Saturday, September 6, 2014

सरकारों का जाना और आना
परंतु व्यवस्था का मूल ढ़ांचा वही
मनोहर मनोज
यूपीए-2 का दौर खत्म और नमो नीत एनडीए-2 के दौर की शुरूआत। बहुत सारे विश्लेषण हुए यूपीए के जाने और एनडीए के आने के कारणों पर। परंतु सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि भारतीय लोकतंत्र में किसी एक सत्ता तंत्र के जाने और दूसरे सत्ता तंत्र के आने के बाद भी क्या हमारी समूची प्रशासनिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था का मूल ढंाचा और उसका तानाबाना भी वही रहता है। तो इसका जबाब है हां।  क्योंकि यदि कोई नयी सरकार यह कहती है कि वह विकास चाहती है तो इसका जबाब है क्या विगत की सरकारें विकास नहीं चाहती थीं, इसका ईमानदार जबाब यही है हां उनका इरादा भी विकास का था। यदि नयी सरकार यह कहती है कि वह महंगाई कंट्रोल करना चाहती है तो इसका भी जबाब है हां वे सरकारें भी महंगाई नियंत्रित करना चाहती थी बल्कि विगत की सरकारें भी भ्रष्टाचार के अरोपों से बचना चाहती थी और विकास दर को उंचा बनाये रखना चाहती थीं। फिर सवाल ये है कि विगत की सरकारे भी यदि विकास बढाने और भ्रष्टाचार महंगाई को नियंत्रित करना चाहती थीं तो फिर वे सफल क्यों नहीं हुई और यदि वे सफल नयी हुर्ई तो फिर नयी सरकार मे ऐसा अलग बात क्या है कि वे सफल हो जाएगी। अंतर ये है कि विगत की सरकारें व्यवस्था के मूल स्वरूप और फंडामेंटल्स में बदलाव लाने की जहमत नहीं उठाना चाहती थी और उनका लक्ष्य किसी तरहसे सता में पुन: वापस आने के जो लटके झटके थे उस परिपाटी को ही उच्च प्राथमिकता देने का था। इस वजह से विगत की सरकारों ने ना तो देश में भावुकता और पहचान की राजनीति पर विराम लगाया और न ही लोकलुभावन घोषणाओं के जरिये मतदाताओं को ललचाने की करतूतों पर विराम लगाया। अब यदि ये सरकार इन चीजों को एड्रेस करती है तो निश्चित रूप से पिछली सरकारों से बेहतर होगी।
नया प्रश्र ये है कि क्या देश में पिछले साठ सालों में चली आ रही इस राजनीति का अब पटाक्षेप हो गया है।                        क्या पहचान की राजनीति से बने वोटबैंक के  पुराने मिथक ढह गये है और इसके बदले सुशासन के समर्थन में एक नया वैकल्पिक वोटबैंक देश में तैयार हुआ है तथा चुनाव जीतने वाली लोकलुभावन घोषणाएं अंतत: देश की अर्थव्यवस्था को जिस वित्तीय अनुशासनहीता को ओर ले गयी उसकी परिणति मतदाताओं के सामने महंगाई के एक बड़े मंजर के रूप में दिखायी दिया है जिसने अंतत: सत्ता में आसीन सरकारों को जनसमर्थन दिलाने के बजाए जनरोष का सबब बना दिया।
यदि नयी सरकार  यह सोचकर शासन करेगी कि उसने विपक्ष के रूप में सत्ता पक्ष की कमियां उजागर कर सत्ता प्राप्त कर ली है और वह अगले पाच साल के लिये सत्ता भोगने का लाइसेंस प्राप्त कर लिया है तो ऐसे में वही पुरानी कथा ही दोहरायी जाएगी।
अगर इन परिस्थितियों के उपरांत यदि नयी सरकार भी पारंपरिक तरीके से शासन चलाएगी और समूची प्रशासनिक वयवस्था के फंडामेंटलस में जरूरी सुधारों को अंजाम नहीं देगी तो वह ढाक के तीन पात मुहाबरे को ही चरितार्थ करेगी।
