Saturday, September 28, 2013

खाद्य सुरक्षा करेगी किसानों की असुरक्षा देश के गरीबों को चाहिए पोषाहार सुरक्षा और उसके लिये क्रयशक्ति बढ़ाने की जरूरत

खाद्य सुरक्षा करेगी किसानों
की असुरक्षा
देश के गरीबों को चाहिए पोषाहार सुरक्षा और उसके लिये क्रयशक्ति बढ़ाने की जरूरत

मनोहर मनोज

देश की तमाम चर्चाओं के केन्द्र में चल रहा कथित खाद्य सुरक्षा विधेयक वास्तव में है क्या? शाब्दिक रूप से यह भले समझ में आ रहा हो कि यह लोगों को खाना सुनिश्चित करेगा। पर यह वास्तव में लोगों के खाने की सुरक्षा कम देश के राजखजाने को और देश के करीब 16 करोड़ किसानों की आजीविका को जरूर असुरक्षित करेगा।  खाद्य सुरक्षा का नाम दे देने से क्या होगा यदि यह देश के गरीब लोगों को जरूरी पोष्टिक भोजन सामग्री उपलब्ध नहंी करा सकता। यह कानून देश के 80 करोड़ गरीबों  के घरों में दूध-दही, फल-हरी सब्जी एवं अन्य प्रोटीन युक्त सामग्रियों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने नहीं जा रहा है। सवाल ये कि है क्या गरीब आज की तारीख में बाजार में मौजूदा दरों पर गेहूं और चावल नहीं खरीद सकता। गैर राजनीतिक शब्दों में कहें तो वह जरूर खरीद सकता है क्योंकि बाजार में वे आसानी से सामान्य दामों पर उपलब्ध हैं। पर सरकार ने उन चीजों को जो बाजार में उपलब्ध नहीं है मसलन रसोई गैस, उस पर से संसाधन की कमी का बहाना बनाकर सब्सिडी प्राप्त रियायती सिलेंडरों की संख्या घटाकर बाजार में कालाबजारी फैला दिया और लोगों में हाहाकार फैला दिया।  अब प्रश्र ये है कि यह सरकार अगले लोकसभा में गरीबों के वोट खातिर खाद्य सुरक्षा के लिये इतने भारी भरकम सब्सिडी का कहां से इंतजाम कर लिया? आम जनता के करों से लिये गए 1.20 लाख करोड़ रुपये की लागत पर 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये रुपये चावल देकर सरकार देश की अर्थव्यवस्था, देश के किसानों के साथ-साथ देश के गरीबों का कितना बड़ा चूना लगाने जा रही है इसका पता तब चलेगा जब आने वाले दिनों में देश के दाम आसमान छूने लगेंगे और गरीबों का जीना मुहाल हो जाएगा।
वास्तव में आज देश के 80 करोड़ गरीबों को पोषाहार सुरक्षा चाहिए।
गरीब की आमदनी इतनी नहीं है कि वह अपने घर में पौष्टिक भोजन की जरूरतों दूध दही दाल सब्जी और मांस मछली का क्रय कर सके। क्या सरकार इन्हें बटवाएगी? नहीं क्योंकि यह कार्य तो वह अस्पताल में मरीजों के लिये ढंग से करवा नहीं पाती फिर देश के 75 करोड़ गरीबों के लिये कहां से करवा पाएगी। इसके लिये भारी भरकम पैसा, वितरण नेटवर्क चाहिए और यह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाएगा। सस्ता चावल गेहूं का वितरण भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ेगा, पर सरकार उसके लिये नहीं आगामी चुनावों के लिये ज्यादा परेशान है। तभी तो आनन फानन में बिना संसद में बिल लाए इस पर अध्यादेश लाया गया। और अध्यादेश आते ही आनन फानन में चुनाव आसन्न राज्यों में कांग्रेस शासित राज्य दिल्ली में इसे तुरत लागू करने की घोषणा भी कर दी गयी। पर यूपीए सरकार के इस खेल को विपक्ष भली भांति समझ रहा है और इसीलिये मौका दर मौका इसे लोकसभा में  पेश करने की परिस्थिति नहीं बनने दे रहा है।
