Saturday, September 28, 2013

हमे गरीबी का पैमाना नहीं श्रेणीकरण करने की जरूरत


हमे गरीबी का पैमाना नहीं श्रेणीकरण करने की जरूरत

मनोहर मनोज

देश में गरीबी के बनाये मापदंडों के अनुसार निर्धारित की गयी प्रति व्यक्ति रोजाना आमदनी की रकम का जिस तरह से आम लोग और मीडिया मखौल उड़ा रहे हैं, उससे सवाल ये खड़ा होता है कि आखिरकार गरीबी पर हमारे देश की सरकार और योजना आयोग का कौन सा नजरिया अपनाया जा रहा है। क्या हमारे देश की सरकार और योजना आयोग इन गरीबी के मापदंडों के आधार पर देश के गरीबों की संख्या में आई कमी के आंकडें़ से अपनी वाहवाही लूटना चाहती है कि देखो हमने गरीब बाहुल्य देश में गरीबों की संख्या में कमी करने में बड़ी सफलता पा ली है। देखो हमने पिछले एक दशक के दौरान देश की अर्थव्यवस्था में दर्ज की गयी उच्च विक ास दर की बदौलत देश में निर्धनों की संख्या में कमी लाने का अजूबा कारनामा कर दिखाया है।
देश की जनता और सरकार दोनो का गरीबी पर यह परस्पर विरोधाभासी नजरिया जो दिख रहा है उससे यह लगता है कि एक पक्ष का नजरिया इस मसले पर बड़ी भावुकता से ओतप्रोत है तो दूसरे पक्ष की तरफ से दावों का खोखलापन दिखायी पड़ता है। मुझे लगता है कि इन दोनो नजरियों से देश के गरीबों का भला नहीं होने वाला।
हमे इस तथ्य को भलीभांति स्वीकारना होगा कि देश में पिछले छह दशकों से चलने वाली सरकार प्रायोजित निर्धनता निवारण योजनाएं और 1990 के बाद से देश में नयी आथर््िाक नीति की वजह से आए उच्च विकास दर के बावजूद देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा वास्तविक रूप से गरीबी के अभिशाप और इसके कुचक्र से विमुक्त नहीं हो पाया है। हमे इस बात पर बेहद गंभीरता और संजीदगी से विचार करना होगा कि पहला देश में गरीबों के मापने का पैमाना कैसा हो और दूसरा देश में चल रही उन सभी गरीबी उन्मूलन योजनाओं और निर्धनता निवारण हेतू तैयार की जाने वाली आर्थिक परिस्थितियों में इस तरह से फेरबदल और संतुलन बिठाया जाए कि इन योजनाओं का सार्थक, प्रभावी और लक्ष्यमूलक नतीजा हासिल हो।
देखने की बात ये है कि अभी देश में गरीबी पर अलग अलग मंचों पर जो बहसे हो रही हैं, उसमे गरीबी दूर करने के बजाए गरीबी रेखा के आंकडें ज्यादा तवज्जो हासिल कर रहे हैं। लोग यह कह रहे हैं कि सरकार ने गरीबों के जीने के लिये जो रोजाना राशि तय की है वह इतनी कम है वह एक जून के भोजन के लिये भी कम बैठती है। लोग इस राशि से कम मात्रा में जी रहे 29 करोड़ लोगों की दूर्दशा के बारे में कल्पना करने के बजाए विहित गरीबी रेखा से उपर रह रहे लोगों की सरकार से हो रही निराशा को ज्यादा अभिव्यक्त कर रहे हैं। लोग यह समझ रहे हैं कि सरकार द्वारा निर्धारित इन अत्यल्प मापदंडों पर ऐसे कई लोग गरीबी की रेखा की परिधि से बाहर हो जा रहे हैं। हांलांकि योजना आयोग बार बार इस बात की सफाई दे रहा है कि गरीबी के इन मापदंडों से सरकार की निर्धनता उन्मूलन