Saturday, May 9, 2015

खेती का संकट और जमीन अधिग्रहण की राजनीति

मानव सभ्यता के सबसे पुराने पेशे खेती से जुड़े कई मुद्दे को लेकर चर्चा बेहद गर्म है। इसमे पहला है भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर हो रही राजनीति, दूसरी बेमौसम बारिश से रबी फसलों को हुई बेहद तबाही से किसानों पर आए माली संकट तथा तीसरी किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या। इन तीनों मसलों पर विपक्षी कांग्रेस पार्टी और सत्तारूढ़ भाजपा दोनों पूरे तौर से आमने सामने हैं। भूमि अधिग्रहण को लेकर विगत में कांग्रेस नीत यूपीए ने लंबी विमर्श प्रक्रिया के बाद जो कानून बनाया उसे मौजूदा मोदी सरकार विकास विरोधी बताकर उसे संशोधन के साथ पेश करना चाहती है। इस विधेयक को लोकसभा में पारित किया जा चुका है परंतु राज्यसभा में बहुमत के अभाव में यह बिल अभी लटका हुआ है।
विपक्षी पार्टियां मोदी सरकार को किसान विरोधी बता रही हैं क्योंकि सरकार किसानों की जमीन बिना उनकी इच्छा के ही अधिग्रहण करने पर आमादा है। विगत में यूपीए नेे भूस्वामियों की 7० फीसदी रजामंदी मिलनेे की स्थिति में ही जमीन अधिग्रहण को वैधानिक बनाने का प्रावधान लाया था। इसके विपरीत मोदी सरकार का मत ये है कि इस क्लौज से जमीन अधिग्रहण का कार्य बाधित होगा, परियोजनाओं की निर्माण अवधि विलंबित हो जाएगी। इस प्रावधान के बजाए मोदी सरकार का कहना है कि वह किसानों को मुआवजा ज्यादा देगी और विकसित जमीन में उन्हें हिस्सेदारी देगी तथा परियोजनाओं में भूस्वामी के परिवार को रोजगार देगी।
विपक्षी कांग्रेस का कहना है कि मोदी सरकार कारपोरेट समूहों के दबाव में उनके हितों का ध्यान रखकर जमीन अधिग्रहण करना चाहती है जो शहरीकरण और औद्योगीकरण की उनकी तमाम परियोजनाओं में काफी मददगार होगी। साथ ही इस पर कई लोगों का मानना है कि रियल इस्टेट के विकास से किसानों के जमीन की जो आज की तारीख में कीमत है अगले पांच सालों में उसकी कई गुना कीमत बढ़ेंगी और कारपोरेट इसी कार्य से कई गुना मुनाफा अर्जित कर लेंगे। दूसरी तरफ मोदी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा का कहना है कि अधिग्रहित की गयी जमीन कारपोरेट के लिये नहीं बल्कि गांवों के सामुदायिक विकास मसलन स्कूल, अस्पताल, सड़क, सिचाई परियोजना के लिये ही केवल इस्तेमाल की जाएगी।
किसानों के समक्ष अभी एक और नया प्रश्र आ गया है वह है बेमौसम की बारिश से रबी फसलों की हुई भारी तबाही। फरवरी मार्च और अप्रैल के पहले हफते में हुई बेमौसम की पचास प्रतिशत अतिरिक्त बारिश से गेहूं तथा रबी की फसलों को भारी नुकसान हुआ है। खेती वैसे ही घाटे का पेशा रही है, रही सही कसर इस बार बेमौसम की बारिश ने पूरी कर दी। इससे या तो रबी की फसले नष्ट हो गयीं । या फिर उनमे अनाज के दाने बनने बंद हो गए। या फिर बने दाने पूरे तौर से परिपक्व नहीं हो पाए। उम्मीद है रबी के उत्पादन में जिसकी कृषि मंत्री ने पहले जो 2 से 3 फीसदी पैदावार कम होने का अनुमान लगाया था वह नुकसान दरअसल अब 25 से 3० फीसदी का अनुमानित हो गया है।
