Monday, September 29, 2014

जम्मू-कश्मीर त्रासदी ने आपदा पूर्व व बाद की व्यापक तैयारियों के लिए पुन: चौकस किया

आखिरकार प्राकृतिक आपदा ने पिछले वर्ष उत्तराखंड को उकसाया और इस साल कश्मीर को भी कराहने पर मजबूर कर दिया। सबसे पहले तो हमे इस तथ्य से भलीभांति अवगत होना होगा कि भारत प्राकृतिक विविधताओं से एक परिपूर्ण देश है जहां भिन्न-भिन्न भौगोलिक संरचना के साथ-साथ जलवायुवीय परिथितियां भी भिन्न-भिन्न हैं। ऐसे में देश के विभिन्न स्थानों में प्राकृतिक आपदाओं का भी आगमन एक तरह से अवश्यम्भावी सा हो गया है। देश के कई हिस्सेे ऐसे हैं जहां बारिश कम होने तथा नदियों की संख्या कम होने से सूखे का सामना करना पड़ता है। कई इलाके ऐसे हैं जहां अतिवृष्टि तथा नदियों की संख्या ज्यादा होने से हर साल बाढ़ की भारी विनाश लीला झेलनी पड़ती है।
भारत का समुद्र तट भी काफी लम्बा हैै, जहंा पर कभी भी चक्रवाती तूफान और सूनामी जैसे आपदाओं के लिए तैयार रहना पड़ता है। भारत के हिमालय पहाड़-श्रृंखलाओं की बहुत बड़ी सीमा से जुड़े होने की वजह से वहां के निकटवर्ती इलाकों में जमीनें दरकने, बदल फटने, अचानक से बाढ़ की विनाशलीला झेलने और भूकम्प की घटनाएं आम बात हैं। भारत का बहुत बड़ा हिस्सा भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक अतितीव्रता और सामान्य तीव्रता के भूकंप की श्रेणी में आता है। इन सभी आपदाओं के बारे में यदि आंकड़ों के आधार पर बात की जाए तो एक अनुमान के मुताबिक भारत के कुल भू-भाग का करीब 6० प्रतिशत हिस्सा भूकंप प्रभावित क्षेत्र में आता है। इसी तरह देश का करीब 4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित है। इसी तरह चक्रवात की बात करें तो देश का करीब 8 प्रतिशत भू-भाग चक्रवाती तूफान के चपेटे में कभी भी आ सकता है।
देश का दो तिहाई यानी करीब 68 प्रतिशत हिस्सा सूखे की मार झेलने के लिये अभिशप्त है। इस तरह कुल मिलाकर देश की तीन करोड़ की आबादी हर साल प्राकृतिक विपदा की कोई न कोई मार हर साल झेलती है। ऐसे में हमे इन सारी प्रा$कृतिक परिस्थितियों से मुक्त होने की बात करना कल्पना से परे है। बेशक हम इन प्राकृतिक परिस्थितियों और इससे उत्पन्न आपदाओं को इसके आगमन के पूर्व और इसके उपरांत की अपनी संपूर्ण तैयारियों से इसके असर की भयावहता को कम से कम करने का प्रयास जरूर कर सकते हैं।
हमे ये बात भी ध्यान में रखना होगा कि देश में जब भी आपदा प्रबंधन की तैयारियों की बात आती है तो उसमें केवल प्राकृतिक आपदा ही नही बल्कि विकासजनित व मानवजनित आपदा के प्रबंधन की बात भी शामिल होती है। 1982 में भोपाल में यूनियन कार्बाइड़ की फैक्टरी में एमआईसी गैस का रिसाव एक मानवजनित आपदा ही तो थी जिसमें हजारों जानें तो गयी हीं साथ ही इसके दर्द का असर आनुवांशिक तौर पर भी पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रही। पिछले तीन दशकों के दौरान देश में आतंकवाद, दंगे और नक्सल हमले जैसी मानवजनित आपदा की घटनाएं भी लगातार होती रही हैं जिसमे हमारी आपदा व ट्रौमा प्रबंधन के काम काज की परीक्षा व उसकी प्रासंगिकता का प्रश्र लगातार बना रहा है।
