Saturday, February 15, 2014

पहले व्यवस्था के व्याकरण तय करिये फिर अलंकरणों की बात करें




पहले व्यवस्था के व्याकरण तय करिये फिर अलंकरणों की बात करें


मनोहर मनोज

अभी देश में परिवर्तन के सवाल पर तीन दावेदार राजनीतिक दल सीना तान कर खड़े हैं। कांग्रेस, भाजपा और आप तीनो राजनीति के मैदान में यह दावा कर रहे हैं कि देश क ो आगे ले जाने और यहां के करोड़ो जनता जनार्दन के दुखहरण की विलक्षण औषधि उनके पास है। इन तीनों पार्टियों के पास घोषणाओं के एक से बढक़र एक अलंकरण हैं। पर सवाल है कि हमारे देश समाज जनजीवन को सीढ़े सीढ़े प्रभावित करने वाली राजनीतिक व्यवस्था, समाज व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की समवेत व्यवस्थाओं का जब मूल ढांचा ही रोगग्रस्त है तो फिर इन पार्टियों की घोषणाओं और सब्जबागों का अलंकरण लोगों को अखिर कब तक प्रसन्न कर पाएगा। इन क्षणभंगुर अलंकरणों के बजाए हमारी व्यवस्था का व्याकरण गढ़ा जाए, क्या इसके लिये हमारी ये पार्टियां संकल्पबद्ध हैं? कांग्रेस पार्टी का दावा है कि उसने देश में सामाजिक समावेशी विकास की परिकल्पना को नये सिरे से खड़ा किया है। भाजपा मानती है कि देश की अर्थव्यवस्था और एक राष्ट्र राज्य के रूप में भारत की प्रभुता कांग्रेस के राज में क्षीण हुई है और इसके मुकाबले उनके शासित राज्यों में गुड गवर्नेन्स की बयार बह रही है। आप पार्टी इस बात को बड़े जोर शोर से उठा चुकी है कि ये दोनो प्रमुख पार्टिया कांग्रेस व भाजपा भ्रष्ट हैं और इनकी नीयत में खोट है और हमारी पार्टी ही आम आदमी के सवालों को प्रमुखता से उठा रही है जिसकी आजतक सारी पार्टियों ने अनदेखी की है।
 देखिए इन तीनों दावेदारों के ये दावे कितने खरे हैं, यह देखना हम जैसे तीसरी नेत्र यानी तटस्थ विश£ेषकों का काम हैं क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल अपने समर्थकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जबकि मीडिया का काम समूची व्यवस्था और सभी गैर पार्टी समर्थक जनता के लिये वकालत करना है। ऐसे में यह बड़ा जरूरी है कि पहले हम देश की समूची व्यवस्था की तहकीकात करें आखिर हमारी राजनीतिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था और इससे जुडी तमाम संस्थाओं की कार्यप्रणाली और इसकी मौजूदा परिचालन व्यवस्था कैसी चल रही है? इन सभी परिदृश्यों में इन राजनीतिक दलों के दावे क्या इनकी अगली कुर्सी की व्यवस्था के लिये दी जा रही दलीलों पर आधारित हैं या इनके दावे देश के तमाम क्षेत्रों और संस्थाओं में बदलाव और तरक्की लाने के रोडमैप पर आधारित हैं। मेरा मानना है कि गवर्नेन्स का सबसे मूलभूत मुद्दा है समूचे राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र और इसकी निर्णय प्रक्रिया के रास्ते आने वाले सभी अवरोधों को समाप्त करना । जब निर्णय प्रक्रिया तंत्र को सुचारू और चाक चौकस बनाने की बात आती है तो निश्चित रूप से सवाल भ्रष्टाचार पर जाता है। और जब बात भ्रष्टाचार की होती है तब मामला