और सामाजिक विकास योजनाओं से क ोई वास्ता या आर्हता या पात्रता नहीं है। पर सवाल ये है कि यदि इन मापदंडों को सरकार की सामाजिक आर्थिक योजनाओं में कोई स्थान हासिल नहीं है तो फिर राज्यों में जब बीपीएल और एपीएल का सर्वेक्षण होता है तो उसमे लोगों में अपने को बीपीएल में शामिल करने के लिये होड़ क्यों मचती है? किरोसिन तेल, राशन वितरण से लेकर कई सब्सिडी आधारित स्कीमें है जिसमे बीपीएल परिवारों को जो छूटें दी जाती हैं, वह क्या है। अत: योजना आयोग का यह कथन बेबुनियाद है कि गरीबी के मापदंड को किसी योजना का आधार नहीं बनाया जाता। यदि हम योजना आयोग के इस कथन को हम थोड़े देर के लिये सही भी मान लें तो फिर प्रश्र यही उठता है कि आखिर इन आंकड़ों को वह प्रदर्शित क्यों कर रहा है अगर गरीबों की योजनाओं से इसका कोई वास्ता नहीं है। मतलब साफ है कि आयोग इन आंकड़ों के जरिये इस चुनावी साल में यूपीए सरकार को गरीबी दूर करने का श्रेय दिलवा रही है।
पर गरीबी रेखा के नीचे की आबादी में आई कमी का सरकार का आंकड़े गत दावा लोगों पर उल्टा पड़ रहा है और रही सही कसर सत्तारू ढ़ दल के प्रवक्ताओं ने अपने बयानों से पूरा कर जनता के रोष को और भडक़ाने का काम कर दिया है।
 पार्टी प्रवक्ताओं ने 1 रुपये में , 5 रुपये में और 12 रुपये में खाना मिलने की बात बताकर जनता के सामने अपना मजाक बनवा चुुके है। इन लोगों ने इस बात के जरिये यह साबित करने की कोशिश क ी योजना आयोग का आंकड़ा सही है और गरीब इस निर्धारित राशि में आराम से अपना गुजारा कर सकता है। जबकि इन प्रवक्ताओं ने यह नहीं बताया कि एक गरीब को भोजन के अलावा कपड़े, मकान किराया, शिक्षा व स्वास्थ्य पर भी खर्चे के लिये पैसे चाहिए।
कुल मिलाकर  देश में समूची गरीबी की अवधारणा ही कठघरे में आ चुकी है। चलिए हमने गरीब मापदंड की अत्यल्प राशि पर चर्चा और अपने रोष जाहिर कर ली । पर उन लोगों पर चर्चा कब होगी जो सरकार के निर्धारित इन्हीं मापदंडों पर करीब 29 करोड़ लोग जो गरीबी रेखा के नीचे है। आखिर उनकी स्थिति तो बिल्कुल अभावों में नारकीय जीवन जीने जैसी होगी। इस पर न तो लोगों की रोष भरी प्रतिक्रिया आ रही है और ना ही मीडिया इस बात को रेखांकित कर रहा है।
आखिर इन लोगों को देश की आर्थिक प्रगति की मुख्यधारा में आने में कितना वक्त लगेगा? हम ये नहीं कहते कि ऐसी कोई जादू की छड़ी है जो रातोरात देश में निर्धनता का उन्मूलन कर देगी। पर उस गरीबी  हटाओं नारे का क्या हुआ जो आज नहीं करीब 42 वर्ष पूर्व कांग्रेस पार्टी ने दिया था। यह कोई छोटी काल अवधि नहीं है अगर इस दौरान गरीबों की संख्या में पर्याप्त कमी नहीं आई और न ही देश में गरीबों के लिये एक सतत बेहतर अवसर का माहौल भी पैदा हो पाया।  