किसानों में तो इससे त्राहिमाम तो मच ही गया साथ ही आने वाले दिनों में गेहूं की कीमतों में भी भारी बढ़ोत्तरी के अनुमान लगाये जा रहे हैं। परंतु विपक्ष के मोदी सरकार पर किसान विरोधी ताने कसने के बावजूद इस सरकार ने किसानों को मिलने वाले राहत में अभूतपूर्व वृद्धि की है जो न्यूनतम रूप से डेढ़ गुनी ज्यादा है। इसके साथ ही फसल नुकसान का मानदंड भी उदार बनाया है जिसमे 5० फीसदी से ज्यादा फीसदी नुकसान के बजाए 33 फीसदी नुकसान पर ही राहत दिया जाएगा। इसी के साथ एक और खेती से जुड़ा तीसरा मसला काफी सुर्खियां बटोर रहा है वह है किसानों की बरसों से हो रही आत्महत्याएं जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही हंै। यानी जो भाजपा यूपीए शासन के दौरान ना रुकने वाली आत्महत्याओं पर लगातार हमले कर रही थी वह सबसे ज्यादा आत्महत्या होने वाले राज्य महाराष्ट्र और राष्ट्र दोनों जगह सतारूढ़ होने के बाद अब जबाब देने की स्थिति में नहीं हैं।
उपरोक्त तीनों स्थितियां मसलन भूमि अधिग्रहण, खेती पर मंडराने वाली मौमम व तमाम अनिश्चितताओं की मार तथा इसके घाटे क ा पेशा होने तथा तीसरी किसानों की ना रुकने वाली आत्महत्याएं हमारे सामने तीव्रता से मौजूद हैं। देखा जाए तो पहले भूमि अधिग्रहण का कानून जो अबतक 1894 में बने कानून के तहत चल रहा था उसे सुधारने में करीब 12० सालों की देरी ही अपने आप में बेहद विडंबनाजनक है। पर आजादी के करीब 68 सालों में इस पर की गयी पहल भी कई सवाल छोड़ती है। पहला ये  कि भूमि सुधार का मुद्दा जो जमींदारी और महालवारी उन्मूलन और सीमा से उपर रखने वाले जमीनों के भूमिहीनों के बीच वितरण से उठा वह करीब चार दशकों के उपरांत भी अनसुलझा रहा।
प्रख्यात समाजसेवी बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन की गैर सरकारी पहल भी इसे अंतिम परिणति पर नहीं ले जा सकी । बंगाल को छोड़कर देश के कोई भी राज्य इस पर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति नहंी दिखा सके। करीब 7० फीसदी भूमिहीन, सीमांत और लघु कृषकों की आबादी और 3० फीसदी भूस्वामियों की आबादी से जुड़ा भूमि सुधार का मुद्दा धीरे धीरे इसलिये अप्रासंगिक हो गया क्योंकि पीढ़ी दर पीढ़ी खेतों के जोत का आकार छोटा होता गया। खेती के बजाए लोगों को सेवा और उद्योग क्षेत्र में उत्पादकता और आमदनी ज्यादा दिखने लगी।
देश में शहरीकरण और औद्योगीकरण की चाह ने लोगों को जमीन के स्वामी बनने और उसकी ज्यादा लागत और कम उत्पादकता होने की वजह से इसके प्रति उदासीन कर गई। ऐसे में भूमि सुधार का सामाजिक-आर्थिक एजेंंडा राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र से बाहर होता गया और इस पर सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी क्षीण होती चली गयी। 199० के दशक तक ठंडा पड़ चुका भूमि सुधार का एजेंंडा दो दशकों बाद अब भूमि अधिग्रहण के रूप में आया है। पर इस भूमि अधिग्रहण एजेंडे को हमें भूमि सुधार के स्थानापन्न एजेंडे के रूप में देखना अनुचित होगा क्योंकि दोनों मुद्दों के परिप्रेक्ष्य बिल्कुल अलग हैं।
