Tuesday, August 26, 2014

जानिये मनरेगा का सच और ग्रामीण विकास की नयी जरूरत

By Manohar Manoj
जब वर्ष 2004 में देश में यूपीए सरकार आई तो उस समय इनकी नेता सोनिया गांधी पूरे तौर से झोला छाप राजनीति के प्रभाव में थी। एक तो उनका यह मानना था कि एनडीए शासन द्वारा कांग्रेस पार्टी के नरसिंह राव के शासन काल 1991 में शुरू की गयी नयी आर्थिक नीतियों पर द्वारा लगाई गई तेज दौड़ से आर्थिक सुधारों का मानवीय चेहरा गायब हो गया है इसलिये एनडीए अच्छे शासन का प्रदर्शन कर भी चुनाव हार गई और कांग्रेस को गरीब का हाथ मिल गया।
सत्ता में आने के बाद सोनिया ने एक ऐसे राष्ट्रीय सलाहकार समिति का गठन किया जिसमे झोला छाप गैर सरकारी संगठनों और कुछ निष्क्रिय राजनीतिक दलों के नेता ज्यादा शामिल थे। इन लोगों की युपीए के आगमन पूर्व से ही सोनिया गांधी के साथ कई मुद्दों पर वैचारिक सहमति भी बनी हुई थी। इन्होंने यूपीए सरकार को सूचना के अधिकार, रोजगार गारंटी कानून, शिक्षा का अधिकार जैसे सुझाव दिये। उपरी तौर पर ये सारे सुझाव देश में सामाजिक विकास क ी दिशा में उठाये गए बेहतर कदम जरूर थे। मसलन सूचना के अधिकार को लेकर देश में एक तो 1995 से ही आंदोलन चल रहा था। देश में रोजगार को लेकर स्थिति ये थी कि ग्रामीण क्षेत्र के लोगों का शहरी ओैद्योगिक क्षेत्रों तथा महानगरों में लगातार पलायन चल रहा था। शिक्षा को लेकर ये माना जा रहा था कि इसमें हो रहा खर्च हमारे सकल घरेलू उत्पाद का अत्यल्प फीसदी है। ऐसे में सोनिया के दबाव में यूपीए-1 ने सूचना के अधिकार, रोजगार गारंटी अधिकार और शिक्षा का अधिकार कानून लाने का काम किया।
पर अंतत: ये तीनों पहल जिस मकसद से देश में लाए गए वह गाहे बगाहे 2014 में यूपीए क ी हार का कारण बना। मसलन सूचना का अधिकार का निहितार्थ देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन से था। रोजगार गारंटी कानून का निहितार्थ देश में आमदनी मूलक रोजगार के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने से था तथा शिक्षा के अधिकार के तहत यूपीए सरकार ने महत्वपूर्ण करों पर शिक्षा अधिभार लगाने को मंजूरी दी।
इन तीनों कदमों में से शिक्षा अधिभार के कदम को छोड़ कर बाकी दो मामलों में यूपीए सरकार द्वारा उठाये गए कदम अपर्याप्त साबित हुए। मसलन सूचना के अधिकार कानून के आगमन के बाद देश में नि:संदेह भ्रष्टाचार के मामले सतह पर आने लगे, परंतु यह कानून और इसका संस्थागत स्वरूप देश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के बजाए भ्रष्टाचार मामलों की ब्लैकमेलिंग करने वालों की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बन गया। इस कानून से यदि भ्रष्टाचार की तह पर जाने की छूट जरू मिलती थी परंतु उस भ्रष्टाचारी को सजा नहीं मिलती थी सौ यह कानून मीडिया के लिये भ्रष्टाचार मामलों की रिपोर्टिंग करने का एक बढिय़ा औजार जरूर था। यानी जिस संभावित भ्रष्टाचार मामले पर न्यूज रिपोर्ट तैयार करनी है तो उसके बारे आरटीआई आवेदन के तहत मौलिक जानकारी प्राप्त की जाए परंतु इस कानून की मदद से केवल लक्षित मामलों की जानकारी लेने में कुछ आरटीआई एनजीओ ऐसे सक्रिय हुए और तदंतर उन्होंने इस मामले के जरिये अपने राजनीतिक एजेंडे की शुरूआत कर दी जो सोनिया के लिये स्वयं हार का कारण बना। यदि यूपीए सरकार देश में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जिसके नासूर देश की तमाम व्यवस्थाओं में 1960 के दशक से ही फ ैलने शुरू हो गए थे उस पर कोई व्यापक पहल की योजना बनायी होती तो आज भ्रष्टाचार को लेकर यह स्थिति यूपीए को नहीं देखनी पड़ती।