केवल इस पर कठोर कानून और इसक ी जांच-मुकदमे को बढ़ाने भर से खत्म नहीं होती है। महत्वपूर्ण बात ये है कि सिस्टम में भ्रष्टाचार की संभावना ही न बचे। यही भ्रष्टाचार मुक्त राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था की सबसे बड़ी वैज्ञानिक जरूरत है। और इस जरूरत की पूर्ति तभी हो पाती है जब राजनीतिक दलों और उनके सरकार में सुशोभित होने के उपरांत उनकी नीतिगत विजन, उनकी संस्थागत संरचना, उनकी निर्णय प्रक्रिया की तकनीक, उनकी प्राथमिकता और उनके बुनियादी सुधारों क ी दिशा में उठाये गए कदम सब शामिल होते हैं।
बात शुरू करें कांग्रेस की। कांग्रेस आजाद भारत में सबसे अधिक कार्यकाल या यो कहें कि करीब 65 वर्ष में 55 वर्षों तक शासन करने वाली पार्टी रही। आज ये पार्टी दावे करे कि उसने ये ये काम किये, पर इन कामों को कोई तुलनात्मक विवेचन नहीं हो सकता क्योंकि उनके लिये देश में शासन का एक तरह से एकाधिकार था। ऐसे में हम केवल यह कह सकते हैं कि उस वक्त आजाद हुए देशों की तुलना में भारत की राजनीतिक आर्थिक सामाजिक स्थिति कैसी रही है? इस सवाल का जबाब भी हमे मिश्रित किस्म का मिलेगा। वस्तुनिष्ठ तरीके से कांग्रेस की सफलताएं निराशाजनक रही हैं वही विषयगत दृष्टि से इनकी सफलताओं मे कुछ मील के पत्थर भी जुड़े हैं। मसलन नेहरू के कार्यकाल में देश में भारी औद्योगीकरण और बड़ी नदी परियोजनाओं की आधारशिला स्थापित हुई।
लालबहादुर शास्त्री के कार्यकाल में देश में जय जवान जय किसान के नारे के साथ पाकिस्तान पर विजय व हरित क्रांति का उद्घोष हुआ। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में बैंकों के राष्ट्रीयकरण व बीस सूत्री सामाजिक आर्थिक विकास के कार्यक्रमों के जरिये इस निर्धन देश में गरीबी हटाओं का पहली बार एक गंभीर नारे के साथ एक तरह से कांग्रेस ने वामशैली की राजनीति की शुरूआत की। तो दूसरी तरफ अपनी बेहतर रणनीति के जरिये इंदिरा कांग्रेस ने बांग्लादेश का निर्माण कर अपने विपक्षी दलों के राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों का दिल जीता।
1977 में पहली बार केन्द्र सरकार का बदलाव हुआ जो देश में नये राजनीतिक विकल्प व राजनीतिक स्वतंत्रता के नारे से बुलंद हुआ और इसी समय देश में नियंत्रित आर्थिक व्यवस्था के प्रतीक सार्वजनिक वितरण प्रणाली को समाप्त कर उसका एक सफल बाजार विकल्प प्रदान किया गया। 1980 में इंदिरा गांधी के पुनरआगमन ये यह सिद्ध किया कि देश में विपक्ष राजनीतिक स्थिरता देने में अभी अक्षम है और इनकी बहु वैचारिक एकता दूर की कौड़ी है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर से राजीव गांधी के नेतृत्व में सत्ता पर पुन: विराजमान हुई कांग्रेस ने देश में आर्थिक उदारीकरण और नये प्रौद्योगिकी क्रांति की आहट दी। 1989 में वी पी सिंह ने बोफोर्स के बहाने भ्रष्टाचार के सवाल पर एक तरह से 1977 का प्रयोग पुन: दोहराया पर बाद में इसका हस्र वैसा ही हुआ जैसा 1977 में हुआ।