अत: हम जैसे विश£ेषकों की नजर में किसी भी नये सरकार के प्रदर्शन की कसौटी यह नहीं है कि वह भी विकास बढ़ाने, भ्रष्टाचार बेरोजगारी व महंगाई नियंत्रित करने के पुराने नारों की       पुनरावृति करे बल्कि वह काम करे जो देश के बुनियादी व्यवस्था के ढ़ाचें में निर्णायक बदलाव लाए जिससे इन समस्याओं का न केवल स्थायी व दीर्घकालीन समाधान निकले बल्कि इस लक्ष्य की प्राप्ति में वे अपने दल व सरकार के निजी स्वार्थों को त्यागकर राजनीतिक आर्थिक सुधारों को संवैधानिक संस्थागत व कानूनी सुधारों का जामा पहनाने का भी काम कर सके।  यह सवाल इसलिये बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में नरेन्द्र मोदी नीत एनडीए को मिला व्यापक जनसमर्थन न केवल इस व्यवस्था में आसीन चेहरों में बदलाव की मांग कर रहा था बल्कि देश में उत्पन्न और जड़ीभूत दोनो समस्याओं के स्थायी निदान के लिये मौजूदा कार्यरत व्यवस्था में मूलभूत सुधारों की भी मांग कर रहा है।
देश में मौजूद भ्रष्टाचार और महंगाई की समस्या क ोई थोड़े दिनो से नहीं है बल्कि भ्रष्टाचार की शुरूआत तो देश में 1960 के दशक में ही हो गई थी जो आने वाले काल में हमारे सिस्टम में और संस्थाबद्ध होती चली गई।  परंतु दूर्भागय से भ्रष्टाचार का यह मुद्दा देश के राजनीतिक दलों के लिये चुनाव का व्यापक मौजू कभी नहीं बना। इसलिये किसी भी दल और उसकी सरकार ने पिछले पचास साल में देश में भ्रष्टाचार निवारण की कोई बड़ी व महत्वाकांक्षी योजना की शुरूआत नहीं कर पाई। भ्रष्टाचार पर यह सरकार पिछले पचास साल में पहली बार तब हरकत में आई जब इसने न केवल लोकपाल कानून पास किया बल्कि संसदमें लंबित करीब आधे दर्जन भ्रष्टाचार विरोधी विधेयकों को स्वीकृति का मन बनाया तब तक काफी देर हो चुकी थी और संसद का अवसान समीप आ गया था।
 इसी तरह से महंगाइ  निवारण को यूपीए 2 के कार्यकाल में प्रभावी तरीके से अंजाम नहीं दिया जा सका क्योंकि इस सरकार ने चुनाव जीतने के वोट कैंचिंग करने के जो पापुलिस्ट तरीके तमाम योजनाओं के जरिये लागू किये उसने भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय अनुशासन को पूरी तरह से खत्म कर दिया साथ ही अनुत्पादक योजनाओं की शुरूआत से अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी कारकों को बढ़ावा मिला। रही सही कसर देश में पिछले पैसठ सालों से अपनायी जा रही कृषि को लाभकारी के बजाए निर्वाह पेशा की नीति तथा न्यूनतम व अघिकतम मूल्य नीति नहीं होने से देश में सभी कृषि उत्पादों की सप्लाई डिमांड में घोर असंतुलन की स्थिति ने पूरी कर दी ।
आज कांग्रेस के दिगगज भी खुले तौर पर स्वीकार कर रहे हैं कि कांग्रेस को पापुलिज्म नीति ने ले डुबाया। इसी पापुलिज्म की नीति ने कांग्रेस को 2009 में विजय श्री दिलवा दी थी जबकि इसके पूर्व एनडीए पापुलिज्म के अभाव में 2004 में चुनाव में हार चुका था। इससे देश के राजनीतिक दलों को ये लगा कि इस देश में या तो भावनाओं की आंधी से चुनाव जीता जा सकता है या तो लोकलुभावन आर्थिक घोषणाओं से चुनाव जीता जा सकता है।  