Tuesday, September 30, 2014

वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ: बरक्श डीयू और जेएनयू

हमारी राजनीति, मीडिया और बौद्धिक मनीषा जगत में वाममार्ग और दक्षिणमार्ग की विचारधारा की एक तीव्र विभाजनरेखा बहुत पहले से दिखाई पड़ती रही है। लोगो के आख्यान, बहस, विचार, अवधारणाएं और तर्कशीलता इन्ही दोनों वैचारिक खेमो में ही अपनी अपनी जगह खोजती फिरती रही हैं । यहां तक की फेसबुक जैसे लोकप्रिय सोशल साइट पर भी इस तरह की खेमेबंदी मजबूत बनती जा रही है। पहले से चलायमान इस बहस प्रवृति को अभी दिल्ली विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव परिणामों  से और बल मिल गया है। मुझे लगता है कि वामपंथ और दक्षिणपंथ जिसे क्रमश: समाजवादी और पूंजीवादी विचारधारा क्रम के रूप में भी जाना जाता है, दरअसल वैचारिकता की मूल धारा के ही विपरीत है जो विचारों के औचित्य, उपादेयता, सरोकार, तार्किकता और वैज्ञानिकता का हनन करते हैं।
हमारी समझ से किसी भी वैचारिकता का मायने मनुष्य, समाज और विश्व और संपूर्ण पारिस्थितिकी की सभी व्यवस्थाओं की सम्यकता के निरूपण से है जिसमे ना तो कोई आग्रह हो और ना ही कोई दूराग्रह, ना ही पूर्वाग्रह और ना ही कोई ग्रंथी उसमे छिपी हो।
बहरहाल जहां तक मैं जानता हूँ वामपंथ शोषण और संघर्ष की कोख से पैदा हुई एक परिस्थितिकालीन आर्थिक राजनीतिक विचारधारा थी जो समूची दुनिया के वैचारिक पटल पर मजबूती से स्थापित हुई। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी में यूरोप में आई औद्योगिक क्रांति के उपरांत उत्पादन के पांचवे कारक उद्यमी यानी पूंजी के मालिक  पूंजीपतियों का उत्पादन प्रक्रिया पर दबदबा बढ़ गया और वे बेलगाम शक्तिमान होकर उत्पादन के दूसरे प्रमुख  तत्व श्रम और उसके मालिक श्रमिको का एक नहीं कई तरीके से शोषण करने लगे । ठीक वैसे ही जैसे सामंतवादी वयस्था में भूस्वामी मजदूरों के साथ किया करते थे।
पहले एंगल्स फिर माक्र्स और बाद में लेनिन के श्रृंखलाबद्ध प्रयासों ने इस शोषण के प्रतिकार और इसके परिणास्वरूप वाममार्ग की राजनीतिक-आर्थिक विचारधारा का अभ्युदय किया । इससे समूचे यूरोप में पूंजीवादी विचारधारा को भारी ठेस लगी। वामपंथ के रूप में आई मूलत: यह आर्थिक विचारधारा यूरोप सहित दुनिया के कई देशों की राजनीति में भी हिलोरे ला चुकी थी। वामपंथ दुनिया के कई समाजों और इससे जुड़े साहित्य, कला और मीडिया में भी एक नये वैचारिक परिवर्तन को अंजाम दे चुका था। नतीजतन पूंजीवादियों ने अपने देशो में व्यापक श्रम कानूनो और सामाजिक सुरक्षा की प्रणाली शुरू की। उस समय पूंजीवादी व्यवस्था के चैंपियन देश अमेरिका ने भी इसकी म्यूजिक सुनी और उसने पूंजीवाद के राजनीतिक तो नहीं पर इसके आर्थिक चेहरे को अपने यहां एक भयानक मंदी के तौर पर देखा और तब राष्ट्रपति रूजवेल्ट के भारी भरकम सरकारी निवेश के उपायों नई डील पालिसी  की समाजवादी सरीखी नीतियों के जरिये अपनी आर्थिक मंदी पर काबू पाने में सफल हुआ।
इस तरह उस समकालीन परिदृश्य में बेकाबू हो चुक ा पूंजीवाद वामपंथ के वैचारिक स्ट्रोक से सम्हला और संतुलन को प्राप्त किया पर दूसरी तरफ दुनिया के कई देशों की राजनीतिक सत्ता पर आसीन हुआ वाममार्ग अपनी सफलता का पहला दौर तो बड़े उत्साह से पूरा किया पर उसके बाद इसने अपनी शोषण की अपनी दास्तां लिखनी शुरु कर दी। मसलन सरकरी नियंत्रण के नाम पर अफसरशाही, श्रम कल्याण के नाम पर हड़ताल और बंद की संस्कृति, मजदूरो की तानाशाही के नाम पर लोकतंत्र का विरोध, वर्ग संघर्ष के नाम पर राजनीतिक विरोधियों का सफाया और मानवाधिकारों की अवहेलना वगैरह वगैरह।