यूपीए सरकार को सबसे पहले बताना होगा कि देश के सोलह करोड़ किसान जो देश के लिये अनाज उपलब्ध कराता है उसका क्या होगा? क्या उसका सारा अनाज भ्रष्ट एफसीआई नेटवर्क के द्वारा खरीदे जाने की गारंटी होगी। 1991 के बाद से जो देश खुली अर्थव्यवस्था और बाजार के जरिये कई अपनी कई आर्थिक समस्याओं और आर्थिक कुप्रबंधन को दूर कर रहा था वह अब देश की समूची खाद्य व्यवस्था को अब नियंत्रण के दायरे में लाकर क ैसे संचालित करेगा? क्या यह सही नहीं है कि जब देश में 67 करोड़ लोगों को रियायती दर पर अनाज प्राप्त होगा तो खुले बाजार में सामान्य आटे चावल की कीमत जो अभी 20 व 25 रुपये प्रति किलो है वह खुले बाजार में मांग की कमी होने से गिर जाएगी। एक किसान जो औसतन 15 रुपये खर्च कर एक किलो गेहूं पैदा करता है और 20 रुपये खर्च कर प्रति किलो चावल पैदा करता है वह खाद्य सुरक्षा आने के बाद बाजार में अपने खर्च चलाने के लिये उसे बाजार में औने पौने दाम पर बेचेगा। क्या एफसीआई का नेटवर्क किसानों का अनाज किसान के घर जाकर हर समय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज खरीद पाएगा। जब एफसीआई फसल सीजन के समय उनका अनाज नहीं खरीद पाता तो बाकी समय में उनसे खरीदने की अपेक्षा बेकार है।
वैसे भी भारत में कृषि एक घाटे का पेशा है। किसानों को दी जाने वाली सभी तरह की लागत सब्सिडी का प्रावधान भी अंत में सब्सिडी को नकारात्मक 2 फीसदी बनाती है। और नयी व्यवस्था में यह तो घोर घाटे का पेशा बन जाएगी। इस वजह से यदि किसान अनाज पैदा करना बंद कर देंगे तब सरकार कहां से खाद्य सुरक्षा के लिये अनाज लाएगी।  क्या वह विदेशों से आयात करेगी। मतलब साफ है कि वोटों के लालच में यह सरकार देश में पहले से बढ़े वित्तीय घाटे, मुद्रा स्फीति और व्यापार घाटे को और ज्यादा बढ़ाएगी।
यूपीए सरकार के रणनीतिकारों का मानना है जिस तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में किसानों की कर्ज माफी और मनरेगा योजनाओं द्वारा यूपीए ने राजनीतिक जीत हासिल कर ली उसी फार्मूले के तहत वह इस बार भी खाद्य सुरक्षा के आधार पर जीत हासिल कर लेगी। पर उस फैसले से अर्थव्यवस्था का कैसा कबाड़ा हुआ यह कांग्रेस पार्टी को पता है। कर्ज माफ ी और मनरेगा जैसी स्फीतिकारी योजनाओं से देश में मुद्रा स्फीति में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। इस बार भी यूपीए सरकार इस योजना से वोटों का जुगाड़ करने को बेकरार है पर वह यह नहीं समझ पा रही है कि इन योजनाओं से फैले मुद्रा स्फीति और महंगाई से लोगों में भारी असंतोष भी पनपा है जो उसे राजनीतिक रूप से नुकसान करेगा।