1991 में पी वी नरसिंह के नेतृत्व में बनी पहली गैर नेहरू गांधी परिवार की क्रांग्रेस की सरकार ने नयी आर्थिक नीति के जरिये पिछले चार दशकों से चली आ रही आर्थिक संरचना में बुनियादी परिवर्तन की शुरूआत की। 1998 और 1999 में देश में पहली बार किसी एक विपक्षी दल के नेतृत्व में बनी बाजपेयी सरकार ने यह दिखाया कि नयी आर्थिक  नीति भले कांग्रेस द्वारा शुरू की गयी हो पर वह इसी नीति को लागू करने में कांग्रेस की तुलना में ज्यादा तेजी से दौड़ेगी। 2004 में कांगेस ने पहली बार गठबंधन सरकार चलाकर ये दिखाया कि उसकी आर्थिक नीतियों को भाजपा ने अमानवीय बना दिया था अत: वह इसे मानवीय चेहरा प्रदान करेगी और नयी आर्थिक नीति के सभी लटके झटके भी चलेंगे और इससे अर्जित की गई उच्च विकास दर और भारी राजस्व वसूली को अब गांवों में तमाम मदों में समावेशी विकास के जरिये झोका जाएगा। इस आधार पर कांग्रेस ने 2009 का चुनाव भी वोट कै चिंग समावेशी परियोजनाओं के बल पर जीत लिया जिसमे करीब 70 हजार करोड़ रुपये की लागत से किसानों क ी कर्जमाफी और करीब 40 हजार करोड़ रुपये की सालाना लागत वाली मनरेगा योजना का बड़ा योगदान माना गया।
इन साठ पैसठ सालों में इन सरकारों के कार्यो का अवलोकन और इनका लोकतांत्रिक प्रबंधन का निरीक्षण करने से यही लगता है कि ये सारे कदम इन पार्टियों और इनकी सरकारों के लिये पालीटिकली करेक्ट तो थे पर सिस्टमेटिकली बेहद इनकरेक्ट थे। मसलन पिछले दो तीन साल से देश की राजनीति की बिसात पर सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा मुद्दा भ्रष्टाचार हमारे जैसे आव्जर्वर और कई अन्य समाजविज्ञानियों के लिये बहुत पहले यानी करीब चार दशक पहले से ही देश का सबसे महत्वपूर्ण मु्दा था। 1960 के दशक में देश की तमाम सामाजिक आर्थिक विकास की योजनाओं में नौकरशाही के दबदबे ने भ्रष्टाचार, घूसखोरी, कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी का बेहतरीन आगाज कर दिया था जो जीते जी देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को भी अच्छे तरीके से पता चल गयी थी। और इंदिरा गांधी के आगमन के बाद तो देश में प्रशासनिक आर्थिक भ्रष्टाचार के साथ राजनीतिक भ्रष्टाचार का भी पदार्पण हो गया। फिर सामाजिक भ्रष्टाचार और इन सभी भ्रष्टाचारों के प्रभाव में आकर धीरे धीरे देश के तमाम लोकतांत्रिक और सार्वजनिक संस्थाओं में भ्रष्टाचार का बीजारोपण हो गया। भ्रष्टाचार का यह दावानल कैसे कैसे हमारी व्यवस्था को कैंसरग्रस्त करता गया इसको लेकर हमारे न तो कांग्रेस ने जिसकी इस बात को लेकर महती जिम्मेदारी थी और न ही विपक्ष ने इस मुद्दे को अपनी प्राथमिकता में शामिल किया।