परंतु राजनीतिक दलों की यह स्वार्थपरक सोच देश की लोकतांत्रिक राजनीति और विकासपरक अर्थव्यवस्था के लिये कितनी महंगी साबित होती है इसका राजनीतिक दल अंदाजा नहीं लगा पाए। लोगों को लोकलुभावन घोषणाओं से प्राप्त होने वाला फायदे इन घोषणाओं के देश की अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाले दुष्परिणामों से न केवल धुल जाता है बल्कि देश में महंगाई और अराजकता से हाहाकार पहुंचने लगता है। 2008 में किसानों की कर्जमाफी की घोषणा किसानों की न तो आत्महत्या रोक पायी और न हीं उनकी खेती की समस्या का स्थायी समाधान कर पायी पर देश की अर्थव्यवस्था में वित्तीय अनुशासनहीनता का बीज जरूर बो गयी।
 इसी तरह से छठे वेतन आयोग की अनुशंसा से हमारी नौकरशाही के कार्य में उत्पादकता व इमानदारी बढ़ाने के बजाए अर्थव्यवस्था में स्फीतिकारी कारकों को और पनपाने में अपना रोल जरूर बढ़ा गयी।
मनरेगा योजना से गांवों में सरकार के फंड का जरूर हस्तानांतरण हुआ पर वह बेहतर व बुनियादी सुविधाओं पर निवेश नहीं होने से रोजगार योजना अनुत्पादक  साबित हुई जिसमें सार्वजनिक धन की घोर बर्बादी हुई। इन सारे बातों का नतीजा ये हुआ कि देश में महंगाई का दावानल तेजी से फैला, नतीजतन जो पापुलिस्ट फैसलों सरकार को वोट दिलाते थे वे फैसले सरकार को भारी रूप से अलोकप्रिय बना गये।
राजनीतिक दल जनता का हवाला देकर देश की परिस्थिति को झांकने का प्रयास करतै हैं उससे कई देश हित में कई कठिनाइयां उत्पन्न होती है। दरअसल जनता को केवल परिणामों से मतलब होता है। सरकार और इसे चलाने रणनीतिकारों और विशेषज्ञों का यह काम होता है इन जनोनुकूल परिणामों को प्राप्त करने के लिये सही रास्ते का चुनाव करें। जनता को यदि जरूरी राहतें बिना सब्सिडी के दी जा सकती  हों तो फिर जनता सब्स्डिी लागू करने की मांग कभी नहीं करेगी। वर्ष 2014 के चुनाव के लिये भी यूपीए ने आर्थिक संकटों के बावजूद लोकलुभावन घोषणाओं में कमी नहीं की। खाद्य सुरक्षा के बहाने देश में फिर से वोट कैचिंग का गेम खेला गया पर तबतक अलोकप्रियता का ग्राफ सर के उपर जा चुका था।
क्या है मूल सुधारों के एजेंडे
आज हम जिस भ्रष्टाचार की बात करते हैं उसमे मुख्य है राजनीतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार। राजनीतिक भ्रष्टाचार राजनीतिक सुधारों की मांग करते हैं जिसके लिये पहचान व पापुलिज्म की राजनीति को संवैधानिक उपचारों के जरिये प्रतिबंधित करना होगा। राजनीतिक दलों की समूची कार्यप्रणाली को पेशेवर बनाते हुए वहां हर तरह की कार्य प्रक्रिया पारदर्शी बनानी होगी और उम्मीदवार चयन से लेकर समूची रीति नीति को मठाधीशी शैली की राजनीति से मुक्ति दिलानी होगी। राजनीतिक दलों में गुड गवर्नेन्स से जुड़ी सभी तरह की नीतिगत, कानूनगत,संस्थागत व संविधानगत उपायों की ओरिएंटेशन मुहिम लानी होगी। तीनों टायर की लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अधिकारों व शक्तियों व कार्यों में मौजूद सभी तरह की विसंगतियों को दूर करना होगा।