पिछले कुछ दशकों में देखें तो देश में प्राकृतिक आपदा की दर्जनों घटनाएं हुईं जिसमे वर्ष 1999 में आया ओडि़सा में चक्रवाती तूफान, बिहार में कोशी व असम में ब्रह्मपुत्र की आयी विनाशलीला, लातूर-कच्छ-गढ्वाल में हुए भूकंप, विदर्भ-राजस्थान-गुजरात जैेसे जगहों पर सूखे तो दक्षिण भारत के समुद्र तटों पर 2००4 में आए समुद्री सूनामी, 2०13 में त्तराखंड में बादल फटने व भारी वारिश एवं 2०14 में जम्मू-कश्मीर में बाढ़ की व्यापक विनाशलीला प्रमुख है।
हमारे देश में रोजमर्र्रे के जीवन में सड़क, रेल और हवाई यातायात की दुर्घटनाएं  सरेआम होती रहती हैं। जिसके लिए चाहे हमारा लचर रोड ट्रैफिक प्रबंधन सिस्टम जिम्मेवार हो या कोई अन्य वजह, इसमें हर साल 1.2 लाख लोग बेमौत मारे जाते हैं। इसी तरह देश में आए दिन बिल्डिंगों तथा पैक्टिरयों तथा गांवों में होने वाली आगलगी व औद्योगिक दूर्घटना की छोटी मोटी वरदात में भी हमारा ट्रौमा तंत्र बेहतर तरीके से अपने काम को अंजाम दे पाता है या नहीं,यह हमे देखने की जरूरत है। इसी तरीके से देश में गंदगी, प्रदूषण और जलजमाव की वजह से कई सारी महामारियां डेंगू, चिकनगुनिया जैेसी लाईलाज बीमारियंा हजारों लोगों को मौत के घाट उतार देती है।
ऐसे में अब सवाल ये है कि इन सभी आपदाओं से निपटने के लिए हमारा मौजूदा तंत्र कितना चाकचौकस है। क्या हमारे देश की तमाम व्यवस्थाएं एकीकृत व समन्वित ढ़ंग से इस बात पर काम कर रही हैं कि देश में किसी भी तरह की आपदा की संभावनाओं पर ही पहले से ही विराम लगा दिया जाए? क्या हमारा आपदा प्रबंधन तंत्र हर वक्त उन सारी सुविधाओं से लैस हैं जो एक बेहतर आपदा प्रबंधन के लिये जरूरी है और यदि यह लैस है भी तो वह इन आपदा परिस्थितियों में कितना सजग और कार्यशील है?
ऐसे में देश में आपदा प्रबंधन की प्रणाली सभी स्तरों पर चाहे वो सरकारी स्तर पर केन्द्र सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासनिक इकाईयों के माध्यम से हो या निजी संगठनों व गैर सरकारी सगठनों के जरिये हो उनमे एक व्यापक समन्वय बनाकर एक वैज्ञानिक व सुनियोजित तरीके से इस तंत्र की स्थापना एवं इसका संचालन किया जाए। आमतौर पर हमें चाहिए कि सभी तरह के आपदा प्रबंधन पेशेवरों मसलन मौसम वैज्ञानिकों, आपदा विशेषज्ञों, सुरक्षा विशेषज्ञों, बम निरोधक दस्ते, अग्रिशमन दस्ते, तैराकों, फौज, पुलिस, डॉक्टर तथा पारामैडिकल कार्यकर्ताओं तथा आपदा शमन के लिये हर तरह के जरूरी साज सामानों की उपलब्धता का एक ऐसा नेटवर्क हो जो देश में आपदा पूर्व व बाद की तैयारी के लिये हर तरह से फुल प्रूफ हो।
हमे इस बात का ध्यान रखना होगा प्राकृतिक आपदा किसी के नियंत्रण में नहीं है। हम इसकी पूर्व सूचना व विनाश से बचने की पूर्व तैयारियों के जरिये ही इस पर काबू पा सकते हैं। देश में किसी भी भौगोलिक परिस्थिति चाहे वह मैदान हो या पठार, पर्वत हो या  वन, रेगिस्तान हो या समुद्र तट, सभी जगह आपदाओं का रूप उसी हिसाब से होता हैै। हमें प्रकृति की स्थिति और ढ़ाचें का पता होना चाहिए कि आपदाओं से निपटने के लिए हम क्या कर सकते है तथा उनके साथ कौन सी परिस्थितियां समयोजित कर सकते हैं।