आज जिस तरह भ्रष्टाचार पर पहले अन्ना के लोकपाल आंदोलन, रामदेव के कालाधन रोक पर हुए आंदोलन और आप पार्टी के उभार से यह मुद्दा देश की चुनावी राजनीति की रीति नीति में शामिल हो गया, तब जाकर देश की सबसे पुरानी व सबसे अधिक राज करने वाली पार्टी कांगे्रस के कान पर जूं रेंगा। और आज यह पार्टी आनन फानन में लोकपाल बिल को पारित करती है और अपनी इस कार्यकाल क ी समाप्ति के दहलीज में लेखानुदान के लिये आयोजित लोकसभा के सत्र में भ्रष्टाचार को लेकर करीब एक साथ आधे दर्जन बिल पारित करने की बात कह रही है। जबकि मेरा यह स्पष्ट तौर से मानना है कि आज की तारीख में भ्रष्टाचार के नित नये तरकीब और आउटलेट खुलने के बावजूद कई प्रशासनिक मामलेां में भ्रष्टाचार की प्रतिशतता यानी अनुपात पहले की तुलना में कम दिखती है जिसकी वजह सरकार के काम नहीं , बल्कि तमाम काम काजों में सूचना प्रौद्योगिकी व ई गवर्नेन्स की तकनीक का हो रहा इस्तेमाल है। आज बैंक के लेन देन, रेल रिजर्वेशन और बाजार मुक्त अर्थव्यवस्था तथा मीडिया सक्रियता की वजह से कई भ्रष्टाचार अपने आप समाप्त हो गए हैं। पर पहले ज्यादा भ्रष्टाचार था पर उसकी चर्चा ना के बराबर थी और ना ही देश की राजनीति और पब्लिक डोमेन में इसको एक बड़े मुद्दे के रूप में लिया जाता था। पर आज कुछ मामलों में भ्रष्ट ाचार पर नकेल लगने के बावजूद इस पर चर्चाएं खूब होती है जो देश के लोकतंत्र के लिये एक अच्छी बात है।
मतलब ये है कि कांग्रेस पार्टी के लिये भ्रष्टाचार का यह कैंसर तबतक नुकसानदेह नहीं था जबतक यह उनकी चुनावी संभावनाओं पर पानी नहीं फेर रहा था। मैने ये बात इसलिये कही कि कांग्रेस पार्टी द्वारा देश में पिछले साठ सालों में किये गए कामों व उनके दावे कोई देश के भविष्य संवारने के लिये नहीं बल्कि येन के न प्रकारेण सत्ता बनाये रखने और साथ ही नेहरू गांधी परिवार के नेतृत्व की अलख जगाये रखने के लिये थी। अभी कांग्रेस पार्टी के ब्लाक प्रमुखों और जिलाध्यक्षों के राष्ट्रीय सम्मेलन में कांंग्रेस पार्टी ने यह दावा किया कि उसने सूचना के अधिकार का कानून लागू किया और इसकी वजह से भ्रष्टाचार की खबरें ज्यादा ब्रेक होने लगीं। पर सूचना के अधिकार कानून के लिये भी अरुणा सिंह के नेतृत्व में आंदोलनकारियों ने लंबे आंदोलन किये तब जाकर यह कानून बना व लागू किया गया।
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बात भाजपा की करें जो देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के साथ साथ देश में केन्द्र में छह साल सरकार चलाने के साथ साथ कई राज्यों में सरकार चलाने का काफी अनुभव प्राप्त कर चुकी है। इस पार्टी ने भी यह कभी नहीं समझा कि भ्रष्टाचार उसके देश निर्माण के सपने पूरे करने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। लगता था कि भाजपा के लिये भी भ्रष्टाचार का मुद्दा राजनीतिक रूप से फायदेमंद नहीं था जिस तरह से कांग्रेस को यह कभी नहीं लगा कि भ्रष्टाचार के मुद्दे से उसे कभी राजनीतिक नुकसान हो सकता है। संसद और विधानमंडलों में जरूर ये दल किसी मंत्री विशेष या किसी सांसद विधेयक विशेष के भ्रष्टाचार के आरोपों पर एक दूसरे पर राजनीतिक हमले करते रहे हों पर समूचे सिस्टम में फैले भ्रष्टाचार पर इन दलों में कभी भी अपना व्यापक विजन नहीं दिया।
