Monday, December 8, 2014

चुनौतियां राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की


चुनौतियां राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की
मनोहर मनोज, संपादक, इकोनामी इंडिया
१ केवल दिल्ली क चमकाने से नहीं होगा, यह तो पहले से ही चमकती थी देश के 4००० छोटे शहरों में तो साल में एक दिन भी झाड़ू नहंी लगता। इन जगहों पर मेनुअल सफाई कर्मचारियों की उ त्पादकता आधारित बेहतर पारिश्रमिक तथा सफाई तकनीकों का प्रचलन बढ़ाकर सफाई सुनिश्चित करने की गारंटी
२ सबसे अहम देश के करीब 4000 शहरों में कूड़े तथा सफाई के अपशिष्ट पदार्थों के निस्काषन, डंपिंग व उनके ट्रीटमेंट तथा सीवर की उपलब्धता तथा उसकी निरंतर क्लियरिंग की प्लानिंग एवं फंड की व्यवस्था
3  देश भर में शहरी इलाकों में करीब 10 लाख शौचालय,25 लाख यूरीनल तथा देश के गांवों में करीब 5 करोड़ घरों में शौचालय के निर्माण के लिये भारी भरकम वित्तीय राशि जुटाने तथा भ्रष्टाचार रहित तरीके से
इनके क्रियान्वन की व्यवस्था करना एक भारी चुनौती
4 देश के सभी शहरों में नियोजित विकास के मास्टर प्लान के तहत सभी कालोनियों को शामिल करने के मार्ग की कानूनी, वित्तीय और अर्हता संबंधी चुनौतियों पर काबू पाना जिससे शहरों की ज् यादा से ज्यादा सफाई सुनिश्चित हो सके


सार्वजानिक जीवन में भ्रस्टाचार उन्मूलन और सार्वजनिक स्थानों पर गन्दगी व अव्यवस्था का उन्मूलन, इन दोनो से बड़ा अभियान तो कुछ हो ही नहीं सकता। परन्तु भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कुछ राजनेताओ व कुछ अफसरों का न्यायालय या जाँच एजेंसियों के दायरे में आ जाने से और इसी तरह सफाई के बहाने कुछ गणमान्य लोगों द्वारा झाड़ू उठा लेने से इसकी पोस्चरिंग तो अच्छी हो जाती है, परन्तु इससे इन अभियानों का अंजाम सवालिया निशानों के घेरे में ही क ैद रहता है। कहना न होगा गंदगी हो या भ्रष्टाचार इनसे जुड़ी सभी योजनाओं में मौजूद ढ़ेरो सारी नीतिगत खामियों, बेहतर कार्ययोजना का अभाव, पर्याप्त वित्तीय अनुपलब्धता और इन योजनाओं के सामने तमाम बाधाओं का सिलसिला मौजूद है जिसके बिना निराकरण उपायों के भ्रष्टाचार हो या स्वच्छता प्राप्ति संभव नहीं है। बहरहाल, बात अभी भ्रष्टाचार की नहीं सफाई की हो रही है, जिसे नरेन्द्र मोदी नीत एनडीए सरकार द्वारा पहली बार मिशन का रूप दिया गया।
सफाई को मिशन का स्वरूप देना अपने आप में बेहतरीन पहल है। परंतु इस सफाई अभियान के बहाने पिछले दो महीनों के दौरान दिखा केवल ये है कि नेताओं और उनके द्वारा नामित सदस्यों द्वारा झाड़ू पकडक़र फोटो खिचाने और उसे अखबार में छपाने के अलावा स्वच्छता अभियान के बुनियादी कार्यों को लेकर कोई खास पहल दृष्टिगोचर नहीं हुई। सिर्फ 2 अक्टूबर के दिन कुछ वे सार्वजनिक स्थल जो पहले आम तौर पर साफ नहीं दिखते थे, वे थोड़े साफ सुथरे हो गए। पिछले 2 अक्टूबर को देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के महाउद्घोष के जरिये शुरू हुआ राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान बेशक देश के राजधानी सहित कुछ महानगरों को थोड़ा अतिरिक्त साफ सुथरा कर गया हो पर देश के नगरपालिकाओं के मानस पर इससे जूं तक नहीं रेंगा। कहने का मतलब ये है कि अभियान चलाकर हम एक भावना जगा सकते हैं, मीडिया की सुर्खिया बना सकते हैं पर अंतत: देश के हर नगर, हर शहर और सार्वजनिक स्थल के हर कोने पर पर हमारी सफाई मशीनरी तंत्र क ो चाक चौकस बनाकर हीं देश में साफ सफाई का बेहतर परिदृश्य स्थापित हो सकता है।
