Saturday, September 28, 2013

भारतीय अर्थव्यवस्था का पराभव काल

भारतीय अर्थव्यवस्था का पराभव काल

मनोहर मनोज
१९९० के दशक को भारतीय अर्थव्यवस्था का संक्रमण काल मानकर नयी आर्थिक नीति आधारित अर्थव्यवस्था की जब १९९१ में नयी नींव डाली यी तब  देश के अर्थनीति निर्माताओं को इस बात का अनुमान नहीं रहा होगा अगले २००० के दशक के दौरान इन अर्थनीतियों के परिणाम के तहत भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च विकास दर का वाहक बनेगी । पर २०१० के दशक के आविर्भाव के साथ ही हमारी नयी आर्थिक नीति आधारित यह विकास गाथा थिरक जाएगी, इस बात का अनुमान भी हमारे अर्थनीतिकारों के कल्पना से बाहर की बात साबित हुई । आज यह हकीकत है कि करीब दस फीसदी विकास दर क ी कुलंाचें भरने वाली भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर अब घटकर उसकी आधी रह गयी है ।
   यही नहीं अर्थव्यवस्था के जिन मौलिक निर्देशांकों को पटरी पर लाया गया था वे अब पटरी से नीचें खिसकने लगे हैं । पिछले चार सालों के दौरान न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर लगातार गिर रही है बल्कि घरेलू स्तर पर देश का वित्तीय घाटा ६ फीसदी और बाह्य स्तर पर चालू खाता  पांच फीसदी से उपर जा चुके हैं । मुद्रा स्फीति की दर दहाई अंकों तथा खाद्य स्फीति की दर जो दो दहाई अंको को विगत में पार कर चुकी थी, वह अभी भी बहुत आरामदेह स्थिति में नहीं है ।
 देश में निवेश का गिरता वातावरण, निर्यात में अपेक्षित बढोत्तरी ना हो पाने के साथ साथ हम जिस विदेशी मुद्रा के बढते भंडार पर इतरा रहे थे, वे अब सिमटने लगे हैं । इन सबके बीच भारतीय रुपये का हो रहा भारी अवमूल्यन चिंता का भारी सबब बना है । भारतीय रुपया जो ठीक एक साल पूर्व ५० रुपये के आसपास था वह अमेरिकी फेडरेैंक बैंक के गवर्नर बेन बेनेनकों के बयान के बाद संभलने का नाम नहीं ले रहा है ा पहले तो यह माना जा रहा था कि जो भारत की अर्थव्यवस्था सोने के भारी आयात से भुगतान संकट का सामना कर रही थी वह रुपये के अवमूल्यन के बाद सोने के बेहिसाब आयात पर लगाम लगाएगी । पर यह अवमूल्यन अर्थव्यवस्था के लिये कुछ ज्यादा ही अहितकारी साबित हो रहा है । देश में भारी मात्रा में आयात किये जाने वाले कच्चे तेल की आयात लागत काफी ज्यादा बढ गयी नतीजतन पिछले एक महीने के दौरान पेट्रोल की कीमतों में तीन बार बढोत्तरी की जा चुकी है । इसी तरह डीजल के मूल्यों में बढोत्तरी अपेक्षित है । जाहिर है कि इससे हमारा पहले से प्रतिकूल भुगतान संतुलन और प्रतिकूल होगा और चालू खाते का घाटा और बढता जाएगा । मौजूदा परिस्थिति में भारतीय मुद्रा रुपये को थामने के लिये रिजर्व बैंक के शुरूआती प्रयास बेकार साबित हुए जब रिजर्व बैंक ने खुले बाजार में डालर बेचने शुरू किये ।