अब हम बात करें नवागंतुक पार्टी आप की जो देश में लोकपाल की स्थापना के आंदोलन व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गठित पार्टी थी जिसमे कई गैरराजनीतिक लोग जुडक़र अपने राजनीतिक कैरियर की शुरूआत की है। यह पार्टी भ्रष्टाचार विरोधी व व्यवस्था परिवर्तन कारी बौद्धिकों की प्रतीकात्मक पार्टी के रूप मे अपनी दस्तक देकर दिल्ली विधानसभा के जरिये चुनावी राजनीति में भी एक हद तक सफल भी हुई और देश भर में लोगों के लिये एक नयी आशा क ा केन्द्र भी बन गयी है। पर सबसे बड़ा सवाल उनका यह भ्रष्टाचार विरोध सिर्फ नारा था या राजनीति में उतरकर अपनी धाक जमाने के लिये भाजपा व कांग्रेस जैसे पारंपरिक पार्टियों पर आरोपों के लिये गढ़ा गया एक आकर्षक शब्द। भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था देश की तमाम व्यवस्थाओं में बदलाव के लिये एक व्यापक वैचारिक मंथन मांगती है जिसमे सभी क्षेत्रों में नीतिगत, कानूनगत, संस्थागत, विचारगत, तकनीकीगत परिवर्तनों का एक व्यापक ब्लूप्रिंट मांगता है। नारे तो तुरंत हवा हवाई हो जाते हैं, परंतु विजन सरकार में आने के बाद गवर्नेन्स का शस्त्रास्त्र बनते हैं।
भ्रष्टाचार से इतर समकालीन राजनीति मेें ऐसे कई मुद्दे हैं जो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार की ही समस्या की एक अगली कड़ी बनते हैं। जहां भ्रष्टाचार मुक्त  व्यवस्था देश के शासन तंत्र को चाक चौबंद चलाने की पहली शर्त है वैसे ही देश की राजनीति में शूचिता की बहाली उस भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था की उससे भी बड़ी शर्त है। कांग्रेस पार्टी ने जहां भ्रष्टाचार की अनदेखी कर एक राष्ट्रीय अपराध किया वैसे हीं हमारे संविधान निर्माताओं ने हमारे इस बहुजातीय, बहुधर्मीय, बहुसंस्कृति वाले देश के इस नवजात  लोकतंत्र में आइडेन्टी पालीटिक्स यानी पहचान की राजनीति पनपने की संभावनाओं पर गौर नहीं किया। पिछले छह दशक के दौरान देश में जाति,धर्म,भाषा,प्रांत,संस्कृति,उत्तराधिकार जैसे मसलों पर देश में कांग्रेस सहित सभी दल पनपे हैं, विकसित हुए हैं और इसी आधार पर चुनावी राजनीति को बिसात पर अपनी सियासत की शतरंज खेलते हैं। इससे इस विविधतापूर्ण देश की एकता अखंडता की परिस्थितियां कमजोर बनती आयी है। चलिये हमारे संविधान निर्माता इस मसले पर गौर नहीं कर पाए तो क्या इसके बाद कांग्रेस सहित किसी पार्टी ने देश की एकता अखंडता की व्यापक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इस तरह की पहल करने का प्रयास किया कि वह देश में सदा के लिए आइडेन्टी पालीटिक्स खत्म करने की वकालत करे। देश के साम्प्रदायिक आधार पर हुए विभाजन ने देश में सांप्रदायिक राजनीति की नींव डाल दी। धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा महज एक किताबी अवधारणा बन कर रह गयी, हकीकत में देश के करीब सभी दलों ने अपनी अपनी सुविधा, अवसर एवं वोट बैंक के आधार पर या तो अपने समर्थक धर्मो का समर्थन किया या फिर धर्म के तुष्टीकरण की राजनीति की। जातियों में बंटे समाज को राजनीतिक दलों ने अपना अपना वोट बैंक बना लिया। क्या अभी भी हमारा संविधान अपने संशोधन उपचारों के द्वारा इस पहचान की राजनीति को खत्म कर देश में राजनीति की एक नयी रीति नीति की शुरूआत नहीं कर सकता जो देश के राजनीतिक दलों को न केवल गुड गवर्नेन्स के मुद्दे पर ज्यादा प्रतियोगी बनाएगा और देश की एकता अखंडता को भी ज्यादा मजबूती प्रदान करेगा।
