Wednesday, July 27, 2016

मायावती पर बीजेपी नेता द्वारा दिए जाने वाले बयान में से यदि सिर्फ एक शब्द को हटा लिए जाये तो बाकी सारी बाते सोलह आने सच है। यानि चुनाव के दौरान उनकी पार्टी के टिकटों की बोली लगती है जो सुबह से 1 करोड़ से शुरू होकर शाम तक 3 करोड़ तक पहुंच जाती है.
पर दुर्भाग्य ये है इस विषय पर होने वाली सारी बहस एक शब्द पर चली गयी और राजनी तिक भ्रष्टाचार के इतने बड़े मुद्दे पर संज्ञान नहीं लिया गया। ऐसा नहीं है की यह भ्रष्टाचार और पार्टियों में नहीं है। सभी पार्टियां टिकिटों की खरीद फरोख्त करती है। और ये सारी बातें पार्टियां अंदरखाने में करती है। बहाना केवल चुनाव खर्च का होता है।
पर मायावती पर प्रयोग किये गए उस अपातिजनक शब्द पर जो बहस चल रही है , ऐसे ना जाने कितने शब्द हमारे भारतीय समाज में निजी बात में प्रयुक्त किये जाते है। काश ये बातें हमारे सामाजिक जागरण का भी मुद्दा बनाया जाता। हम भारतीय अपने जुबान में किस तरह से गलियों का प्रयोग करते है। पंजाबी संस्कृति चाहे दिल्ली में हों या कही भी , वहां हर वाक्य गाली के बिना पूरी ही नहीं होता । वहां तो यह कहा जाता है की गाली तो हम प्यार से बोलते है।
तीसरी बात दलित अस्मिता की जिसे मायावती के लिए प्रयुक्त अपशब्द से जोड़ दिया गया। पर मेरी नज़र में इस दलित अस्मिता से बड़ा सवाल गुजरात के ऊना में घटित उस दलित संवेदनशीलता का है। जिस दिन मैंने यह घटना सुबह अख़बार में पढ़ी उस दिन मैंने इस पर तुरत एक पोस्ट लिखा जिसे एक कथित हिंदूवादी ने भड़काऊ पोस्ट की संज्ञा दे डाली। पर वायरल हुए उस दलित ताड़ना का फोटो किसी भी निष्पक्ष और संवेदनशील ब्यक्ति को व्यथित कर देने के लिए काफी था।
मायावती पर बयान देने वाले के प्रति अपने नेता पर बीजेपी ने तो त्वरित कार्रवाई कर दी। पर ऊना के उन दलित उत्पीड़कों पर काश बीजेपी इससे भी ज्यादा त्वरित कार्रवाई करती तो यह ज्यादा अच्छा होता।

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