भारत की तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियेां में कृषि जब देश की सबसे मुख्य पेशा थी और भूमि का वितरण असमान था, जब देश की 7० प्रतिशत भूमि देश के 25 प्रतिशत लोगों के कब्जे में थी, तब भूमि सधार का एजेंडा अव्वल बना हुआ था।
इसी तरह आज का दौर गांवों के शहरीकरण का है, कृषि के औद्योगीकरण का दौर है। ऐसे में भूमि अधिग्रहण का एजेंडा उन्हीं भूस्वामियों से जुड़ा हुआ दिखता है जिनकी जमीन महानगरीय व शहरी इलाके में है या इनके सीमांत इलाकों में स्थित है। हो सकता है ये भूस्वामी पहले के जमीनदार हो या बड़े किसान रैयत हों या ये भी हो सकता है कि लघु किसान ही हो, परंतु ये जो भी हो आज इन्हें अवसर का एक बड़ा फायदा मिल रहा है, जो शहरीकरण व औद्योगीकरण से प्राप्त हुआ है। और यही वजह है कि ये जमीन चाहे उत्पादकता की दृष्टि से उसर ही क्यों ना हो, उसकी बेशुमार कीमत मिल रही है।
वह कीमत जो देश के दूरदराज पिछड़े, वीरान इलाके के किसी किसान या भूस्वामी को नहीं प्राप्त होगी क्योंकि इनके पास शहरीकरण और औद्योगीकरण की परिस्थितियां प्राप्त नहीं हैं। दूरदराज में जिस जमीन की कीमत 5० हजार रुपये प्रति एकड़ नहीं है वह अवसर प्राप्त जगहों पर पचास लाख बल्कि पचास करोड़ रुपये में बिक रही है। इस मामले का एक बड़ा पहलू ये है कि दूरदराज के मुकाबले महानगरों और शहरों के सीमांत इलाकों के किसानों को जो बड़ी कीमत मिल रही है वह फायदे दूरदराज के किसान को क्यों नहीं मिले, क्योंकि दोनों की जमीन जमीन ही है उसमे कोई सोने और हीरे की खान नहीं है। अत: इस शहरी जमीन पर होने वाली खरीद बिक्री दोनोंं पर जमीन विकास शुल्क आरोपित होना चाहिए जो पैसा गांवों और दूरदराज के जमीनों के विकास पर व्यय होना चाहिए। कम से कम समता मूलक व्यवस्था का तकाजा तो यही है।
अब इसका दूसरा पहलू ये है कि दूरदराज के किसान के मकाबले शहरी इलाकों के किसान को जहां अवसरगत भारी लाभ मिल रहा है वहीं शहरी इलाकों के विकास प्राधिकरण, रियलटर, निवेशक और औद्योगिक परियोजना कर्मी इस अवसर से मूल्यवान हुई जमीन की जो कीमत इसके स्वामी को दे रहे हैं इसका कई गुना ज्यादा वे वैल्यू एडीशन कर रहे हैं और इसके मुकाबले इसके भूस्वामी को जो हरजाना या कीमत दे रहे हैं वह वास्तव में परियोजना रिटर्न के हिसाब से बहुत नहीं है। ऐसे में सरकार यदि  बिना किसी किसान लाबी के दबाव में आए और बिना किसी कारपोरेट और रियल्टी सेक्टर की लाबी के दबाव में आए उचित और न्यायपूर्ण फ ैसला लेना चाहती है तो उसके लिये हम ये उपाय और सुझाव देनाा चाहते हैं:
1 जमीन की खरीद बिक्री और स्टाक बनाये रखने के लिये लैंड बैंक की अवधारणा शुरू की जाए जिसमें जमीन की खरीद व बिक्री कीमतें एक अर्धन्यायिक प्राधिकरण के द्वारा तय की जाएं। 2 चूंकि भारत में संपत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार हैं इसके तहत किसी भूस्वामी के पास परिस्थितिजन्य तरीके से शहरी व इसके सीमांत इलाके में यदि जमीन हंै तो उसे बेंचने का उसका मौलिक अधिकार बनाये रखना चाहिए। उसे बेचने का कार्य या तो उसकी स्वेच्छा से मार्केट रेट के जरिये या लैंड बैंक के जरिये उसे दोनों आप्शन प्रदान करना चाहिए। परंतु इसके साथ एक क्लाज जोड़ा जाना बेहद जरूरी है कि यदि इस जमीन पर पहले एक साल तक परियोजना की शुरूआत नहीं होती है तो इसके बाद इसकी बढ़ी कीमतों का पचास प्रतिशत किसानों को दिया जाना अनिवार्य कर देना चाहिए। क्योंकि इस आरोप में दम है कि किसानों से क्रय की गयी लाखों एकड़ जमीनें अभी तक खाली पड़ी हैं और इसकी कीमतों में बढ़ोत्तरी का फायदा भूमि क्रेता द्वारा लिया जा रहा है। जैसा कि बताया जाता है कि सेज परियोजना के जरिये देश की करीब 5 लाख एकड़ जमीन अभी तक परियोजना विहीन है और खाली पड़ी हुई है।
जहां तक सार्वजनिक हित से जुड़ी किसी परियोजना का सवाल है मसलन सड़क, रेलवे, स्कूल, अस्पताल तो इसके लिये सरकार जबरन अधिग्रहण करें पर इसमें भूस्वामी को हिस्सेदार बनाए चाहे उन्हें विकसित जमीन का हिस्सा देकर हो या इस पर स्थापित परियोजना में उसके परिवार में नौकरी देकर हो या इस परियोजना के संचालक मंडल में उस भूस्वामी को शामिल कर हो। जहां तक सामरिक व रक्षा मसले पर किसानों की जमीन अधिग्रहण की बात है तो इस पर कोई विवाद ही नहीं है। इस तरह देखा जाए तो कुल मिलाकर लैंड बैंक की अवधारणा सभी तरह के विवादों को बेहतर तरीके से दूर कर सकती है।
गौरतलब है कि महानगरीय व शहरी इलाकों के तथा इसके सीमांत इलाकों के किसान अपनी जमीनें खेती के लिये नहीं रखना चाहते क्योंकि उन्हें मालूम है कि इससे उन्हें ज्यादा फायदा नहीं हैं। खेती की लागतें बहुत हैं और इनके उत्पादों के दाम पर्याप्त नहीं हैं। साथ ही खेती में लेबर प्राब्लम है। ऐसे में ये किसान यहीं चाहते हैं कि उनकी जमीन की ज्यादा बेहतर कीमत मिले या वह शहरी सुविधाओं से परिपूर्ण हो। ऐसे में जमीन अधिग्रहण के लिये 7० प्रतिशत की सहमति का क्लाज या तो एक तरफ लोकतांत्रिक अधिकारों के नाम पर ज्यादा मोल जोल करने या फिर मोलजोल की राजनीति को जन्म देगी। इस मामले का दूसरा पहलू ये है संपत्ति के मौलिक अधिकार के तहत तो या तो 1०० प्रतिशत का क्लाज रखिये क्योंकि 3० प्रतिशत लोग जो इस बिक्री से असहमत हैं उनके मौलिक अधिकारों का हनन क्यों  हो।
इस मामले का विलोम पहलू ये है कि यदि विकास की अरजेंसी यानी तत्परता की अवधारणा को महत्व देने की बात है तो फिर 7० प्रतिशत का भी क्लाज क्यों, जैसा कि मोदी सरकार सोचती है। ऐसे में जो उपरोक्त सुझाव दिये गए हैं वो ज्यादा न्यायसंगत हैं। यदि हम हर जगह जमीन बैंक प्रणाली शुरू करते हैं जिसकी खरीद व बिक्री वैधानिक दरों पर बाजार परिस्थितियों के मुताबिक निर्धारित की जाएं तथा इसे बाजार दर पर भी बेचने की छूट हो। परियोजना की देरी होने पर इस दौरान जमीन मूल्य वर्धन का एक हिस्सा किसानों को दिया जाए । साथ ही शहरी अवसरों से क्रेता व बिक्रेता को मिलने वाले फायदे का कु छ हिस्सा करों के जरिये वसूल कर दूरदराज के ग्रामीण इलाकें के भूमि विकास पर खर्च हो।
