Friday, April 3, 2015

सरकारों के प्रदर्शन और राजनीतिक दलों की बेहतर घोषणाओं की कसौटी आखिर क्या हो?

आमतौर से यह सवाल बेहद मौजू है कि आखिर किसी भी केन्द्रीय, प्रांतीय और स्थानीय सरकारों  और इनकी विधायिका के जन प्रतिनिधि गण के प्रदर्शन और क्रियाकलाप की आखिर कौन सी कसौटी तय की जानी चाहिए  जिसके आधार पर मीडिया विश£ेषक और विपक्षी दल उनकी तारीफें करें या उन कसौटियों के खिलाफ जाने पर उसकी आलोचना करें। इसी तरह इन्हीं कसौटियों पर मतदाता उन्हें दूसरी बार पुन: जीताएं या हराएं। क्योंकि होता ये है कि सरकारों का और राजनीतिक दलों का भी एक बेहतर व सर्वमान्य प्रदर्शन मानक नहीं होने की वजह से लोग अपने अपने ढ़ंग से बे सिर पैर तरीके से सरकारों और चुनावी दलों की समीक्षा करते हैं।
यदि हम देशों के संविधान और शासकीय कानूनों के बेहतर अनुपालन को वहां के सत्तारूढ़ दलों या तीन टायर लोकतांत्रिक सरकार के प्रदर्शन की कसौटी मान लें जिस पर पर आम तौर पर सभी सरकारें चलने का कार्य भी करती हैं, तो इस आधार पर होता ये है कि सरकारों को अपने कार्यकाल में कम से कम न्यायपालिका के कोपभाजन बनने से मुक्ति जरूर मिल जाती है। पर यह जरूरी नहीं कि फकत इन पहलुओं पर मीडिया विश£ेषक और मतदाता उन्हेंं दोबारा अपना समर्थन दे दें।
सरकारों से अलग बहुदलीय लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों  की भी बात करें कि उनके प्रदर्शन, संगठन और घोषणा पत्र की भी आखिर कौन सी कसौटी हो जो मीडिया विश£ेषक और मुख्य रूप से मतदाताओं को उन्हें समर्थन या विरोध करने के लिये उत्प्रेरित करें।
उपरोक्त दोनों चीजें किसी भी देश की लोकतांत्रिक राजनीति की सफलता के लिये बेहद महत्वपूर्ण है। अगर भारतीय लोकतंत्र और इसके पिछले साठ पैसठ सालों के इतिहास पर गौर करें तो हम पाएंगे कि इस दौरान यहां सरकारों और राजनीतिक दलों की चुनावी सफलता को मूल रूप से दो तत्वों ने प्रमुख रूप से सुनिश्चित किया है। इनमें पहला है उनकी पहचान व भावुकता आधारित राजनीति जिसमे जाति, धर्म, प्रांत, भाषा, स्थानीय संस्कृति, राजनीतिक खानदान वगैरह का चुनावी उपादानों में भरपूर तरीके से इस्तेमाल करना जिससे लोग आसानी से गोलबंद हो जाते हैं और उनका वोटबैंक तैयार हो जाता है। और दूसरा तत्व है जिसनेे पिछले सालों में भारत की चुनावी राजनीति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह है सरकारों के लोकलुभावन क्रियाकलाप और इसके बरक्क्ष चुनाव में भागीदार राजनीतिक दलों की लोकलुभावन और खजाना लूटावन घोषणाएं।
अब प्रश्र ये है कि क्या हम सरकारों के प्रदर्शन और चुनावी दलों के लिये मत देने का वास्तव में कोई संवैधानिक पैमाना निर्धारित करना चाहते हैं या मतदाताओं को सहज सरल और त्वरित रूप से उत्प्रेरित क रने व लाभ पहुंचाने वाले उपरोक्त दोनों तौर तरीकें को ही चलाये रखना चाहते हैं। हमें यह तय करना होगा कि समूचे सिस्टम में लोगों को इंपावर करने वाले तत्वों को सरकारों के प्रदर्शन को मुख्य कसौटी बनाना चाहते हैं या चुनावी लोकतंत्र की अंकगणितीय जरूरत की किसी भी तरह से खानापूर्ति करना चाहते हैं। पिछले साठ सत्तर सालों की भारतीय लोकतंत्र की यात्रा में सरकारों में शामिल उच्च निर्वाचित नेतृत्व और जनप्रतिनिधियों की पात्रता, योगयता, क्षमता और प्रदर्शन तथा राजनीतिक दलों के चुनावी कार्यकलाप का कोई संहिताबद्ध मानक बिंदू ना तो संविधान में निर्धारित किया गया है और ना ही मीडिया विश£ेषकों की तरफ से इस पर कोई निर्धारित कसौटी आजमायी जाती रही है।