कहना न होगा मौजूदा परिस्थितियों में भारत सरकार हर स्तर पर विदेशी निवेश बढाने की जद्दोजहद में लगी है । वित्त मंत्री पी चिदंबरम लगातार विदेश यात्राओं पर हैं । केन्द्र सरकार ने आनन फानन में एक दर्जन क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई को या तो खोल दिया है या उनकी निवेश सीमा में बढोत्तरी कर दी है । इनमे से कई क्षेत्रों में बिना विदेशी निवेश प्रोत्साहन बोर्ड और केबिनेट की मंजूरी के ४९ प्रतिशत तक का निवेश खोल दिया गया है । इन सबका मकसद है विदेशी निवेश गाहे बगाहे देश पहुंचे जिससे चालू खाते के घाटे पर काबू पाया जा सके साथ ही गिरते रुपये को थामने के लिये रुपये की विदेशी साख को मजबूत किया जा सके । पर गिरते रुपये पर भारत सरकार ने तात्कालिक रूप से काबू पाने के लिये रिजर्व  बैंक के साथ मिलकर बैंक दर सीधे दो प्रतिशत बढाने का जो फैसला लिया है वह देश के घरेलू निवेशकों के लिये नागवार गुजरा है । जो देशी निवेशक बैंक दरों में कमी और ब्याज दरों में कमी लाने की पिछले दो सालों से मांग कर रहे थे और रिजर्व बैंक मुद्रा स्फीति का हवाला देकर उसमे कमी करने को तैयार नहीं हो रहा था उसे अब रुपये की डालर के मुकाबले हो रही गिरावट को थामने के लिये कुनैन का कडवा घूट पिलाना पड़ रहा है और नतीजतन बैंक दर में दो फीसदी की बढोत्तरी कर कर्ज को और महंगा करना पडा है । ये बात अलग है कि वित्त मंत्री ने बैंको को खासकर सरकारी बैंकों को कर्ज  दर नहीं बढ़ाने का निर्देश दिया है ।
यानी कुल मिलाकर भारतीय अर्थव्यवस्था का यह संक ट काल चल रहा है जहां सरकार यह तय नहीं कर पा रही है कि इन संकटों का आखिर समाधान कहां छिपा है। पर अब सवाल ये है कि दो दशक पूर्व के अर्थव्यवस्था के संक्रमण काल, विकास काल के बाद यह संकट काल कैसे आ गया ,इस बात को हम देखने का प्रयास करें । १९९० के दशक के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में नयी आर्थिक नीति के तमाम उद्देश्यों के तहत हमने वित्तीय अनुशासन की जो नीति बनायी, जिसके तहत हमने देश के वित्तीय घाटे को करीब ९ प्रतिशत से घटाकर २०१० तक ढ़ाई प्रतिशत लाने का जो लक्ष्य रखा उसमे यूपीए-१ के कार्यकाल में घोर अनुशासनहीनता बरती गई और अर्थव्यवस्था पर राजनीति और चुनाव को प्रमुखता देेते हुए यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी के निर्देश पर २००८ में वित्त मंत्री ने करीब ७० हजार करोड रुपये की लागत पर किसानों की कर्ज माफी, करीब ४० हजार करोड रुपये की सालाना लागत पर मनरेगा जैसी अनुत्पादक व खानापूर्ति वाली रोजगार परियोजना तथा छठे वेतन आयोग की अनुशंसाओं को लागू कर युपीए ने अपने लिये विजयी वोटों का इंतजाम कर लिया पर अर्थव्यवस्था में वित्तीय घाटे का आकार सकल घरेलू उत्पाद का जो साढ़े चार प्रतिशत था वह तुरत साढे छह प्रतिशत पर चला गया । और इसके बाद से ही अर्थव्यवस्था में तमाम खामियों का आगमन शुरू हो गया जिसकी परिणति हमे दहाई अंकों की मुद्रा स्फीति, खाद्य स्फीति, मंदी और निम्र विकास दर के रूप में देखने को मिल रही है । मजे की बात ये है कि मौजूदा साल भी चुनावी साल है और अर्थव्यवस्था की खस्ता  हाल देखते हुए यह सरकार पिछले बजट  में कई मामलों में अपने आप पर संवरण करते हुए वित्तीय अनुशासन बनाये रखने की ओर उन्मुख दिखी है । पर इस बार भी  चुनावी गेमचेंजर प्लान युपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में बनकर अधिसूचना का शक्ल ले चुका है जिसमे देश क ी करीब ६७ करोड आबादी को दो रुपये गेहूं और तीन रुपये चावल प्रदान किया जाएगा और इस वोट कै चिंग स्कीम पर ज्यादा नहीं एक लाख बीस हजार करोड रुपये खरचे जाएंगे । जबकि मौजूदा बजट में वित्त मंत्री चिदंबरम ने इसके लिये महज बीस हजार करोड़ रुपये का प्रावधान