Wednesday, July 16, 2014

नमो सरकार पुरानी नीतियों की प्रतिलिपि / मनोहर मनोज

नमो सरकार
पुरानी नीतियों की प्रतिलिपि
मनोहर मनोज
जब नरेंन्द्र मोदी ने अपने सरकार के शपथग्रहण के लिये सार्क देशों के शासनाध्यक्षों व राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित करने की अनूठी पहल की तो लोगों को लगा कि यह सरकार वास्तव में एक नयी लीक पर काम करने वाली सरकार होगी। पर करीब डेढ़ महीने बीत जाने के उपरांत देश की ज्वलंत समस्याओं पर जो पहल दर्शायी वे बेहद निराश करने वाली थी। निराशा इस वजह से नहीं थी कि इस सरकार ने तुरंत कोई परिणाम नहीं दिया। निराशा इस वजह से थी कि इस बीजेपी नीत सरकार ने यूपीए की उन सभी नीतियों की जिसकी चुनाव के वक्त जमकर खिल्ली उड़ायी, जिन नीतियों को इसने देश में महंगाई, भ्रष्टाचार और नीतिनिरिहता का प्रतीक बताया था, उन्हीं सभी नीतियों पर यह नयी सरकार न केवल दौड़ रही है बल्कि अपनी असफलता के बचाव में वह भी यूपीए सदृश बयान दे रही है, मसलन महंगाई के मुद्दे पर वह भी यह कहने लगी है कि यह समस्या जमाखोरी की वजह से है।
पिछले डेढ महीने के दौरान इस सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने, अर्थव्यवस्था के प्रबंधन मामले, सब्सिडी को जारी रखने, सरकार नियंत्रित बुनियादी वस्तुओं व सेवाओं की कीमतों में बढ़ोत्तरी के मामले में जो पहल व फैसले किये, वे कहीं से भी इस सरकार के गवर्नेन्स के किसी नये टे्रंड को नहीं दर्शाते बल्कि पिछली सरकार की ये अबतक ये मूल प्रतिलिपि ही दिख रहे हैं।  बात पहले महंगाई की करें तो इस सरकार ने अब तक ऐसा कुछ भी नहंी किया जिससे ये लगे कि वह महंगाई का दीर्घकालिक व बुनियादी समाधान लाने को इच्छुक है। तात्कालिक तौर पर यह वही कर रही है जैसी और सरकारें करती है, मसलन निर्यात पर प्रतिबंध लगा देना, आयात को छूट दे देना व सरकारी स्टालों से महंगी चीजों की बिक्री करना वगैरह वगैरह। पर इससे इस समस्या का खासकर खाद्य पदार्थों की महंगाई और खाद्य मुद्रा-स्फीति में स्थिरता और सततता लाने में मदद नहीं मिलने वाली है। खाद्य स्फीति का स्थायी समाधान इनके मांग आपूर्ति में निरंतर संतुलन बिठाकर ही लाया जा सकता है और यह संतुलन तभी बैठेगा जब कृषि उत्पादो का बाजार फसल सीजन में सप्लायर्स मार्केट होने से बचे और आफ सीजन में यह डिमांड मार्केट होने से बचे। यह स्थिति सीजन में फसलों के दाम को भारी गिरावट से बचायेगी तो दूसरी तरफ यह आफ सीजन में इनके दामों मेंं भारी बढ़ोत्तरी से निजात मिलेगी। इन दोनों परिस्थितियों में संतुलन बिठाने के लिये पहला तो उत्पादको के लिये न्यूनतम और अधिकतम मूल्य तय करने होंगे और रिटेल ग्राहकों के लिये न्यूनतम और अधिकतम मूल्य तय करने होंगे। मूल्य स्थिरता हेतू उपरोक्त परिस्थितियों को प्राप्त करने के लिये सरकार को करीब 32 कृषि उत्पादों के लागत युक्त उत्पादन मूल्य और बिक्री मूल्य दोनो तय करने होंगे और इन्हें लागू करने के लिये सरकार को अपनी कृषि मार्केट एजेंसियों मसलन भारतीय खाद्य निगम और राष्ट्रीय कृषि विपणन परिषद को बाजार में हस्तक्षेप करने वाली नीति पर अनिवार्य रूप से काम करना होगा।