देखा जाए तो इस समूचे सफाई अभियान पर गौर करने लायक तीन पक्ष हैं 1 नित्य दिन की सफाई जिसमे मेनुअल श्रमिक से लेकर तकनीक का प्रयोग दोनो शामिल है 2 सफाई के उपरांत एकत्रित तमाम तरह के कूड़े व अपशिष्ट पदार्थों के निष्कासन की समवेत योजना कैसी है और 3 देश में मल मूत्र ट्वायलेट की सार्वजनिक व घरेलू उपलब्धता व जरूरत के बीच का फासला कितना बड़ा है। और चौथा उपरोक्त तीनों पहलुओं पर निवेश, तकनीक और संस्थागत तैयारियों की वस्तु स्थिति कैसी है ?
 बात पहले नित्य दिन की सफाई मसलन झाड़ू लगाने की करें तो देश के सभी महानगरों, राज्य की राजधानियों और देश के मंडलों स्थित नगर निगमों के जरिये जो सार्वजनिक स्थानों मसलन सडक़, पुटपाथ, सार्वजनिक कार्यालयों व व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में जो सफाई कर्मचारी बहाल हैं उनके द्वारा डय़ूटी कैसी निभायी जा रही है। होता ये है कि देश की राजधानी दिल्ली और कुछ हद तक महानगरों में तैनात सफाई कर्मचारी रूटीन तरीके से झाड़ू तो लगा देते है परंतु जो स्थिति देश की राजधानी दिल्ली में दिखती है वह मुंबई, कोलकाता, चैनई और हैदराबाद जैसे महानगरों में दिखायी नहीं देती। इससे भी कमतर स्थिति देश के राज्यों की राजधानियों व खासकर बी ग्रेड के शहरों में दिखायी देती है। यहां कभी कभार ही झाड़ू लगता है। परंतु इससे और नीचे जाएं यानी जिला मुख्यालयों में तो वहां नगर निगमों से ज्यादा खराब स्थिति है। और सबसे नीचे नगरपालिका स्तर पर जाएं तो वहां सुभान अल्लाह । वस्तु स्थिति ये है कि देश के करीब 4 हजार नगरपालिका शहरों में तो साल में कभी एक दिन के लिये भी झाड़ू नहीं लगता। जब मुबंई जैसे देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले महानगर के लोगों की धारणा ये है कि मुंबई की सफाई तो यहां बरसात के लंबे मौसम के दौरान हीं कायदे से होती है। तो फिर देश के सभी नगर पालिका कस्बों में तो इतनी बारिश भी नहीं होती कि ये साफ सुथरे हो सकें बल्कि इन कस्बों में तो बारिश के दौरान स्थिति बेहतर नहीं बल्कि बीभत्स हो जाती है क्योंकि इन छोटे शहरों में नालियां हीं नहीं होती और बीच शहर के कच्चे सडक़ों पर जलजमाव हो जाता है। इन सारे प्रश्रों के बीच इन सभी वर्ग के शहरों में कार्यरत सफाई कर्मचारियों के वेतन व पारिश्रमिक की स्थिति क्या है, यह तहकीकात करना बड़ी जरूरी है। होता ये है कि सार्वजनिक क्षेत्र में कार्यरत सफाई कर्मचारी को सुबह के वक्त दो घंटे झाड़ू लगाना पड़ता है बाकी समय में वह खाली बैठे रहते हैं। ऐसे में आज अधिकतर सरकारी महकमों में सफाई का काम ठेके के द्वारा कराया जा रहा है जहां सफाई कर्मचारियों से काफी कम पैसे में ज्यादा समय तक काम करवाया जाता है। इस तरह हमारी सफाई व्यवस्था में एक जगह निठल्लावाद दिखता है तो दूसरी ओर समाज के इस दलित वर्ग को ज्यादा मिहनत कर भी अपने जीवन यापन के लिये वाजिब पारिश्रमिक नहीं मिलता है। जाहिर है कि सरकार को देश भर के सफाई कर्मचारियों के लिये एक नयी राष्ट्रीय पारिश्रमिक नीति की भी घोषणा करनी चाहिए जिससे इन्हें कार्य घंटे के आधार पर वाजिब पारिश्रमिक व सामाजिक सुरक्षा की सारी सुविधायें मिले जिससे कि देश के सफाई अभियान के इन सेनानियों का मनोबल हमेशा उंचा दिखे।
अगर सफाई कर्मचारियों के लिए देश में एक राष्ट्रीय वेतन नीति निर्मित हो जाती है तो देश के सभी नगरपालिका प्रशासन के पास निर्धारित पारिश्रमिक पर सफाई कर्मचारियों को बहाल करने और उसके लिये राजस्व की व्यवस्था करने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
इस मामले का दूसरा पहलू सफाई तकनीक के प्रचलन का भी है। पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने सर पर मैला ढा़ेने क ी प्रथा को निषिद्ध ठहरा कर एक क्रांतिकारी काम किया। हकीकत ये है कि हमारे मेनुअल सफाई कर्मचारी आज भी बड़े ही अनहाईजेनिक तरीके से सफाई कार्यों को अंजाम देते हैं। इन्हें अपने कार्य के दौरान कभी सीवर होल में घूसना होता है तो कभी अपने हाथ लगाकर सेफटी टंैक की सफाई करनी पड़ती है। देश के सभी सफाई एजेंसियों और शहरी निकायों को चाहिए की वे सफाई उपकरणों और नयी नयी तकनीक का  ज्यादा से ज्यादा प्रचलन बढ़ाए। सफाई को लेकर देश में ज्यादा से ज्यादा रिसर्च एंड डेवलपमेंट को प्रोत्साहित किया जाए। जब तक देश में हम यह स्थिति उत्पन्न नहीं कर पाते कि सफाई करना कोई घिनौना काम नहीं है बल्कि यह काम वैसा ही है जैसा अन्य काम। तभी हम देश में सफाई क्रांति का आगमन मानसिक तौर पर सुनिश्चित कर सकते हैं।
इस सफाई अभियान का दूसरा पक्ष है देश के करीब 4००० शहरों में कूड़े तथा सफाई के लिए सीवर की उपलब्धता तथा उसकी निरंतर क्लियरिंग तथा अपशिष्ट पदार्थों के निस्काषन, डंपिंग व उनके ट्रीटमेंट के लिये प्लानिंग एवं फंड की व्यवस्था। देश में छोटे शहरों की बात छोड़ें यहां तक कि बड़े शहरों में वहां की कालोनियों व आबादी के हिसाब से सीवर की कमी है। जहां सीवर है वहां उनकी ट्रीटमेंट प्लंाट नहीं हैं। यहां तक की मुंबई जैसे शहर में जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। देश के अधिकतर शहरों में कूड़े घर नहीं हैं। कूड़े डंप करने के लिये लोकेशनों की संख्या पर्याप्त नहीं है। सवाल केवल झाड़ू लगा देने भर का नहीं हैं जो राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान में अबतक परिलक्षित हो रहा है। मूल सवाल है कि कूड़े की स्टोरिंग, डंपिंग एवं ट्र्र्र्र्र्र्र्र्र्रीटमेंट की तमाम व्यवस्थाओं से देश के सभी 4 हजार शहर तमाम सुसज्जित हैं या नहीं। देश के सभी स्थानीय शहरी निकायों का इंतजामिया तंत्र इस कार्य को कितने बेहतर तरीके से अंजाम दे रहा है। इन्हें सूचारू बनाने के लिये फंड एवं रेवेन्यू माडेल क्या है। चूंकि इसका रेवेन्यू माडेल हम जबतक नहीं अपनाते तबतक हम इसे वाएबुल यानी सतत चलायमान नहीं बना सकते। कई जगहों पर कूड़े से बिजली बनाकर सडक़ों पर रोशनी देने का काम हो रहा है। इस माडल को हमे देश के