देश की राजनीति को गुड गवर्नेन्स आधारित प्रतियोगी लोकतंत्र की कसौटी पर कसना है तो हमे आइडेन्टी पालीटिक्स के साथ लोकलुभावन घोषणाओं पर भी संवैधानिक उपचारों से प्रतिबंधित करना होगा। जनता के करों से इकठ्ठा हुए राजखजाने को लुटा कर राजनीतिक दल वोट प्राप्त करने के लिये किसी भी हद तक चले जाते हैं। क्या  देश की अर्थव्यवस्था और प्रतियोगी लोकतंत्र के सिद्धांतों से यह खिलवाड़ नहीं है। गुड गवर्नेन्स का तकाजा ये है कि किसी भी दल के साथ सिस्टम को बेहतर करने तथा इनमे सुधार व प्रबंधन दुरूस्त करने तथा शासन की प्राथमिकताओं में बदलाव की कौन कौन सी नयी तरकीबे हैं जो उन्हें अन्य पार्टियों से बेहतर बना सकती है, इसका उल्लेख पार्टियों के घोषणा पत्र में होना चाहिए। क्या इस बात को सुनिश्चित करने के लिये हमारे संविधान में क्या संशोधन नहीं होने चाहिए।
कांग्रेस पार्टी जानती है कि आजादी के बाद से संविधान में करीब 100 संशोधन हो चुके हैं। अगर राजनीति को शूचितापूर्ण और समूची व्यवस्था को चाकचोबंद बनाना है तो हमारी पार्टियों को इस बावत बात करनी चाहिए। यहां हम कांग्रेस पार्टी को इस बात का श्रेय देना चाहेंगे कि उन्होंने देश में आर्थिक संकटों को दूर करने के इरादे से ही सही जिस नयी आर्थिक नीति का बीजारोपण किया वह आजाद भारत में उनका सबसे बड़ा कदम था। इस नीति ने अनजाने तरीके से ही सही देश में न केवल कई तरह के भ्रष्टाचार को समाप्त किया बल्कि नौकरशाही को भी कुछ हद तक प्रतियोगी बनाने का काम किया। क्योंकि 1990 के दशक तक देश आर्थिक क्षेत्र सिर्फ समाजवादी व वामपंथी नारों तक में ही सिमट कर रहा गया था। एक तो उस समय की आर्थिक नीतियों में विवेकशीलता की कमी से आर्थिक विकास दर का 3-5 फीसदी से उपर नहीं बढ़ पाना तो दूसरी तरफ देश के गरीब ग्रामीण लोगों के लिये चलने वाली थोड़ी बहुत योजनाएं बेईमान व बेलगाम नौकरशाही की वजह से गांव के लोगों को किसी भी तरह से यह अहसास ही नहीं करा पायी कि उनके लिये सरकार नाम की कोई चीज है। परंतु नयी आर्थिक नीति ने तमाम वामपंथी व समाजवादी आलोचनाएं झेलने के बाजवूद आर्थिक वृद्धि को जो पिछले चालीस सालों का सबसे बढिय़ा 5 प्रतिशत विकास दर का अंाकड़ा था वह नयी आर्थिक नीति के बाद के दो दशक में सबसे खराब आंकड़़़़़़़़़े के रूप में जाना गया और इस दौर का सबसे बढिय़ा प्रदर्शन दहाई अंक तक गया। इस वजह से इन दो दशक के दौरान सरकारों ने बढ़े विकास दर व बढ़े सरकारी राजस्व को गांव गरीब व अनौपचारिक क्षेत्र मे ढक़ेला। पर बुनियादी सुधारों के अभाव में संसाधनों का यह हस्तानांतरण किंतू परंतू का शिकार हो गया। नयी आर्थिक नीति के जरिये देश की अर्थव्यवस्था के जिस बेहतर स्वास्थ्य की आधारशिला जो गढ़ी जा रही थी वह यह प्रक्रिया वोट कैंचिंग लोकलुभावन घोषणाओं की बली चढ़ गयी। अर्थव्यवस्था में नयी आर्थिक नीति की सभी उपलब्धियों को इस सोनिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी ने ही गड्डमड्ड कर दिया जो पार्टी पहले इसकी सूत्रधार थी।
