Tuesday, January 13, 2015

चार्ली के बहाने पीके और पीके के बहाने चार्ली

चार्ली के बहाने पीके और पीके के बहाने चार्ली
फ्रांस की कॉमिक पत्रिका चार्ली के संपादक और कई कार्टूनिस्टों की हत्या की वारदात के तीन पहलू उभर कर सामने आते हैं / पहली बात की किसी भी धरम के अतिवादियों के लिए ईश्वरवाद की मूल भावना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं, उसकी अंधभक्ति और जुनून में अपने पंथ पर की गयी टिप्पणी को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नही करना महत्वपूर्ण है और उसके बदले सर कलम करने की हद तक चले जाना है/ दूसरा पहलु ये की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर क्या मीडिया रचनात्मक और सकारात्मक होने के बजाये इस बात के लिए उतारू हो जायेगा की वह समाज में भड़काऊ , उकसाऊ और सनसनीखेज संचार के रिएक्शन और अंजाम की भी परवाह नहीं करेगा और तीसरा जेहादियो के निशाने पर लोगो की सुरक्षा व्यस्था क्या भगवान भरोसे ही छोड़ी जाती रहेगी / फ्रांस की घटना का लब्बोलुआब ये है की कुछ जुनूनी अंधभक्तो को अपने पैगम्बर का कार्टून सहन नहीं हुआ और उन्होंने इस कार्टून पत्रिका के कारदानो का कत्ल कर दिया/ पर अब इस घटना का अंजाम ये है वहां जुलुस के शक्ल में 7 लाख लोग जमा होकर सभी अपने को चार्ली बता रहे हैं और वहां के बड़े दैनिक अख़बार चार्ली में छपे कार्टून को दुबारा छाप रहे है/ अब वे धर्मांध क्या करेंगे? जिस पैगम्बर की मान की रक्षा में उन्होंने डेढ़ दर्जन लोगो की हत्या कर की वह तो अब कम हो नहीं रहा है बल्कि कई मीडिया उसे दुबारा छाप रहे है / अब वे कितने लाखो की और जाने लेंगे? इन अंध जुनूनी भक्तो को यह भी समझना चाहिए की उन्होंने चार्ली पत्रिका के निहथ्थे कार्टूनिस्टों की तो हत्या कर दी पर इससे काफी पहले भारतीय लेखक सलमान रुशिदी ने अपने को चर्चित करने के लिए जिस सैटनिक वर्सेज की रचना की, जिस पुस्तक में उन्होंने मुहम्मद की वाणी को शैतान की वाणी बताया, उसकी ईरान सहित दुनिया के तमाम इस्लामी देशो द्वारा मौत के घाट उतारने का फतवा देने के वावजूद उसका क्या बिगाड़ पाये? वह रुशिदी अभी भी नाटो देशो की फुल प्रूफ सिक्योरिटी में रोज रोज अपनी प्रेमिकाएं बदलता रहता है /
ईश्वरवाद हमेशा मानवतावाद पर आधारित होता है वह अपने समर्थको और विरोधियो दोनों को एक बराबर नज़र से देखता है और वह सिर्फ यही चाहता है की गलत व सही की व्यख्या तर्कों तथ्यों और औचित्य पर आधारित हो / हैरत की बात तो ये है की बकौल टाइम्स के एडिटर फरीद ज़करिया कुरान में ईशनिंदा के लिए कही भी कठोरता बरतने का प्रावधान उल्लिखित नहीं है जबकि बाइबिल में ईशनिंदा के लिए कठोरता बरते जाने का उल्लेख है / पर ज़करिया आगे कहते है की इसके बावजूद दुनिया में पाकिस्तान सहित तमाम मुस्लिम देशों में ईशनिंदा के खिलाफ कठोर कानून बनाये गए है और बाइबिल में प्रावधान होते हुए क्रिस्चियन देशो में ईशनिंदा आम बात है/
मैंने पहले भी अपने कई पोस्ट में यह लिखा है की दुनिया के सभी धर्मो का सांगठनिक स्वरुप मौजूदा राजनितिक दलों के सांगठनिक स्वरुप का प्राचीन संस्करण ही लगता है, तभी तो इनमे इतनी स्पर्धा है , अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा कहने का प्रोपेगंडा चलता है और अपने अपने धर्म का विस्तार करने की होड़ लगी है और इन धर्मो ने अपने अपने ईश्वर को गढ़कर इसका metaphysical स्ट्रक्चर तैयार किया हुआ है / इन सांगठनिक स्वरूपों से युक्त धर्मो में एक दूसरे के प्रति टॉलरेंस ख़त्म होती जा रही है /