प्रशासनिक भ्रष्टाचार सबसे अहम है क्योंकि जनता के लिये सरकार का रोजरोज का असली चेहरा यही है पर दूर्भाज्य इसकी हिसाबदेयता जनता के प्रति नहीं है, ऐसे में राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के बीच के इस संयुक्त शासन  व्यवस्था को कैसे निर्धारित किया जाए इसके दो माडल है एक तो कारपोरेट शैली में प्रशासकों को प्रबंधक मानकर क्लांइट यानी जनता को पूरे तरीके से संतुष्ट करने की व्यवस्था और दूसरा है एक नयी कार्मिक नीति के जरिये देश की करीब दो करोड़ नौकरशाही को एक नयी कार्मिक नीति के जरिये इसके व्यापक संचालन की योजना बनायी जाए जिसमें नियुक्ति छंटनी सेवानिवृति से लेकर काम के घंटे छुट्टी के साथ परफारमेंस आडिट, कौस्ट आउटपुट, प्रोडक्टीविटी आडिट, सोशल आडिट इत्यादि कई उपायों के जरिये पूरी नौकरशाही को चाक चौबंद, ईंमानदार, उत्पादक, सेवा भावी बनाया जाए और इसे सुनिश्चित करने के लिय सभी तरह की कार्यपरिस्थितियां और इन्सेन्टिव का प्रावधान बनाया जाए।
होता क्या है बयूरोक्रेसी की चर्चा के नाम पर कोई भी नयी सरकार केवल उच्च पदस्थ सचिव स्तरीय  नौकरशाहों में फेरबदल करती है पर इनका जनता से कोई वास्ता नहीं होता है। किसी भी सरकार के परफारमेंस की सबसे बड़ी कसौटी ये नहीं है कि पीएमओ और सेन्ट्रल कैबिनेट में नौकरशाही कैसे काम कर रही है। बल्कि यदि केन्द्र सरकार की बात करें तो दिल्ली के  किसी थाने में, आयकर कार्यालय में, रेलवे स्टेशन पर,स्कूल, अस्पताल  में जनता के साथ कैसे डील किया जाता है वहीं जनता के लिये नोकरशाही के चालढाल में परिवर्तन की कसौटी है। इसी तरह से लोकतंत्र के दूसरे व तीसरे टायर के तहत नीचले स्तर पर आने वाले प्रखंड, अंचल, थाने, स्कूल, अस्पताल, कोर्ट, निबंधन कार्यालय, तहसील-अनुमंडल कार्यालय में रोजरोज के काम को नौकरशाही किसी चाल में काम करती हँैै। आम तौर पर नौकरशाही का जनता के प्रति नजरिया सपोर्ट का नहीं रिजेक्ट का होता है।
एक सांसद और एक विधायक अपने अपने क्षेत्र में गवर्नेन्स में कोई भूमिका नहीं निभा पाते जबकि उनकी जनता के प्रति सीधे तौर पर हिसाबदेयता निर्धारित की गयी है। ऐसे में सांसद को जिला प्रशासन व विधायक को ब्लाक व अनुमंडल प्रशासनमें सीधी भागीदारी पर सोचा जाना चाहिए
भ्रष्टाचार कुछ चंद कड़े कानूनों से कत्तई दूर नहीं होने वाला। भ्रष्टाचार के डीएनए के समाप्त करने के लिये एक साथ कई कानूनों, नीतियों,संस्थाओं में परिवर्तन के साथ सभी पुराने काम काज की लगातार समीक्षा चाहिए।
नयी सरकार के लिये भ्रष्टाचार केबाद महंगाई को नियंत्रित करने के लिये कुछ मौलिक सुधारों को अंजाम देना होगा। इसमे सभी कृषि उत्पादों को लागत भरपाई से युक्त न्यूनतम और अधिकतम मूल्य के दायरे में लाना होगा। इसे सही अनुपालन के लिये सरकार की मार्केट इंटरवेनिंग संस्थाओं  एफसीआई नाफेड एवं सहकारी समितियों को सीजन में क्रय और आफ सीजन में विक्रय के काम को एक मिशन के अंदाज में करना होगा। वित्तीय अनुशासन से थोड़ी भी छेड़छाड़ को अुनमति नहीं देनी होगी।  कृषि जिन्सों के वायदा कारोबार पर प्रतिबंध लगाना होगा।  
