Saturday, January 31, 2015

बैंककर्मियों के साथ विसंगति क्यों

व्यवस्था की यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जो क्षेत्र अन्य क्षेत्रों के मुकाबले ज्यादा काम करे, कम छुट्टियां ले और ज्यादा उत्पादकता प्रदान करें उसे अन्य के मुकाबले दो तिहाई से भी कम वेतन व सुविधाएं प्राप्त हों। जी हां, हम बात कर रहे हैं देश के सार्वजनिक क्षेत्र के सबसे बड़े नियोक्ता बैंकिंग क्षेत्र की जिसके लाखों कर्मचारी अपनी वेतन व अन्य सुविधाओं में  बेहद वाजिब बढ़ोत्तरी के लिये पिछले कुछ महीनों में करीब तीन बार देशव्यापी हड़ताल कर चुके हैं। ये अपनी मांगों को बेहद तर्कशीलता, औचित्य और विगत के बढ़ोत् तरी तथ्यों के साथ इंडियन बैंक एसोसिएशन यानी आईबीए को प्रस्तुत कर रहे हैं फिर भी इनकी वाजिब मांगों की लगातार अनसुनी हो रही है।
क्या इनकी मांगें इसलिये अनसुनी की जा रही हैं क्योंकि इन बैंकर्स के ट्रेड यूनियन किसी राजनीतिक दल से ताल्लुक नहीं रखते। कहना न होगा नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ बंैक इंप्लाइज ने पुन: 22 व 23 जनवरी को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया और बाद में जनहित में स्थगित कर दिया है। कन्फेडरेशन की सीधी सीधी मांग और तर्क ये है कि 1979 तक देश भर में जो सार्वजनिक बैंककर्मियों का वेतन भारत सरकार के कर्मचारियों से करीब 1० फीसदी ज्यादा था। वह1979 से 1986 के बीच के दौरान इन दोनों के वेतनमान एकसमान हो गए।  1987 में चतुर्थ केंद्रीय वेतन आयोग के आगमन के बाद से तो सरकारी कर्मचारियों के वेतनमान बैंककर्मियों के वेतनमान से जो ज्यादा होने शुरू हुए वे अगले 25 सालों में और ज्यादा होते गए और आज यह फासला छठे वेतन आयोग 2००6 तक आते आते बढ़कर एक और दो तिहाई का अनुपात रह गया है। यदि  सरकारी कर्मचारी का वेतन 21,००० है तो उसके समकक्ष  बैंककर्मीं का वेतन 145०० रह गया है।
यानी आज बैंककर्मी सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाले वेतन का महज दो तिहाई पा रहे हैं। जबकि इस बीच सरकारी विभागों की उत्पादकता के सामने बड़ा प्रश्रचिन्ह है। उनकी छुट्टियां ज्यादा हैं और उनकी लोकजिम्मेवारी सवालिया निशानों के घेरे में हैं। इस दौरान सरकारी बैंककर्मियों को निजी बैंकों से कड़ी प्रतियोगिता करनी पड़ रही है। काम के घंटे बढ़ गये है, छुट्टियां कम हो गयी हैं। बैंकों पर गैर बैंकिंग कार्यों का बोझ काफी बढ़ गया है। बैंकों की लाभदायकता बढ़ी है और बैंकों में अंडरस्टाफिंग हैं। इसके बावजूद बैंकों को कम से कम भारत सरकार के अन्य सार्वजनिक उपक्रमों के बराबर वेतन व सुविधायें मिलना उनका वाजिब हक बनता है। परंतु इसके बावजूद इन्हें विभागीय कर्मचारियों के बराबर वेतन पाने की जद्दोजहद करना पडऩा रहा है।
बैंकिंग कर्मचारी कानूनों के अंतर्गत बैंककर्मियों की वेतन व सुविधायें किसी आयोग द्वारा निर्धारित नहीं होती है बल्कि उनके संगठन को भारतीय बैंक एसोसिएशन आईबीए के साथ सामूहिक सौदेबाजी करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया के तहत विगत में आईबीए ने पांच सालों के लिये करीब 2० फीसदी वेतन बढ़ोत्तरी की थी। पर इस बार आईबीए सारे औचित्यों को तिलांजली देते हुए सिर्फ 11-12 फीसदी की बढ़ोत्तरी पर अड़ा हुआ है। बैंक कर्मचारी एसोसिएशन के महासचिव हरविंदर सिंह ने इक ोनोमी इंडिया से बातचीत में कहा कि हमारी मांग पिछली मांगों के बराबर ही है। हम महज देश की मुद्रा स्फीति दर से भी कम पौन पांच फीसदी सलाना बढ़ोत्तरी की मांग कर रहे है और ये बड़ा ही अफसोसनाक है कि भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के बैंकिंग प्रभाग के अधिकारी आईबीए को हमारी मांगे पूरी करने के निर्देश नहीं दे रहे हैं।
गौरतलब ये है कि मौजूदा सरकार की अबतक की तीन बड़ी स्कीमों राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान, मेक इन इंडिया और जनधन योजना में सी दूसरी और तीसरी योजना की सफलता का सारा दारोमदार बैंकों के कार्यकलाप पर निर्भर करता है फिर भी सरकार बैंककर्मियों को वाजिब वेतन देने में कोताही बरतती है। भारत सरकार का सारा महकमा हफ्ते में दो दिन छुट्टी मनाता है, हमारे बैंककर्मी केवल एक दिन । छोटी मोटी छुुट्यिां बैंक में होती ही नहीं हैं। जबकि सरकारी विभागों में समझो रोज छुट्टी का माहौल रहता है।
गौरतलब है कि 1985 से 2०1० के बीच बैंकों में ढ़ंग से नियुुक्तियां भी नहीं हुई हैं। कम स्टाफ में हीं बंैंकों को अपने सारे कार्यों का संचालन करना पड़ता है। गौरतलब है कि सरकार के सौतेले व्यवहार से आजिज होकर नवंबर 2०12 से लंबित अपनी मांगों की पूर्ति के लिये बैंक आफिसर्स एसोसिएशन और बैंक स्टाफ कन्फेडरेशन ने पुन: 22 व 23 जनवरी को हड़ताल का आयोजन किया था जिसे जनहित को ध्यान में रखते हुए बाद में स्थगित कर दिया गया। है। देखा जाए तो पिछले तीन महीनों में ये तीसरी बार बैंककर्मियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल आहूत हु ई थी । पहले 12 नवंबर, फिर 2-5 दिसंबर को और अब 22-23 जनवरी को हड़ताल करने के लिये इन्हें विवश होना पड़ा।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि देश में पांच लाख करोड़ से ज्यादा बैंकों की परिसंपति अनुत्पादक है। हरविंदर सिंह कहते है कि किंगफिशर के लोन की उगाही सरकार कर ले उतनी ही राशि से हमारे लाखों बैंककर्मियों की मांगें पूरी हो सकती हैं।
जानिये बैंक एसोसिएशनों के बारे में
यूनाइटेड फोरम आफ बैंक यूनियन्स देशभर के करीब 1० लाख बैंक कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करती है और यह आईबीए से अपने वेतन सुविधाओं के सौदेबाजी करती है। आल इंडिया बैंक आफिसर्स कन्फेडरेशन इसका 2.8० लाख सदस्यों के साथ इसका सबसे बड़ा घटक है।

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