतिक सुधारों और लोकतंत्र के सतत बेहतर बनाने के एजेंडे के साथ क्यों नहीं जोड़ सकते जिससे कि धन सत्ता, अपराध, पहचान, भावुकता, लोक लुभावन, दुष्प्रचार के साथ साथ वंशवाद को भी भारतीय राजनीति के मेन स्ट्रीम से निकाल फेंका जाए और आने वाले समय में देश के राजनीतिक दलों को एक ऐसे आधुनिक राजनीतिक संस्था के रूप में संरचित किया जाए जो गुड गवर्नेन्स के तमाम कारकों तथा एक आदर्श और सतत सुधारमान लोकतंत्र के पहरुए साबित हों। इसके साथ हीं देश में पब्लिक लीडरशिप की नयी पौध की एक ऐसी राजनीतिक नर्सरी उगायी जाए तो अपने समर्थकों को सही राह पर ले जाने वाला अपने समूह का सबसे काबिल व्यक्ति हो।
 जिसमे ईमानदारी, सार्वजनिक समर्पण, जनसमस्याओं की विराट संवेदनशीलता, गुड गवर्नेन्स का एजेंट और अपने निजी हितों की हमेशा उपेक्षा कर सामाजिक व राष्ट्रीय हितों को उच्च प्राथमिकता देने वाला हो। जिसमे संविधान के मूलभूत सभी आदर्शों धर्मनिरपेक्षता (जिसे व्यापक रूप में पहचान निरपेक्षता कहना ज्यादा सही होगा), सामाजिक न्याय( जिसे व्यापक अर्थ में विराट सामाजिक न्याय कहना उचित होगा) और अवसर की समानता जैसे तत्वों का और बेहतर दीदार होता हो। जब ऐसे मापबिंदू पर हम अपने लोकतंत्र और राजनीतिक व्यवस्था का सूत्रपात करेंगे तो जाहिर है कि उसमें तमाम कारकों के साथ साथ वंशवाद के लिये भी कोई जगह नहीं होगी।

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