यानी इस पूरे एतिहासिक काल क्रम में हमने दोनो स्थापित विचारधाराएं वामपंथ व दक्षिणपंथ को देखा कि वह कैसे एक प्रतिद्वंधी गिरोह के रूप में आई और अपने आप में व्यापकता से कट कर अपूर्ण, अधूरी होकर काम कर रही थी। चूंकि ये दोनो प्रतिद्वंधी विचारधाराएं जो कोई अकेली पहचान की विचारधारा नहीं थी बल्कि इनमे कई क्षेत्रों की विचारधाराओं का कॉकटेल था। जो राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैदेशिक सभी मामलों के पहचानों को आपस में समेटे हुआ था। यही वजह थी कि इन दोनो विचारधाराओं ने सामाजिक राजनीतिक व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना मजबूत गिरोह बनाया।
एक निष्पक्ष बौद्धिक विश् लेषण के आधार पर तबसे हम यह भी देखते आए कि कैसे आज का वामपंथ संघर्ष और शोषण के मानवतावादी आदर्शो को छोड़ कर, सही गलत की भावना की उपेक्षा कर केवल उन्हीं मुद्दों पर अपनी खेमेबाजी मजबूत कर रहा है जो या तो उसकी वोट बैंक की पॉलिटिक्स को मजबूत बनाता है या तो उन्हें अपनी स्थापित विचारधारा के प्रति तर्कहीन आसक्ति का अहसास कराता है। यानी यह वामपंथ तमाम असंगठित मजदूरों को अपनी केवल प्राथमिकता देने के बजाये वह संगठित मजदूरों की मांगों की तरफदारी को प्राथमिकता देता है।  जिस तरह वे यह मानते हैं की पूंजीपति श्रमिकों का वर्ग शत्रु है उसी तरह से उनकी यह धारणा अब तक नहीं बदल पायी की एक छोटे कारोबारी की स्थिति एक संगठित मजदूर से भी ज्यादा बदतर होती है। इसी तरह से व्हाइट कॉलर श्रमिक और ब्लू कॉलर श्रमिक दोनों के हितो को हम श्रम सवालों के एक मंच पर नहीं ला सकते, दोनों के हित दरअसल एक दूसरे के विरोधाभासी है ं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में चीन जैसे देश हमारी सीमा को हड़प ले और एक शांतिप्रिय धर्म बौद्ध को मानने वाले देश तिब्बत पर वह बलात कब्ज़ा कर ले फिर भी विचारधारा के दबाव में उसका वे समर्थन करें तो यह इस विचारधारा का आदर्शवाद और मानवतावाद नहीं बल्कि यह उनकी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति का खेमावाद और घरेलू राजनीति में वोटबैंकवाद है। तभी तो यह विचारधारा एक तरफ हिन्दू सम्प्रदायिकता पर टिप्पणी करती है पर इससे कई गुना ज्यादा और विश्वव्यापी रूप से खतरनाक मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर यह मौन रहती है। ईमानदार उद्यमियों को यह शक की निगाह से देखती है और नव बुर्जुआ भ्रष्टअफसरों की यह तरफदारी करती है।
यह बात भी बिल्कुल सही है कि समूची दुनिया में पूंजीवाद या दक्षिणवाद भी समय समय पर भटकाववाद की और गया। जिस तरह से बीसवी शताब्दी के पूर्वार्ध में वामपंथ को दक्षिणपंथ पर एक नैतिक विजय मिली थी उसी तरह से पूंजीवाद को वामपंथ पर एक तरह से नैतिक विजय मिली। हमने यह देखा कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम सोपान मेें सोवियत संघ का विखंडन हो गया, चीन की पालिसी रिजीम बदल गई और दुनिया के कई सरकारों ने अपनी समाजववादी नीतियों की घोर विफलता का स्वाद चखा।
देखा जाए तो ये दोनो विचारधाराएं चरमपंथी विचारधाराएं रही हैं। ये विचारधाराएं दुनिया में मानवतावाद का तबतक कल्याण नहीं कर सकती जब तक वह वह युग सापेक्ष, समय सापेक्ष और देश सापेक्ष होकर अपने आप में यथोचित बदलाओ के लिए तैयार नहीं होतीं। ये दोनो चरमपंथी विचारधारायें यह मानकर चलती हंै कि उग्रतावादी तरीकें ही संगठन की मार्केटिंग करेंगे, मीडिया में सुर्खिया हासिल करेंगे और समाज में स्पष्ट विभाजनरेखाएं खीचेंगी।