ऐसे में कुल मिलाकर सरकार द्वारा चलायी जाने वाली तमाम निर्धनता निवारण योजनाओं की प्रभावशीलता हीं प्रश्र चिन्ह के घेरे में है। चाहे वह 1991 के पूर्व का सरकारी योजनाओं आधारित योजनाओं का काल हो या 1991 के बाद का उच्च आर्थिक विकास दर से रिसकर गरीबों के लिये मिलने वाले आर्थिक अवसरों का काल हो , दोनो कालों के दौरान भ्रष्टाचार, कुप्रबंधन और नीतिगत संकटों से देश को मुक्ति नहीं मिल पायी इसका नतीजा ये हुआ कि देश में गरीबी का उन्मूलन थोड़ा बहुत उच्च विकास दर से रिसने वाले अवसरों से थोड़ा बहुत हुआ जब उन्हें महानगरों व बड़े शहरों में पलायन के जरिये रोजगार मिला और उनसे प्राप्त मजदूरी ने मनीआर्डर इकोनॉमी को अंजाम दिया।
महत्वपूर्ण बात ये है कि मौजूदा यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल में जिन गरीबी निवारण योजनाओं को कानूनी व संवैधानिक कवच प्रदान किया, वे योजनाएं अपने लक्ष्य प्राप्त करने में नाकामयाब साबित हुई। बड़े जोर शोर से लाया गया मनरेगा योजना इतनी महान असफल क्यों हुई? भारत जैसे देश में जहां भ्रष्टाचार, कमीशन, और कुप्रबंधन इतने गहरे तक व्यवस्था में पैठे हुए हैं, वहां मनरेगा योजना के उददेश्यों की पूर्ति हो जाएगी, यह कल्पनातीत बात है। अंतत: हमे यह बात स्वीकार करनी होगी कि मनरेगा योजना एक राष्ट्रीय भूल थी। क्योंकि इस योजना के अनुसार इसकी 70 फीसदी राशि मजदूरी के रूप में खरचनी थी और इसके तहत कराये गए काम जहां मिट्््््््््टी कटायी व लघु सिचाई जैसी परियोजनाएं निर्धारित की गयी हों वहां इसकी राशि का बंदरबांट तय थी। यह योजना ना तो प्राप्ति मूलक पूर्ण रोजगार प्रदान करने में सफल हो पायी और ना ही यह समुदाय में उत्पादन मूलक परिसंपत्तियों का सृजन कर पायी जिससे गांव समुदाय में रोजगार के निरंतर अवसर पैदा हो सके।
 उपर से इसने अर्थव्यवस्था में वित्तीय घाटे और मुद्रा स्फीति में भारी बढ़ोत्तरी के हालात पैदा कर दिये। अगर मनरेगा में हर साल खर्च होने वाला 30-40 हजार करोड़ रुपया गांवों में बुनियादी संरचना मसलन सडक़ स्कूल अस्पताल निर्माण, गैर परंपरागत उर्जा के दोहन, डेयरी मत्स्य व खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों की स्थापना व मंडी सुविधाओं की उपलब्धता पर खरचा जाता। यदि यह राशि गांवों में सामाजिक सुरक्षा के व्यापक नेटवर्क स्थापित करने पर किया जाता और मानव विकास के मदों शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं की बहाली पर किया जाता तो गरीबी में गिरावट तो होती ही अर्थव्यवस्था का बुनियादी स्वरूप भी मजबूत होता।
अत: आज की तारीख में गरीबी की मापदंड पर छिड़ी बहस में हमारे योजनाकारों और सरकार के नीति निर्माताओं को यह तय करना होगा कि वह भारत में गरीबी से किन तरीकों  से निपटना चाहते हैं। भारत में डिलीवरी सिस्टम हमेशा की तरह आज भी सवालों के घेरे में है। जहां किसी भी योजना के संचालन की नौकरशाही लागत काफी ज्यादा है। जहां देश का मजदूर वर्ग भारी तादात में अकुशल है, जहां सरकारी योजनाएं लगातार विफल होती रही हैं, वहां एक ही उपाय नजर आता है कि हम देश की मौजूदा सभी निर्धनता निवारण योजनाओं की व्यापक रूप से पुनर्समीक्षा कर उन्हें इस तरह से पुनर्निर्धारित करें जिससे उनमे बाजार का एक उच्च गुणवत्ता वाली नियमन प्राधिकरण के मातहत प्रभावी तरीके से उपयोग हो।