दरअसल यूपीए सरकार अपने चुनावी फायदे के लिये जिस तरह से देश की पहले से बदहाल हो रही माली स्थिति और लोगों से करों के रूप में लिये जाने वाले भारी भरकम राशि के साथ खिलवाड़ कर रही है। यह सरकार किसानों द्वारा महंगी लागतों से उत्पादित अनाजों चावल और गेहूं को 3 रुपये और 2 रुपये प्रति किलों के भाव से मुहैय्या कर क्या गरीब लोगों का कायाकल्प कर देगी। एक गरीब आदमी कोई पशु नहीं है बल्कि वह भी एक बेहतर जीवन जीने का हकदार है । उसे अनाज के साथ घर में खाने के अनाज के सार्थ इंधन, खाद्य तेल, सब्जी, दलहन और प्रोटीन युक्त सामग्री चाहिए पर इसके लिये उसके पास क्रय शक्ति कहां से आएगी। इसके लिये उनकी मजदूरी, वेतन, पेंशन और सहायता बढ़ायी जानी चाहिए।  इसके अलावा उसे कपड़ा, स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास की यदि सामान्य स्तर की सुविधायें चाहिए तो ये सारी परिस्थितियां उसे बेहतर रोजगार, शिक्षा स्वास्थ्य व बुनियादी सुविधाएं के जरिये प्राप्त हो सकती है। यह तभी मिलेगा जब सरकार अनुत्पादक व फालतू सब्सिडी खरचने के बजाए आधारभूत सुविधाओं, मानव विकास और सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं पर खर्च करे। पर इन सबके इतर सरकार महज वोट वैंक के लिये आनन फानन में खाद्य सुरक्षा विधेयक लेकर आ गई।  खाद्य सुरक्षा के जरिये यूपीए समझ रही है कि वह चुनाव में गरीब लोगों के वोट से चुनाव जीत जाएगी पर आनेवाले भविष्य में इससे देश का जो आर्थिक नुकसान होगा वह यूपीए को समझ में नहीं आ रहा है। क्या देश हित किसी भी पार्टी के निजी हित के नीचे है। जब कुछ महीने पहले यूपीए सरकार ने यह नीतिनिर्देश निर्धारित किया कि सब्सिडी की सकल घरेलू उत्पाद में हिस्सेदारी घटायी जाएगी और साथ ही आम जनता को दी जाने वाली जरूरी सब्सिडी उत्पाद या सेवा के रूप में नहीं प्रत्यक्ष नकद सहायता के रूप में दी जाएगी। इसके तहत देश के कुछ चूनिंदा जिलों में आधार कार्ड के जरिये नकद राशि स्थानांतरण की योजना लागू भी की गयी। इस कदम का एक मकसद यही भी था कि सब्सिडी की राशि को भ्रष्टाचार की भेंट न चढने दिया जाए और साथ ही इस योजना के जरिये नौकरशाही की लागत कम की जाए। सैद्धांतिक रूप से सरकार का यह फैसला बिल्कु ल उचित है। धन्य हो आधार कार्ड और ई बैंकिंग जैसी तकनीकों का कि इस तरह का कदम सरकार के लिये उठा पाना संभव हो पाया। पर सरकार की यह खाद्य सुरक्षा योजना तो उन सारे कदमों पर एक तरह से पानी फेर देगा और देश में अर्थव्यवस्था की तमाम परिस्थितियां फिर से तबाह हो जाएंगी।
ऐसा नहीं है कि इस देश में खाद्य सुरक्षा का आविर्भाव कोई पहली बार हो रहा है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आवश्यक सामानों को रियायती दरों पर इंदिरा गांधी के जमाने से मुहैय्या कराया जा रहा है। आज की तारीख में भी केन्द्र सरकार करीब 60 हजार करोड़ रुपये हर साल अनाज सब्सिडी पर खरचती है जो भारतीय खाद्य निगम के भ्रष्टाचार पोषण पर खर्च हो जाता है। यह राशि किसानों को दिये जाने वाले एमएसपी और राज्यों को आबंटित पीडीएस दरों