मसलन सीजन में ये एजेंसियां सरकार द्वारा निर्धारित की गयी उत्पादन कीमत पर क्रय करेंगी और आफ सीजन में ये एजेंंसियां उन उत्पादों को बाजार में निर्धारित कीमतों पर बिक्री करेंगी। इससे देश के खाद्य बाजार ना तो एकदम से सप्लायर्स मार्केट और ना ही एकदम से डिमांड मार्केट बनेंगे और खाद्य पदार्थों की कीमतों में स्थिरता प्राप्त होगी। यह सही है कि सामान्य तौर पर मुद्रा स्फीति नियंत्रित करने के लिये हम केवल इसी पर निभर््ार नहीं रह सकते। हमे एक साथ मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति, भुगतान संतुलन, आपदा प्रबंधन पर भी काम करना होगा।
परंतु आम बजट में नये वित्त मंत्री ने खाद्य पदार्थों की मांग और आपूर्ति में स्थायी संतुलन की कोई नीति का संकेत नहीं दिया  बल्कि उन्होंने मूल्य स्थिरीकरण के लिये 500 करोड़ रुपये के फं ड का प्रावधान कर दिया है जो अपने आप में एक स्फीतिकारी कदम है।
नमोनीत एनडीए की सरकार ने पिछली यूपीए सरकार की तीन योजनाओं यानी मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और एलपीजी की दोहरी मूल्य नीति पर अभी तक कोई अपना रूख स्पष्ट नहीं कर पायी। नये बजट में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मनरेगा क ो ग्रामीण आधारभूत योजना में बदलने के बजाए सिर्फ इतना कहना उचित समझा कि इसे परिसंपत्ति सृजन, कृषि विकास और रोजगार सृजन मूलक किया जाएगा। जबतक इस वक्तव्य के साथ इस योजना की जबतक कोई ठोस दिशानिर्देश नहीं बनता तबतक इस स्फीतिकारी व भ्रष्टाचार फैलाने वाली योजना का कोई बेहतर विकल्प नहीं तैयार होगा।
खाद्य सुरक्षा को लेकर भी इस सरकार का कोई बेहतर नीति वक्तव्य नहीं आया। नयी सरकार ने अपने बजट भाषण में सिर्फ यही कहा कि एफसीआई और सार्वजनिक वितरण प्रणाली का सुधार किया जाएगा। खाद्य सुरक्षा की यह योजना अर्थव्यवस्था का तीतरफा नुकसान कर रही है। पहला कि यह कृषि पेशा को बाजार के फायदों से विलग कर रही है। दूसरा इस योजना से सब्सिडी मुक्त अर्थव्यवस्था में एक नयी सब्सिडी व्यवस्था का सूत्रपात होगा और तीसरा इस व्यवस्था से भारी भ्रष्टाचार चाहे वह अनाज सडऩे, चूहा खाने और बाजार में कालाबजारी करने के रूप में हो आना तय है। पीडीएस व्यवस्था को सिर्फ आपदा काल, दूरदराज के जनजातीय इलाकों के अलावा इसे लागू किये जाने की कोई जरूरत नहीं है। हमे आज भी याद आता है जब 1978 में मोरारजी की सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली समाप्त कर दी और खुले बाजार में चीनी की कीमत पीडीएस की कीमतों के बराबर आ गयी।