अब हम महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना जिसमे महात्मा गांधी शब्द बाद में जुड़ा की चर्चा करें। जब यह योजना आयी तो कईयों ने इस योजना के पक्ष में कई चारण गान गाए, कुछ ने ग्रामीण विकास की दिशा में इसे बेहद क्रांतिकारी कदम माना। पर ऐसा करने वाले लोग यह भूल गए कि भारत में मौजूद भ्रष्टाचार का दावानल इस क्र ांति के सपने को जलाकर राख कर देगा जो इस देश की व्यवस्था में वह अबतक करता आया है। इस योजना के निर्माण के समय केवल कानून बना देना ही इस योजना की सफलता की गारंटी माना गया। इसके पहले समेकित ग्रामीण विकास योजना यानी आईआरडीपी तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना का हस्र पहले देखा जा चुका था। मनरेगा योजना का दायरा बड़ा  था और इसके लिये निर्धारित राशि भी काफी बड़ी थी। पर राशि का आकार बड़ा होने पर कोई विवाद नहीं है। क्योंकि इसके पहले देश में समाजवादी और साम्यवादी नारों के कैद में चल रही राजनीति के दौरान भी ग्रामीण विकास की दिशा में संसाधनों का इतना भारी स्थानांतरण पहले कभी मुमकिन नहीं हुआ था। अब ऐसा होने की वजह थी नयी आर्थिक नीति जिसके तहत 1991 के बाद से अपनायी जा रही चार सूत्री नीतियों से सरकारों के राजस्व में भारी बढ़ोत्तरी हुई और फिर ग्रामीण विकास योजनाओं के लिये होने वाले धन के हस्तानांतरण में बढ़ोत्तरी हुई। आज नमो सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेतली यदि यह कहते हैं कि हम जब तक बिजनेस फ्रेंडली नहीं बनेंगे तबतक हमारा राजस्व नहीं बढ़ेगा और हम गरीबी निवारण की योजनाओं के लिये पैसा नहीं दे पांएगे। दरअसल जेतली का यह कथन 1991 की कांग्रेस की नयी आर्थिक नीति का हीं आधार मंत्र था पर सोनिया निर्देशित यूपीए सरकार यह भूल गयी कि ग्रामीण विकास के लिये धन क ा स्थानांतरण बढ़े पर इसके लिये उसकी योजना ऐसी बने जिसमें बंदरबांट की गुंजाइश ना के बराबर हो और उसका निवेश सामाजिक आर्थिक तरीके से उत्पादक जरूर बने।  मनरेगा के कानून में शक्ल लेने के बावजूद इसमें यूपीए 1 से यूपीए 2 तक बेशक इसमे लगातार दिशा निर्देश बदलने संबंधित सुधारों को जरूर अंजाम दिया गया। जयराम रमेश के ग्रामीण विकास मंत्री बनने के बाद मनरेगा क ी भुगतान प्रणाली को हाईटेक करने के बावजूद आम जनता से लेकर राजनीतिक वर्ग के सभी लोग यह मानते है कि मनरेगा में केवल पैसे की लूट हुई है और इसके कई साइड इफ ेक्ट भी भारतीय अर्थव्यवस्था में देखने को मिले हैं। अर्थशास्त्रियों ने तो यह खुलकर बता दिया कि यूपीए-2 के दौरान देश में जो आर्थिक संकट और महंगाई का नजारा देखने को मिला है उसकी एक बड़ी वजह मनरेगा जैसी योजना है। अर्थशास्त्र का एक बेहद सरल सिद्धांत है कि अर्थव्यवस्था में निवेश होने वाला पैसा जब उत्पादन ना करें तो वह स्फीतिकारी हो जाता है। इसी वजह से युपीए-2 के शासनकाल में महंगाई चरम सीमा पर चली गई और शीला दीक्षित जैसी कंाग्रेस की कुशल प्रशासिका ने भी मनरेगा को महंगाई के लिये जिम्मेदार माना।
कुल मिलाकर सोनिया की सामाजिक विकास की योजनाएं एक व्यापक विजन, प्रशासनिक यथार्थ और दूरदर्शी सोच के अभाव में उनक ी महत्वाकांक्षाओं को अंजाम नहीं दे पायी और ये सभी योजनाएं पोपुलिज्म पालीटिक्स के शिगुफे ही साबित हुई। नतीजतन 2014 के चुनाव आते आते ये सभी पापुलिज्म कदम देश में महंगाई, मुद्रा स्फीति, व्यापार घाटा व वित्तीय घाटा के सबब बने।  पापुलिस्ट कदमों पर देश की जो गरीब जनता थिरकती थी वह इन कदमों से आई महंगाई बेरोजगारी की वजह से अपना भारी रोष भी प्रकट करने लगी और कांग्रेस केवल 44 सीटों पर सिमट कर रह गयी।