अभी तक भारत में पहचान की राजनीति, परिस्थतिजन्य पहल और लोकलुभावन घोषणाओं के आधार पर जो राजनीतिक दल पहली या दूसरी बार चुनाव जीतती हैं उन्हें मीडिया नथिंग सक्सीड लाइक सक्सेस के आधार पर उनका यशोगान करता है। परंतु तटस्थ राजनीतिक विश£ेषकों और एक आदर्श व प्रगतिगामी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में यकीन रखने वाले बुद्धिजीवियों के लिये तो ये सभी चुनाव परिणाम एक मानक कसौटी की नजर से अभी तक पहेली बनते आए हैं। इसलिये पिछले साठ सालों में हुए तमाम चुनावी परिणामों का कोई स्पष्ट पैमाना या समरूप कारण निकाल पाना बेहद मुश्किल है।
यह तो पिछले एक दो चुनावों से यह देखा जा रहा है कि गुड गवर्नेन्स या भ्रष्टाचार निवारण जैसे शब्द सभी दलों के चुनावी नारों और घोषणा पत्र में स्थान पाने लगे हंै अन्यथा विगत के चुनावों पर नजर डालें तो अबतक वूहत रूप से यही दिखा कि या तो एकदलीय प्रभुता व एकछत्र नेतृत्व के व्यक्तित्व का प्रभाव रहा, लोकलुभावन नारों और स्कीमों का प्रचलन, परिवारवाद, कमजोर विपक्ष, प्रतियोगी लोकतांत्रिक वातावरण का अभाव, बहुदलीय संघवाद जैसे कारक महत्वपूर्ण रहे, वही सूक्ष्म स्तर पर करीब करीब सभी दलों के प्रतिनिधियों की विजय में वही जाति, मजहब, प्रांतीयता, भाषा, संस्कृति एवं खानदानवाद जैसे कारकों का असर रहा। उपरोक्त दोनों के अलावा पिछले साठ सत्तर सालों में भारतीय चुनावों में मनी व मसल पावर का भी बेहद असरकारी प्रभाव रहा है। परंतु शुक्र है कि इन दोनों कारकों को भारत की चुनाव मशीनरी ने काफी हद तक काबू किया है परंतु धनशक्ति का प्रभाव चुनावों में अभी भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से काफी बड़ी भूमिका निभा रहा है।
अब प्रश्र है कि करीब साठ सालों तक उपरोक्त तीनों तत्वों के लोकतांत्रित राजनीति में वर्चस्व में रहने के बाद अब जबकि देश में भ्रष्टाचार रहित प्रशासन व गुड गवर्नेन्स के कारक अब हमारे पब्लिक डोमेन के प्रचलित शब्द बन रहे हैं जो कि अपने आप में एक बेहद शुभ लक्षण हैं। ऐसे में समय की नजाकत को देखते हुए हमें कही न कहीं सरकारों व राजनीतिक दलों के प्रदर्शन का एक मानक और अधिमानित कसौटी निर्धारित करनी ही चाहिए। पर यह कसौटी अनौपचारिक तरीके की, स्वैच्छिक तरीके की और प्रवचनी तरीके की नहीं होनी चाहिए। अन्यथा सत्तारूढ़ दल की शैली बदस्तुर वही रहेगी कि चुनाव के छह महीने या साल भर पहले ताबड़तोड़ लोकलुभावन घोषणाएं करो, देश में युद्ध या कोई राष्ट्रवादी भावना बहाल करों या चुनाव में बेतरतीब पैसे खरचों, बेहद आक्रामक तरीके से प्रचार अभियान चलाने जैसे तत्वों पर चुनाव परिणाम निर्भर रहता आयेगा।