देखा जाए तो दुनिया के कुछ देश प्राकृतिक रूप से आपदाओं के काफी नज़दीक है। उदाहरण के  लिए तकनीकी रूप से दुनिया के उन्नत देशों में से एक जापान प्राकृतिक रूप से उगा तीव्रता वाले भूकंप क्ष्ेात्र में अवस्थित है जहां रेक्टर पैमाने पर भूकंप की तीव्रता 7 से उपर और समुद्री सूनामी का कई बार सामना करना पड़ता है। इंडोनेशिया जैसे देशों को सूनामी की लहरों का हमेशा सामना करना पड़ता है। इसी तरह से विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र में अवस्थित होने की वजह से मध्य पूर्व व अफ्रीकी देशों को हमेशा सूखे की स्थिति का सामना करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वहां पानी और खाद्यान्न की कमी रहती है। इसी तरह यूरोप व उत्तर अमेरिका के कई देशों तथा उत्तरी ध्रूव के इलाकों में बारहमासी बर्फ गिरने की स्थिति रहती है जिससे इन इलाकों में दैनिक जीवन की बहुत सारी परेशानियां लोगों को झेलनी पड़ती है। इन सभी परिस्थितियों में कोई भी देश आधुनिक प्रौद्योगिकी और तकनीकी जानकारी के जरिये आपदा प्रबंधन की तैयारी कर सकता हैैैै।
देखा जाए तो उपरोक्त प्राकृतिक परिस्थितियों में रह रहे देशों ने उसी हिसाब से आपदा रोकथाम की तैयारियों के जरिये उसकी भयावहता को कम भी किया है। मसलन जापान में मकान लकड़ी के बनते हैं जिससे भूकंप के दौरान वहां जानमाल की कम क्षति होती है। मध्यपूर्व के देशों में पानी के विकल्प के तौर पर समुद्री खारे पानी का बेहतर तकनीक के जरिये इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह से बर्फबारी वाले देशों में उसी के मुताबिक सर्दीप्रूफ घरों का निर्माण तथा जनजीवन की विभिन्न सुविधाए उन देशों की सरकारों ने स्थापित किये हैं।
भारत की बात करें तो हमे अपनी प्राकृतिक परिस्थितियों के मुताबिक ही आपदा की पूर्व व उपरांत तैयारियां करनी पड़ेगी। पर हमारी आपदा पूर्व की तैयारी ज्यादा अहम है। वर्ष 2००4 में इंडोनेशिया में जहां सूनामी का केन्द्र था, वहां से सूनामी लहरों को दक्षिण भारत के समुद्र तटों तक आने में 45 मिनट का समय लगा। यह महसूस किया गया कि उस समय यदि सूनामी की पूर्व चेतावनी देने वाले उपकरण भारत में मौजूद होता तो वहां हजारो जानें तथा उनकी संपत्ति को बचाया जा सकता था। इसी तरह से ओडि़सा में भी 1999 में भयानक आए चक्रवात तूफान की पूर्व सूचना नहीं हो पायी और पचास हजार से ज्यादा जानें तबाह हो गयी। जबकि वही 2०13 में ओडि़सा में चक्रवात की पूर्व चेतावनी सही वक्त पर मिल जाने की वजह से वहां जानमाल की बेहद कम क्षति हुई।