जमीन अधिग्रहण से जुड़ा एक बड़ा पहलू ये है कि किसानों के हमदर्द होने का जो दावा सरकार कर रही है कि वह किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा देगी। जबकि हकीकत ये है कि ये बाजार दर विकास प्राधिकरणों की कृषि भूमि की तय की गई कीमतें जो मुश्किल से सैकड़ों में होती है, उसकी चौगुनी दरें भी किसानों को लाभान्वित नहीं कर पाएगी। किसानों को तबतक जमीन अधिग्रहण से मौद्रिक फायदा नहीं होगा जबतक इनकी जमीनों को लैंड यूज नहीं बदला जाता। लैंड यूज बदलने के बाद ही शहरी इलाकों की कृषि जमीनों की कीमतें पर्याप्त रूप से बढ़ पाती है। जाहिर है कि मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून के जरिये  लोगों का विश्वास जीतने में सफल नजर नहीं आ रही है। जबकि यह सरकार भूमि अधिग्रहण के प्रति काफी अरजेन्सी दिखा रही है, दो दो बार इस पर अध्यादेश ला चुकी है। जबकि मोदी सरकार को यह अरजेन्सी भ्रष्टाचार निवारण के बहुविध प्रयासों के लिये करने चाहिए थे।
अब हम खेती के संकट से जुड़े दूसरे मुद्दे खेती पर मौसम की मार तथा इसके घाटे के पेशे होने पर चर्चा करेंं। यह मसला हमारी उस कृषि नीति से जुड़ी है जो खाद्य सुरक्षा के नाम पर किसानों के लिये खेती को निर्वाह पेशा के रूप में बनाये रखना चाहती है ना कि लाभकारी पेशा के रूप में। इस वजह से खेती के तमाम इनपुट बीज, खाद, बिजली वगैरह पर भारी सब्सिडी खरची जाती है पर जब इसके अंतिम उत्पाद का मूल्य आंका जाता है तो पता चलता है कि वह भारी सब्सिडी के उपरांत भी दो प्रतिशत नकारात्मक हो जाती है। जाहिर है कि खेती सरकार के तमाम सहायता देने के बाद भी किसानों के लिये घाटे का पेशा है और यह नीति पिछले पचास सालों से चलायी जा रही है। पहले यूपीए सरकार के दौरान भी यही नीति थी और अब एनडीए सरकार में भी कमोबेश यही नीति चलायी जा रही है।
नयी सरकार ने सभी महत्वपूर्ण अनाजों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में केवल रूटीन ही बढ़ोत्तरी की है। मतलब ये है कि मोदी सरकार की भी कृषि दृष्टि बेहद सामान्य ही है। गौरतलब है कि राज्य सहकारी दूगध फेडरेशन द्वारा दूध उत्पादकों को दी जाने वाली दूध की कीमतें तथा गन्ना व कपास के न्यूनतम समर्थन मूल्य लाभकारी हैं, परंतु बाकी सभी फसलों चाहे अनाज हो, दलहन हो, तिलहन हों, मसाले हों या फल सबजी इन सभी की कीमतें इनकी लागतों की भरपाई करने में अक्षम हैं तथा इनकी कीमतों पर सीजन की ओवर सप्लाई का ज्यादा प्रभाव पड़ता हेै। सीजन में किसानों को कीमतें कम मिलती हैं जबकि आफ सीजन में उपभोक्ताओं को कीमतें ज्यादा देनी पड़ती हेंै जिसका फायदा इसके कारोबारियों को मिलता है। ऐसे में मोदी सरकार को खेती को लाभकारी पेशा बनाने के लिये अपनी नीतियों में बुनियादी परिवर्तन लाना होगा क्योंकि अभी तक इस मामले में जो काम कांग्रेस ने किया वही कार्य एनडीए कर रही हेेै।