दूसरी तरफ विपक्ष दलों द्वारा ये होगा कि सत्तारूढ़ दल से कई कदम आगे जाकर लोकलुभावन घोषणाएं करों, सरकार के कार्यकलाप और प्रदर्शन को लेकर सीमा और अनुपात से ज्यादा  आलोचनाएं करो और अपने फिजूल के लटकों झटकों से जनता की सहानुभूति हासिल करो वगैरह वगैरह। हमारी लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति में एक शब्द हर चुनाव में सुनायी देता है वह है प्रो इन्क मबेंसी और एंटी इन्कंमबेंसी। मतलब मौजूदा सरकार के समर्थन की जनभावना और मौजूदा सरकार के विरोध की जनभावना। परंतु ये दोनों स्थितियां जिसमे या तो सत्तारूढ़ दल की जीत होती है या पराजय, दरअसल किसी कसौटियों से जुड़ी नहीं है बल्कि अनिश्चित परिस्थितिजन्य कारकों से जुड़ी है।
सत्ताधारी और विपक्षी दलों द्वारा अपनाये जाने वाले ये दोनों तरीके बहुदलीय प्रतियोगी लोकतंत्र और सक्षम लोकतांत्रिक सरकार गठित करने की कसौटी नहीं हो सकती। हमें इनको लेकर कसौटियों की एक ऐसी आदर्श और वैज्ञानिक संहिता निर्धारित करनी होगी जो कहीं से ना तो मीडिया के लेाकप्रिय जूमलों पर आधारित हो और ना ही बुद्धिजीवियों के थोथे प्रवचनों के जरिये निर्धारित होनी चाहिए। हमे इन कसौटियों को लोकतंत्र के सर्वप्रमुख और प्रामाणिक आधार संविधान और संविधानवाद के सिद्धांतों के जरिये ही निर्धारित करनी होगी। हमारा संविधान इन कसौटियों को लेकर वस्तुनिष्ठ है, तकनीकी है पर विषयनिष्ठ नहीं। संविधान में केवल यह उल्लिखित है कि जिस भी पार्टी को साधारण बहुमत मिलेगा वह सरकार का गठन करेगा। बस लोकतंत्र के सारे आदर्शों की यही इतिश्री कर दी जाती है यह सोचकर कि देश में इससे कम से कम कोई सैन्य विद्रोह नहीं होगा और हमारे लोकतंत्र की सफलता की यही पहचान होगी।
दूसरी तरफ देश में विभिन्न राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप, उनके संगठन की रूप रेखा और चुनावी हलचलों के निष्पादन और इसकी मोनिटरिंग के लिये चुनाव आयोग गठित किया गया है। परंतु चुनाव आयोग के पास भारतीय जनप्रतिनिधित्व कानून जो अपने आप में बहुत पूर्ण नहीं है उसके अलावा ऐसा कोई अस्त्र नहीं है जो चुनावी दलों को ढंग से नियंत्रित करे और उनकी समूची कार्यप्रणाली में व्यापक सुधारों को सुनिश्चित करे। यही वजह है कि सत्ता व विपक्ष दोनों दलों में जनता में सस्ती लोकप्रियता हासिल करने तथा वर्गीय तुष्टिकरण के क्रियाकलापों के जरिये वोट बैंक पालीटिक्स को प्रश्रय देने का प्रचलन बदस्तुर बना हुआ है। अत: ऐसे में सरकारों के प्रदर्शन, राजनीतिक दलों के क्रियाकलाप को निर्धारित करने वाली एक व्यापक संवैधानिक कसौटी जबतक निर्धारित नहीं होगी तबतब वास्तव में लोकतंत्र का सही और शुद्ध विकास संभव होगा और ना हीं लोकतांत्रिक राजनीति के जरिये भ्रष्टाचार पर रोक व सुशासन की प्राप्ति संभव होगी।
गौरतलब है कि गुड गवर्नेन्स और भ्रष्टाचार मुक्त शासन व्यवस्था अपने आप में सरकारों और राजनीतिक दलों के प्रदर्शन की कसौटी केे दो बेहतर शब्द है जिसे स्पेल आउट कर इसके लिये एक नहीं अनेक मानकों के निर्धारण और सांगठनिक व संस्थागत सुधारों के जरिये इसकी व्यापक कसौटी निर्धारित की जा सकती है। यह अच्छा होगा कि सरकारों से पहले हम राजनीतिक दलों के तौर पर कसौटियों का चयन करें जो कि सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल दोनों पर लागू होगा।
कसौटी के तत्व