2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने यदि 70 हजार करोड़ रुपये की लागत पर किसानों की कर्जमाफ ी नहीं की होती और 40 हजार करोड़ रुपये की अनुत्पादक व भ्रष्टाचार मूलक मनरेगा योजना नहीं लायी होती तो आने वाले सालों में अर्थव्यवस्था में वित्तीय घाटे, चालू खाते के घाटे व उच्च मुद्रा स्फीति की समस्या इतनी विस्फोटक नहीं हुई होती। लोग इन योजनाओं के बचाव के तर्क ये दे सकते हैं कि इससे किसानों की आत्महत्या रोकने में मदद मिली। परंतु असल बात ये है कि किसानेां की आत्महत्या अभी भी जारी है क्योंकि इसका असली इलाज उन फसलों का लागत युक्त कीमत प्रदान करना और फसल बीमा प्रदान करना है जो सरकार अभी भी नहीं कर रही है। इसी तरह ग्रामीण रोजगार देने का दंभ भरने वाली मरनेगा योजना के बदले यह सरकार ग्रामीण आधारभूत संरचना विकास योजना लायी होती तो गांवों में उत्पादन व उद्यमिता को बढावे के साथ स्वयंमेव रोजगार का सृजन होता। गांव की कच्ची मिट़़़़़़़़़़्टी कोडक़र और उसे फिर भरने की यह मनरेगा योजना का पैसा यदि गांवों में संपूर्ण सामाजिक सुरक्षा योजना पर भी खरचा गया होता तो वह कही बेहतर नीति होती। क्योंकि देश के करोड़ो वृद्ध विकलांग विधुर विधवाएं अपने कुछ सौ पेंशन की मांग के लिये दिल्ली की सडक़ो की खाक छानते हंै। हमारे हिसाब से किसी भी सरकार की प्राथमिकता में सामाजिक सुरक्षा सबसे अव्व्ल होती है इसीलिये यह बात कही जा रही है।
 कांग्रेस पार्टी यह दावा करती है कि उसने मनरेगा योजना लाकर एक क्रांतिकारी काम किया, यह दावा कहीं से ठीक नहीं है क्योंकि यही कदम आज के आर्थिक संकट खासकर महंगाई की जड़ बनी। अर्थशास्त्र का यह मूलभूत सिद्धांत है कि यदि मौद्रिक निवेश अर्थव्यवस्था में उत्पादकता हासिल नहीं करता तो उससे अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति और वित्तीय घाटे का होना अवश्यमभावी है। चूुकि हमारी राजनीतिक पार्टियां मूलभूत परिवर्तन की जहमत उठाने को तैयार नहीं है इसीलिए ये पार्टियां राजनीतिक फायदे के लिये इस तरह की योजनाएं लाती हैं। गुड गवर्नेन्स की यह दरकार है कि सरकारें सभी सस्ब्डिी खत्म करें, जिन मदों पर सब्सिडी हैं उसे कर छूटों के जरिये जनता को राहत प्रदान करें और सरकार के आर्थिक कार्यक्रमों को चार मूल तत्वों पर केन्द्रित करे। पहला आधारभूत संरचना का विकास जिसमे कुछ अंश निजी सार्वजनिक भागीदारी का माडल किसी नियमन प्राधिकरण के साथ करना एक बेहतर कदम होगा। दूसरा मानव विकास मसलन शिक्षा-स्वास्थ्य-जनोनुकूल परिस्थितियां बहाल करने, जिसमे भी कुछ अंश तक निजी सार्वजनिक भागीदारी का माडल किसी नियमन प्राधिकरण के अंतर्गत स्थापित