आज की तारीख में हमारे पास सूनामी व चक्रवात की पूर्व चेतावनी देने वाली सुविधाएं मौजूद हैं। पर इसके अलावा भूकंप, सूखे, अतिवृष्टि, बाढ़, महामारी, आतंकवाद और नक्सलवाद जैसी परिस्थितियों के लिये आपदा पूर्व की तैयारी तंत्र को ज्यादा काम करने की जरूरत है। आपदा पूर्व की तैयारियों की बात करें तो इसमे मौसम विभाग का कार्य बेहद अहम है, यदि इनके पास सारी तकनीकी सुविधाएं मौजूद हों और इनके विशेषज्ञ हमेशा चाक चौकस हों तो आपदा आगमन के ठीक पहले आने वाली तबाही और त्रासदी का अगाह कर बचाव तैयारियां की जा सकती है। उत्तराखण्ड़ मामले में मौसम विज्ञान विभाग के निदेशक ने स्वीकार किया था कि वह घटना की भयावहता का पूर्व अनुमान लगाने में चूक कर गए। दूसरी तरफ मौसम विभाग ने जो भी सूचना दी तो राज्य सरकार उस पर उतनी त्वरित तत्परता नहीं दिखा पायी। पर इसके विपरीत कश्मीर में मौसम सूचना विभाग ने भारी बारिश और बाढ़ की चेतावनी बहुत पहले जारी कर दी थी पर वहां का इंतजामिया तंत्र सकते में नहीं आ पाया। इंतजामिया तंत्र को पिछले पचास साल से बाढ़ राहत का कोई अनुभव ही नहीं था।
भूकंप के बारे में यदि बात करें तो देश की विभिन्न क्षेत्रों की भूकंपीय संवेदनशीलता का पता हमे पहले से ही मालूम हैे। पूरे देश को विभिन्न भूकंपीय क्षेत्रों की श्रेणी के आधार पर विभाजित भी किया गया है। भूकंप की घटना सामान्य रूप से ज्यादातर भवनों और निर्माणों को प्रभावित करती हैैे। पर इनके बावजूद भूकंप तीव्रता वाले इलाकों में भी भवन निर्माण में घोर लापरवाही हो रही है। ऐसे में हमे भूकंप प्रूफ भवन तकनीकों का सख्ती से पालन करने वाला तंत्र स्थापित करना होगा। मतलब ये है कि जिस देश के अलग अलग इलाकों में जिस तरह की आपदा का आगमन होता है उसी हिसाब से वहां विकास की भौगोलिक योजना बनायी जानी चाहिए।
यह सही है कि आपदा प्रबंधन की पूर्व व बाद की तैयारियों के लिये विशाल संसाधन की आवश्यकता पड़ती है जिसमें आपदा चेतावनी यंत्रों की उपलब्धता के साथ तकनीकी पेशेवरों की उपस्थिति भी शामिल है। एक गरीब अर्थव्यवस्था वाले देश में इन कार्यों के लिये संसाधन जुटाना मुश्किल होता है। आम तौर पर जब भी कहीं आपदा आती है तो उस समय न केवल देश के अन्य हिस्से के लोग बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी उदारता से दान दिये जाने का ट्रेंड बना हुआ है। अत: इन परिस्थितियों में गरीब देशों में भी आपदा फंड की किल्लत नहीं होती है। केवल जरूरत इस बात की होती है कि आपदा प्रभावित राज्य और देश की सरकारें और प्रशासनिक इकाईयां कितने बेहतर तरीके से आपदा पूर्व और आपदा बाद के प्रबंधन की बेहतर समन्वय और नवीन प्रौद्योगिकी के जरिये इसकी स्मार्ट तैयारियंा करती हैं।
प्राकृतिक आपदाओं की जब हम बात करते हैं कुछ लोग माल्थस के उस प्रसिद्ध उद्धरण का हवाला देते हैं जिसने यह कहा था कि जो देश या मानव अपनी जनस्ंाख्या का प्रभावी तरीके से नियंत्रण नहीं करेंगे तो वहां प्रकृति अपना तांडव करेगी और तमाम आपदाओं के जरिये वहां जनसंख्या को नियंत्रित करेगी। पर हमे यह भी नहीं भुलना चाहिए कि अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर तथा बुद्धिमान देश है लेकिन पिछले 2-3 साल में अमेरीका में कई तूफानों के जरिये भी भारी बर्बादी हुई है। अभी कुछ साल पहले संैडी स्टोर्म से अमेरिका के पूर्वी तट को काफी नुकसान पहुंचा। ऐसे में प्रश्र यही है कि आपदा का जनसंख्या के कम या अधिक, गरीब या अमीर होने से मतलब नहीं है। दुनिया के हर देश प्राकृतिक आपदाओं के कमोबेश नजदीक या कम नजदीक हैं और इन परिस्थितियों में विकल्प यही बचता है कि वे आपदा प्रबंधन की तैयारियों को विवेकसंगत और युक्तिसंगत तरीके से अंजाम दें।