अभी अभी भारत में एक चर्चित फिल्म पी के आई / इस फिल्म पर तमाम टिप्पणियाँ आई की यह फिल्म एक धर्म विशेष की भावनाओ का अपमान करता है / ऐसी प्रतिक्रिया कई बार हिन्दू देते है, कई बार मुस्लिम देते है और कई बार सिख भी देते है / ऐसे अबौद्धिक और सामान्य प्रतिक्रिया सुनकर मैंने यह तय किया इस फिल्म को बिना देखे मै इस पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दूंगा / मुझे यह मालूम है की समाज में ऐसे कई वेस्टेड इंटरेस्ट वाले ग्रुप है जिनके हितों पर जब किसी फिल्म या लेखो के जरिये चोट पहुँचती है और इसका वह लोकतान्त्रिक और मौलिक अधिकारों के तहत विरोध करते है / परन्तु फिल्म पी के में दो तीन दृष्टान्तों मसलन सफ़ेद रंग हिन्दू के लिए विधवा का वस्त्र है , ईसाई के लिए यह शादी वस्त्र का रंग है/ काला वस्त्र अन्य धर्मो के लिए मातम का प्रतिक है पर मुस्लिम स्त्रियों की लोकलज्जा की आबरू का रंग है/ इसी तरह जो व्यक्ति ढाढी बाल बढाकर पगड़ी बांध लिया वह सिख और जिसने पगड़ी हटा ली वह हिन्दू और जिसने मुछ हटा ली वह मुसलमान / इन दृष्टान्तों को छोड़कर पीके फिल्म का कथानक ऐसा नहीं है जिससे लगे ये फिल्म बिलकुल तटस्थ होकर दु निया को कोई यूनिवर्सल मैसेज दे रही हो / यदि यह फिल्म केवल धार्मिक मठाधीशो के कुकृत्यो और उनकी गुमराह करने वाली हरकतों को अपना मुख्य विषय वस्तु बनाती तो लगता की यह फिल्म भारतीय समाज के लिए एक नया मैसेज दे रही है / परन्तु इस फिल्म में तमाम धर्मो के तुलनात्मक परिदृश्य में अनुपात और औचित्य का अतिक्रमण कर केवल एक धर्म पर मुख्य तौर पर हमला किया गया है और वह भी हमले के वे सारे तत्त्व सौ साल पूर्व के लिए ज्यादा प्रासंगिक लग रहे है, आज के दौर में अप्रसांगिक है / इसके बावजूद भारत में उदारता का आलम ये है की इस फिल्म में उन्ही धर्मावलम्बियों ने इस फिल्म की तारीफे की है यह जानते हुए की इस फिल्म का नायक हि न्दू नहीं गैर हिन्दू है और दूसरा की धर्मो की दानवी प्रवृतियाँ इस धर्म के मुकाबले दुनिया के अन्य धर्मो में कई गुनी ज्यादा है / पीके फिल्म में हिन्दू धर्म के तमाम ढकोसले व कर्मकाड़ो पर जो चोट की गयी है वह आज से 100 वर्ष पहले जरूर प्रासंगिक थी जिस पर स्वामी दयानंद , राजा राम मोहन राय और विवेकानंद पहले चोट कर चुके है / आज का संगठित हिन्दू धर्म उन ढकोसलों , रूढ़ियों , आडम्बरों और कर्मकांडों से काफी आगे निकल चूका है / अगर देश की लोकतान्त्रिक राजनीती से पहचान की राजनीती का अस्तित्व नहीं होता तो हिन्दू धर्म का सर्वाधिक मलिन तत्त्व छुआछूत जातिवाद और दलितवाद का भस्मासुर शहरीकरण , औदयिगीकरण और आधुनिकीकरण में पहले ही दफ़न हो गया रहता / अलबत्ता पीके फिल्म में दुनिया के तमाम संगथित धर्मो के offshoot रूप में पनपे तमाम मठो , आश्रमों और महंतो पर किया गया हमला जरूर आज के दौर में प्रासंगिक है पर फिल्म में दिखाए गए इस मठ के मठाधीश तपस्वी को जिस तरह से अंतर्धर्म शादी के खलनायक के रूप में फिल्म में चित्रित किया गया है वह इस फिल्म द्वारा मौजूदा दौर का बेहद unjustified फिल्मांकन है / हकीकत ये है की हिन्दू धर्म की कई स्त्रीया अपना धर्म बदलकर मुस्लिम लड़को से प्यार कर शादी करती है जबकि मुस्लिम लड़की अपने धर्म के मठाधीशों के डर से शायद ही हिन्दू लड़के से प्यार और शादी की बात सपने में भी सोचे और करे भी तो वह अपना नहीं अपने हिन्दू लड़के का ही धर्म परिवर्तन करे / इस फिल्म में जिस तरीके से भारत की हिन्दू लड़की और पाकिस्तान के मुस्लिम लड़के के प्यार और शादी में हिन्दू मठाधीश तपस्वी को खलनायक बनाया गया है वह सामाजिक हकीकत से दूर है / विगत में पाकिस्तान की एक मुस्लिम हीरोइन के हिन्दू लड़के से प्रेम को वहा के कट्टरपंथियों ने सिरे से नकार दिया जबकि भारत में इस तुलना में काफी उदारता है / खुद फिल्म के नायक आमिर की पत्नी हिन्दू है / तभी तो लाहौर के एक प्रसिद्ध फिल्म आलोचक ने लिखा की भारत में ऐसी फिल्म बनाने का साहस किया जा सकता है पर क्या पाकिस्तान के फ़िल्मकार ऐसी फिलम अपने यहाँ बनाने का सा हस कर सकते है ?