अब बात करें खेती को अनिश्चितताओं और मौसम की मार से बचाने क ी। इसके लिये कृषि बीमा योजना का दायरा अभी भी बेहद छोटा है। दूसरा तरीका है आपदा राहत सहायता कोष। इसमें यदि कृषि बीमा की बात करें तो यह कहना पड़ेगा कि जबतक कि सरकार कृषि बीमा के प्रीमियम और इसकी क्षति पूर्ति को सब्सिडी ना प्रदान करे, तबतक बीमा व्यवसाय की दृष्टि से कृषि बीमा का व्यवसाय काफी नुकसानदायक है। आज रबी मौसम के फसल नुकसान को लेकर मोदी सरकार ने हरजाने को डेढ़ गुना या दो गुना बढ़ाने की बात कर रही है पर बता दें कि देश में कृषि बीमा का दायरा इतना छोटा है कि इससे देश के बहुसख्यक किसानों को राहत मिलने की बात सोचना ही बेमानी है।
बात करें कृषि बीमा की तो इसमें देश भर में पिछले 15 सालों के कुल 3० खेती सीजन के दौरान कुल 22 करोड़ किसानों का बीमा किया गया है मतलब एक सीजन में 15 करोड़ किसानों के मुकाबले औसतन करीब 75 लाख किसानों का बीमा किया गया, जिनसे 1०595 करोड़ रुपये प्रीमियम,1392 करोड़ रुपये सब्सिडी के एवज में तथा 33 हजार करोड़ रुपये हरजाने के एवज में दिये गए हेैं जिससे करीब अबतक 6 करोड़ किसान लाभानिवत हुए हैं। जाहिर है देश में किसानों की आबादी और कृषि के दायरे को देखते हुए यह स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं है परंतु भविष्य में इसक ा दायरा बढऩे की सभावना ज्यादा है।
अब जो भी उम्मीद बनती है वह सभी राज्यों में गठित आपदा राहत कोष से जिसमें 75 प्रतिशत राशि केन्द्र की और बाकी राज्यों की अपनी होती है जिसके जरिये मुआवजा दी जाती है। गौरतलब है कि सरकार को खेती को लाभकारी पेशा बनाने के मार्ग की सभी कठिनाइयों का निवारण करना चाहिए। मसलन गन्ना की कीमत सही है पर इसका त्वरित भुगतान हर हाल में सुनिश्चित करने का कानून लाना बेहद जरूरी है। इसमे दस दिन की देरी के बाद इस पर 15 प्रतिशत ब्याज की देनदारी अनिवार्य बना देनी चाहिए। तमाम फसलों के लाभकारी मूलय को सुनिश्चित करने के लिये न्यूनतम और अधिकतम मूल्य नीति का अनुपालन अनिवार्य बना देना चाहिए। देश में भंडारण की सुविधा के लिये क्रांतिकारी प्रयास किये जाने चाहिए। देश में खाद्य सब्सिडी का प्रावधान बंद कर देना चाहिए जो किसानों के उत्पाद को मिलने वाले बाजार फायदे से वंचित कर देता है। खेती को लाभकारी बनाये जाने का मतलब ही हैं कि इसे लागत युक्त मूल्य चाहे सरकारी एजेंसियां दे या बाजार दे साथ ही इसे तमाम अनिश्चितताओं से मुक्त रखा जाए।
अब हम तीसरे बिन्दू किसानों की आत्महत्याओं पर जाते हेेै जो समस्या बेहद हृदयविदारक है। आत्महत्या वैसे ही हृदय विदारक है पर यदि देश का अन्नदाता और सबसे इमानदार पेशा का कर्ता किसान यदि आत्महत्या करता है तो यह और भी हृदय विदारक है। कही न कहीं यह समस्या कृषि की आर्थिक मनोवैज्ञानिक स्थिति से जुड़ी है। देखा जाए तो इस समस्या का निदान देश की खेती को लाभकारी पेशे बनाने की गारंटी से जुड़ा है जिसके लिये न्यूनतम और अधिकतम कीमत की नीति लाना बेहद जरूरी है। देखा जाए तो आत्महत्या करने वाले ज्यादातर किसान नकदी फसलों के उत्पादक हैं चाहे वह आंध्र महाराष्ट्र के कपास उत्पादक हों या फिर पंजाब के व्यवसायिक खेती करने वाले किसान हो।