आपदा प्रबंधन की तैयारियों की बात की जाए तो इसकी शुरूआत सबसे पहले विभिन्न तरह क ीआपदा परिस्थितियों में आम लोगों क ो बचने, संभलने-संभालने, हिदायतें बरतने और सभी तरह के निर्माण संबंधी निर्देशों का प्रभावी तरीके से पालन करने हेतू एक व्यापक जनजागरण अभियान चलाने से होनी चाहिए और इसे देशव्यापी अभियान का एक हिस्सा भी बनाना चाहिए। इसके लिये स्कूलों, दफतरों, गांव-देहातों, सार्वजनिक स्थलों में आपदा नियंत्रक प्रशिक्षकों द्वारा लगातार प्रशिक्षण और इस बारे में जनचेतना जगायी जानी चाहिए।
दूसरी तरफ हमे रोड-रेल-हवाई यातायात के जरिये हर साल होने वाली करीब डेढ़ लाख मौतों के लिये भी हमे समूचे यातायात नियंत्रण तंत्र को बेहद चाकचौकस तथा सुरक्षा मानकों पर हर हालत में खरा बरतने को एक बड़ा अभियान का शक्ल देना होगा क्योंकि दूर्घटनाओं में होने वाली मौतें दरअसल मानवजनित और कथित विकाजनित आपदा है जिसका प्रभावी नियंत्रण भी मानवजनित व्यवस्था ही कर सकती है। इसी तरीके से हमारे दिनानुदिन के जीवन में अगलगी भी दूर्घटनाओं का एक बहुत बड़ा कारण है। बड़े शहरों में तो फायर बिग्रेड तंत्र बना हुआ हेै पर छोटे कस्बों व गांव देहातों में अगलगी की घटनाओं को रोकने की कोई भी यथोचित व्यवस्था नहीं है।
जब हम विपदा पूर्व तैयारियों की बात करते हैं तो हमे उत्तराखंड व कश्मीर की घटनाओं को बहुत गंभीरता से लेना होगा। हमे ये बात देखने की जरूरत है कि देश में अभी तक पर्यावरणवादियों और विकासवादियों में तू तू मै मै की स्थिति की वस्तुस्थिति क्या है। कई लोगों में ये आम धारणा बनी है कि पर्यावरणवादियों का काम किसी भी परियोजना चाहे वह नदी घाटी परियोजना हो या कोई जलविद्युत परियोजना या कोई सड़क परियोजना उनके परिणामों का बिना वैज्ञानिक विवेचन किये उनके विकास के मार्ग में रोड़े अटकाना है। पर उत्तराखंड की नदियों में आए सैलाब से वहां नदी तटों पर बने निर्माण जिस तरह से उखड़ पुखड़ गए, कश्मीर में झेलम तथा जम्मू में तवी नदी के किनारे बने निर्माणों की जल समाधि हो गयी तो इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि यह विकास नहीं, बल्कि यह देश की व्यवसायिक लॅाबी और भ्रष्ट राजनीतिक प्रशासनिक तत्वों की लालच की मिलीजुली करतूत थी जिसने इतने बड़े जान माल की क्षति करवायी। यदि उन नदी तटों पर पेड़ होते और बिना छेड़छाड़ की गयीं प्राकृतिक चट्टानें होती तो बिल्डरों के मुनाफे के लालच में बने मकान नदी के सैलाब में ताश के पत्ते की तरह नहीं बिखरते।
उत्तराख्ंाड में बनाये बांध पर्यावरणवादियों के लिये हमेशा विवाद का विषय रहे हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व वहां के मशहूर पर्यावरणवादी सुंदरलाल बहुगुणा दोनों उत्तराखंड के बांध के मसले पर आमने सामने आए। एक ने इन बांधों को उत्तराखंड के कई जिलों को बाढ़ से बचाने के लिये जिम्मेवार बताया तो दूसरे ने इसे वहां की मिट्टी व चट्टानों के अपरदन का कारण माना।