पर अनाज की कीमतों के बीच के अंतर को पाटने पर व्यय होता है। हकीकत ये है कि इतनी सब्सिडी खरचने के बाद भी सरकार द्वारा अनाज खरीदने के लिये जो किसानों को जो एमएसपी दरें दी जाती है वह उनके लागत को पूरा नहीं कर पाती है। पर नयी व्यवस्था में तो किसानों की स्थितियां बद से बदतर हो जाएंगी। जहां किसानों को आफ सीजन में बाजार की वजह से अपने अनाज का कुछ बेहतर दाम मिल भी जाता था वह खाद्य सुरक्षा की नयी व्यवस्था में बिल्कुल नदारद हो जाएगा। खुले बाजार में अनाज की मांग ना के बराबर होगी और उसके मुकाबले सप्लाई ज्यादा होगी तो खुले बाजार में उसके दाम घटने तय हैं। सस्ते अनाज को खुले बाजार में कालाबजारी का भी एक नया अवसर मिलेगा। यह स्थिति तब सही होती जब देश में समूचे कृषि और खाद्य व्यवस्था का नियंत्रण सरकार के पास हो।
इस देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दरकार है पर उन इलाकों में जो बाजार से दूर हैं, आदिवासी अंचलों में, जहां प्राकृतिक आपदा और महामारी की स्थिति हो, वहां के लिये देश में फूड बैंक का होना जरूरी है। पर बाकी जगहों पर इस प्रणाली की उपस्थिति किसी भी तर्क से उचित नहीं है।
एक समय देश में 60 फीसदी से ज्यादा चीनी पीडीएस के जरिये वितरीत होती थी। पर धीरे धीरे पीडीएस चीनी का स्थान खुले बाजार ने ले लिया। क्योंकि चीनी की वहां क्वालिटी खराब होती थी, लोगों को हमेशा मिल नहीं पाती थी उसके लिये एक खास तारीख का इंतजार करना पड़ता था। सरकार को इस पर भारी सब्सिडी का बोझ उठाना पड़ता था। साथ हीं चीनी मिलों को भी सरकारी लेवी की नीति की वजह से काफी घाटा सहना पड़ता था। यही वजह है कि आज चीनी के लिये कोई पीडीएस दूकान नहीं जाता उसे खुले बाजार में खरीदता है। इस वजह से सरकार ने चीनी मिलों से लेवी की मात्रा कम कर दी। इससे उपभोक्ताओं को भी सहूलियत हुई और चीनी मिलों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई और सरकार के सब्सिडी की भी बचत हुंई। इस तरह का पहला प्रयोग 1977 में मोरारजी देसाई ने अपने कार्यकाल में कर दिया था।
देखिए आज का दौर बाजार का है। नियंत्रित व्यवस्था के जरिये ना तो हम जनकल्याण कर सकते हैं और ना ही संसाधनों का बेहतर सदुपयोग। ऐसे में नयी खाद्य सुरक्षा प्रणाली देश के समूचे अनाज मार्केट को गड्डमड् करेगी, किसानों के खेती के इस घाटे वाले व्यवसाय में घाटा और बढेगा। गरीबों को सस्ते चावल और गेहू देकर उन्हे सिर्फ पेट तक सीमित कर उन्हें पोषाहार और जीवन स्तर की बेहतर सुविधाओं व अन्य आवश्यकताओं से मनोवैज्ञानिक रूप से वंचित रखा जाएगा। अर्थव्यवस्था में इतनी ज्यादा सब्सिडी खर्च करने से गैर योजना खर्चे का आकार बढेगा, वित्तीय घाटा मुद्रा स्फीति बढ़ेगी और भविष्य में अनाज के आयात के जरिये व्यापार घाटे को और ज्यादा बढाया जाएगा। साथ ही देश में भ्रष्ट पीडीएस व्यवस्था को अब और बड़े भ्रष्टाचार करने का अवसर मिलेगा।

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