Tuesday, July 17, 2018

भाजपा के शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार कहा था की कांग्रेस जब जैसा जरूरी हुआ, तब तैसी हर तरह की साम्प्रदायिकता करती रही है। कभी मुस्लिम साम्प्रदायिकता तो कभी हिन्दू साम्प्रदायिकता, यहाँ तक की कभी ईसाई साम्प्रदायिकता। नरसिम्हा राव पर जब बाबरी मस्जिद की रक्षा में विफल होने का टैग लगा तो फिर सोनिआ नियंत्रित कांग्रेस ने मुस्लिम समाज का वापस वोटबैंक पाने के लिए मुस्लिम समाज के दुर्दांत दुर्दांत साम्प्रदयिक नेताओ को राज्यसभा की सीटों से नवाजा। अभी हाल हाल में गुजरात चुनावो के मद्देनजर कांग्रेस को लगा की 2014 लोकसभा चुनाव की हार के बाद अब कांग्रेस को मुस्लिम मुस्लिम के बजाये मंदिर मस्जिद दोनों के कार्ड खेलने चाहिए। सो राहुल द्वारा गुजरात में मंदिर और मस्जिद दोनों में प्रवेश करने की झड़ी लग गयी। कर्नाटक में भी राहुल द्वारा यही तरीका अपनाया गया। अब फिर राहुल ने अपनी लाइन बदल दी। पहले तो यह लगा की राहुल मुस्लिम बुद्धिजीवियों की बैठक में राहुल मुस्लिम समाज में धरम सुधार के मुद्दे पर कोई बोल्ड स्टेटमेंट देंगे और अपनी पहचान कांग्रेस में एक गैर पहचानवादी नेता का बनाएंगे। पर इसके उलट उन्होंने कांग्रेस को मुस्लिमो की पार्टी करार दिया। काश भारत पाक विभाजन के दौरान कांग्रेस यही बात कही हुई होती फिर जिन्ना का द्विराष्ट्रवाद का मंसूबा फ्लॉप हो गया रहता।
दिग्विजय ने ट्वीट पर कहा की राहुल गाँधी ने ऐसा बयां नहीं दिया। पर आखिर राहुल ने इसका खंडन भी तो नहीं किया। साम्प्रदायिकता से उलट कांग्रेस ने देश की राजनीती में जातिवाद को पोषित करने में कोई गुरेज नहीं की। जनगणना को जाती गणना बनायीं गयी। कांग्रेस के लिए पहली और अंतिम कसौटी अपने खानदान की रक्षा ही सर्वोपरि रही है। समुदाय को बढ़ावा देने वाली भाजपा भी जातिवाद पनपाने में तनिक पीछे नहीं रही। ये पार्टी भी टिकट उन्हें देती है जो जाती उनकी वोटबैंक है। कुल मिलकर पहचान की राजनीती का वर्चस्व ही भारतीय राजनीती की रीती निति का दूसरा नाम है।

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