तीसरा पेट्रोलियम सब्सिडी को लेकर यह सरकार पेट्रोल-डीजल के मामले में तो ठीक है परंतु एलपीजी और किरोसिन के मामले में पुरानी नीतियों पर चल रही है। एलपीजी को दोहरी मूल्य नीति से मुक्त कर इसकी यथोचित कीमत बढाने में कोई हर्ज नही बशर्ते  छोटू सिलेंंडर की खुले बाजार में व्यापक आपूर्ति सुनिश्चित कर दी जाए। किरोसिन को गांव में कूपन के जरिये प्रकाश के लिये सब्सिडी प्रावधान हो पर इसके अलावा इसकी कीमत डीजल के बराबर करना बिल्कुल उचित कदम होगा, क्योंकि इससे डीजल में इसकी मिलावट बंद होगी और सब्सिडी का बोझ कम होगा।  परंतु यह सरकार पिछली सरकार की ही भांति पेट्रोलियम उत्पादों पर करारोपण को लेकर एक श्वेत पत्र लाने का कार्य नहीं कर रही है। यदि पेट्रोलियम उत्पादों पर लगे सभी करों को यदि युक्तिसंगत बनाया जाए तो बिना सब्सिडी के भी इसके जरिये आम लोगों को इसकी कीमतों में काफी राहत दी जा सकती है।
नयी सरकार से यह उम्मीद थी कि वह देश भर में सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग वृद्ध, विधूर-विधवा, विकलांग, निराश्रित के लिये एक व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजना लाती। परंतु नये वित्त मंत्री ने यह सुविधा केवल पीएफ धारी श्रमिकों को प्रदान की है जिनके लिये एक हजार प्रति माह पेंशन दिये जाने की घोषणा की गयी है। इस सरकार को ट्राई की तर्ज पर शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, रेलवे , सडक़ सभी में नयी नियमन प्राधिकरण लाने का माडल तैयार करना चाहिए। परंतु इसके विपरीत टूकड़ों में निजी सार्वजनिक भागीदारी की चर्चा बजट में की गयी है, जिससे दीर्धकालीन नीतिगत स्पष्टता का अभाव है।  
बेशक बजट में आयकर धारकों के लिये आयकर छूट सीमा, निवेश छूट सीमा, होमलोन ब्याज छूट सीमा तथा पीपीएफ बीमा कर छूट सीमा सभी में पचास-पचास हजार की बढ़ोत्तरी किये जाने से उन्हें बेहद जरूरी और फौरी राहत मिली है। साथ ही मोबाइल, छोटे स्क्रीन वाले एलसीडी एलइडी और कंप्यूटर में भी कीमतों में कमी करना तथा स्वास्थ्य   के लिये हानिकारक चीजों पर करों में भारी बढ़ोत्तरी करने को लेकर इस सरकार की पहल  प्रशंसनीय है। साथ उद्योग के लिहाज से रक्षा उपकरण,बीमा तथा अपार्टमेंट निर्माण में 49 प्रतिशत की एफडीआई की भागीदारी  तथा मैन्युफैक्चरिंग उद्योग को बढ़ावा देने के लिये राजकोषीय व बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता इस सरकार की एक नयी इच्छाशक्ति को दर्शाता है। परंतु लाख टके का सवाल यही है कि इन सभी योजनाओं को लागू करने और उसके लिये एक अनुकूल व सुचारू तंत्र स्थापित करने के लिये सरकार की ब्यूरोक्रेसी तो वही है जिसके लिये अब तक कोई नयी कार्मिक नीति का संकेत नयी सरकार ने नहीं दिया है।

रेल बजट
रेलवे के विकास क ो एक नये मोकाम तक ले जाने और देश के बुनियादी क्षेत्र के विकास में रेलवे को अगुआ बनाने की बात चुनावों के दौरान नरेन्द्र मोदी से खूब सुना जा रहा था, ऐसे में उनक ी सरकार के पहले रेल बजट में हाई स्पीड ट्रेन की शुरूआत कि या जाना लोगों की अपेक्षाओं के अनुकूल ही साबित हुआ।  जैसा कि बजट में चार रूटों पर हाई स्पीड ट्रेन तथा मुंबई अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन की शुरूआत की घोषणा हुई।  परंतु कुल मिलाकर नये रेल मंत्री ने भी अपने बजट में उन सभी रूटीन घोषणाओं की ही झड़ी लगायी जो आम तौर पर हर रेल मंत्री करता है जैसे की कोच में पानी, हाउसकीपिंग की व्यवस्था, इलेक्ट्रानिक टिकट क्षमता में बढोत्तरी, आदर्श स्टेशन की स्थापना वगैरह वगैरह।