चुनाव में भाग लेने वाले राजनीतिक दलों के लिये पहली मानक कसौटी है उनके चुनावी उम्मीदवार की योगयता। इस योज्यता में शैक्षिक योज्यता के साथ पब्लिक लीडरशिप की अर्हता से जुड़े सभी पहलुओं का समावेश, मसलन अपने चुनावी क्षेत्र के भूगोल, समाज, अर्थव्यवस्था, मानव संसाधन, प्राकृतिक संसाधन तथा सभी तरह के समस्याओं पर जो अपनी पैनी नजर रखता हो। जिसमे अपने चुनावी क्षेत्र के समाजिक आर्थिक नियोजन का बेहतर विजन, चरित्र, ईमानदारी, छवि, नैतिकतावादी, सभी वर्ग के लोगों की बेहतरी की योजना हो। जो अपने क्षेत्र की जनसमस्या के प्रति बेहद सचेत और संवेदनशील हो। यह बेहद विडंबनाजनक बात है कि संविधान में हमने जनप्रतिनिधि की अर्हता के कारक को क्षीण बना दिया।
हमने लोकतंत्र की सिर्फ खानापूर्ति की तभी हमने इसे लोकतंत्र नहीं फकत प्रतिनिधि लोकतंत्र बना दिया। भले वह प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के लाखों लोगों के जीवन में परिवर्तन और बेहतरी लाने की सामथ्र्य नहीं रखता हो। आम तौर पर भारतीय लोकतंत्र में चुनावी उम्मीदवारों का चयन अभी तक पार्टी और उसके नेता की विहम्स एंड फैंसीज, चुनाव क्षेत्र के जातीय धार्मिक समीकरण, पार्टी में झंडा उठाने और नारे लगाने का कितना लंबा अनुभव हासिल हो या फिर चुनावी उम्मीदवारा बाहु बल और धनबल से कितना लवरेज है, इसी आधार पर उम्मीदवारी तय होती आयी है। हमने उपरोक्त में  उम्मीदवरों की अर्हता के बिंदूओं को लेकर जो चर्चा की, उसके तहत तो बेहद चंद लोग हीे होते हैं। यह बड़ा जरूरी है कि संविधान इस चुनावी उम्मीदवार की इस कसौटी को निर्धारित करें चाहे वह पार्टी का उम्मीदवार हो या निर्दलीय, जो एक अधिमानित सार्वजनिन व्यक्तित्व का मालिक हो।
अभी तक हमारी अवधारणा आम आदमी, अर्धशिक्षित और अपूर्ण शिक्षित और झंडा उठाने वाले कार्यकर्ता जिसकी जाति धर्म उसके चुनावी क्षेत्र में शूट करती है, उसी को चुनावी उम्मीदवार बनाने की रहती आयी है। आज हमारे यहां उम्मीदवार के अपराध के रिकार्ड को लेकर थोड़ी बहुत संचेतना जरूर पनपी है पर सबसे अहम जनप्रतिनिधित्व की गुणवत्ता है। हमे सबसे पहले समझना होगा कि नेता की परिभाषा क्या होना चाहिए। हमारी समझ से नेता की परिभाषा यही कहती है कि वह व्यक्ति जो अपने लोगों, समुदाय और समर्थकों को अपने साथ बेहद सही राह पर ले चले। यह कार्य तभी संभव है जब वह राह दिखाने वाला व्यक्ति या नेता अपने समुदाय में सबसे ज्यादा सुलझा, योगय, काबिल, गुणवान, संप्रेषक, ईमानदार और संवेदनशील हो। परंतु व्यवहार में क्या दिखता है,जाति धर्म पैसा पाउच तथा बाहू बल, धन बल और रसूख बल के आधार पर लोग पार्टियों के टिकट पाते हैं।
आज सारी पार्टियां उम्मीदवारों के चयन का यही आधार तय करती है। यही पर हमारा लोकतंत्र बेमानी और खानापूर्ति तंत्र बनकर रह जाता है। हमारे बुद्धिजीवी और मीडिया नवीस लोग इसके लिये राजनीतिक दलों को दोष देते हैं, परंतु वह उनका दोष नहीं है, यह दोष संविधान का है जिसमे इस बात को लेकर कोई उपबंध नहंीं है। राजनीतिक दलों का काम सुधार लाना नहीं बल्कि उनका लक्ष्य मौजूदा लोकतांत्रिक परिस्थितियों में चुनावी जीत हासिल करना है। जब सभी पार्टीगत और निर्दलय उम्मीदवारों की पात्रता बेहतर होगी तो जाहिर है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि भी बेेहतर पात्र होंगे, मंत्रियों की कार्यदक्षता बेहतर होगी, विधानमंडलों की कार्यवाहियां और कार्रवाईयां जनोन्मुखी और मुल्क की बेहतरी के लिये होगी।
दूसरी कसौटी राजनीतिक पार्टियों की समूची कार्यप्रणाली को लेकर है।