दरअसल हम भूल जाते हैं कि किसी भी विचारधारा की समायोजना और इनका सांस्थनिक स्वरूपीकरण हमेशा के लिये फूल प्रूफ नहीं होता। सभी विचारधारा और संस्थाओं में एक समय अंतराल पर सफाई की जरूरत पड़ती है और इनकी स्थापना की क्राति के विरूद्व एक निश्चित अंतराल पर प्रतिक्रांति की निरंतर आवश्यकता पड़ती है।
इन दोनो विचारधाराओं ने राजनीति तथा अर्थव्यवस्था के अलावा समाज की जिस संस्था पर गहरा प्रभाव डाला वह संस्था धर्म थी। वामपंथ के प्रमुख अभ्यूदयकर्ता और अपने समय के बौद्धिक महाबलि कार्ल माक्र्स ने धर्म को
अफीम का नशा माना। उनक ा यह बयान संगठित धर्मों की अंध करतूतों पर हमला था पर
इसके निशाने पर आ गया ईश्वरवाद जिससे दुनिया भर में आस्तिक और नास्तिकवादियों के बीच एक अलग विभाजनरेखा खिंच गयी।
मैं तो ईश्वरवाद और धर्मवाद दोनों को बिलकुल अलग अलग मानता हूँ। ईश्वरवाद जहां एक सर्वकालीन, सर्वव्यापक चेतन और अचेतन दोनों जगत की एक नियामक सत्ता के रहस्य की चिर धारणा की खोजबीन थी वही धर्म कुछ सहस्त्राब्दी पूर्व से चालू, चालबाज और चालाक लोगो द्वारा गढ़ी गई दुकान जो अपने अपने ग्राहक व अनुयायी बनाने व मठाधीशी सत्ता की संक्रियाओं में संलग्र है। जो हमारे राजनीतिक दलों के ढर्ऱे पर ही अपने अपने धर्म के समर्थक और अनुयायी बढ़ाने में लगा हुआ है। अभी ईसाई और मुस्लिम धर्म तो समूची दुनिया में इसी तरह से अपना विस्तारवाद कर रहे हैं। धर्म के इस मार्केटिंग में ईश्वर को भी अपने अपने हिसाब से शामिल किया गया है जिसमे उसकी आराधना पद्धति भी है,जीवन और मृत्यु के सभी विधान और जीवन शैली भी गढ़ी गयी है । धर्म को अपनाना और उसका अनुयायी बनाना किसी भी व्यक्ति का विल्कुल निजी मामला है और इसीलिए धर्मनिरपेक्षता सार्वजनिक जीवन और उसके शासन की सबसे अच्छी नीति उभर कर आई पर वाममार्ग और दक्षिणमार्ग दोनों ने इस अवधारणा के मूल स्वरूप को पहचान आधारित लोकतांत्रिक राजनीति की भेंट चढ़ा दी।
वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ पर इस बहस का मतलब इन दोनों वादो के बीच विवाद खड़ा करना नहीं बल्कि इस बात को पुरजोर तरीके से स्थापित करना है कि कोई भी वाद हमेशा के लिए जिन्दा नहीं होते हंै। उसमे निरंतर सुधारों और समीक्षा की गुंजाइश होनी चाहिए। इसमे आत्मावलोकन, अभिव्यक्ति और औचित्य का हमेशा अवसर प्राप्त होना चाहिए। हमने वामपंथ की राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति को तमाम संकटों और भारी असफलताओं से दो चार होते देखा है उसी तरह से पूंजीवादी व्यवस्था के तमाम पहलुओं के नग्र स्वरूप का पर्दाफाश होते देखा है। परन्तु दक्षिण और वाम की चरमपंथी विचारधारा कभी खुले दिमाग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होती।
मध्यममार्ग जो बीच का,संतुलन का और विवेक का मार्ग है जो हर अच्छे को स्वीकार करे और हर बुरे को अस्वीकार करे, वही सबसे अच्छा मार्ग है। एक ऐसा मार्ग जो भगवान बुद्ध को मध्यमार्ग पर चलने को विवश कर दिया। यानी वीणा का तार इतना ना कसो कि वह टूट जाए और इतना ढ़ीला भी ना रखो कि उसमे आवाज ही ना आए। दुनिया का सार्वकालीन अस्तित्व इसी मध्यममार्ग मे ही निहित है। 1

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