करना एक बेहतर कदम। तीसरा रोजगार सृजन की सभी संभावनाओं की तलाश जिसमे श्रम कानूनों व नयी कार्मिक नीति में बेहतर व व्यावहारिक बदलाव करना और चौथा देश के हर जरूरतमंदों जिसमे बच्चे, बूढे, विकलांग, निरीह, अनाथ, विधवाएं को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में अवश्यमेव लाना। ये चारों तत्व हमारे बुनियादी सुधार की कसौटी हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या कांग्रेस पार्टी या भाजपा या कोई दल इस लाइन पर देश में विद्यमान व्यवस्था का व्याकरण बुनना चाहता है। स्थिति ये है कि देश में अभी भी वोट कैंचिंग आइडेन्टी पालीटिक्स व पापुलिस्ट इकोनामी अपनाने की होड़ लगी है। तभी तो कांग्रेस पार्टी ने देश के सोलह करोड़ किसानों की माली हालत व बेहाल अर्थव्यवस्था तथा भ्रष्ट तंत्र की स्थिति को और बदतर बनाने वाली खाद्य सुरक्षा योजना लायी, यह सोचकर कि यह योजना भी उनके लिए 2009 की कर्जमाफी योजना की तरह 2014 लोकसभा चुनाव में वोटों का इंतजाम कर देगा।
 हम इन सभी मामलों में केवल कांग्रेस हीं नहीं सभी पार्टियों को भागीदार मानते हैं जो इन्हीं मानकों पर राजनीति की रेस में दौड़ लगा रहे हैं। क्योंकि जब हमारे न्यायालयों ने यह कहा कि देश में राजनीतिक दलों की जातीय रैली पर रोक लगे, अपराधी जनप्रतिनिधियों को चुनाव में प्रतिबंधित किया जाए, लोकलुभावन घोषणाओं पर प्रतिबंध लगे, जनता को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार मिले तो प्राय: सभी दलों ने इस पर निरूत्साही प्रतिक्रियाएं दीं। दागी जनप्रतिनिधियों को प्रतिबंधित करने के मामले पर कुछ परिस्थितियां इस तरह से निर्मित हो गयीं कि बड़े नाटकीय अंदाज में कांग्रेस सरकार इसे मानने को मजबूर हो हुईं। पर देश के राजनीतिक दलों को केन्द्रीय सूचना आयोग ने यह नसीहत दी कि वे अपने यहां सूचना के अधिकार लागू करें तो सभी दलों की घिघ्घी बंध गयी। सभी दलों के मठाधीशों को इस बात का डर सताने लगा कि इससे उनके राजनीतिक दल में उनकी अपनी ऐंठ व पैठ खत्म हो जाएंगी और सभी राजनीतिक दलों को एक तरह से वास्तविक लोकतंत्र को शिरोधार्य करना होगा। इन सभी सुधारों और व्यवस्था के व्याकरण गढऩे में नवगठित पार्टी आप तो बहुत जल्द ही एक्सपोज हो गयी। इस नयी पार्टी से इन राजनीतिक आदर्शांे और बुनियादी सुधारों को अंजाम देने की सबसे ज्यादा उम्मीदे थी पर पता चला कि सिर्फ हंगामा बरपाना यही इनका मकसद है, सूरतेहाल बदले इसके लिये इनके पास चिंतन व दृष्टि हीं नहीं है। इन्होंने भी अन्य पार्टियों की तरह चंदे बटोरने की रेस लगाई, खजाना खाली कर लोकलुभावन घोषणाओं का अंबार लगाया । और सरकार मे आने पर एक रोड मैप पर सुधारों को अंजाम देने के बजाए केवल हंगामेदार सुखिर्या बंटोरने व रोतोरात राजनीतिक महत्वाकांक्षा हासिल करने के लिये किसी भी हद तक की एडवेंचरिज्म करना इनकी फितरत दिखी है।
लेखक भारत परिवर्तन अभियान के संयोजक व वरिष्ठ पत्रकार हैं



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