देखा जाए तो आज हर पार्टी का संगठन, सिद्धांत, साइज या तो पहचान की राजनीति को तवज्जो देता या फिर लोकलुभावन शैली को अपनाता है। क्योंकि हमारी लोकतांत्रित राजनीति की लेवल प्लेइंग की कुछ इस तरह से संरचित की गई जिसे संविधानवाद के जरिये किसी तरह के दिशा निर्देश की कोई नकेल नहीं लगी है। कुछ दिनों पहले न्यायालयों ने अपने अपने तरीकें से भारतीय राजनीतिक दलों को कई तरह से निर्देश दिये, मसलन राजनीतिक दलों के जातीय व मजहबी रैलियों पर रोक लगेे, पार्टियों क ो मिलने वाले चंदे पूरे तौर पर पारदर्शी बने, चुनाव में बाहुलबलियों को निषिद्ध ठहराया जाए और पार्टियों के भीतर सूचना के अधिकार कानून लागू किये जाए वगैरह वगैरह। परंतु ये फैसले हमारी पार्टियों को नागवार लगे और इसकी उन्होंने काट निकालनी शुरू कर दी। यदि यही चीजें संविधानगत होती तो फिर इसे लेकर कोई समस्या नहीं थी। शुक्र है कि सजायाफ्ता अपराधी को चुनाव लडऩे पर छह साल का प्रतिबंध लगाने का फैसला ले लिया गया।
देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के भीतर की कार्यप्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन लाने की जरूरत है। चाहे वह सदस्यता को लेकर हो। चाहे वह उम्मीदवार की स्क्रीनिंग के तरीके के लेकर हो। चाहे कार्यकर्ताओं के कैडर, उनके प्रशिक्षण और उनक ी आजीविका को लेकर हो, नेताओं के प्रोमोशन को लेकर हो, चाहे पार्टी में देश के गुड गवर्नेन्स को लेकर होने वाले पालिसी रिसर्च को लेकर हो, जनसमस्याओं की रिपोर्टिंग को लेकर हो या जन समस्या और राष्ट्रीय समस्या के बेहतर समाधान की तरकीब लाने को लेकर हो वगैरह वगैरह। इसके लिये संविधान के जरिये एक व्यापक दिशा निर्देश बनाये जाने की जरूरत है जिससे पार्टियों को परिवारवाद, वंशवाद, धनवाद, बाहुबलवाद, जातिवाद, मजहबवाद और तमाम तरह के नकारात्मकतावाद से मुक्त कर उन्हें पूरे तौर पर एक पेशेवर, आधुनिक, व्यापक, न्यायशील और सर्वसमावेशी रूप दिया जा सके।
भारत के करीब सभी राजनीतिक दल जब सत्ता से बाहर रहते है तो वेे गुड गवर्नेन्स और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन लाने को लेकर कोई पालिसी रिसर्च या इंपलीमेंटेशन मेकानिज्म बनाने में तल्लीन नहीं रहते बल्कि जातीय एवं धार्मिक आधार पर मतदाताओं के आंकडें तैयार किये जाते हैं और गैर मुद्दों को लेकर एक्टीविज्म में संलग्र रहते हैं। वहीं जब ये पार्टियां सत्ता में होती है तो ये सारे कार्य नौकरशाहों के भरोसे संचालित करते हैं जिसकी हमारे संविधान ने इनकी पब्लिक एकांउटेबिलिटि तय ही नहीं की है। सत्ताधारी दल के लोग अपने अपने जनसमस्याओं को लेकर बेहतर रिपोर्टिंंग का कार्य नहीं कर इनके द्वारा अपने समर्थकों रिश्तेदारों को को  ठेके दिलाने, किसी की ट्रांसफर पोस्टिंग कराने और किसी को निजी प्रत्यक्ष लाभ दिलाने वास्ते इनके कार्यकर्ता मंत्रियों के यहां लाबिंग करते हैं या दलाली करते हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि हमारे संविधान ने बहुदलीय लोकतंत्र के मातहत पार्टियों कि कार्यकलाप का एक बेहतर माडय़ूल हीं तय नहीं किया है। उम्मीदवारों और पार्टियों के लिये ये दोनों कसौटी निर्धारित करना बेहद जरूरी है।
क्रमश:......

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