एक तरफ इस फिल्म में हिन्दू धर्म पर अनावश्यक , अतिरंजनापूर्ण और अनुपात से ज्यादा हमला कर दुनिया की मौजूदा सच्चाई और धार्मिक पर्यावरण से मुह मोड़ने का प्रयास किया है जहा पूरी दुनिया में गला काटो अभियान से लेकर हज़ारो लड़कियों को बंधक बनाकर धर्म के नाम पर सामूहिक बलात्कार किया जाता है , जहा पूरी दुनिया में पैसे की ताकत पर धर्मो की मार्केटिंग चल रही है / जहाँ धर्म की ताकत के विस्तार के लिए जनसँख्या बढाने पर जोर दिया जाता है / जहा धर्म और मजहब के आधार पर अलग देश बनाने की मांग परवान चढ़ती है/
बात करे हम इस फिल्म पर आई राजनीतिक प्रतिक्रियाओं पर उन सभी से उपरोक्त सवाल पूछे जाने चाहिए / सचिन आमिर के दोस्त के नाते लिहाज बरती और फिल्म की तारीफ भी की आडवाणी जी पुराने फिल्म critique रहे तो उन्होंने फिल्म की मेकिंग की तारीफ कर दी , नितीश और अखिलेश के लिए यह फिल्म उनकी राजनीती को सूट करने वाला था तभी इन्होने इसे टैक्स फ्री कर दिया / मैंने ऐसे असंख्य नेताओ और राजनितिक कार्यकर्ताओ को देखा है जो सार्वजनिक मंचो पर कुतर्की और घिसी पिटी मुस्लिम परस्ती बाते करते है और अकेले में मुस्लिमो के रहन सहन और धार्मिक रूढ़िवादिता पर तंज कस्ते है /
इस फिल्म ने दूसरी तरफ यह दिखाने की कोशिश की है सभी धर्मो के कार्यकलाप पोंगापंथी है / मीडिया सेन्सेशनलिस्म का शिकार है / पुलिस भ्रस्ट और बद्तमीज है /समाज में हिप्पोक्रेसी है पर पीके फिल्म बनाने वाले इस बात का क्या जबाब देंगे की आखिर फिल्मो की दुनिया में क्या होता है ? अपनी फिल्म की मार्केटिंग के लिए यहाँ अश्लीलता सारी हदें पार करती है/ अगर पीके अपने को मैसेज देने वाली फिल्म होने का दावा करती है तो इस फिल्म में डांसिंग कार और कंडोम के दृश्य आखिर क्यों फिल्माए गये ? क्या यह फिल्म का सेंसेनलिस्म नहीं है ? क्या स्त्री पुरुष सम्बन्ध शर्म ,निजता और परदे में नहीं होने चाहिए? आखिर यह फिल्म क्या कहना चाहती है ? अतः सवाल यही है हम जिस पर भी टिप्पणी करे चाहे संगठित धर्मो के क्रियाकलाप पर करे , राजनीती पर करे , सामाजिक संस्थाओ पर करें , मीडिया पर करें या न्यायपालिका पर करे या आध्यात्मिक मठों पर करें/ देखा जाये तो इनमे से किसी की मूल प्रस्तावना और पहल की प्रवृति गलत नहीं होती/ एक समय आने पर ये सभी अवसरवाद और भटकाववाद का शिकार होकर शार्ट कर्ट तरीका अपना लेते है और इनकी अपनी विसंगति और व्यतिक्रम उदघाटित हो जाती है / आज हर तरह से गिरावट का आलम है परन्तु इसके लिए कोई एक संस्था जिम्मेवार नहीं है बल्कि सभी संस्थाए जिम्मेवार है क्योंकी हमारी मौजूदा व्यस्था के सभी खम्बे इंटरकनेक्टेड है / ऐसे में आमिर खान की फिल्म पीके हो या उनका टीवी सीरियल सत्यमेव जयते, ये हमारी व्यस्था की विरूपता और सिस्टम की मूल खामियों को पकड़ने के बजाये वैसे सामाजिक कुरीतियों और पाखंडो पर हमले कर रही है जो आज प्रासंगिक भी नहीं है और एकपक्षीय और नॉन ऑब्जेक्टिव होने के साथ विहंगम दृष्टि से विहीन है / हमारी व्यस्था का आदर्श स्वरुप सेक्युलर राज्य, वास्तविक लोकतंत्र , निष्पछ मीडिया , पहचान विहीन राजनीति , गुणवत्तापूर्ण विराट संवेदनशील नेतृत्व, तवारित न्यायशील न्यायपालिका, प्रबंधनशील नौकरशाही, दर्शनशास्त्रीय बौद्धिकता, मानवतासेवी धर्म और समावेशी सहकार युक्त समाज की संरचना पर ही निर्भर करेगा / यही आज का तथ्य भी और कथ्य भी है/ जय मानव और जय विश्व

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