हमारा मानना है कि सरकार किसानों को कर्ज की सुविधा दे रही है पर खेती लाभकारी नहीं होने और अन्य व्यक्तिगत समस्याओं की वजह से वह बैंक से लिये कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं होने को लेकर बेहद निराश हो जाता है। वह बड़े कारपोरेट की मन: स्थिति नहीं रखता जो चोरी भी करते हैं और सीनाजोरी भी करते हैं जो बैंकों से अरबों का कर्ज लेकर उसे डकार जाते हेैं और अपने उद्योग को बीमार घोषित कर देते हैं और मजे में घूमते हेंै। किसान जिनके नाम पर महानगरों और बड़े शहरों में लोग कर्जे ले लेते हेै और यह राशि करोड़ों में होती है और इसे उद्योग में निवेश किया जाता है। परंतु वह किसान जो महज लाख में कर्ज लेता है वह अपने फसल के मारे जाने या बेहतर दाम नहीं मिलने या अपनी पारिवारिक समस्या में उलझ जाने की वजह से परेशान रहता है और उसकी मनोव्यथा इस आलम तक पहुंच जाती है जब उसे लगता है कि कर्ज लिये पैसे की भरपाई तो वह नहीं कर पाएगा अत: जान देकर ही इससे मुक्ति पा ली जाए।
मतलब ये है कि खेती का समूचा परिवेश इतने बड़े निराशावाद में चला गया है जिससे उबरने के लिये इसमे मूलभूत सुधारों को हर हाल में लाना ही पड़ेगा। जो तर्क पहले यूपीए सरकार के कृषि मंत्री देते थे कि गैर कृषि जनित कारणों से किसान आत्महत्या करते हेंै और अब वही तर्क एनडीए सरकार के कृषि मंत्री भी दोहरा रहे हैं। मतलब साफ है कि कोई भी सरकार कृषि की परिस्थितियों में आमूल चूल परिवर्तन लाने के लिये तैयार नहीं है और सिर्फ चीनी चटाने की कवायदें चल रही हैं। यूपीए ने 2००8 के दौरान 7० हजार करोड़ रुपये के किसान कर्जे की माफी की परंतु आत्महत्याएं नहीं रुकी बल्कि इससे अर्थव्यव्स्था में संकट भी आ गया, मुद्रा स्फीति बढ़ गयी। इससे बेहतर है कि सरकार खेती को फायदे का पेशा सुनिश्चित करें और फसल नुकसान की शत प्रतिशत गारंटी हो। कर्ज लेने की उन्हें जरूरत ही ना पड़े। फिर कम से कम आत्महत्या कृषि जनित कारणों से नहीं होगी। बाकी किसान परिवार की माली हालत तो खेती पेशे के विस्तार, स्थानापन्न और परिवार के सदस्यों क ो अलग अलग पेशों में नियोजन के जरिये हीं संभव है।
अंत में हमारा मानना है कि किसानों के नाम पर हम हर तरह के किसानों को एक तराजू पर तौले तो यह ठीक नहीं। यदि शहरों महानगरों में किसान अपनी जमीन व प्रोपर्टी की बिक्री या किराये से करोड़ों अरबों की आमदनी करता है तो उस पर आयकर लगना चाहिए। इसी आड़ में महानगरों व बड़े शहरों में फार्म हाउस का प्रचलन बढ़ा है जिसे खेती के नाम पर बेहद रियायती दरों पर बड़े पूंजीपति व कारपोरेट फार्म हाउस रखते हैं और सरकार का राजस्व मारा जाता है। इसी तरह जो किसान 5० एकड़ से उपर का मालिक का है उन्हें क र अदा करना चाहिए जिसे गरीब किसानों व बेघर लोगों को दिया जाए। 

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