Friday, December 19, 2014

मैंने अपने पिछले २० सालो के मीडिया जीवन में यह बात बड़ी स्पष्टता से देखी की या तो मीडिया में ये धारा बड़ी प्रबल है की आप किस खेमे में है, संघ के विरोधी खेमे में है या संघ के समर्थक खेमे के / यानि आप कथित वामपंथी खेमे के पत्रकार है या दक्षिणपंथी खेमे के पत्रकार है और यदि इसके बीच के यानि किसी खेमे के नहीं हैं और पत्रकारिता के असली धर्म यानि जो हर सही को सही और हर गलत को गलत कहने में बेझिझक है , वस्तुनिष्ठता , निष्पक्षता और पारदर्शिता को ही एक मात्र कसौटी मानते है तो फिर आपका कोई अस्तित्व नहीं है / मतलब ये की आपके मिडिया नवीसी की पहचान किसी परिभाषित मीडिया कर्म से नहीं इन दोनों कथित स्थापित विचारधाराओं में से किसी एक का दामन थामने से ही जुडी है/ मीडिया कर्मी की पहचान का दूसरा पैमाना मैंने इन सालो में यह देखा की आप किसी स्टोरी को कितना भड़काऊ , चटकाऊ , उकसाऊ , अनुपात से कितना ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर और कितना मनमाफिक कोण प्रदान करते है और दूसरी धारा जितनी घटना ठीक उतनी उसकी प्रस्तुति यानि न कहु से दोस्ती न कहु से बैर सबको आईना दिखाना / इसी के साथ तीसरा पैमाना कौन सी न्यूज़ दबाई जाये और कौन सी उभरी जाये , कौन से मुद्दे और घटनाये न्यूज़ के दायरे में लाया जाये और किस किस को दफ़न रखा जाये / चौथा मैंने यह देखा की मीडिया को ट्रेंड, ट्रेडिशन और टेक्नोलॉजी के दायरे में कैद रखा जाये या इसका दायरा इनोवेशन , रिसर्च , इन्वेस्टीगेशन और स्कूपिंग से सराबोर रखा जाये/ जाहिर है देश में लोकतंत्र को परिपक्वता प्रदान करने, लोकतंत्र में शक्ति पृथकी करण तथा चेक एंड बैलेंस के सिद्धांत को हासिल करने , नॉलेज सोसाइटी और इनफार्मेशन पावर से युक्त तथा अन्याय, अत्याचार , भ्रस्टाचार , कदाचार , ज़ुल्म और जख्म से मुक्त समाज बनाने के लिए मीडिया अपरिहार्य है / पर हमें यह तय करना होगा मीडिया के ऊपर बताये गए चारो पैमानों के परस्पर विपरीत ध्रुवों में से किस एक का वरण किया जाये /
मीडिया की अनेको मज़बूरिया है / पत्रकार के लिए जीवन जीविका की मज़बूरी है, वह अपने मालिक और कॉर्पोरेट से समझौते के लिए मजबूर है / प्रकाशक मीडिया की अर्थवायु के लिए सरकार और विज्ञापनदाता से विज्ञापन पाने की आपाधापी में मशगूल है / संपादक सर्कुलेशन के लिए छटपटा रहा है / रिपोर्टर न्यूज़ को अलग अलग चासनी लगाकर न्यूज़ रेस में आगे आने को बेताब है / हम बिना व्यापक नज़रिये से मीडिया को सोचे समझे आरोपों प्रत्यारोपों की झड़ी लगा देते है पर मीडिया की उसकी वास्तविक पहचान और इस लोकतान्त्रिक सिस्टम में उसका हक़ , उसकी जिम्मेदारी और उसका अस्तित्व किसी नेता और मीडिया मठाधीश की लफ्फाज़ी से नहीं तय होगी बल्कि इसकी संवैधानिक व्यस्था से ही निर्धारित होगी/ प्रेस की स्वंतंत्रता के नारे के आगे मीडिया के अनगिनत सवालों को अनुत्तरित छोड़ देने का अंजाम हमारे सार्वजनिक व लोकतान्त्रिक जीवन की अपूर्णता के रूप में दिख रहा है / तभी तो एक चर्चित नेता एक चर्चित टीवी चैनल के एक कार्यक्रम में इसी चैनल के दिवंगत मठाधीश पत्रकार के मौजूदा डुप्लीकेट को बडे ही निरादर और गर्जू तरीके से यह सम्बोधित किया की हमलोग तुमलोगो को न्यूज़ स्टोरी नहीं देंगे तो तुमलोगो का चैनल चलेगा ? मीडिया का मौजूदा रूप इन्ही टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं और सरकार व कॉर्पोरेट के कॉकटेल में उलझा हुआ है/

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