खाद्य सुरक्षा योजना को हटाकर इसे सिर्फ विशेष परिस्थितियों मसलन प्राकृतिक आपदा, दूरदराज व दूर्गम इलाकों के लिये लागू करनी होगी। मनरेगा योजना को ग्रामीण आधारभूत योजना में तब्दील करना होगा। गांवों के सभी कमजोर वर्ग मसलन बच्चे, निराश्रित, विकलांग, वृद्ध के लिये व्यापक सामाजिक सुरक्षा व बीमा योजना को लाना होगा। गांवों में सभी निराश्रितों के लिये आवासीय पट्टा सुनिश्चित करना होगा। देश के  सभी जिलों में कम से कम छह आईटीआई की स्थापना करनी होगी।
एक नियमन प्राधिकरण के तहत निजी सार्वजनिक प्रतियोगिता व गठबंधन की नीति एक सफल नीति रही है। ट्राई इसका बेहतरीन उदाहरण रहा है। इससे देश में मोबाइल क्रांति आयी। इसी तरह से इन्फ्रास्ट्रक्चर के मामले में दिल्ली मेट्रो एक बेहतरीन सक्सेस स्टोरी रही है। इस प्रक्रिया के तहत हमे बिजली, सडक़, शिक्षा, स्वास्थ्य, रेलवे को भी इसी तर्ज पर  नियमन प्राधिकरण के तहत अविलंब लाने की जरूरत है।
रियल इस्टेट इस देश का आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था का एक बहुत बड़ा आधार बनने वाला है। इस हिसाब से इस क्षेत्र का संपूर्ण नियमन न केवल जरूरी है बल्कि भूमि अधिग्रहण की समस्या केस्थायी समाधान के लिये देश में लैंड बैंक, लैंड कंप्यूटराइजेशन की बेहद जरूरतहै।
ई गवर्नेन्सऔर नयी तकनीक ों के प्रयोग को लेकर भी इससरकार को महत्वाकांक्षी योजना बनानी होगी। न्यायिक सुधार व भ्रष्टाचार के मामले के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट के साथ भ्रष्टाचार डिटेक् शन की प्रक्रिया को ज्यादा महत्व देना होगा।
इस देश के करीब दस लाख दफतर में एकनयी कार्य संस्कृति की शुरूआत करनी होगी।


ब्यूरो क्रेसी को लेकर मोदी जो कवायद कर रहे है उसका गवर्नेंस पर तबतक दूरगामी असर नहीं पड़ेगा जब तक वह नई कार्मिक नीति की घोषणा नहीं करते/ इस नयी नीति के तहत उन्हें सीधे तौर हफ्ते में 2 के बदले 1 छुट्टी , साल में छुट्टियों की संख्या घटकर 3 , पर्व त्योहारो की छुट्टी स्वैच्छिक करने,सरकारी ऑफिसेस में 2 शिफ्ट में ड्यूटी करने , जनता से कॉर्पोरेट की तरह ग्राहक जैसा व्यहार करने, कर्मचारियों की ड्यूटी की परफॉरमेंस ऑडिट करने, फाइलों को तय समय में निपटने और हर सरकारी खर्चे की कॉस्ट एंड आउटपुट एनालिसिस करने' ,कल्याणकारी कार्यकर्मो को सोशल बेनिफिट ऑडिट करने, इ गवर्नेंस का ज्यादा इस्तेमाल करने, क र्मचारियों की उत्पादकता को इंसेंटिव से जोडऩे, हर संसद विधायक को स्थानीय प्रशाशन में जिम्मेदार बनाने, सब्सिडी को बिलकुल समाप्त कर इसके बदले कर रियायतों के जरिये लोगो को राहत देने, मनरेगा को ग्रामीण आधारबूत निर्माण योजना में बदलने , खाद्य सुरक्षा को हटकर व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजना बनाने , आपदा काल के लिए बेहद चक चौकस व्यस्था करने सभी बेघरो को आवासीय पत्ता बनाने, इंदिरा आवास में राशि को पचास हज़ार कर इसमें शौचालाय अनिवार्य करने तथा इसे नयी तकनीक के जरिये तथा मकन बनने पर ही राशि का भुगतान करने के आलावा सभी कृषि उत्पादों के न्यूनतम और अधिकतम कीमत तय करने वायदा कारोबार पर रोक लगाने का काम करे तो महंगई और भ्रस्टाचार की रोकथाम पर एक अच्छी शुरुआत होगी

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