किया है । प्रश्र ये है बाकी एक लाख करोड रुपये का प्रबंध सरकार कहां से करेगी । जाहिर है ये खाद्य सब्सिडी की रकम जो गैर योजना खर्चो के मदों में सम्मिलित होती है इसके लिये किसी योजना खर्चे में कटौती की जाएगी  या नये नोट छापे जाएंगेे । दोनो ही सूरत में देश के वित्तीय घाटे का आकार बढ़ेगा जबकि वित्त मंत्री चिदंबरम वित्तीय अनुशासन को बनाये रखने का बहुत पहले से ढोल पीट रहे हैं । और ये सारी कवायद यूपीए सरकार समावेशी विकास के नाम पर कर रही है । हकीकत ये है कि यह समावेशी विकास नहीं है बल्कि जनता के  पैसे का यह अनुत्पादक इस्तेमाल है । समावेशी विकास का लक्ष्य तब हासिल होगा जब देश के सभी कमजोर तबकों के हाथ में अपने जीवन स्तर को बेहतर करने के लिये पर्याप्त क्रय शक्ति होगी, जिसके लिये उन्हें या तो पूर्ण रोजगार या तो पूर्ण सामाजिक सुरक्षा या तो फिर उनके लिये पूर्ण सामाजिक आर्थिक आधारभूत संरचना की उपलब्धता प्रदान करनी होगी । इन तीनों मोर्चो पर यूपीए सरकार विफल व इच्छाशक्ति विहीन साबित हुई है । इसीलिए वह शार्ट कर्ट तरीकों का इस्तेमाल कर रही है । तभी तो इस सरकार ने खाद्य सुरक्षा के आगेे व्यापक भ्रष्टाचार की संभावना और देश की खेती किसानी की तबाही का अनुमान नहीं लगा पायी ।
जाहिर है हमारे देश में आर्थिक संकटों का मूल देश की राजनीतिक दलों और सरकार की चुनावी मजबूरियों में छिपा हुआ है जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था की यह गड्डमड्ड स्थिति बनी हुई है । पर अब सवाल ये है कि देश की अर्थव्यवस्था की बेहतरी देश की जनता के भले के लिये है और देश के राजनीतिक दल भी अपनी राजनीति देश की जनता के भले के लिये करते हैं तो फिर इन दोनों के बीच विरोधाभास क्यों है ? बात साफ है देश की राजनीति वास्तव मे देश की जनता के भले के लिये नहीं हो रही है बल्कि यह देश के राजनीतिक दलों को येनकेनप्रकारेण सत्ता पाप्त करने और इसे चलायमान बनाने जाने के लिये हो रही है । यही वजह है कि हमारे देश में पहचान व भावुकता आधारित राजनीति तथा लोकलुभावन आर्थिक घोषणाओं पर आधारित राजनीति का वर्चस्व आज भी बना हुआ है । क्योंकि संविधान में इस तरह की राजनीति पर प्रतिबंध नहीं है । सारे राजनीतिक दल शार्ट कर्ट तरीके से ऐसे काम करते हैं जो जो गाहे बगाहे उन्हे सत्ता मे तो ला देता है पर यह समाज को विश्रृंखल और अर्थव्यवस्था का कबाड़़ा कर देती है ।
अब तो सुप्रीम कोर्ट और कुछ हाई कोर्ट ने देश में राजनीतिक सुधारों को लेकर अभी हाल में कई फैसले दिये । इनमे विधानमंडलों के प्रतिनिधि के किसी अपराध में सजा मिलने के बाद उनकी सदस्यता समाप्त हो जाने, देश में जाति आधारित रैलियों और सम्मेलनों पर प्रतिबंध लगाने और सरकारों द्वारा लोकलुभावन घोषणाओं पर प्रतिबंध लगाने संबंधी कई अहम फैसले दिये है जो देश की राजनीति में मूलभूत सुधारों का मार्ग प्रशस्त करेंगे साथ ही देश की अर्थव्यवस्था में दीर्घकालीन अनुकूल परिस्थितियों का आविर्भाव करेंगे जिससे हमे मौजूदा तरह की समस्याओं से दो चार नही होना पड़ेगा और साथ हीं देश में लोकतंात्रिक राजनीति की उस संस्कृृति का बीजारोपण होगा जो केवल गुड गवर्नेन्स आधारित एक विशुद्ध प्रतियोगी लोकतंत्र होगा ।

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