गरीबी दूर करने का रोजगार मुहैय्या कराने से बेहतर तरीका और कोई नहीं हो सकता। इसके बाद हम सामाजिक सुरक्षा का व्यापक नेटवर्क और ग्रामीण बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता व मानव विकास की बेहतर परिरिस्थितियों के निर्माण पर भारी निवेश को स्थान दे सकते हैं। इन बातों के मद्देनजर देश के नीति निर्माताओं को खाद्य सुरक्षा, मनरेगा और कर्ज माफ ी जैसी योजनाओं को तिलांजली देनी पड़ेगी जो गरीबी दूर करने के बजाए देश की आर्थिक परिस्थितियों को प्रतिकूल बनाने का काम कर रही है।
गरीबी की मापदंड की व्यवहार्यता पर जब हम चर्चा करते हैं तो हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में गरीबी का कोई ध्रूवीय स्वरूप नहीं है। अमीरों और गरीबों दोनों में कई श्रेणियां है। जिस तरह से हम पेशेवर रूप में कृषि में पाते हैं कि हमारे यहां सीमांत किसान है, लघु किसान हैं, भूमिहीन किसान हैं। इसी तरह से मजदूरों में अकुशल,अर्धकुशल,कुशल और पेशेवर सभी तरह के हैं। इसी तरीके से हम भारत में गरीबों का अध्ययन करते हैं तो हमे एक तरह के गरीब नहीं मिलते हैं कुछ अति निर्धन, कु छ निर्धन है, कुछ निम्न मध्य वर्ग के है। अगर हम इस तरीके से गरीबों की ग्रेडिंग करते हैं तो यह तरीका ज्यादा वैज्ञानिक है और यह निर्धनता निवारण की योजनाओं के निर्माण में ज्यादा बेहतर तरीके से प्रदान कर सकता है। अगर हम देश में संगठित व असंगठित वर्ग के आधार पर श्रमिकों का विभाजन करते हैं तो यह एक बेहतर पैमान हो सकता है क्योंकि देश के 85 प्रतिशत श्रमिक असंगठित वर्ग के हैं और इनकी मजदूरी किसी मूल्य सूचकांक से नहीं जुड़ी है। जब हम गरीबी की चर्चा करते हैं तो हम केवल उसकी मौद्रिक आमदनी के आधार पर उसका आकलन नहीं कर सकते, बल्कि उसके उपभोग की मात्रा और उसका पैटर्न बहुत मायने रखता है। एक व्यक्ति की आमदनी का यदि 75 प्रतिशत हिस्सा केवल खाद्य वस्तुओं पर खर्च हो जाता है तो मेरी समझ से वह निर्धन है। जबकि मौजूदा गरीबी रेखा की आमदनी एक आदमी की दो जून क्या एक जून का भोजन खर्च निकालने में नाकाफी है।
बिना किसी गरीबी निर्धारण कमेटी के मापदंडों के औचित्य के विवाद में पड़े चाहे वह तेंदुलकर कमेटी हो या अहलूवालिया कमेटी हो या रंगराजन कमेटी, बेहतर यही है कि गरीबी की विभिन्न श्रेणियां तैयार की जाए जो देश की सामाजिक आर्थिक स्थिति की एक ज्यादा बेहतर तस्वीर प्रदान करेगी साथ ही योजनाकारों को गरीबी निवारण योजनाओं के निर्धारण का एक बेहतर आधार प्रदान करेगा। इससे बीपीए और एपीएल का विवाद सदा के लिये खत्म हो जाएगा।
लेखक इकोनॉमी इंडिया के संपादक और भारतीय युवा पत्रकार संगठन के अध्यक्ष हैं

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