हमारा मानना है कि हो सकता है बांध कुछ मामलों में बाढ़ की विभीषिका से रक्षा कर दे पर उसकी स्थापना ही अपने आप में प्रकृति से खिलवाड़ और संसाधनों की भारी बर्बादी करता है। हमारे योजनाकार और इंजीनियर कई जल परियोजनाओं को बिना उसके आर्थिक रिटर्न व पर्यावरणीय नुकसान की छानबीन किये सिर्फ पैसे की बंदरबांट के लिये इनकी मंजूरी कर देते हैं।  मेरा मानना है कि प्रकृति के नि:शुल्क उपहार जल संसाधनों पर खरचा गया पैसा दरअसल पानी में ही चला जाता है।
आज हमारे इंजीनियरों को इस बात के लिये काम करना चाहिए कि जान माल को उन इलाकों में बसाया जाए जो कम से कम तात्कालिक तौर पर आपदाओं से सुरक्षित हों। दूसरा जनता के करों से प्राप्त पैसे का खर्च वही पर किया जाए जहां उसकी बेहतर उत्पादकता व सामाजिक-आर्थिक रिटर्न हासिल हो। इन दोनों दृष्टियों से यह बात महसूस होती है कि विकासवादी दरअसल विकास व जनकल्याण की पैरोकारी नहीं करते हैं बल्कि अपनी लालच और कमीशन के लिये विकास की आड़ में वे विज्ञान तकनीक का दूरूपयोग कर दरअसल विनाश को आमंत्रित करते हैं।
हमे इस बात को भली भांति समझ लेना चाहिए कि विज्ञान व तकनीक का मानवता और  इसके समुचित विकास में सदुपयोग होना चाहिए न कि कुछ लोगों के व्यवसायिक हितों की रक्षा में इसका दूरूपयोग । विकास की नवीनतम अवधारणा ने तो विज्ञान तक नीक को अपने चंगूल में ले लिया है और इसी की परिणति है उत्तराखंड व कश्मीर का यह विनाशकारी अंजाम। मैदानी इलाकों में हम सार्वजनिक विकास के लिये कुछ पर्यावरणीय समझौते कर सकते हैं क्योंकि कई तरीके से उसकी हम भरपाई कर सकते हैं मसलन दोबारा वनरोपण व मिट़्टी संरक्षण के जरिये।
अब समय आ गया है कि हम आपदा घटनाओं की एक संपूर्ण योजनाओं का निरूपण करते हुए चार सूत्री योजना पर अमल करें जिसमे पहला देश भर में सभी तरह की मानव जनित व प्राकृतिक आपदा की पूर्व व उपरांत तैयारियों और उसकी जिम्मेवारियों के लिये सभी तरह के कानूनों,विधानों,संस्थाओं को नये सिरे से परिभाषित कर उनके आपसी समन्वय की एक स्थायी व्यवस्था हो। दूसरा देश भर में आपदा रोकथाम पेशेवरों मसलन मौसम विज्ञानी, आपदा विशेषज्ञ, आपदा रोकथाम प्रशिक्षकों, सेना, पुलिस, अग्रि शमन दस्तों, सुरक्षा विशेषज्ञों, चिकित्सक, पारा मैडिकल कर्मचारियों का एक राष्ट्रीय क ार्यदल का गठित हो। तीसरा भिन्न भिन्न आपदा रोकथाम निर्देशों के सख्ती से पालन के लिये एक राष्ट्रीय योजना का निर्धारण हो। औैर चौथा आपदा से जुड़े हर तरह की विकास व निर्माण की गतिविधियों को लेकर देश के हर स्थान के मुताबिक भोगोलिक आर्थिक विकास की नीति का निर्माण किया जाए।
अगर इस समय हमने यह व्यापक संकल्प से इन बातों को अंजाम नहीं दिया तो हमारी मानवता इस महाविनाश की हमेशा मोहताज बन कर अपना अपना जीवन गुजारेगी। 1

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