वास्तव में हमारे यहां रेलवे से हर तरह की सुविधा प्राप्त करने की एक संस्कृति बनी हुई जो आज से नहीं ब्रिटिश काल से ही चली आ रही है। फिर भी हम रेलवे स्टेशनों पर सोने से लेकर खाने तक, पीने से लेकर शौचालय तक, आराम करने से लेकर मनोरंजन तक सभी की अपेक्षाएं लगाएं रहते हंै बल्कि पहले से मिल रही इन सुविधाओं में और बढ़ोत्तरी की भी मांग की जाती रहती है। परंतु सबसे मुख्य जरूरत और मेरी समझ से एकमात्र जरूरत यह है कि रेलवे लोगों की मांग के मुताबिक हर समय, हर रूट पर, हर श्रेणी में कन्फर्म यात्रा टिकट की उपलब्धता सुनिश्चित करे। पर क्या यह भारतीय रेलवे संभव कर सकती है जब तक दो तीन महीने पहले घंटों लाइन में लगकर टिक ट ना लिया जाए या फिर लौटरी सदृश तत्काल व्यवस्था में भारी भरकम पैसे खर्च कर टिकट ना लिया जाए। इसका नतीजा ये है कि देश के अधिकतर ट्रेनों में चाहे वह लंबी दूरी हो या कम दूरी की, सभी में भेंड़ बकरियों की तरह लोग ठूंसकर लोग सफर करते हैं। सवाल ये है, ऐसा क्यों है। जबकि बाजार का सिद्धांत है कि जहां खरीददार मौजूद हैं, वहां विक्रेता जरूर होना चाहिए। रेलवे में जब लोग फ्री में चढने के लिये नहीं पैसे देकर तुरत सीट पाने की मांग कर रहे हैं तो रेलवे इन्हें क्यों नहीं उपलब्ध करा पाता।
जैसा कि पहले मैने बात की रेलवे से मांग की जा रही सुविधाओं की, सबसे पहली मांग तो यही है। एयरपोर्ट और बस स्टेंड पर कोई सुविधा नहीं होती और ना ही इसके लिये उन्हें कोई अवसर दिया जाता है, चेक इन और चेक आउट के अलावा तो वहां समय ही नहीं मिलता, पर इसके विपरीत आज भी रेलवे स्टेशनों पर लाखों व्यक्ति जरूरत पडऩे पर रात भी बिता लेते हैं।
पर मुद़दा ये है कि रेलवे लोगों की आन डिमांड सेवा क्यों नहीं उपलब्ध करा रही है। गौर से सोचें तो इसकी वजह यही है कि पिछले पैसठ साल में हमारे रेल योजनकारों ने एक बहुत बड़ा पाप किया वह ये कि रेलवे की अधोसंरचना में बाजार की मांग के मुताबिक विस्तार ही नहीं किया गया। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो यह है कि आजादी के वक्त देश में रेलवे ट्रेक की लंबाई 50 हजार किलोमीटर थी जिसमें पिछले पैसठ साल में केवल 10-12 हजार किलोमीटर की बढ़ोत्तरी हुई जबकि इस दौरान देश में रेलवे यात्रा करने वाली आबादी में करीब पांच गुनी और माल ढुलाई की मात्रा में करीब दस गुनी बढ़ोत्तरी हो गयी।
यदि यह मान भी लिया जाए कि रेलवे में निजी व विदेशी निवेश को इसलिये अवरूद्ध किया गया ताकि रेलवे सरकारी विभाग के चंगुल में हमेशा बनी रहे तौ पर भी इसमे निवेश और विस्तार के लिये रेलवे मंत्रालय के ही अधीन एक अलग रेलवे बुनियादी विकास विभाग का भी गठन क्यों नहीं किया गया जिसके जरिये रेलवे इक्विटी पूंजी, ऋण पूंजी की उगाही कर अपना नेटवर्क विस्तार कर सकती थी। अभी रेलवे मंत्री ने रेलवे संचालन के अलावा बाकी सभी क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के दरवाजे जरूर खोले है और टूकड़ों टूकड़ों में रेलवे की कुछ रखरखाव संबंधित गतिविधियों में निजी सार्वजनिक भागीदारी की बात कही है परंतु एक तो यह बेहद देर से उठाया गया कदम है दूसरा इन घोषणाओं को तबतक अमली जामा नहीं पहनाया जा सकता जब तक नयी सरकार कोई नयी रेलवे विकास की नीति नहीं लाती। क्योंकि मौजूदा घोषणा से केवल उन सिगमेंट में निजी विदेशी निवेश आएंगे जो महानगरों और उच्च मध्य वर्ग क ी रेलवे मांग को पूरा करेंगी मसलन हाई स्पीड ट्रेन, बुलेट ट्रेन, वल्र्ड क्लास स्टेशन वगैरह। पर सवाल देश की 125 करोड़ आबादी की रेलवे जरूरतों को पूरा करने के लिये रेलवे ढांचे के विस्तार की जरूरत का है जिसमे स्थानीय यात्रा से लेकर लंबी दूरी की यात्रा, माल ढुलाई से लेकर सामाजिक व आर्थिक विकास के ढेरों लक्ष्यों के प्राप्त करने की आशा लगी हुई है।
 हमें जरूरत है कि नयी टेलीकाम नीति की तरह एक नयी रेलवे नीति की जिसके तहत निजी व विदेशी निवेश के जरिये देश में सभी रेलवे लाइन के दोनो तरफ उपलब्ध जमीन पर एक जोड़ी नया रेलवे ट्रैक स्थापित किया जाए जिसके जरिये देश में करीब 1 लाख किमी नयी रेलवे लाइन स्थापित किया जाए और फिर इसमे सरकार व निजी क्षेत्र राजस्व हिस्सेदारी के लिये समझौते करें। फिर दूसरे चरण में इन नये ट्रैक पर रेल व माल ट्रेन चलाने से लेकर इनके ट्राफिक कंट्रोल क े कार्य को हाथ में लिया जाए। ऐसा कर ही हम देश में रेलवे की मौजूदा व भावी दोनों जरूरतों को पूरा कर पाएंगे।
नये बजट में रेलवे मंत्री संसाधनों की कमी का उसी तरह से रोना रो रहे थे जैसे कि विगत में रेल मंत्री रोअ ा करते थे। पर ये रेल मंत्री सुधारों की व्यापक संभावनाओं की अनदेखी कर देते हैं कि कैसे रेलवे में भारी भ्रष्टाचार है। कैसे पिछले 160 सालों में रेलवे में हुए भारी निवेश और उसकी परिसंपत्ति का रिटर्न सरकार को मिलने के बजाए रेलवे के भ्रष्ट अधिकारियों, दलालों और ठेकेदारों की जेब में जा रहा है। कैसे रेलवे में फिजुलखर्ची है, कैसे रेलवे में राजस्व उगाही के प्रति सक्रियता की कमी है। कैसे यात्रियों को पुराने कानूनों के जरिये परेशान कर उनसे दंड वसूलने को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है। कैसे बूकिंग खिडक़ी पर कलर्क नदारथ रहता है और यात्री टिकट लेने से लेकर रेल डिब्ब े में सीट पाने के लिये धक्के मुक्के खाते रहते हैं। कैसे पार्सल सेवाओ से लेकर, ठेके से लेकर रेलवे में सामानों के क्रय में भारी भ्रष्टाचार होता है। मुझे बड़ा आश्चर्य लगा कि रेलवे मंत्री ने रेलवे में कई अनोखी पायलट परियोजनाओं की शुरूआत की, पर वह मेट्रो की तर्ज में रेलवे कोच में भी टीटी रहित कोच जिसमे बायोमेट्रिक सिस्टम की व्यवस्था हो इसकी शुरूआत की कल्पना नहीं कर पाये। मेरी समझ से अंग्रेजी काल से चली आ रही टी टी व्यवस्था रेलवे को राजस्व देने के बजाए उससे  ज्यादा वेतन के जरिये पैसे ले लेता है। आज लोग बेटिकट नहंी जा ना चाहते है बल्कि ज्यादा पैसे देकर कन्फ र्म टिकट लेकर यात्रा करना चाहते हैं पर रेलवे उन्हें ये उपलब्ध कराने में अक्षम है।

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