सभी शहरों में लागू करने की दिशा में सोचना चाहिए। इन कार्यो को अंजाम देने के लिये शहरी निकायों को गैर सरकारी संगठनों व निजी कंपनियों के साथ पार्टनरशिप माडेल पर भी काम किये जाने की जरूरत है। हमारे सामने सुलभ संस्था के रूप में एक बड़ा रोल माडल संस्था रही है जिसने 198० के दशक में सुलभ तकनीक के जरिये भारत में सामाजिक व सफाई क्रांति की विगत में काम भी किया जा चुका है। अत: हमे सफाई अभियान का एक संस्थागत स्वरूप भी निर्धारित करने की जरूरत है।    
सफाई अभियान का तीसरा एवं एक बेहद अहम पक्ष है देश में शौचालयों के निर्माण को त्वरित गति देना। देश के ग्रामीण इलाकों में करीब 6० फीसदी एवं शहरी इलाकों में करीब 2० फीसदी घरों में शौचालय नहीं है। भारत सरकार के के विगत के निर्मल भारत अभियान के तहत पिछले कुछ सालों से ये विज्ञापन लगातार चलाए गए कि जहां शौचालय वहीं लड़कियां ब्याही जाएंगी, जहां शौचालय वहीं स्वच्छता। वगैरह वगैरह। इन विज्ञापनों से देश के ग्रामीण इलाकों का वह संपन्न तबका जो शौचालय विहीन है वह इसे निर्मित क रने के लिये जरूर बाध्य हुआ। पर देश के करीब 4० फीसदी परिवार के पास शौचालय बनाने के लिये आर्थिक संसाधन नहीं है। इनके लिये सरकार की सब्सिडी योजना भी है। इसके तहत करीब मैदानी इलाकों के लिये 9 हजार तथा पहाड़ी इलाकों के लिये 1० हजार की सहायता दी जाती है। पर यह राशि आधुनिक शैली के किसी भी शौचालय बनाने के लिये अपर्याप्त है। यह बात जरूर है कि देश के करीब 5 करोड़ घरो के लिये मौजूदा सब्सिडी व्यवस्था के तहत भी करीब पचास हजार करोड़ रुपये की जरूरत केवल शौचालय बनाने में ही पड़ेगी। इन परिस्थितियों में देश के सफाई योजनाकारों के सामने एक बड़ा यक्ष प्रश्र है कि वे देश में शौचालय निर्माण की ज्यादा से ज्यादा से सस्ती तकनीक के विकास को प्रोत्साहन दे और दूसरा इसके लिये कोई रेवेन्यू माडल का ईजाद करें। अगर हो सके तो शिक्षा अधिभार की तरह देश में सफाई अधिभार की शुरूआत हो।
मौजूदा मोदी सरकार ने अगले पांच सालों के दौरान यानी 1919 तक करीब सवा लाख करोड़ रुपये के निवेश की योजना इस सफाई अभियान के लिये बनाई है जिसमे सीवर, ट़वायलेट का निर्माण सभी शामिल है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार पहले इस राशि की व्यवस्था और फिर इस भ्रष्ट व्यवस्था में इसके क्रियान्वन की व्यवस्था कैसे सुनिश्चित करती है। क्योंकि यह विषय वैसे तो देश के तीसरे टायर के लोकतंत्र का है जिसके पास अपने वित्तीय संसाधन अत्यल्प हैं। इसे राज्य सरकार और केन्द्र सरकारों की वित्तीय सहायता पर निर्भर करना पड़ता है जिसकी अनुशंसा राज्य वित्त आयोग और केंद्रीय वित्त आयोग करता है।
अंतत: राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान की चुनौती झाड़ू उठा लेने में नहीं बल्कि इसके लिये तमाम तत्वों जिसमे वित्त भी शामिल है, तकनीक भी शामिल है, संस्थागत स्वरूप भी शामिल है और इसके लिये मानव संसाधन की प्लानिंग भी शामिल है सबको फोकस में लेकर ही इस महाकार्य को त्वरित और निरंतर रूप से अंजाम दिया जा सकता है।














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