अभी नमो सरकार में संसद में मनरेगा पर हुई चर्चा में मनरेगा को एक अवांछित योजना करार दिया। इसे सांसदों ने मिट्टी भरो और मिट्टी कोड़ो योजना बता डाला। इसमे परिसंपत्ति सृजन की नगण्यता को लेकर भी इशारा किया गया। नमो सरकार के प्रभारी ग्रामीण विकास मंत्री नितीन गडकरी इस योजना में बड़े भारी तो नहीं पर आंशिक सुधारों की जरूर घोषणा की है। मसलन मजदूरी भुगतान व पसिंपत्ति सृजन पर खर्च का अनुपात मौजूद 60:40 से घटाकर 51:49 कर दिया गया और दूसरा इस योजना के पैसे से वह जल संभरण योजना को जोडऩे तथा योजना में होने वाली अनियिमितता को सैटेलाइट तकनीक  के जरिये निगरानी के किये जाने के अलावा ज्यादा अभी नहीं सोच पाए।
ग्रामीण विकास योजनाओं के लिये धन का हस्तानांतरण और बढ़े परंतु यह बहुत जरूरी है कि इन पैसों से ग्रामीण इलाकों में आर्थिक आधारभूत संरचना यानी सडक़, बिजली, सिंचाई, बैंक, वाणिज्यिक केन्द्र व सामाजिक आधारभूत संरचना यानी स्कूल,अस्पताल, पेयजल, शौचालय, खेलकूद केन्द्र पर भारी निवेश किया जाए। इन मदों पर किया जाने वाला निवेश स्वयंमेव रोजगार का सृजन करेगा। इसके लिये जरूरी है कि मनरेगा योजना,प्रधानमंत्री ग्रामीण सडक़ योजना, ग्रामीण सिचाई योजना, ग्रामीण स्वास्थ्य योजना, सर्वशिक्षा अभियान  व अन्य योजनाओं सभी को मिलाकर सिर्फ एक ग्रामीण आधारभूत विकास योजना का निर्माण किया जाए जिसमे पूंजीगत व सामाजिक दो विभागों में बांटकर ग्रामीण विकास के कार्य को अंजाम दिया जाए तो देश की तस्वीर कुछ और होगी।
यदि यूपीए सरकार को मनरेगा योजना के तहत नौजवान बेरोजगारों व ग्राम प्रधानों को मुफ्त पैसे ही बांटना था तो इससे अच्छा था कि ग्रामीण इलाकों के सभी कमजोर तबको वृद्ध, विकलांग, विधुर, बीमार लोगों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाकर उन्हें पेंशन व बीमा सुविधा प्रदान करने का कदम कहीं ज्यादा बेहतर होता, जिसके लिये ये लोग कई बार दिल्ली की सडक़ों पर अपनी दस्तक दे चुके हैं।
हमें यह नहीं भूलना होगा कि देश में अभी जो भी ग्रामीण समृद्धि बढ़ी है उसमे स्थानीय कारकों से ज्यादा बाह्य कारकों का ज्यादा योगदान रहा है। शुक्र है  देश के श्रम बाजार में मांग और पूर्ति के कारकों का जिसकी वजह से देश के तमाम महानगरों व औद्योगिक केन्द्रों से ग्रामीण मजदूरों की भारी मंाग हुई और बाहर से कमाए गए पैसे ग्रामीण लोगों की क्रय शक्ति और उपभोग बढ़ाने में बेहद ज्यादा कारगर हुई है। यह कहना कि मनरेगा से ग्रामीण मजदूरों का पलायन रुकना अपने आप में एक सफलता है जो यह बात बेमानी है। श्रम की गतिशीलता तथा मांग व पूर्ति कारकों के द्वारा मजदूरी में बढ़ोत्तरी ग्रामीण मजदूरों की बेहतरी का पैगाम है। आज मजदूरों के जीवन स्तर में बढोत्तरी के लिये मनरेगा को जिम्मेदार नहीं मान सकते यह उनके पास बाहर से कमाये गए पैसे की वजह से है। यदि देश के हर जिले में एक ग्रोथ सेंटर पूरा योजना के तहत स्थापित होता है तो यह बहुत बढिय़ा कदम होगा। जिस तरह से हर जिले में हम आईटीआई के जरिये कोशल विकास की बात कर रहे हैं उस हिसाब से हम देश में विकास केन्द्रों की बात करें तो बहुत अच्छा कदम होगा पर इसके लिये यह जरूरी है कि नीचे के स्तर से मनरेगा जैसी योजना को निर्मूल कर ग्रामीण आधारभूत विकास योजना को ग्रामीण विकास का मूल बनाया जाये। हमारे ग्रामीण विकास का मूल मंत्र इन चार कार्यक्रमों में ही छिपा है  1 आधारभूत संरचना विकास 2 मानव संसाधन विकास 3 व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजना जिसमे नकद पेंशन के साथ निर्धन निराश्रित बेघरों के लिए शौचालय युक्त आवास तथा 4 इन तीनों  योजना के जरिये अधिकतम रोजगार सृजन का अभियान।

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